धरा पर मानव जीवन अपने आप में एक अमूल्य सौगात है। भारतीय संस्कृति में उपवास को धर्म की परिधि में रखा गया है।आदि काल से ही हमारे मनीषियों ने स्वस्थ मानव जीवन की प्राप्ति हेतु अनेक उपाय सुझाये। हमारे ग्रंथ भी हमें शारीरिक व मानसिक रूप से स्वस्थ रखने हेतु तत्पर हैं। हमारे धर्म ग्रंथों में आस्था की महत्ता रही है। पूजा पाठ के दौरान उपवास को प्राथमिकता दी गयी है।
उपवास का अर्थ
उपवास का अर्थ है – उप+ वास, अर्थात आपकी आत्मा में परमात्मा का वास ही उपवास है। उपवास में तीन चीजों की आवश्यकता होती है-संयम, नियम का पालन, देवाराधन (लक्ष्य के निष्ठा)। इन तीनों के कारण मन में आस्था और विश्वास की वृद्धि होती है।
उपवास का दूसरा नाम
उपवास का दूसरा नाम है संयम। चाहे खाने पीने की चीजों का हो या मन मस्तिष्क पर संयम या विचारों का संयम होना ही उपवास है। वास्तव में उपवास मानव शरीर की जैविक क्रियाओं को आराम देने की एक परंपरा है। उपवास मन की उद्विग्नता को शांत करके मानसिक शांति देने का एक स्तंभ है।
उपवास के द्वारा तनाव , चिंता व अवसाद जैसी भयंकर मानसिक स्थिति से बचा जा सकता है। एक तरफ जहाँ हमें लगता है हमारे इष्ट खुश रहे हैं , उससे सकारात्मक ऊर्जा का प्रवाह होता है । वहीं दूसरी तरफ शरीर के अंगों को आराम मिलने से वे फिर से उचित गति से अपने कार्यों का निष्पादन करने लगते हैं और दीर्घायु जीवन यापन में मदद करते हैं।
” बिगड़ते पर्यावरणीय संतुलन और मौसम चक्र में बदलाव के कारण पेड़-पौधों की अनेक प्रजातियों के अलावा जीव-जंतुओं के अस्तित्व पर संकट के बादल मंडरा रहे हैं। पर्यावरण के तेजी से बदलते दौर में हमें भली-भांति जान लेना चाहिए कि इनके लुप्त होने का सीधा असर समस्त मानव सभ्यता पर पड़ना अवश्यंभावी है। विश्वभर में आधुनिकीकरण और औद्योगिकीकरण के चलते प्रकृति के साथ बड़े पैमाने पर जो खिलवाड़ हो रहा है, उसके मद्देनजर आमजन को जागरूक करने के लिहाज से ठोस कदम उठाने की दरकार है। हमें यह स्वीकार करने से गुरेज नहीं करना चाहिए कि इस तरह की समस्याओं के लिए कहीं न कहीं जिम्मेदार हम स्वयं हैं।
कोरोना काल में लॉकडाउन के दौर ने पूरी दुनिया को यह समझने का बेहतरीन अवसर दिया था कि इंसानी गतिविधियों के कारण ही प्रकृति का जिस बड़े पैमाने पर दोहन किया जाता रहा है, उसी की वजह धरती कराहती रही है। प्रकृति मनुष्य को बार-बार बड़ी आपदा के रूप में चेतावनियां भी देती रही है लेकिन उन चेतावनियों को दरकिनार किया जाता रहा है। प्रकृति के साथ छेड़छाड़ का ही नतीजा रहा है कि बीते कुछ वर्षों में मौसम चक्र में बदलाव स्पष्ट दिखाई दिया है। वर्ष दर वर्ष जिस प्रकार मौसम के बिगड़ते मिजाज के चलते समय-समय पर तबाही देखने को मिल रही है, हमें समझ लेना चाहिए कि मौसम चक्र के बदलाव के चलते प्रकृति संतुलन पर जो विपरीत प्रभाव पड़ रहा है, उसकी अनदेखी के कितने भयावह परिणाम होंगे।
पर्यावरण प्रदूषण के कारण पिछले तीन दशकों से जिस प्रकार मौसम चक्र तीव्र गति से बदल रहा है और प्राकृतिक आपदाओं का आकस्मिक सिलसिला तेज हुआ है, उसके बावजूद अगर हम नहीं संभलना चाहते तो इसमें भला प्रकृति का क्या दोष? प्रकृति के तीन प्रमुख तत्व हैं- जल, जंगल और जमीन, जिनके बगैर प्रकृति अधूरी है और यह विडम्बना है कि प्रकृति के इन तीनों ही तत्वों का इस कदर दोहन किया जा रहा है कि प्रकृति का संतुलन डगमगाने लगा है, जिसकी परिणति भयावह प्राकृतिक आपदाओं के रूप में सामने आने लगी है। प्रकृति का संतुलन बनाए रखने के लिए जल, जंगल, वन्य जीव और वनस्पति, इन सभी का संरक्षण अत्यावश्यक है। प्राकृतिक संसाधनों के अंधाधुंध दोहन और प्रकृति से खिलवाड़ का नतीजा है कि पर्यावरणीय संतुलन बिगड़ने के कारण मनुष्यों के स्वास्थ्य पर तो प्रतिकूल प्रभाव पड़ ही रहा है, जीव-जंतुओं की अनेक प्रजातियां भी लुप्त हो रही हैं।
दुनियाभर में पानी की कमी के गहराते संकट की बात हो या ग्लोबल वार्मिंग के चलते धरती के तपने की अथवा धरती से एक-एक कर वनस्पतियों या जीव-जंतुओं की अनेक प्रजातियों के लुप्त होने की, इस तरह की समस्याओं के लिए केवल सरकारों का मुंह ताकते रहने से ही हमें कुछ हासिल नहीं होगा। प्रकृति संरक्षण के लिए हम सभी को अपने-अपने स्तर पर अपना योगदान देना होगा। प्रकृति के साथ हम बड़े पैमाने पर जो छेड़छाड़ कर रहे हैं, उसी का नतीजा है कि पिछले कुछ समय में भयानक तूफानों, बाढ़, सूखा, भूकम्प जैसी प्राकृतिक आपदाओं का सिलसिला तेजी से बढ़ा है।
हमारे जो पर्वतीय स्थान कुछ सालों पहले तक शांत और स्वच्छ वातावरण के कारण हर किसी को अपनी ओर आकर्षित किया करते थे, आज वहां भी प्रदूषण तेजी से बढ़ रहा है। ठंडे इलाकों के रूप में विख्यात पहाड़ भी अब तपने लगने हैं, वहां भी जल संकट गहराने लगा है। दरअसल पर्वतीय क्षेत्रों में यातायात के साधनों से बढ़ते प्रदूषण, बड़े-बड़े उद्योग स्थापित करने और राजमार्ग बनाने के नाम पर बड़े पैमाने पर वनों के दोहन, सुरंगें बनाने के लिए बेदर्दी से पहाड़ों का सीना चीरे जाने का ही दुष्परिणाम है कि हमारे इन खूबसूरत पहाड़ों की ठंडक भी अब लगातार कम हो रही है। स्थिति इतनी बदतर होती जा रही है कि अब हिमाचल की धर्मशाला, सोलन व शिमला जैसी हसीन वादियों और यहां तक कि जम्मू-कश्मीर में कटरा जैसे ठंडे माने जाते रहे स्थानों पर भी पंखों, कूलरों के अलावा ए.सी. की जरूरत महसूस की जाने लगी है। पहाड़ों में बढ़ती इसी गर्माहट के चलते हमें अक्सर घने वनों में भयानक आग लगने की खबरें भी सुनने को मिलती रहती है। पहाड़ों की इसी गर्माहट का सीधा असर निचले मैदानी इलाकों पर पड़ता है, जहां का पारा अब वर्ष दर वर्ष बढ़ रहा है।
जब भी कोई बड़ी प्राकृतिक आपदा सामने आती है तो हम प्रकृति को कोसना शुरू कर देते हैं लेकिन हम नहीं समझना चाहते कि प्रकृति तो रह-रहकर अपना रौद्र रूप दिखाकर हमें सचेत करने का प्रयास करती रही है। दोषी हम खुद हैं। हमारी ही करतूतों के चलते वायुमंडल में कार्बन मोनोक्साइड, नाइट्रोजन, ओजोन और पार्टिक्यूलेट मैटर के प्रदूषण का मिश्रण इतना बढ़ गया है कि हमें वातावरण में इन्हीं प्रदूषित तत्वों की मौजूदगी के कारण सांस की बीमारियों के साथ-साथ टीबी, कैंसर जैसी कई और असाध्य बीमारियां जकड़ने लगी हैं।
सीवरेज की गंदगी स्वच्छ जल स्रोतों में छोड़ने की बात हो या औद्योगिक इकाईयों का अम्लीय कचरा नदियों में बहाने की अथवा सड़कों पर रेंगती वाहनों की लंबी-लंबी कतारों से वायुमंडल में घुलते जहर की या फिर सख्त अदालती निर्देशों के बावजूद खेतों में जलती पराली से हवा में घुलते हजारों-लाखों टन धुएं की, हमारी आंखें तबतक नहीं खुलती, जबतक प्रकृति का बड़ा कहर हम पर नहीं टूट पड़ता। अधिकांश राज्यों में सीवेज ट्रीटमेंट और कचरा प्रबंधन की कोई पुख्ता व्यवस्था नहीं है। पैट्रोल, डीजल से उत्पन्न होने वाला धुआं वातावरण में कार्बन डाईऑक्साइड तथा ग्रीन हाउस गैसों की मात्रा को खतरनाक स्तर तक पहुंचाता रहा है। पेड़-पौधे कार्बन डाईऑक्साइड को अवशोषित कर पर्यावरण संतुलन बनाने में अहम भूमिका निभाते रहे हैं लेकिन पिछले कुछ दशकों में वन-क्षेत्रों को बड़े पैमाने पर कंक्रीट के जंगलों में तब्दील कर दिया गया है।
पर्यावरणीय असंतुलन के बढ़ते खतरों के मद्देनजर हमें स्वयं सोचना होगा कि हम अपने स्तर पर प्रकृति संरक्षण के लिए क्या योगदान दे सकते हैं। सरकार और अदालतों द्वारा पर्यावरण के लिए गंभीर खतरा बनती पॉलीथीन पर पाबंदी लगाने के लिए समय-समय पर कदम उठाए गए लेकिन हम पॉलीथीन का इस्तेमाल करने के इस हद तक आदी हो गए हैं कि हमें आसपास के बाजारों से सामान लाने के लिए भी घर से कपड़े या जूट का थैला साथ लेकर जाने के बजाय पॉलीथीन में सामान लाना ज्यादा सुविधाजनक लगता है। अपनी सुविधा के चलते हम बड़ी सहजता से पॉलीथीन से होने वाले पर्यावरणीय नुकसान को नजरअंदाज कर देते हैं।
अपनी छोटी-छोटी पहल से हमसब मिलकर प्रकृति संरक्षण के लिए बहुत कुछ कर सकते हैं। हम प्रयास कर सकते हैं कि हमारे दैनिक क्रियाकलापों से हानिकारक कार्बन डाई ऑक्साइड जैसी गैसों का वातावरण में उत्सर्जन कम से कम हो। कोरोना महामारी के इस दौर में पहली बार ऐसा हुआ, जब प्रकृति को स्वयं को संवारने का सुअवसर मिला। अब प्रकृति का संरक्षण करते हुए पृथ्वी को हम कबतक खुशहाल रख पाते हैं, यह सब हमारे ऊपर निर्भर है। कितना अच्छा हो, अगर हम प्रकृति संरक्षण दिवस के अवसर पर प्रकृति संरक्षण में अपनी सक्रिय भागीदारी निभाने का संकल्प लेते हुए अपने स्तर पर उस पर ईमानदारी से अमल भी करें ।
कोरोना महामारी के चलते देश में अधिकतर मौतें आक्सीजन ना मिलने के कारण हुई हैं।लेकिन मनुष्य जिस गति से अपने निजी स्वार्थ के लिए निरंतर वृक्षो का दोहन कर रहा है ऐसा ना हो कि आने वाले वर्षों में हर व्यक्ति को आक्सीजन के लिए जंग लड़नी पड़े।
वन नीति के अनुसार देश का 33.3 प्रतिशत भूभाग वन अच्छादित होना चाहिए। लेकिन दुर्भाग्य की देश के 19.5 प्रतिशत भाग पर ही वन है।यही नहीं वर्ल्ड एयर क्वालिटी रिपोर्ट 2020 के अनुसार दुनिया के 30 सर्वाधिक प्रदूषित शहरों मे 22 भारत में हैं। ये आकड़े भविष्य के भयावह स्थिति की ओर इशारा कर रहे हैं।
अभी हाल ही के दिनों मे वायु प्रदूषण से पूरी दिल्ली मे धुंध जैसे हालात उत्पन्न हो गए थे और हवा की शुद्धता मे गिरावट देखने को मिली थी।ये परिवर्तन मनुष्य द्वारा प्रकृति के साथ खिलवाड़ का प्रत्यक्ष उद्धाहरण है तथा हमे सतर्क कर रहे हैं।
अकेले भारत में हर साल 16 लाख से अधिक लोगों को वायु प्रदूषण के कारण अपनी जान गवानी पड़ती है। आज निरंतर वनों की कमी से जहाँ मानसून मे देरी हो रही है वही औसत से कम वर्षा से देश के विभिन्न हिस्सों को सूखे की मार झेलनी पड़ती है।जहाँ ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन एवम ओजोन परत में छिद्र के कारण अनेक वायुमंडलीय परिवर्तन देखने को मिल रहे है वही पृथ्वी के तापमान में निरंतर वृद्धि हो रही है फलस्वरूप ग्लेशियर पिघल रहे हैं । जिसके कारण समुद्र का जल स्तर बढ़ने से बाढ़ जैसी भयानक तबाही आ सकती।
अतः पर्यावरण संरक्षण की दिशा में सरकार तथा हमारा कर्तव्य बनता है की अधिक से अधिक वृक्ष लगाकर आने वाली पीढ़ियों को स्वच्छ एवम स्वास्थ्य भविष्य दें।