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  • मेरा भारत देश महान (16-15 मापनी नवगीत)

    मेरा भारत देश महान (16-15 मापनी नवगीत)

    मेरा भारत देश महान (16-15 मापनी नवगीत)

    mera bharat mahan


    पाटी पर खड़िया से लिख दूँ
    मेरा भारत देश महान।
    पढ़ लिख कर मैं कवि बन गाऊँ
    भारत माता के गुणगान।।

    बाबा चिन्ता मत कर मेरी
    लौटेंगे बीते दिन रीत
    दिनकर बनकर गीत लिखूँगा
    छंद लिखूँगा माँ की प्रीत

    गाएँगे सब शाम सवेरे
    ऐसी लिखूँ तिरंगा तान।
    पाटी……………….,..।।

    पोथी कलम दिलाना मुझको
    कुछ ही दिन बस सहने कष्ट
    संग तुम्हारे चलूँ कमाने
    विपदाएँ सब होंगी नष्ट

    दिन में काम करेंगें मिलकर
    तब लाएँ घर में सामान।
    पाटी……………………..।।

    याद मात की मुझे रुलाती
    तुमको भी आती है याद
    पढूँ लिखूँ घर उन्नत होगा
    तभी मिटेंगे मनो विषाद

    हुलसी के तुलसी सा हूँ मै
    लिख दूँगा नूतन विज्ञान।
    पाटी……………………..।।

    रीति प्रीति की बात लिखूँ सब
    केशव से कविताई छंद
    देश धरा की लिखूँ वंदना
    मन के सपने जीवन द्वंद

    माँ का विरह, त्याग बापू का
    निज मन का लिख दूँ अज्ञान।
    पाटी……………………….।।


    बाबू लाल शर्मा *विज्ञ*
    बौहरा भवन
    सिकंदरा,दौसा, राजस्थान

  • मन पर कविता

    मन पर कविता

    kavita


    (१६,१६)

    मानव तन में मन होता है,
    जागृत मन चेतन होता है,
    अर्द्धचेतना मन सपनों मे,
    शेष बचे अवचेतन जाने,
    मन की गति मन ही पहचाने।

    मन के भिन्न भिन्न भागों में,
    इड़, ईगो अरु सुपर इगो में।
    मन मस्तिष्क प्रकार्य होता,
    मन ही भटके मन की माने,
    मन की गति मन ही पहचाने।

    मन करता मन की ही बातें,
    जागत सोवत सपने रातें।
    मनचाहे दुतकार किसी का,
    मन,ही रीत प्रीत सनमाने,
    मन की गति मन ही पहचाने।

    मन चाहे मेले जन मन को,
    मेले में एकाकी पन को।
    कभी चाहता सभी कामना,
    पाना चाहे खोना जाने,
    मन की गति मन ही पहचाने।

    मन चाहे मैं गगन उड़ूँगा,
    सब तारो से बात करूँगा।
    स्वर्ग नर्क सब देखभाल कर,
    नये नये इतिहास रचाने,
    मन की गति मन ही पहचाने।

    सागर में मछली बन तरना,
    मुक्त गगन पंछी सा उड़ना।
    पर्वत पर्वत चढ़ता जाऊँ,
    जीना मरना मन अनुमाने,
    मन की गति मन ही पहचाने।

    मन ही सोचे जाति पंथ से,
    देश धरा व धर्म ग्रंथ से।
    बैर बाँधकर लड़ना मरना,
    कभी एकता के अफसाने,
    मन की गति मन ही पहचाने।

    मन की भाषा या परिभाषा,
    मन की माने,मन अभिलाषा।
    सच्चे मन से जगत कल्पना,
    अपराधी मन क्योंकर माने,
    मन की गति मन ही पहचाने।


    बाबू लाल शर्मा “बौहरा” *विज्ञ*

  • बाल भिक्षु पर कविता

    दर्द न जाने कोय….. बाल भिक्षु पर कविता
    (विधाता छंद मुक्तक)

    बाल भिक्षु पर कविता


    झुकी पलकें निहारें ये,
    रुपैये को प्रदाता को।
    जुबानें बन्द दोनो की,
    करें यों याद माता को।


    अनाथों ने, भिखारी नें,
    तुम्हारा क्या बिगाड़ा है,
    दया आती नहीं देखो,
    निठुर देवों विधाता को।

    बना लाचार जीवन को,
    अकेला छोड़ कर इनको।
    गये माँ बाप जाने क्यों,
    गरीबी खा गई जिनको।


    सुने अब कौन जो सोचें,
    पढाई या ठिकाने की,
    मिला खैरात ही जीवन,
    गुजर खैरात से तन को।

    गरीबी मार ऐसी है,
    कि जो मरने नहीं देती।
    बिचारा मान देती है,
    परीक्षा सख्त है लेती।


    निवाले कीमती लगते,
    रुपैया चाक के जैसा,
    विधाता के बने लेखे,
    करें ये भीख की खेती।

    अनाथों को अभावों का,
    सही यों साथ मिल जाता।
    विधाता से गरीबी का,
    महा वरदान जो पाता।


    निगाहें ढूँढ़ती रहती,
    कहीं दातार मिल जाए,
    व्यथा को आज मैं उनकी,
    सरे … बाजार हूँ गाता।

    किये क्या कर्म हैं ऐसे,
    सहे फल ये बिना बातें।
    न दिन को ठौर मिलती है,
    नही बीतें सुखी रातें।


    धरा ही मात है इनकी,
    पिता आकाश वासी है,
    समाजों की उदासीनी,
    कहाँ मनुजात जज्बातें।

    बाबूलाल शर्मा


  • आओ खेल खेलें- दीपा कुशवाहा

    “आओ खेल खेलें”

    कविता संग्रह
    कविता संग्रह

    एक कदम बढ़ाओ जोश दिखाओ
    छुपे अपने प्रतिभाओं को होश में लाओ
    जिम्मेदारियों की चादर में ढक गई
    अपनी खेल जिज्ञासा को जगाओ
    मजबूती की ढाल पकड़कर तुम
    नई उम्मीदों को सजाओ
    भूले बिसरे दोस्तों को बुलाओ
    जिंदगी में थोड़ा आनंद लाओ
    परिवार के साथ मिलकर भी
    चलो थोड़ा खेल को सजाओं
    विलय होते बीमारियों से
    अनमोल जीवन को बचाओ
    बचपन को याद करके
    कुछ पल बचपन में खो जाओ
    तमन्ना दिल में दबी हुई है
    उसको तो जरा जगाओ
    दुनिया की बोझ से उठकर थोड़ा
    खुद को भी अहसास दिलाओ
    दबी – दबी सी बुझी – बुझी सी
    एक आस जो बाकी है
    नीरज चोपड़ा से प्रभावित होकर
    जिन्दगी को ऊंचाइयों में ले जाओ
    खेल को जीवन में शामिल करके
    स्वर्ग को धरती में ले आओ ।



    कवियित्री – दीपा कुशवाहा
    अंबिकापुर, छत्तीसगढ

  • आओ खेलें खेल- वर्तिका दुबे

    आओ खेलें खेल- वर्तिका दुबे

    kavita



    आओ खेले खेल भइया आओ खेले खेल।
    खेल खेल में हो जाता है संस्कृतियों का मेल।
    खेल में होता दिमाग चुस्त शरीर स्वस्थ निरोगी।
    जीवन में आए संयम अनुशासन मन बन जाए योगी।
    आओ खेलें खेल – – – – – – – –

    अपनी दिनचर्या में हम खेलों को ऐसे करें शामिल।
    जैसे खाना , पीना , सोना , जगना है हर दिन।
    आओ खेले खेल – – – – – – – –

    ओलंपिक से राष्ट्रीय खेल में 8 स्वर्ण हम लाए।
    अब ऐसा क्या हो गया कि हम हॉकी के जादूगर को भूल जाएं।
    आओ खेलें खेल—-
    खेलों में हमने कितने ही बनाए कीर्तिमान।
    जिससे बढ़ता देश का सम्मान और होता गुणगान।
    आओ खेलें खेल—-
    41 वर्ष बाद हम फिर ले आए सोना।
    नीरज चोपड़ा ने भाला फेंका पुलकित हो गया कोना कोना।
    आओ खेलें खेल—–‘
    भावनाओं से खेलना छोड़ हम दिमाग का खेल दिखाएंI
    हर घर में हो एक खिलाड़ी हम अव्वल हो जाएं।
    आओ खेलें खेल—-
    अच्छे खेल से बढ़ेगा हमारा विश्व पटल पर मान।
    विश्व बंधुत्व की बढ़ेगी भावना खेलों में है वह जान।
    आओ खेलें खेल भइया आओ खेलें खेल।