Category: हिंदी कविता

  • बसंत बहार

    बसंत बहार

    शरद फुहार जाने लगी
    बसंती बहार आने लगी !
    कोयल की कूक गुंजे चहुँ ओर
    धीरे – धीरे धूप तेज कदम नें
    बाग में आम बौराने लगी!


    शाम ढ़ले चहचहाते पक्षियों
    घोसला को लौटने झुंड में,
    पेड़ों को पत्ते पीला होकर
    एक – एक कर झड़ने लगी!
    खेत खलिहान मे पुआल
    गाय बकरी सुबह शाम तक
    निश्चिंत हो चरने लगी!


    आया बसंत बहार
    लाया कविता बहार!


    तेरस कैवर्त्य (आँसू)

    सोनाडुला, बिलाईगढ़
    छ. ग.

  • भोर का दिनकर

    ” भोर का दिनकर “

    पश्चिम के सूर्य की तरह
    दुनियाँ भी ….
    मुझे झूठी लगी
    मानवता का
    एक भी पदचिन्ह
    अब तो दिखाई नहीं देता
    जागती आँखों के
    सपनों की तरह
    अन्तःस्थल की
    भावनाएँ भी
    खण्डित होती हैं
    तब ..
    जीवन का
    कोई मधुर गान
    सुनाई नहीं देता
    फिर भी ….
    सफेदपोश चेहरों को
    बेनकाब करते हुए
    एक नई उम्मीद का
    दमखम भरते हुए
    सुनहले फसलों को
    प्राणदान देते हुए
    इस विश्वरूपी भुवन की ओर
    धीमे कदमों से चलते हुए
    वह भोर का दिनकर
    उदित होता है
    दूर पूर्व से …………
    …………………………….. !!
    रचनाकार ~


    प्रकाश गुप्ता “हमसफर”


    युवा कवि एवं साहित्यकार
         (स्वतंत्र लेखन)
    रायगढ़ (छत्तीसगढ़) से


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  • लकड़ियों पर कविता

    लकड़ियों पर कविता

                
    चिता की लकड़ियाँ,
    ठहाके लगा रही थीं,
    शक्तिशाली मानव को,
    निःशब्द जला रही थीं!
    मैं सिसकती रही,
    जब तू सताता था,
    कुल्हाड़ी लिए हाथ में,
    ताकत पर इतराता था!
    भूल जाता बचपन में,
    खिलौना बन रिझाती रही,
    थक जाता जब खेलकर,
    पालने में झुलाती रही!
    देख समय का चक्र,
    कैसे बदलता है,
    जो जलाता है वो,
    कभी खुद जलता है!
    मेरी चेतावनी है,
    अब मुझे पलने दे,
    पुष्पित,पल्लवित,
    होकर फलने दे!
    वृक्ष का बन मित्र उसे,
    स्नेह और दुलार दे,
    प्यार से जीना सीख,
    औरों को भी प्यार दे।
    —–डॉ. पुष्पा सिंह’प्रेरणा’
    अम्बिकापुर,सरगुजा(छ. ग.)
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  • बोल रहे पाषाण

    बोल रहे पाषाण

    बोल रहे पाषाण अब
    व्यक्ति खड़ा मौन है,
    छोड़ा खुद को तराशना
    पत्थरों पर ही जोर है।
    कभी घर की दीवारें
    कभी आँगन-गलियारे,
    रखना खुद को सजाकर
    रंग -रौगन का दौर है।
    घर के महंगे शो पीस
    बुलाते चारों ओर हैं  ,
    मनुज को समय नहीं
    अब चुप्पी का दौर है।
    दिखावे की है दुनिया
    कलाकारी सब ओर है,
    असली चेहरा छुपा लेना
    अब मुखौटों का दौर है।
    मन की आँखें खोल लो
    मौन करता अब शोर है,
    पहले खुद को तराश लो
    दूसरों पर कहाँ जोर है।।
    मो..9422101963
    मधुसिंघी,नागपुर(महाराष्ट्र)
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  • आया बसंत

    “आया बसंत”

    नव पल्लव नव रंग लिए,नव नवल पुष्प का गंध लिए।
    सरसों की पीली चुनरी ओढ़े, टेशू के सुन्दर रंग लिए।

    खेतों और खलिहानों में, बागों और कछारों में। 
    जंगल और पहाड़ों में, रंग बसंती संग लिए।

    उलट-पुलट चल रही बयारें, दिशा दिशा सब झूम रहे।
    नव चेतन का गुँजार लिए, चहुंओर निराली सी लगती।
    नभ में उज्जवल चँद्र किरण भी,थिरक रही नद सर जल में।
    जैसे भौंरा गुनगुन करते,कोयल कुहू-कुहू कूक रही।
    नाद नगाड़े के गुंजन से, जग जैसे बौरायी हो।
    जन जन को आल्हादित करने,बसंत आया नव रंग लिए।
             रविबाला ठाकुर”सुधा”
             स./लोहारा, कबीरधाम
             सं. नं. 9993382528
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