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यहाँ पर हिन्दी कवि/ कवयित्री आदर०नरेन्द्र कुमार कुलमित्रके हिंदी कविताओं का संकलन किया गया है . आप कविता बहार शब्दों का श्रृंगार हिंदी कविताओं का संग्रह में लेखक के रूप में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका अदा किये हैं .

  • पंछी की पुकार नरेन्द्र कुमार कुलमित्र

    पंछी की पुकार

    एक दिन
    सुबह-सुबह
    डरा-सहमा 
    छटपटाता 
    चिचिआता हुआ एक पंछी
    खुले आसमान से
    मेरे घर के आंगन में आ गिरा

    मैंने उसे सहलाया
    पुचकारा-बहलाया
    दवाई दी-खाना दिया
    कुछेक दिन में चंगा हो गया वह

    आसमान की ओर इशारा करते हुए
    मैंने उसे छोड़ना चाहा
    वह पंछी
    अपने पंजों से कसकर
    मुझे पकड़ लिया
    सुनी मैंने
    उसकी मूक याचना
    कह रहा था वह–
    ‘एक पिंजरा दे दो मुझे।’

    — नरेन्द्र कुमार कुलमित्र
        9755852479
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  • शांति पर कविता -नरेन्द्र कुमार कुलमित्र

    शांति पर कविता 

    हम कैसे लोग हैं
    कहते हैं—
    हमें ये नहीं करना चाहिए
    और वही करते हैं
    वही करने के लिए सोचते हैं
    आने वाली हमारी पीढियां भी
    वही करने के लिए ख़्वाहिशमंद रहती है
    जैसे नशा
    जैसे झूठ
    जैसे अश्लील विचार और सेक्स
    जैसे ईर्ष्या-द्वेष
    जैसे युद्ध और हत्याएं
    ऐसे ही और कई-कई वर्जनाओं की चाह

    हम नकार की संस्कृति में पैदा हुए हैं
    हमें नकार सीखाया जाता है
    हमारे संस्कार नकार में गढ़े गए हैं
    हम उस तोते की तरह हैं
    जो जाल में फंसा हुआ भी
    कहता है जाल में नहीं फँसना चाहिए
    हमारा ज्ञान, हमारी विद्या,हमारे सीख या तालीम
    सब तोता रटंत है,थोथा है,खोखला है
    सच को स्वीकार करना हमने नहीं सीखा
    जितने शिक्षित हैं हम
    हमारी कथनी और करनी के फ़ासले उतने अधिक हैं
    हम पढ़े-लिखे तो हैं
    पर कतई 
    कबीर नहीं हो सकते

    युद्धोन्माद से भरे हुए कौरवों के वंशज
    युद्ध को समाधान मानते हैं
    उन्हें लगता है
    युद्ध से ही शांति मिलेगी
    युद्ध करके अपनी सीमाओं का विस्तार चाहते हैं
    उन्हें नहीं पता कि
    युद्ध विस्तार-नाशक है
    युद्ध सारा विस्तार शून्य कर देता है
    युद्ध एक गर्भपात है
    जिससे विकास के सारे भ्रूण स्खलित हो जाते हैं
    समय बौना हो जाता है
    इतिहास लँगड़ा हो जाता है
    और भविष्य अँधा हो जाता है

    अब हास्यास्पद लगते हैं 
    विश्व शान्ति के सारे संदेश
    मजाक-सा लगता है
    सत्य और अहिंसा को अस्त्र मान लेना
    अब
    नोबेल शांति का हकदार वही है
    जो परमाणु बंम इस्तेमाल का माद्दा रखते हैं
    अब
    लगता है कई बार
    धनबल और बाहुबल के इस विस्तार में
    आत्मबल से भरे हुए उसी अवतार में
    फिर आ जाओ इक बार
    शांति के ओ पुजारी !

    —- नरेन्द्र कुमार कुलमित्र

  • वक़्त से मैंने पूछा-नरेन्द्र कुमार कुलमित्र

    वक़्त से मैंने पूछा     

    वक़्त से मैंने पूछा
    क्या थोड़ी देर तुम रुकोगे ?
    वक़्त ने मुस्कराया
    और
    प्रतिप्रश्न करते हुए
    क्या तुम मेरे साथ चलोगे?
    आगे बढ़ गया…।

    वक़्त रुकने के लिए विवश नहीं था
    चलना उसकी आदत में रहा है 
    सो वह चला गया
    तमाम विवशताओं से घिरा 
    मैं चुपचाप बैठा रहा
    वक्त के साथ नहीं चला
    पर
    वक्त के जाने के बाद
    उसे हर पल कोसता रहा
    बार-बार लांक्षन और दोषारोपण लगाता रहा
    यह कि–
    वक्त ने साथ नहीं दिया
    वक्त ने धोखा दिया
    वक्त बड़ा निष्ठुर था,पल भर रुक न सका

    लंबे वक्त गुजर जाने के बाद
    वक्त का वंशज कोई मिला
    वक्त के लिए रोते देखकर
    मुझे प्यार से समझाया
    अरे भाई!
    वक्त किसी का नहीं होता
    फिर तुम्हारा कैसे होता?
    तुम एक बार वक्त का होकर देखो
    फिर हर वक्त तुम्हारा ही होगा।

    — नरेन्द्र कुमार कुलमित्र
         9755852479
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  • तुम नहीं होती तब – नरेन्द्र कुमार कुलमित्र

    तुम नहीं होती तब


    चादर के सलवटों में
    बेतरतीब बिखरे कपड़ों में
    उलटे पड़े जूतों में
    केले और मूंगफली के छिलकों में
    लिखे,अधलिखे और अलिखे 
    मुड़े-तुड़े कागज़ के टुकडों में 
    खुद बिखरा-बिखरा-सा पड़ा होता हूँ

    मेरे सिरहाने के इर्द-गिर्द
    एक के बाद एक 
    डायरी,दैनिक अख़बारों,पत्रिकाओं,
    कविताओं, गजलों
    और कहानियों की कई पुस्तकें
    इकट्ठी हो होकर
    ढेर बन जाती हैं

    अनगिनत भाव और विचार
    एक साथ उपजते रहते हैं
    चिंतन की प्रक्रिया लगातार
    चलती रहती है
    कई भाव 
    उपजते हैं विकसते हैं और शब्द बन जाते हैं
    कई भाव
    उपजते हैं और विलोपित हो जाते हैं

    विचारों में डूबे-डूबे
    कभी हँस लेता हूँ
    कभी रो लेता हूँ
    कभी बातें करता हूँ
    गाली या शाबाशी के शब्द
    निकल जाते हैं कई बार
    बस इसी तरह रोज
    विचार और रात दोनों गहरे होते जाते हैं

    सो जाता हूँ पर 
    नींद में भी कई विचार पलते रहते हैं
    अमूमन ऐसे ही कटते हैं मेरे दिन
    जब-जब तुम नहीं होती….।

    — नरेन्द्र कुमार कुल

    मित्र

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  • पिता होने की जिम्मेदारी – नरेन्द्र कुमार कुलमित्र

    पिता होने की जिम्मेदारी

    दो बच्चों का पिता हूँ

    मेरे बच्चे अक्सर रात में
    ओढ़ाए हुए चादर फेंक देते है
    ओढ़ाता हूँ फिर-फिर
    वे फिर-फिर फेंकते जाते हैं

    उन्हें ओढ़ाए बिना…

    मानता ही नहीं मेरा मन

    वे होते है गहरी नींद में
    उनके लिए 
    अक्सर टूट जाती हैं
    मेरी नींदें…

    एक दिन 

    गया था गाँव

    रात के शायद एक या दो बजे हों
    गरमी-सी लग रही थी मुझे
    नहीं ओढ़ा था चादर
    मेरी आँखें मुंदी हुई थी
    पर मैं जाग रहा था…

    रात के अन्धेरे में

    किसी हाथ ने ओढ़ा दिए चादर

    उनकी पास आती साँसों को टटोला
    पता चला वे मेरे पिता थे

    गरमी थी

    मगर मैंने चादर नहीं फेंकी

    चुपचाप ओढ़े रहा
    मैं महसूस कर रहा था
    बच्चा होने का सुख…
    और
    पिता होने की जिम्मेदारी…
    दोनों साथ-साथ..।

    — नरेन्द्र कुमार कुलमित्र
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