अब्र की उपासना
मेरी यही उपासना, रिश्तों का हो बन्ध।
प्रेम जगत व्यापक रहे, कर ऐसा अनुबन्ध।।
स्वप्रवंचना मत करिये, करें आत्म सम्मान।
दर्प विनाशक है बहुत, ढह जाता अभिमान।।
लोक अमंगल ना करें, मंगल करें पुनीत।
जन मन भरते भावना, साखी वही सुनीत।।
नश्वर इस संसार में, प्रेम बड़े अनमोल।
सब कुछ बिक जाता सिवा, प्रीत भरे दो बोल।।
मजहब राह अनेक हैं, हासिल उनके नैन।
कायनात सुंदर लगे, अपने अपने नैन।।
साधु प्रेम जो दीजिये, छलके घट दिन रैन।
कंकर भी अब हो गये, शंकर जी के नैन।।
प्रेम न ऐसा कीजिये, कर जाये जो अधीर।
प्रेम रतन पायो पुलक, जन मन होत सुधीर।।
ईश्वर के अधिकार में, जग संचालन काम।
भेदभाव वह ना करे, पालक उसका नाम।।
प्रात ईश सुमिरन करो, अन्य करो फिर काम।
शांत चित्त ही मूल है, हुआ सफल हर याम।।
प्रात स्मरण प्रभु का करो, बन जाओगे खास।
जीव जगत में अमर हो, आये दिन मधुमास।।
- राजेश पाण्डेय अब्र
कविता बहार से जुड़ने के लिये धन्यवाद