प्रकृति से खिलवाड़ पर्यावरण असंतुलन
शज़र के शाखो पर परिंदा डरा डरा सा लगता है।
ऐसी भी क्या तरक्की हुई है मेरे मुल्क में।
कई शज़र के शाखाओं को काटकर और कई शज़र को उजाड़ कर शहर का शहर बसा लगता है।
इन पर्यावरण को उजाड़ कर शहर बसा लगता है।
फिर भी कहा दिल लगता है।
कभी प्रकृति की गोद में मां के आंचल सा सुकून मिलता था।
आज जलन और चुभन होती है इस फिज़ा में भी।
कही ना कही हमने प्रकृति से खेला है।
जो आज हर चीज़ होने के बावजूद भी फिजाओं में कोई सुकून नही है।
जो ज़हर हमने इस पर्यावरण में घोला है।
उसी का आज हमने ओढ़ा आज चोला है।
जल रही धरती जल रहा आकाश भी
इसलिए आज हम है निराश भी।
कभी जो उमड़ते थे बादल।
दिल हो जाता था पागल।
ना अब बादल का उमंग है
और ना ही पहले जैसा फिज़ा में रंग है।
किया जो अपनी पृथ्वी से ऐसा हमने अपंग है।
पहले बारिश होती थी तो दिल झूमता था।
मगर अब निगाहे तरसती है कुछ न कुछ तो किया हमने खिलवाड़ है।
एक एक जन इसका गुनहगार है।
गांव को हमने छोड़ा शहर के लिए, के गांव को शहर बनाएंगे।
हालत ऐसी हुई है के ज़माने से कहते फिर रहे है शहर से अच्छा तो मेरा गांव है।
तरक्की के दौड़ में हमने जो पेड़ो को काटा है।
जंगल के जंगल को जो हमने छांटा है।
हमने अपने भविष्य के लिए बोया कांटा है।
विकासशील देश लगे है भाग दौड़ में विकसित देशों की बराबरी करने में।
इस बराबरी करने की होड़ में हमने पृथ्वी पर ज़हर ही ज़हर घोला है
इसलिए हमने बीमारियों को ओढ़ा चोला है।
शज़र/पेड़, फिज़ा/पर्यावरण
तबरेज़ अहमद
बदरपुर नई दिल्ली