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  • छत्तीसगढ़ महतारी /पुनीत राम सूर्यवंशी

    छत्तीसगढ़ महतारी /पुनीत राम सूर्यवंशी

    छत्तीसगढ़ महतारी/ पुनीत राम सूर्यवंशी

                  
    सुघ्घर हाबय छत्तीसगढ़ महतारी,
    एला कइथे भईया धान के कटोरा,
    आवव मयारू मितान संगवारी मन,
    नवा छत्तीसगढ़ राज बनाय बर हे।

    छत्तीसगढ़ महतारी /पुनीत राम सूर्यवंशी

     

    बोली-भाखा,जात-पात, छुआ-छुत ल,
    छोड़ के कहव हमन हाबन एखर संतान,
    महानदी, अरपा, पइरी, इंन्द्रावती नदी म,
    बांध बंधवा के खेत म पानी पहुंचाय बर हे।
    जम्मो कमाईया मन ल काम-बुता मिलय,
    देवभोग अऊ सोनाखान के खनिज ल,
    विदेशी मन के हाथ म खोंदन नि देवन,
    एला हमी मन बासी खा के खोंदे बर हे।
    जम्मो कोनो मजदूर-किसान मन ल,
    मया-परेम ले मिल-जुल के कमाहीं,
    छत्तीसगढ़ महतारी के कोनो संतान ल,
    भुख ले मरन नि देवन बरोबर खाय बर हे।
    धरती दाई ल मिल-जुल के करन सिंगार,
    छत्तीसगढ़ महतारी के हरिहर लुगरा ल,
    रूख-राई लगा के हरिहर-हरिहर रखन,
    छत्तीसगढ़ ल महर-महर महकाय बर हे।
    बईला-नागर चिखला-पानी ले बदे मितानी,
    छत्तीसगढ़ के भुईयां म रिकीम-रिकीम के,
    धान-चाउर उपजा के छत्तीसगढ़ ल,
    एक सवृद्शाली राज बनाय बर हे ।
                      (रचना वर्ष – 1995)
           रचनाकार- पुनीत राम सूर्यवंशी
           ग्राम-लुकाउपाली छतवन
           पोस्ट-रीकोकला
            जिला-बलौदाबाजर छत्तीसगढ़
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  • जो भारत विरोधी नारा लगाते

    जो भारत विरोधी नारा लगाते

    “जो भारत विरोधी नारा लगाते”
    अपनी भारत माता डरी हुई ,
    वो कुछ भी नही कह पाती है ।
    अपने कुछ गद्दारों के कारण,
    मन ही मन वो शर्माती है ।।
    पाल पोस कर बडा किया,
    इसकी आँगन मे ही खेले ।
    वो पिला रही थी दूध जिन्हें,
    पर निकले वही हैं जहरीले ।।
    इन्हीं जयचंदों के कारण ,
    मुगलों ने हम पर राज किया।
    इनसे बचा-खुचा जो था ,
    अंग्रेजों ने इसे बरबाद किया ।।
    इन्हीं नमक हरामों के कुकृत्यों पर,
    अंदर बहुत ही वह रो रही है ।
    ऎसे पापियों को न चाहकर भी,
    आज तक इन्हें ढो रही है ।।
    इसे गर्व है उन वीर सपूतों पर,
    जो प्राण न्योछावर कर देते।
    जो बुरी नजर डाले इस पर,
    वे प्राण ही उनका हर लेते ।।
    इसे गर्व है उन वीर जवानों पर,
    जो शरहद की है शान बढाते ।
    अपने दुखों को भूलकर भी,
    जो शान से तिरंगा हैं लहराते ।।
    इसे गर्व है उन देशवासियों पर,
    जो जान की बाजी लगाते हैँ।
    जो देश प्रेम के रस मे डूबे,
    दुनिया मे देश का नाम बढाते हैं ।।
    इसे गर्व है उन बेटियों पर,
    जो इसकी शोभा को बढाती हैं ।
    ईज्जत पर जब आँच आये तब,
    वे दुर्गा काली बन जाती हैं ।।
    पर इसकी आत्मा है चित्कारती,
    उन देशद्रोहियों के कारण ।
    जो भारत विरोधी नारा लगाते,
    और अशांति फैलाते अकारण ।
    कुछ गद्दारों  के कुकर्मों से,
    इसे घबराने वाली कोई बात नही ।
    जिसकी कोटि कोटि औलादें हैं,
    जो तलवारों के साथ खड़ीं ।।
    देशद्रोहियों  को सबक सिखाने,
    हर एक देशभक्त तैयार है ।
    जो भी इनका साथ दे रहे,
    उन पर भी करना प्रहार है ।।
    जो भी इनका साथ दे रहे,
    उन पर भी करना प्रहार है ।।
       मोहन श्रीवास्तव
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  • हकीकत तब पता चलता है

    हकीकत तब पता चलता है

    हकीकत तब पता चलता है                  
    कौन अपना है ,कौन पराया है ,
                                     ये तो वक़्त बताता है ।
    हकीकत तब पता चलता है जीवन में,
                        जब बुरा वक़्त आता है ।।01।।
    न कोई दोस्त है यहां,
                                     ना कोई यार है ।
    यह दुनियाँ भी यारों ,
                           मतलब का संसार है ।।02।।
    बुरे वक़्त में हालात तो क्या ?
                           परछाई भी साथ छोड़ देता है ।
    डुबते को तिनके की सहारा तो क्या ?
      पानी की बहाव भी ,
                        अपनी ओर खींच लेता है ।।03।।
    किसे यहाँ अपना कहें ,
                               ये हालात हमें सिखाता है ।
    हकीकत तब  पता चलता है जीवन में ,
                          जब बुरा वक़्त आता है ।।04।।
    आदर्श दिखाते हैं लोग ,
                              और कहते हैं,  हम हैं सच्चे ।
    देख लिए संस्कारी ,
                               वह भी अच्छे अच्छे ।।05।।
    संस्कार तो क्या व्यवहार भी ,
                         समय के साथ  बदल जाता है ।
    हकीकत तब पता चलता है जीवन में,
                         जब  बुरा वक़्त आता है ।।06
    जो जैसा है ,
                         वैसा दिखता नहीं ।
    जो जैसा दिखता है ,
                              वैसा है ही नहीं ।।07।।
    मैं तो क्या पूरी दुनियाँ  ही ,
                                  यहीं धोखा खाता है ।
    हकीकत तब पता चलता है ,
                           जब बुरा वक़्त आता है ।।08।।
    ✒️गंगाधर गांगुली “सुलेख “
                     “समाज सुधारक ,युवा कवि “
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  • निःशब्द तो नहीं

    निःशब्द तो नहीं


    [१]
    निःशब्द तो नहीं !
    किंचित् भी नहीं !!
    बस…
    नहीं हैं आज
    शहद या गुलाबी इत्र में
    डुबोये
    सुंदर-सुकोमल-सुगंधित शब्द
    नहीं हैं आज
    कर्णप्रिय,रसीले,
    बांसुरी के तानों संग
    गुनगुनाते अल्फाज़…
    सब जल गये !
    भस्म हो गये
    सारे के सारे
    अंतरिक्ष में विचरते
    छंद
    टूट-फूटकर
    बिखर गये सारे अलंकार
    निस्सार हो गयीं
    सारी व्यंजनाएँ
    लक्षणा भी हो गयीं सारी
    महत्त्वहीन..
    अब
    बचे हैं तो केवल
    उबड़-खाबड़
    कंटकाकीर्ण
    क्षिति पर पांव जमाते
    ……कुछ शब्द
    जो टटोलते हैं
    पैरों से अपना ज़मीन
    पैरों के अंगूठों से ही
    गाड़ते हैं अपना वज़ूद
    खिलते हैं जहाँ
    नागफनी के रक्ताभ टोहे
    जो रोते हैं…
    अक्सर..
    फफक-फफककर रोते हैं ,
    बड़बड़ाते हैं कुछ अस्फुट शब्द
    फिर चीत्कार उठते हैं ,
    छिटकती हैं-
    उनकी रक्तिम आँखों से
    पीली-नारंगी गरल की बूँदें
    क़लम भी फुफकारती-
    उगलती है चिंगारियाँ..
    उसके नीब-
    नाखूनों-से
    तीखे-नुकीले-नाखूनों-से
    चिरते हैं इतिहास के पन्ने..
    आज के परिवेश से नाख़ुश
    विचारोन्माद में
    क़दम-दर-क़दम
    करते कटाक्ष
    ठहराते कुसूरवार
    पुरानी पीढ़ियों को ही
    जड़ देते उनपर
    अपनी सारी असफलताएँ
    फिर वर्तमान के खाते पर
    उकेरते हैं
    भविष्य का लेखा-जोखा..
    परन्तु असुरक्षाबोध से चिंतित
    दबी-दबाई सांसारिक कुण्ठाएँ
    कभी-कभी कुलबुलाती हैं
    अतः दुर्वासनोत्कर्ष में
    दीवार की पीठ पर
    खींच जाती हैं स्वाभाविक
    और चुपचाप ओढ़ लेती हैं
    सभ्यता की साड़ियाँ
    पर…
    निःशब्द तो नहीं !
    किंचित् भी नहीं।।
    [२]
    मेरे अंदर का ‘क्षितिज’
    जो गुलाबों से इश्क़ करता है..
    जो पीछा करता है
    बीहड़ों में भी-
    मदहोश करने वाली
    सुरीली-फाहेदार-मीठी आवाज़ों का
    जो लोकगीतों में…
    तलाशता है
    पुरातन संस्कृतियों की नवीनता
    अब कौओं के गानों से
    सुर मिलाता
    सूँघता है आक के फूल
    आहिस्ता-आहिस्ता
    मौन हो जाता है कभी..
    कभी बड़बड़ाता है
    संवेदनाहीन नहीं
    सारहीन भी नहीं
    बिलकुल नहीं..
    केवल अर्थहीनता में
    वह
    चीखता है..चिल्लाता है
    जिन्हें
    यह सभ्य समाज
    अपशब्द कहता है,
    देखता है
    टेढ़ी नज़रों से
    पीठ पीछे कसता है ताने
    देता है
    विक्षिप्ता के नये-पुराने उपमान
    जो स्वयं असभ्यता की गहरी
    नालियों से निकलती
    रूढ़ियों के सढ़ी-बूढ़ी बदबूओं में
    है सराबोर…
    सीख गया है
    काले को सफ़ेद कहना
    और कुरीतियों में
    संस्कृति ढूँढ़ना
    जो सीख गया है
    निज स्वार्थ के लिये
    बलि को प्रसाद कहना
    यह सभ्य समाज
    किसके इशारे पर चलता है?
    किसके फरमान पर
    किसी विक्षिप्ता को
    ‘टोनही’ की संज्ञा दे
    बीच चौराहे पर
    ज़िंदा ही जला देता है??
    यह सभ्य समाज…
    किसके आग्रहानुग्रह से
    किसी वैश्या को
    साध्वी मान पूजने लगता है ??
    विरोधाभासों के पेण्डुलम में
    झूलता यह सभ्य समाज
    अपनी चाल बदल-बदल
    करता है आतंकित
    पर…
    निःशब्द तो नहीं!
    किंचित् भी नहीं ।।
    [३]
    चूहों की मूँछों से
    बुहारते प्रजातंत्र के पथ
    झाड़ते वहीं सूक्ष्मातिसूक्ष्म
    प्लेग के कीटाणु
    दूषित मानसिकता का फैलाव
    लपेटता अपने में
    देश का निजत्त्व
    संक्रमित..
    संपूर्ण मीडिया के तार
    सब दोषी!
    दोषी स्वयं वही
    जो विनाश के मंज़र को
    लीला समझे,
    दोषी स्वयं वह भी
    जो युद्ध की अनिवार्यता को
    संविधानों की काली पट्टियों से
    ढंकना चाहे,
    दोषी वह भी
    जो निर्लिप्त रहे शांति या युद्ध से
    सब दोषी
    सब के सब दोषी
    जी हाँ सब दोषी ।
    भीड़ चाहे सच को झूठ बना दे
    या झूठ को सच
    शिव कुछ नहीं..
    सुंदर यहाँ कुछ भी नहीं
    सत्य भी-
    मिथ्यावृत्त असंख्य परतों में
    दबा-कसमसाता-बिलखता..
    चीखने की भंगिमाएँ बनाता है
    केवल
    पर बेआवाज़!
    कोई नहीं सुन पाता
    कोई सुन ही नहीं पाता
    उसकी चीख
    जो
    सदियों से दबी-कुचली
    झूठ के खंडहरों के-
    मलबों के बीच
    सांस लेती
    कभी-कभी अकेले में..,
    चारों तरफ़ के सन्नाटे को भेदती
    भर्र-भर्र
    लगाती है चक्कर
    चमगादड़ों-सी
    कभी इधर
    कभी उधर
    कभी गोल-गोल
    स्वयं के परा-ध्वनियों में
    गूँथती है डर…!!
    लोग उन परा-ध्वनियों के
    तात्पर्यों से दूर
    अकिंचन बन
    चुपचाप बदल लेते हैं
    अपने मूल्य
    किंतु..
    वे सत्य के तात्पर्य,
    वे ध्वनियाँ
    वो चीख…
    निःशब्द तो नहीं !
    किंचित् भी नहीं ।।
      ©सर्वाधिकार सुरक्षित!
    -@निमाई प्रधान’क्षितिज’
            रायगढ़,छत्तीसगढ़
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  • आक्रोश पर कविता

    आक्रोश पर कविता


                             
    ये आज्ञा अब है मिली ,खुल के लो प्रतिशोध
    चुन- चुन के रिपु मारिये, हो गलती  का बोध ।।
                               *
    कोई अब बातें नहीं , करो सिर्फ आघात ।
    दुष्ट दमन करते चलो , एक बराबर  सात ।।
      .                        *
    जय भारत जय हिंद से , गूँज  उठे  संसार ।
    माँ भारती तिलक करो , बहे लहू की धार ।।
                              *
    पाक नहीं नापाक है ,  दुश्मन पाकिस्तान ।
    कोई जिंदा मत बचे , बन जाये  शमसान ।।
                               *
    रण चण्डी अब जागिये , पीना है फिर रक्त ।
    वीर भुजा है फड़कती , आया रण का वक्त ।।


    देश  नहीं  तो  हम  नहीं , हमसे  है  सरकार ।
    गीदड़ भपकी मत डरो , करो युद्ध ललकार ।।


    जो हैं दुश्मन  वतन के, उसे निकालो खोज ।
    मृत्यु देवता  सौंप दो , हो  तांडव  हर रोज ।।


    कल तक जुल्म बहुत हुआ , टूटा  संयम बांँध ।

    पकडो अब हथियार सब, हथगोला धर काँध ।।

    आतंकी  के  खून   से , लिख  दो  ये  पैगाम ।
    हिंदुस्तान   अजेय  है , तू   औलाद   हराम ।।


    भारत  मेरी  जान  है , भारत  मेरी   शान ।
    वीर प्रसूता माँ कहे , सौ सौ सुत कुरबान ।।
                     ~   रामनाथ साहू ” ननकी “
                           मुरलीडीह  ( छ. ग. )
    कविता बहार से जुड़ने के लिये धन्यवाद