Author: कविता बहार

  • काम पर कविता/ सुकमोती चौहान

    काम पर कविता/ सुकमोती चौहान

    काम पर कविता

    लाख निकाले दोष, काम होगा यह उनका।
    उन पर कर न विचार, पाल मत खटका मन का।
    करना है जो काम, बेझिझक करते चलना।
    टाँग खींचते लोग, किन्तु राही मत रुकना।
    कुत्ते सारे भौंकते, हाथी रहता मस्त है।
    अपने मन की जो सुने, उसकी राह प्रशस्त है।

    ये दुनिया है यार, चले बस दुनियादारी।
    बन जायेगा बोझ, शीश पर जिम्मे भारी।
    कितना कर लो काम, कर न सकते खुश सबको।
    काम करो बस आज, बुरा जो लगे न रब को।
    इतना करना भी बहुत, बड़ा काम है जान ले।
    खुद पर है विश्वास तो , जीवन सार्थक मान ले।।

    डॉ सुकमोती चौहान रुचि
    बिछिया, महासमुंद, छ ग

  • बसंत ऋतु / राजकुमार मसखरे

    बसंत ऋतु / राजकुमार मसखरे

    राजा बसंत / राजकुमार मसखरे

    बसंत ऋतु
    बसंत ऋतु


    आ…जा आ…जाओ,हे ! ऋतुराज बसन्त,
    अभिनंदन करते हैं तेरा, अनन्त अनन्त !

    मचलते,इतराते,बड़ी खूबसूरत हो आगाज़,
    आओ जलवा बिखेरो,मेरे मितवा,हमराज़ !

    देखो अब ये सर्दियाँ, ठिठुरन तो जाने लगी,
    यह सुहाना मौसम, सभी को है भाने लगी !

    पेड़- पौधों में नव- नव कोपलें आने को हैं,
    अमियाँ में तो बौर ही बौर ,लद जाने को हैं !

    खेतों में सरसों के फूल, झूमें हैं पीले-पीले,
    अब राग-रंग का उत्सव,जो हैं खिले-खिले !

    इसीलिए सभी ऋतुओं का जी राजा है तू,
    ये अजब-गज़ब फ़िज़ाओं को साजा है तू !

    सङ्ग-सङ्ग,होली-धुलेड़ी,उत्सव ‘रंग पंचमी’
    नवरात्रि, रामनवमी से, सजी है यह जमीं !

    पलास की लाली,सवंत्सर,हनुमान जयंती,
    वो गुरु पूर्णिमा का पर्व ख़ूब है जो मनती !

    संगीत में है राग,,,जी विशेष बसंत बहार ,
    साहित्य में काली दास ने रचा ‘ऋतुसंहार’,

    बसन्त ने मोह लिया ‘निराला’ को निराला,
    कवि ‘देव’ नंदन,पंत,टैगोर ने लिख डाला !

    बसंत ऋतु प्रकृति का,यह अनुपम रूप है,
    महके ये कली-कली,कानन खिली धूप है !

    कोयल,मोर,पपीहे व भौरें छेड़े नये तराने,
    बसंत के ये रंग में सब,आतुर है रंग जाने !

    हे ऋतुओं के राजा,तेरी अलग ही शान है,
    ‘मसखरे’ को अपना ले ,तू तो मेरी जान है !

    हे बसंत ! सङ्ग में बसंती को भी लाना है,
    चैतू,बैसाखू,जेठू को भी अपना बनाना है !

    — राजकुमार ‘मसखरे’
    मु.-भदेरा ( पैलीमेटा /गंडई )
    जि.- के.सी.जी.,( 36-गढ़

  • वसंत ऋतु / डा मनोरमा चंद्रा ‘ रमा ‘

    वसंत ऋतु / डा मनोरमा चंद्रा ‘ रमा ‘

    वसंत ऋतु / डा मनोरमा चंद्रा ‘ रमा ‘

    बसंत ऋतु
    बसंत ऋतु


    आया वसंत आज, भव्य ऋतु मन हर्षाए।
    खिले पुष्प चहुँ ओर, देख खग भी मुस्काए।।
    मोहक लगे वसंत, हवा का झोंका लाया।
    मादक अनुपम गंध, धरा में है बिखराया।।

    आम्र बौर का गुच्छ, लदे हैं देखो सारी।
    सृजित नवल परिधान, वृक्ष की महिमा भारी।।
    ऋतुपति दिव्य वसंत, श्रेष्ठ है कान्ति निराली।
    इसके आते मान, सजे हैं गुलशन डाली।।

    गया ठंड का जोर, आज ऋतु वसंत आया।
    चला दौर मधुमास, शीत का कहर भगाया।।
    मौसम लगते खास, रूप है भव्य सुहाना।
    हृदय भरे आह्लाद, झूम सब आज जमाना।।

    टेसू फूले लाल, वनों को शोभित करते।
    भ्रमर हुए मदमस्त, बाग पर नित्य विचरते।।
    सरसों का ऋतु काल, नैन को खूब रिझाए।
    पीत सुमन का दृश्य, चपल मन को भा जाए।।

    *~ डॉ. मनोरमा चन्द्रा ‘रमा’*
    रायपुर (छ.ग.)

  • चार के चरचा/ डा.विजय कन्नौजे

    चार के चरचा
    *****4***

    चार दिन के जिनगी संगी
    चार दिन के‌ हवे जवानी
    चारेच दिन तपबे संगी
    फेर नि चलय मनमानी।

    चारेच दिन के धन दौलत
    चारेच दिन के कठौता।
    चारेच दिन तप ले बाबू
    फेर नइ मिलय मौका।।

    चार भागित चार,होथे
    बराबर गण सुन।
    चार दिन के जिनगी म
    चारो ठहर गुण।।

    चार झन में चरबत्ता गोठ
    चारो ठहर के मार।
    चार झनके‌ संग संगवारी
    लेगही मरघट धार।।
    चार झन के सुन, मन म गुण
    कर सुघ्घर काम।
    चार झन ल लेके चलबे
    चलही तोर नाम।।
  • मकर संक्रांति आई है / रचना शास्त्री

    मकर संक्रांति आई है / रचना शास्त्री

    patang-makar-sankranti

    मकर संक्रांति आई है / रचना शास्त्री

    मगर संक्रांति आई है।

    मकर संक्रांति आई है।

    मिटा है शीत प्रकृति में

    सहज ऊष्मा समाई है।

    उठें आलस्य त्यागें हम, सँभालें मोरचे अपने ।

    परिश्रम से करें पूरे, सजाए जो सुघर सपने |

    प्रकृति यह प्रेरणा देती ।

    मधुर संदेश लाई है।

    मिटा है शीत प्रकृति में

    सहज ऊष्मा समाई है।

    महकते ये कुसुम कहते कि सुरभित हो हमारा मन ।

    बजाते तालियाँ पत्ते सभी को बाँटते जीवन ॥

    सुगंधित मंद मलयज में,

    सुखद आशा समाई है।

    मिटा है शीत प्रकृति में

    सहज ऊष्मा समाई है।

    समुन्नत राष्ट्र हो अपना,अभावों पर विजय पाएँ।

    न कोई नग्न ना भूखे,न अनपढ़ दीन कहलाएँ ॥

    करें कर्त्तव्य सब पूरे,

    यही सौगंध खाई है।

    मिटा है शीत प्रकृति में

    सहज ऊष्मा समाई है।

    नहीं प्रांतीयता पनपे, मिटाएँ भेद भाषा के।

    मिटें अस्पृश्यता जड़ से, जलाएँ दीप आशा के ॥

    वरद गंगा-सी समरसता,

    यहाँ हमने बहाई है।

    मिटा है शीत प्रकृति में

    सहज ऊष्मा समाई है ।

    रचना शास्त्री