Author: मनीभाई नवरत्न

  • अब नहीं सजाऊंगा मेला

    अब नहीं सजाऊंगा मेला

    अक्सर खुद को
    साबित करने के लिए
    होना पड़ता है सामने .
    मुलजिम की भांति
    दलील पर दलील देनी पड़ती है .

    फिर भी सामने खड़ा व्यक्ति
    वही सुनता है ,
    जो वह सुनना चाहता है .
    हम उसके अभेद कानों के
    पार जाना चाहते हैं .
    उतर जाना चाहते हैं
    उसके मस्तिष्क पटल पर

    बजाय ये सोचे कि
    क्या वास्तव में फर्क पड़ता है उसे?
    कहीं हमारी ऊर्जा और समय
    ऐसे तो नहीं खो रही है.
    बीच सफर में ,
    किसी को साथ लेने की हसरत
    “बुरा तो नहीं “
    अगर वह साथ होना चाहे.

    मगर मनाना ,रिझाना , मेला सजाना
    मंजिल से पहले ,
    मकसद भी नहीं .
    अब नहीं सजाऊंगा मेला
    रहना सीख जाऊंगा अकेला.

    सब को साथ लेने के बजाय ,
    स्वयं को ले जाने तक ही
    तो आसान नहीं .
    पीछे पलट देखूंगा नहीं ,
    चाहे निस्तब्ध हो वातावरण .
    या फिर सुनाई पड़ती रहे
    और भी पैरों की आहट.

    -मनीभाई नवरत्न

  • प्रायश्चित- मनीभाई नवरत्न

    प्रायश्चित- मनीभाई नवरत्न

    हम करते जाते हैं काम
    वही जो करते आये हैं
    या फिर वो ,
    जो अब हमारे शरीर के लिए
    है जरूरी।

    इस दरमियान
    कभी जो चोट लगे
    या हो जाये गलतियां।
    तो पछतावा होता है मन में
    जागता है प्रायश्चित भाव।

    वैसे सब चाहते हैं
    गलतियां ना दोहराएं जाएं।
    सब पक्ष में हैं
    सामाजिक विकास अग्रसर हो।
    गम के बादल तले,
    सुखों का सफर हो ।

    अब की बार, ठान कर
    जब फिर से आयें मैदान पर।
    और नहीं बदले खुद को।
    नहीं समझे अपने वजूद को।
    दोहराते हैं फिर से भूल।
    झोंकते हैं अपने ही आंखों में धूल।

    तो जान जाइए,
    एक ही सांचे में अलग-अलग मूर्ति
    नहीं ढाली जा सकती।
    या फिर हरियाली पाने के लिए
    जड़ों को छोड़
    पत्तियाँ नहीं सींची जाती।

    यदि इंसान करना ना चाहे
    स्वयं में बदलाव ।
    तो गलतियां होती रहेंगी
    यदा, कदा, सर्वदा।
    चाहे करते रहें पछतावा
    या फिर लेते रहें अनुभव ।

    अपनी गलती को न समझना ही
    हमारी मूल गलती है ।
    जो इंसान समझे इसे करीब से
    कर्म के साथ बदल दे खुद को ।
    राह के साथ बदल दे दिशा को ।
    तो समझो
    काट दिया उसने गलती का पौधा
    कर लिया अपना प्रायश्चित।
    मानो जन्म ले लिया हो
    फिर से ।

    मनीभाई नवरत्न

  • हाय यह क्या हो गया?- मनीभाई नवरत्न

    हाय यह क्या हो गया?

    हाय यह क्या हो गया?
    महाभारत हो गया ।
    हुआ कैसे?
    एकमात्र दुर्योधन से!
    किसका बेटा ?
    अंधे धृतराष्ट्र का!
    पट्टी लगाई आंखों में
    पतिव्रता गांधारी का।
    शायद कम गई दृष्टि इनकी,
    उद्दंडता जो दुर्योधन ने की ।


    असल कसूरवार कौन?
    जिसने दुर्योधन को गढ़ा।
    जीवन के महत्वपूर्ण घड़ियों में ,
    जो सारे बुरे सबक को पढ़ा ।
    दोषी वे सारे व्यवस्था हैं
    जो देखती हैं सब कुछ ,
    पर होती नहीं पीड़ा ,
    ना प्रतिक्रिया ,ना कुछ ।


    आज ही पल रहे हैं ,
    किशोरों में कुछ दुर्योधन ।
    जिन पर दृष्टि नहीं मां-बाप की,
    चुंकि लगाई गई आंखों में
    मोह की पट्टी ।
    लेकिन दुर्योधन सबक ले रहा
    अब भी सारे व्यवस्था से ।
    फिर से होगा महाभारत
    हम फिर बोलेंगे
    हाय यह क्या हो गया ?

    मनीभाई नवरत्न

  • ये तो बस मूर्खों की पीढ़ी बनायेगा

    ये तो बस मूर्खों की पीढ़ी बनायेगा

    manibhainavratna
    manibhai navratna

    ये जानता नहीं अपनी मंजिल,  लक्ष्य के लिए कैसे सीढ़ी बनायेगा ?
    मूर्ख बनाने में शातिर महाप्रभु, ये तो बस मूर्खों की पीढ़ी बनायेगा ।।

    इसे स्वयं को जो भी अच्छा लगे, उसे सत्य मान लेता है।
    स्वयं को सच्चा परम ज्ञानी, दूसरों को झूठा जान लेता है।
    सच झूठ का पैमाना बनाया है स्वार्थ तुष्टिकरण के लिए
    भला कोई एक नजर में , कैसे सबको पहचान लेता है ?

    अब ये तो भले मानस ठहरे , मधुमेह रोगी को खीर मीठी खिलायेगा ।
    मूर्ख बनाने में शातिर महाप्रभु,  ये तो बस मूर्खों की पीढ़ी बनायेगा ।।

    मोबाइल, परफ्यूम, शाम की नशा, अब ये रोज की कहानी हो गई ।
    इस लल्लू ने लाली को देखा तो , धड़कन भी जैसे दीवानी हो गई ।।
    बन गया ये सूरज उसे बनाके चांद , जैसे जोड़ी आसमानी हो गई ।
    पर ये क्या हुआ ? क्रीम मुंह लगाते ही, सब तो पानी पानी हो गई ।

    गर उतर गया है नशा, तो देखे दशा, पर ये कोने में बीड़ी सुलगायेगा ।
    मूर्ख बनाने में शातिर महाप्रभु, ये तो बस मूर्खों की पीढ़ी बनायेगा ।।

    – मनीभाई नवरत्न

  • बेखुदी की जिंदगी- मनीभाई नवरत्न

    बेखुदी की जिंदगी…

    बेखुदी की जिंदगी हम जिया करते हैं।

    शायद इसलिए हम पिया करते हैं ।

    रही सही उम्मीदें तुझ पर अब जाती रही।
    ना समझ बन गए हैं कोई सोच आती नहीं ।
    मिली तुझसे जख्मों को हम सीया करते हैं ।

    बेखुदी की जिंदगी…

    बेशुमार दौलत क्या? हमको पता नहीं ।
    बेपनाह मोहब्बत क्या ?तुमको पता नहीं।
    फिर हम सा कोई फकीर ,क्यों प्यार किया करते हैं ।

    कविता संग्रह
    कविता संग्रह

    बेखुदी की जिंदगी…

    प्यार कोई कसमों को, देखती कहां है ?
    दुनिया की रस्मों को, सोचती कहां है ?
    दुनिया के लिए रहो प्यारी ,
    दुआ दिल से दिया करते हैं ।

    बेखुदी की जिंदगी…

    🖋मनीभाई नवरत्न