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  • जय जगदम्बे माँ पर कविता

    दुर्गा या आदिशक्ति हिन्दुओं की प्रमुख देवी मानी जाती हैं जिन्हें माता, देवीशक्ति, आध्या शक्ति, भगवती, माता रानी, जगत जननी जग्दम्बा, परमेश्वरी, परम सनातनी देवी आदि नामों से भी जाना जाता हैं। शाक्त सम्प्रदाय की वह मुख्य देवी हैं। दुर्गा को आदि शक्ति, परम भगवती परब्रह्म बताया गया है।

    durgamata

    जय जगदम्बे माँ पर कविता

    विंध्यवासिनी, पाप नाशनी जय जगदम्बे माँ |
    हे जग जननी, सिंह वाहिनी , पार उतारो माँ |

    घर-घर में दरबार सजा है, भक्त पुकारे माँ |
    कौन हमारा सिवा तुम्हारे, तेरे सहारे माँ |
    आकर हमको दर्शन दे दो, भाग संवारो माँ |
    हे जगजननी, सिंहवाहिनी, पार उतारो माँ |

    तेरे चरणों की भक्ति की कभी बुझे ना प्यास |
    अपनी कृपा से जग जननी भरो नया विश्वास |
    हम अज्ञानी बालक तेरे ज्ञान जगा दो माँ |
    हे जग जननी, सिंह वाहिनी, पार उतारो माँ |

    दुष्टों का संहार करो माँ, रखो सबकी लाज |
    दीन-दुखी, निर्बल को माता शक्ति दे दो आज |
    आस लगाकर बैठे हैं सब द्वार पधारो माँ |
    हे जगजननी, सिंहवाहिनी, पार उतारो माँ ||

    हरीश बिष्ट “शतदल”

  • कहानी सम्राट मुंशी प्रेमचंद जी पर कविता

    कहानी सम्राट मुंशी प्रेमचंद जी पर कविता

    कहानी सम्राट मुंशी प्रेमचंद जी पर कविता

    कहानी सम्राट मुंशी प्रेमचंद जी पर कविता

    हाँ मुंशी प्रेमचंद जी , साहित्यकार थे ऐसे
    मानवता की नस-नस को पहचान रहे हों जैसे।


    सन् अठ्ठारह सौ अस्सी में अंतिम हुई जुलाई
    तब जिला बनारस में ही लमही भी दिया सुनाई
    आनंदी और अजायब जी ने थी खुशी मनाई
    बेटे धनपत को पाया, सुग्गी ने पाया भाई
    फिर माता और पिता जी बचपन में छूटे ऐसे
    बेटे धनपत से मानो सुख रूठ गए हों जैसे।


    उर्दू में थे ‘नवाब’ जी हिंदी लेखन में आए
    विधि का विधान था ऐसा यह प्रेमचंद कहलाए
    लोगों ने उनको जाना दुखियों के दु:ख सहलाए
    घावों पर मरहम बनकर निर्धन लोगों को भाए
    अपनाया था जीवन में शिवरानी जी को ऐसे
    जब मिलकर साथ रहें दो, सूनापन लगे न जैसे।


    बी.ए. तक शिक्षा पाई, अध्यापन को अपनाया
    डिप्टी इंस्पेक्टर का पद शिक्षा विभाग में पाया
    उसको भी छोड़ दिया फिर संपादन उनको भाया
    तब पत्र-पत्रिकाओं में लेखन को ही पनपाया
    फिर फिल्म कंपनी में भी, मुंबई गए वे ऐसे
    जब दीपक बुझने को हो, तब चमक दिखाता जैसे।


    उन्नीस सौ छत्तीस में अक्टूबर आठ आ गई
    क्यों हाय जलोदर जैसी बीमारी उन्हें खा गई
    अर्थी लमही से काशी मणिकर्णिका घाट पा गई
    थोड़े से लोग साथ थे, गुमनामी उन्हें भा गई
    बेटे श्रीपत, अमृत को, वे छोड़ गए तब ऐसे
    बेटों से नाम चलेगा, दुनिया में जैसे- तैसे।

    उपमेंद्र सक्सेना

    ‘कुमुद- निवास’
    बरेली (उ० प्र०)
    मोबा०- 98379 44187

  • शुभ्र शरद पूर्णिमा – बाबूलाल शर्मा

    शुभ्र शरद पूर्णिमा – बाबूलाल शर्मा

    शुभ्र शरद पूर्णिमा – बाबूलाल शर्मा

    शुभ्र शरद शुभ पूर्णिमा, लिए शीत संकेत।
    कर सोलह शृंगार दे, चंद्र प्रभा घर खेत।।

    दक्षिण पथ रवि रथ चले, शरद पूर्णिमा देख।
    कृषक फसल के बीज ले, हल से लिखे सुलेख।

    श्वाँस कास उपचार हित, खीर चाँदनी युक्त।
    उत्तम औषधि वैद्य दे, करे रोग से मुक्त।।

    सुधा बरसता चन्द्र से, कहते मनुज प्रबुद्ध।
    शरद पूर्णिमा रात में, वैद्य करे रस सिद्ध।।

    देख शरद की ज्योत्स्ना, बढ़ जाता उत्साह।
    प्रीति रीति संयोग से, मिटता नर हिय दाह।।

    शर्मा बाबू लाल नित, बनकर काव्य चकोर।
    तके लिखे भव छंद नव, चन्दा बना अकोर।।

    बाबू लाल शर्मा, बौहरा, विज्ञ
    निवासी – सिकंदरा, दौसा
    राजस्थान ३०३३२६

  • समझाये सबो मोला (छत्तीसगढ़ी गजल)

    पगला कहे दुनिया समझाये सबो मोला ।
    का तोर मया हे दिखलाये सबो मोला ।।

    मन मोर भरम जाये वो ही गोठ ला करथें
    दुरिहा चले जावों भरमाये सबो मोला ।

    मँगनी के मया नोहे मया हावे जनम के
    निंदा करें सब झन बिचकाये सबो मोला ।

    कइसे तोला छोड़ँव मर जाहूँ लगे अइसे
    अर्थी मा मढ़ाये अलगाये सबो मोला ।

    अब तोर बिना सपना सबो अँगरा लगे हे
    सपना मोला खोजे दँवलाये सबो मोला ।

    गुन गुन के परेशान करे मोर जँवारा
    काँटा के बिछौना घिरलाये सबो मोला ।

    का नाम धरे हस तै बता दे ये मयारू
    चिनहा बता अब तो मँगवाये सबो मोला ।

    कोशिश करे दुनिया मर जाये अब मुदिता
    दिन रात हे पाछू सुलगाये सबो मोला ।

    *माधुरी डड़सेना"मुदिता"*

  • कतको दीवाना हे (छत्तीसगढ़ी गजल)

    कतको दीवाना हे (छत्तीसगढ़ी गजल)

    किस्मत के सितारा हा चमक जाही लगत हे ।
    मन तोर दीवाना हे भटक जाही लगत हे ।।

    खुशबू ले भरे तन मा रथे मन घलो सुंदर
    तोर तीर जमाना ये जटक जाही लगत हे ।

    कतको दीवाना हे अउ कतको अभी होही
    कतको इहाँ फाँसी मा लटक जाही लगत हे ।

    अब रोज नियम बनथे जाबे जे शहर मा
    आगू जब तैं आये भसक जाही लगत हे ।

    वादा तैं करे रोज मिले बर हे अकेला
    मौका जे मिले आज बिचक जाही लगत हे ।

    मन आज दरस माँगे नवा रोग लगे हे
    तोला देख सबो रोग दबक जाही लगत हे ।

    अब तोर भरोसा के इहाँ जरूरत हे मोला
    डोंगा ये भँवर बीच अटक जाही लगत हे ।

    ये ताजमहल मोर बनन दे ऐ मुदिता
    सब तोर बिना जोड़ी धसक जाही लगत हे ।

    माधुरी डड़सेना ” मुदिता “