Category: हिंदी कविता

  • पुलवामा की घटना

    पुलवामा की घटना

    पुलवामा की घटना देख,
                                  देश बड़ा शर्मिंदा है।
    धिक्कार हमारे भुजबल पर ,
                          अब तक कातिल जिन्दा है।
    वो बार -बार हमला करते ,
                              हम शांति वार्ता करते है।
    दुश्मन इस गफलत में है,
                            शायद हम उससे डरते है।
    गीदड की औकाद ही क्या ,
                          जो हमको आँख दिखायेगा।
    पीठ पर घाव दिया है ,
                              तो छाती पर भी खायेगा।
    एक काम बस इतना करना ,
                                  सेना को समझा देना।
    इन हत्यारे कुत्तो की ,
                         छाती को छलनी बना  देना।
    हमने बेटा खोया है,
                               उनको भी खोना होगा।
    अपने आंसू बहते है ,
                                उनको भी रोना होगा।
    यही न्याय है यही धर्म है,
                                 खून के बदले खून बहे।
    दर्द जितना हम झेले है,
                                   कष्ट उतना वो भी सहे।
    पुलवामा भी याद करे ,
                             ऐसा बदला लेना होगा।
    सर्जिकल स्ट्राइक कर ,
                              जवाब उनको देना होगा।
                      पंकज

  • अब तो बस प्रतिकार चाहिए

    अब तो बस प्रतिकार चाहिए

    आज लेखनी तड़प उठी है
    भीषण नरसंहार देखकर।
    क्रोध प्रकट कर रही है अपना
    ज्वालामुखी अंगार उगलकर।
    दवात फोड़कर निकली स्याही
    तलवारों पर धार दे रही।
    कलम सुभटिनी खड्ग खप्पर ले
    रण चण्डी सम हुँकार दे रही।
    जीभ प्यास से लटक रही
    वैरी का शोणित पीने को।
    भाला बनकर आज भेद दूँ
    आतंकी के सीने को।
    अबकी होली में आतंकी
    को होलिका बनाउंगी।
    फिर से सुत प्रह्लाद की खातिर
    वैरी चिता सजाऊँगी।
    बनूँ कृष्ण गाण्डीव उठाऊँ
    अब तो बस प्रतिकार चाहिए।
    नापाक इरादे दुर्योधन का
    कलयुग में संहार चाहिए।
    न देखो बाट इशारे की
    सत्ता क्या निर्णय लेगी।
    सब राजनीति की मिलीभगत
    बन मूक चूड़ियाँ पहन लेगी।
    शंखनाद कर बिगुल बजाकर
    रणभेरी मैं बन जाऊँगी।
    बनकर बरछी ढाल कटारी
    दुश्मन को मजा चखाऊँगी।
    कसम है उसके घर में घुसकर
    शीश हाथ से काटूँगी।
    मुण्ड माल को पहन गले में
    भैरवी बनकर नाचूँगी।
    देखकर मेरा भीषण ताण्डव
    जर्रा जर्रा थर्राएगा।
    युगों युगों तक पाकिस्तान भी
    वन्देमातरम गायेगा।
    स्वरचित
    वन्दना शर्मा”वृंदा”
    अजमेर

  • शारदे आयी हो मेरे अंगना

    शारदे आयी हो मेरे अंगना

    हे माँ शारदे, महाश्वेता आयी हो मेरे अंगना ।
    पूजूँगा तुम्हें हे शतरूपा, वीणापाणि माँ चंद्रवदना ।।


    बसंत ऋतु के पाँचवे दिवस पर हंस पे चढ़ कर आती हो।
    हे मालिनी इसलिए तुम हंसवाहिनी कहलाती हो।।
    माता तुम हो पुस्तक-धारिणी पुस्तक चढ़े तेरे चरणों में।
    ज्ञान का वर दो हे महामाया आया हूँ तेरी शरणों में ।।


    ज्ञान का गागर भरकर माता अपने साथ जो लाती हो ।
    अज्ञानता को दूर भगा माँ ज्ञान का अमृत पिलाती हो ।।
    हे चित्रगंधा माँ सरस्वती अबीर गुलाल तुम्हें भाता है ।
    तेरे आगमन से महाभद्रा फाग संगीत शुरू हो जाता है ।।


    आम की मंजरी, गेहूँ की बाली तेरी चरणों में आने को तरस रही।
    गेंदा,गुलाब,जूही और केतकी तेरी चरणों में बरस रही ।।
    गाजर,बेर,शकरकंद और अमरूद का बनता है महाप्रसाद ।
    महाप्रसाद खाने से सुवासिनी मिलता हमें ज्ञान का स्वाद ।।


    हे वागीश्वरी ज्ञानदायिनी आते रहना तुम  हर साल ।।
    खुशी- खुशी पूजूँगा माता और उड़ाऊ खूब गुलाल ।।

    बाँके बिहारी बरबीगहीया

  • पिया जी देखो वसंत आ गया

    पिया जी देखो वसंत आ गया

    पेड़ो के झुरमुट से आती
    कोयल की मीठी बोली
    फूलों की हर कली पर देखो
    मतवाले भवरों की टोली
    आम वृक्ष मंजरी व टिकोरो से लदबद गया ।
    पिया जी देखो वसंत आ गया ।।


    बेल वृक्ष पर आये नए फूल
    पौधो की अनुपम हरियाली
    नव पल्लव का पालना डाले
    प्रकृति न
    भी लाई खुशहाली
    टेसू के दहकते फूल मनोरम छटा फैला गया ।
    पिया जी देखो वसंत आ गया ।।


    आमो की मोहनी खुशबू
    महुआ की मनमोहक गंध
    सरसों से सज रही धरती देख
    हमें मिल रहा अलौकिक आनंद
    पेड़ो की हरेक डाली पक्षियों से चहचहा गया ।
    पिया जी देखो वसंत आ गया ।।


    फूलों का वस्त्र पहने ऋतुराज
    सज- धज के आ गये है
    प्रकृति का विहंगम दृश्य दिखाकर
    मन में समा गये है
    सौन्दर्य बिखेरती मौसम सुहावना ने मेरे मन को लुभा गया ।
    पिया जी देखो वसंत आ गया ।।


    ✍बाँके बिहारी बरबीगहीया ✍
    मोबाइल नंबर- 6202401104

  • एक कविता हूँ

    एक कविता हूँ!

    उंगलियों में कलम थामे
    सोचता हूँ…
    कि कहीं
    है वह ध्वनि
    जो उसे ध्वनित करे…!
    मैं अंतरिक्ष में तैरता..
    कल्पनाओं में
    छांटता हूँ
    शब्द
    मीठे -मीठे
    कोई शब्द मिलता नहीं मुझे
    जो इंगित करे उसे
    बस….
    उंगलियों से ही उसे –
    उकेरता हूँ …
    मिटाता हूँ ।
    उंगलियों में कलम थामे…
    मैं सोचता हूँ ।।
    उसकी खूबसूरती
    वो भोलापन
    तो मुझपे क़यामत ढाई
    न कोई उपमा सूझी
    न अतिशयोक्ति ही काम आई
    जब भी लिखना चाहूँ
    उसपे कोई कविता –
    न कोई शब्द सूझता है…
    न भाता है
    और मैं…
    बस लकीरें ही खींचते जाता हूँ ।
    उंगलियों में कलम थामे…
    मैं सोचता हूँ ।।
    उन आड़ी-तिरछी लकीरों में भी
    वो ही तो मुझको दिखती है…
    जो आहिस्ता से कानों में मेरे कहती है–
    ‘इन पन्नों पर खींची है तुमने
    जो आड़ी-तिरछी रेखाएँ …
    वो मैं ही तो हूँ ‘
    “एक कविता हूँ “!!!

    -@निमाई प्रधान’क्षितिज’
          03/09/2016