शांति पर कविता
हम कैसे लोग हैं
कहते हैं—
हमें ये नहीं करना चाहिए
और वही करते हैं
वही करने के लिए सोचते हैं
आने वाली हमारी पीढियां भी
वही करने के लिए ख़्वाहिशमंद रहती है
जैसे नशा
जैसे झूठ
जैसे अश्लील विचार और सेक्स
जैसे ईर्ष्या-द्वेष
जैसे युद्ध और हत्याएं
ऐसे ही और कई-कई वर्जनाओं की चाह
हम नकार की संस्कृति में पैदा हुए हैं
हमें नकार सीखाया जाता है
हमारे संस्कार नकार में गढ़े गए हैं
हम उस तोते की तरह हैं
जो जाल में फंसा हुआ भी
कहता है जाल में नहीं फँसना चाहिए
हमारा ज्ञान, हमारी विद्या,हमारे सीख या तालीम
सब तोता रटंत है,थोथा है,खोखला है
सच को स्वीकार करना हमने नहीं सीखा
जितने शिक्षित हैं हम
हमारी कथनी और करनी के फ़ासले उतने अधिक हैं
हम पढ़े-लिखे तो हैं
पर कतई
कबीर नहीं हो सकते
युद्धोन्माद से भरे हुए कौरवों के वंशज
युद्ध को समाधान मानते हैं
उन्हें लगता है
युद्ध से ही शांति मिलेगी
युद्ध करके अपनी सीमाओं का विस्तार चाहते हैं
उन्हें नहीं पता कि
युद्ध विस्तार-नाशक है
युद्ध सारा विस्तार शून्य कर देता है
युद्ध एक गर्भपात है
जिससे विकास के सारे भ्रूण स्खलित हो जाते हैं
समय बौना हो जाता है
इतिहास लँगड़ा हो जाता है
और भविष्य अँधा हो जाता है
अब हास्यास्पद लगते हैं
विश्व शान्ति के सारे संदेश
मजाक-सा लगता है
सत्य और अहिंसा को अस्त्र मान लेना
अब
नोबेल शांति का हकदार वही है
जो परमाणु बंम इस्तेमाल का माद्दा रखते हैं
अब
लगता है कई बार
धनबल और बाहुबल के इस विस्तार में
आत्मबल से भरे हुए उसी अवतार में
फिर आ जाओ इक बार
शांति के ओ पुजारी !
—- नरेन्द्र कुमार कुलमित्र