Author: कविता बहार

  • बंद का समीकरण -रमेश कुमार सोनी

    बंद का समीकरण-रमेश कुमार सोनी

    बंद है दुकानें, कारोबार
    भारत बंद का हल्ला है
    लौट रहे हैं मज़दूर, कामगार
    अपने डेरों की ओर खाली टिफिन,झोला लिए हुए,
    बंद हैं रास्ते, अस्पताल
    शहर का सूनापन चुभ रहा है मुझे
    भूख का भेड़िया
    बियाबान खामोशी फैलाकर
    लौट गया है अपने राजाप्रासाद में ।।
    अकेले भाग रहे हैं जरूरतमंद लोग
    उग्र भीड़ के प्रकट होने से डरे हुए
    शहर हर बार ऎसे दृष्य देखता है
    झंडे, नारे ,तख्तियाँ और पुतले लिए सड़कों पर लोग ,
    टायर जलाते लोगों से डर फैला है,
    हर बार झंडे और मुद्दे चेहरों के साथ बदल जाते हैं
    इनकी नीयत सिर्फ सत्ता के इर्दगिर्द ही नाचती है ।।
    बंद हो चुका है चहल – पहल
    भीड़ के दहशत की सत्ता से
    डरा समाज घुसा है
    अपने दड़बे में शुतुरमुर्ग सा
    सीना ठोंक नहीं कह सकता है कि-
    मुझे इंकार है इस बंद से ,
    गाँव सदा से ही इसके विरोध में खुशी से इंकार के साथ जिंदा हैं ,
    इधर बंद को धता बताते हुए
    एक सूखा पत्ता सुरबद्ध रेंग गया हवा के साथ बिल्कुल निडर होकर
    परिंदे चहक रहे हैं बेधड़क ।।
    लौट गया है भूखा कुत्ता बंद टपरी से मायूस होकर ,
    कचरे भी घरों में सड़ रहे हैं
    घूरे की आबादी आज कम है
    कचरा बीनने वाले बच्चे पता नहीं आज क्या कर रहे होंगे ,
    बंद कराने से सब बंद नहीं होता साहब
    भूख,प्यास, सांसें , आवाज़ें कहाँ बंद होती हैं ?
    बंद यदि सफल हो जाए तो
    शहर श्मसान हो जाता हैऔर
    असफलता सत्ता की बांछें खिला देती है
    बंद का अर्थशास्त्र, गणित और समाजशास्त्र
    शाम ढले गलबैंहा डाले चाय पीते मिलते हैं ।।
    —-    ——    ——-
    रमेश कुमार सोनी , बसना , छत्तीसगढ़

  • संगीत जरुरी है  

    संगीत जरुरी है  


    जीवन  एक  मधुर   संगीत  है  ।
    इसे  सुर  लय  में  गाना  सीखो ।
    सात  सुरो  की स्वर मालिका  को,
    शुद्ध   कंठों  से  लगाना  सीखो ।।


    परमेश्वर   का    वरदान  है ,  संगीत  ।
    सुर  -लय  छंद   का  गान  है,  संगीत ।
    संगीत   नहीं  तो ,  जीवन   नीरस  है ।
    गुणी  जन  की  पहचान   है,  संगीत ।।

    सप्त  सुरों  की  स्वर   मालिका  पर ।
    प्रकृति  प्रफुल्लित   आराधिका  पर ।
    अंतरमन    की    गांठों   को    खोलें ,
    माँ   अपनी   स्वर   नायिका    पर ।।


    राग  ठाठ  की, अनुपम   श्रेणी ।
    कंठ  ताल,  छंदों   की   त्रिवेणी ।
    जो   साधक  का   ब्रह्म जगा दे ,
    तुरीयानंद    की  सुंदर   निसेनी ।।


    संगीत   भरा  इस   प्रकृति  पर ।
    माँ  भारती   की   संस्कृति   पर ।
    आनंदवर्षिणी  अनुभूति   करती ,
    स्वर –  समूह  की   आवृति  पर।।


    स्वरहीन  जीवन   क्या  जीवन  है ?
    संगीत   जहाँ   वहीं   वृदावन    है ।
    वेणु     गूँजे,   श्रुति   भेद     बताये ,
    वीणापाणी    का    प्रेमांगन   है । ।
                 ~  रामनाथ साहू ननकी
                               मुरलीडीह

  • तुम फूल नहीं बन सकती

    तुम फूल नहीं बन सकती

    कल
    तुम गुल थी,
    गुलाब थी,
    एक हसीन ख्व़ाब थी।
    हर कोई
    देखना चाहता था तुम्हें !
    हर कोई….
    छूना चाहता था तुम्हें !!
    कल तक
    पुरुष ने तुम्हें
    केवल कुचों
    और नितम्बों के
    आकार में देखा..
    तुम
    केवल वस्तु मात्र थी,
    उसके
    उत्तुंग-विलास में
    छलछलाती
    मधु-पात्र थी ।
    तुम शाश्वत थी
    किंतु
    उस समाज में
    तुम्हारा कोई अपना
    वजुद नहीं था ।
    आज
    पुरुष के
    समानांतर चलने का..
    हर पग पर,
    हर डग पर
    उसके गढ़े हुए
    कसौटियों को
    तोड़ने का..
    तुममें साहस है !
    समाज के
    हर कटाक्ष का,
    बेवज़ह
    तुम पर छिटके
    लांछनों का
    आज…
    तुम्हारे पास
    प्रत्युत्तर है ।
    आज
    पुरुष को भाता नहीं
    तुम्हारा पौरुष
    वह
    तुम्हें छू नहीं सकता,
    तुम्हारी ही
    ख़ुशबू लेकर
    तुम्हें
    मसल नहीं सकता
    इसलिए
    इसलिए…
    तुम बदमिजाज
    बदचलन
    बेहया हो!!
    आज तुम आग हो !
    ख़ुद से गढ़ी…
    ख़ुद का ही भाग(भाग्य) हो !
    आज तुम आग हो..
    कि अपने ज्वाल से
    भस्म कर सकती हो
    अश्लीलता के
    घृणित-कंपित-असहनीय
    अस्पष्ट अक्षर!!
    आज तुम
    सबला हो !
    अपने ऊपर उठे
    हर कामुक-कुदृष्टि को,
    एकांगी…
    हर पौरुषीय-सृष्टि को
    तुम फेंक सकती हो
    किसी अनामित दिशा के
    किसी प्राणहीन छोर पर !
    आज
    तुम ‘तुम’ हो
    अपने ही
    सरगमों की
    ख़ुद तरन्नुम हो !
    तुम गढ़ सकती हो
    एक नया समाज..
    बो सकती हो
    करुणा के बीज
    सींच सकती हो उन्हें
    ममत्व के अश्रु-नीर से
    तुम खिला सकती हो
    स्नेह के फूल
    किंतु तुम फूल नहीं बन सकती !
    तुम…
    फूल नहीं बन सकती !
    तुम्हें फूल नहीं बनना चाहिए !!
    -@निमाई प्रधान’क्षितिज’
           रायगढ़,छत्तीसगढ़

  • सुंदर सा मेरा गाँव

    सुंदर सा मेरा गाँव

    यही सुंदर सा मेरा गाँव
    पले हम पाकर सबका प्यार।
    यहाँ बनता नहीं धर्म तनाव
    यहीं अपना सुखमय संसार।
    बजे जब यहाँ सुबह के चार
    करें जब नृत्य विपिन में मोर।


    दिशा पूरब सिंदूर उभार
    निशा की गोद तजे  जब भोर।
    कृषक उठकर बैलों को खोल
    लिए अब चलें जहाँ गोआर।
    सुनो तब झंकृत घंटी बोल
    बँधे जो गले करें झंकार ।


    यहाँ पनघट में देख कतार
    लटे उलझीं और बिखरे केंश।
    कहीं कोई न दिखे श्रृंगार
    बहन या माँ सब सादे वेश।
    करें फुरसतिया स्वप्न विचार
    रहीं कुछ पहने वस्त्र संभाल।


    हुई क्या रात में यही  सार
    बता औ पूछ रहे वो हाल ।
    खुला अब मंदिर का भी द्वार
    बजाएंगे पंडित जी शंख।
    उगा सूरज अब रंग निखार
    उड़े खग नभ फैलाकर पंख।

    सुनील गुप्ता केसला रोड

    सीतापुर सरगुजा छत्तीसगढ

  • कौन हो तुम?-डॉ. पुष्पा सिंह’प्रेरणा

    कौन हो तुम?

    शब्दों के चित्र,
    कोरे कागज़ पर,
    स्याही उड़ेलकर,
    कलम को कूची बनाकर,
    कविता की सूरत,
    बला की खूबसूरत!
    कैनवास पर,
    भावों का समर्पण कर
    उकेर देते हो!
    कौन हो तुम?
    कवि या कोई चित्रकार?
    छेनी-हथोड़े की तरह,
    औजार बनाकर,
    तराशी उंगलियों से,
    गढ़ते हो..
    पत्थर की मूरत,
    बला की खूबसूरत!
    फिर–
    फूंक देते हो प्राण,
    साँसों को अर्पण कर
    कौन हो तुम?
    कवि या कोई शिल्पकार?
    कौन हो तुम……
    —-डॉ. पुष्पा सिंह’प्रेरणा’
    अम्बिकापुर(छ. ग.)