खामोशी पर कविता
मैं ,
चुप ही रहती हूं ,
जाने कबसे ,
मुझे पता भी ,
नहीं चला ,
खामोशी कब,
मेरी मीत बन गई,
और तुमने समझा,
मैं सुधर गई,
क्योंकि ,
नहीं पूछती देर से आने की वजह ।
नहीं कहती क्या अच्छा है
क्या बुरा ?
नहीं लाती हल्के रंग की शर्ट।
नहीं कहती तुम पर फबेगा।
शायद ,
हमारे रिश्ते के रंग
हल्के हो गए हैं ,
काश !दो पल बैठते,
बातें करने के लिए नहीं,
मेरी आंखों की,
खामोशी को पढ़ने के लिए,
तो शायद पढ़ लेते ,
हम साथ रहकर,
कितने दूर है ,
सात समंदर पार,
जिसे तय नहीं की जा सकती,
अब तो,
मेरा अक्स ही,
मुझ से पूछ बैठता है,
हमेशा चहकने वाली ,
हर बात की तह तक जाने वाली,
तुम्हें खामोशी ,
कैसे रास आ गई ,
उसे भी ,
नहीं मिलता कोई जवाब,
जवाब भी शायद खामोश है ,
मेरी ही तरह ,
कहीं कोई ,
हलचल नहीं,
ठहर गई ,
किसी खामोश,
ताल की तरह ,
अंतर्मन के ,
इस पार से
उस पार तक ,
खामोशी,
बस खामोशी……
जागृति मिश्रा रानी
कविता बहार से जुड़ने के लिये धन्यवाद