Author: कविता बहार

  • चंदा मामा दूर हैं

    चंदा मामा दूर हैं

    चंदा मामा दूर हैं ,
      पर हम तो मजबूर है।
      कैसे आए पास में,
      हम लगे हैं यह ही प्रयास में

    हम जब भी आगे बढ़ते हैं,
    तुम आगे बढ़ जाते हो।
    रुककर देखें जब भी तुमको,
    तुम ऊपर चढ़ जाते हो।
    कभी तुम दिखते तुन्नक से,
    कभी तुम दिखते भरपूर हो।
    घटती-बढ़ती कलाओं में,
    अपने में रहते चूर हो।
    चंदा मामा दूर हैं ,
    पर हम तो मजबूर है।

    घेरे रहते हरदम तुमको,
    सैकड़ों तारे बनकर सिपाही। 
    हम तो अकेले रहे यहाँ पर,
    साथ नहीं मिलता कोई राही।
    तेरी लीला अजब निराली,
    तेरा अजब ही नूर है।
    हम तो यहाँ बहुत है छोटे,
    तुम.मील हजारों दूर है।
    चंदा मामा दूर है,
    पर हम तो मजबूर है।


    शिवशंकर के सिर पर रहते,
    कोई नहीं तुम्हें कुछ कहते।
    छोटे हो या बड़े यहाँ पर,
    राह ताकते यहाँ सब रहते।
    सबके प्यारे ,न्यारे मामा,
    तुम जग में मशहूर है।
    विनती  हम सभी की,
    पास आना तुम जरूर है।
    चंदा मामा दूर है,
    पर हम तो मजबूर है।
    कैसे आए पास में, हम लगे हैं यह ही प्रयास में।

    महेन्द्र कुमार गुदवारे बैतूल

  • तुम्हें श्रद्धा सुमन चढ़ाऊं

    तुम्हें श्रद्धा सुमन चढ़ाऊं

    तुम्हें श्रद्धा सुमन चढ़ाऊं नैनों से नीर बहाऊं
    वीर शहीदों तुमको मैं शत-शत शीश नवाऊं|
    तुम्हें श्रद्धा सुमन…..

    धन्य है वो माता जिसने तुमको जन्म दिया
    धन्य पिता वो जिसने बेटा बलिदान किया
    ऐसे मात पिताओं पे मैं नित बलि- बलि जाऊं|
    तुम्हें श्रद्धा सुमन…..


    मातृभूमि की सेवा में दे दी तुमने जान
    तुम हो देश सच्चे नायक तुम ही सबसे महान
    देशभक्त पूजा में तुम्हारे आरती थाल सजाऊं|
    तुम्हें श्रद्धा सुमन…..


    बहन की राखी कहती है कहां गए मेरे भैया
    सूनी मांग निहारे रस्ता रोती आज है मैया
    बेटा कहता पापा मेरे आओ तुम्हें बुलाऊं
    तुम्हें श्रद्धा सुमन चढ़ाऊं…..


                 रमेश गुप्ता ‘प्रेमगीत’
                   सूरजपुर (छ.ग.)
                मो.नं.9977507715

  • मौत पर कविता

    मौत पर कविता

    जिस दिन पैदा हुआ
    उसी दिन
    लिख दिया गया था
    तेरे माथे पर मेरा नाम ।
    दिन, तिथि ,जगह सब तय था
    उसी दिन।
    हर कदम बढ़ रहा था तेरा
    मेरी तरफ।
    पल पल ,हर पल ।।
    तेरी निश्छल हँसी
    तेरा प्यारा बचपन देखकर
    तरस आता था मगर
    सत्य से दूर
    तू भागता ही गया
    ज्यों ज्यों तू करीब आ रहा था मेरे
    तेरी निश्छल हँसी को जकड़ता जा रहा था दर्प
    भूलता जा रहा था तू मुझे
    और मैं अटल सत्य।
    देख !देख!
    मैं करीब !बहुत करीब !
    आ गले लगा मुझे !
    समा मेरी आगोश में
    मेरी पकड़ में तुझे आना ही है
    अटल सत्य ।
    मैं अंत जिंदगी का ।
    मैं अंधकार हूँ ।
    मैं जहाँ से नहीं निकलती कोई गली ।
    कोई चौराहा  नहीं।
    न वहाँ कोई डर।
    बस वहाँ है समर्पण ।
    सब मुझे ।
    मैं वही मौत  हूँ।
    जहाँ से कुछ भी नहीं तेरे लिए
    फिर एक दिव्य प्रकाश
    और यह विस्तृत आकाश
    मैं वही सत्य हूँ।

    सुनील_गुप्ता केसला रोड सीतापुर

    सरगुजा छत्तीसगढ

  • अनेकों भाव हिय मेरे

    अनेकों भाव हिय मेरे

    अनेकों भाव मन मेरे, सदा से ही मचलते हैं।
    उठाता हूँ कलम जब भी, तभी ये गीत ढलते हैं।
    पिरोये भाव कर गुम्फित, बनी है गीत की माला
    कई अहसास सुख-दुख के, करीने से सजा डाला।
    समेटे बिंब खुशियों के, सुरों में यत्न कर ढाला।
    सुहाने भाव अंतस में, मचलते अरु पनपते हैं।1
    अनेकों भाव हिय मेरे…


    जगायें चेतना नूतन, हरें हर पीर वे मन की
    भगायें वेदना सारी, अधर पे है खुशी  दिल की।
    करायें ये सदा प्रेरित, उभारें रोशनी हिय की।
    उजालों के तभी वो गीत, बनकर ही निकलते हैं।2
    अनेकों भाव हिय मेरे…


    भगा नैराश्य जीवन से, दिखाते राह आशा की।
    नये उद्गार से सज कर, खबर लेते निराशा की।
    नये पथ को करें इंगित, यही है शक्ति भाषा की।
    भरा उत्साह गीतों में, कि इनसे सब सँभलते हैं।3
    अनेकों भाव हिय मेरे…

    उठाई जो कलम हमने  वही शब्दों में ढलते हैं।।
    जगाते हैं नई आशा, नया उत्साह भरते हैं
    दिलों पर राज करते हैं, नवल संतोष भरते हैं।
    हमारे गीत जीवन की, व्यथा के स्वर बदलते हैं।
    अनेकों भाव हिय मेरे…


    प्रवीण त्रिपाठी, नई दिल्ली, 27 जनवरी 2018

  • तुमने पत्थर जो मारा

    तुमने पत्थर जो मारा

    चलो तुमने पत्थर जो मारा वो ठीक था।
    पर लहर जो क्षरण करती उसका क्या?

    पीर छूपाये फिरता है खलल बनकर तू,
    विराने में आह्ह गुनगुनाये उसका क्या?

    बेकार…कहना था तो नज़र ताने क्यों?
    गौर मुझ पे टकटकी लगाए उसका क्या?

    मेरी इज्जत…,मेरी आबरू क्या कम है?
    तो जो खुलकर बोली लगाए उसका क्या?

    मै कई बार रोया हूँ अख़बारों में,छपकर,
    मुझसा होके मुझपे सांप सा लेट गया,
    प्याले दूध परोसना था तुझे भूखों को,
    उन्हें उँगलियों पे नचाये उसका क्या?

    बड़ी वेदना देखी कोठे पर मैनें,शाम,
    भूखमरी मिटाने बिकती रोज अाबरू।
    अरे अपने को इंशा कहने वाले इंसान,
    भेडियों सा खाल चढ़ाये उसका क्या?

    बेनकाब होने के डर से,
    चेहरा जलाकर निकलती है वो।
    तूने ही तेजाब छलकाए थे,
    उसके रस्के कमर पे उसका क्या?

    चलो  तुमने पत्थर जो मारा वो ठीक था।
    पर लहर जो क्षरण करती उसका क्या?         

    *✍पुखराज “प्रॉज”*