Category: हिंदी कविता

  • मुसाफिर पर कविता

     चल मुसाफिर चल-केवरा यदु “मीरा “

    जिन्दगी  काँटों भरी है चल मुसाफिर चल ।
    गिर गिर कर उठ संभल मुसाफ़िर चल ।

    लाख तूफाँ आये तुम रूकना नहीं।
    मंजिलों की चाह  है झुकना नहीं ।
    मंजिल तुझे मिल जायेगी आज नहीं तो कल।

    याद रख जो आँधियों से है टकराते ।
    मंजिल कदम चूमने उनके ही आते।
    गुनगुनाना कर मुस्कुरा कर ऐ मुसाफ़िर चल ।

    लक्ष्य अपना ले बना भटक मत
    ये माया की नगरी में अटक मत
    सुकून मिलता जाएगा चल मुसाफिर चल

    जिन्दगी काँटों भरी है चल मुसाफिर चल ।
    गिर गिर कर उठ संभल मुसाफ़िर चल ।

    केवरा यदु “मीरा “

  • साल पर कविता

    साल ही तो है

    कुछ को होगी ख़ुशी, कोई ग़म से भर जाएगा
    न जाने ये नया साल भी, क्या कुछ कर जाएगा

    कुछ अरमान होंगे पूरी इसमें उम्मीद है हमें
    और कुछ इस साल कि तरह ख़ुद में मर जाएगा

    टूटा है गर मोहब्बत तो, हो ही जाएगा दोबारा
    बस देखो एहतियातन वहाँ तज जहाँ तक नज़र जाएगा

    कुछ ना हुआ अच्छा तो उदास मत होना मेरे यारों
    साल ही तो है बारह महीनों में फिर गुज़र जाएगा

    – दीपक नायक “राज़” 

  • धर्म एक धंधा है

    धर्म एक धंधा है 

    गंगाधर मनबोध गांगुली “सुलेख “
            समाज सुधारक ” युवा कवि “

    क्या धर्म है ,क्या अधर्म है ?

    आज अधर्म को ही धर्म समझ बैठें हैं ।

    धर्म से ही वर्ण व्यवस्था ,
                                 समाज में आया है ।
    धर्म ही इंसान को ,
                   इंसान का दुश्मन बनाया है ।।01।।

    वर्ण व्यवस्था बाद में ,
                        जाति व्यवस्था में बदल गया ।
    मानव समाज को देखो ,
                      अपने आपमें बिखर गया ।।02।।

    समाज सुधारक पैदा हुए ,
                   समाज को सुधारने के लिए ।
    समाज के बुराइयों को ,
                   समाज से मिटाने के लिए ।।03।।

    आज शिक्षित इंसान भी,
                     अशिक्षित जैसा सो रहा है ।
    समाज की हालत देखकर ,
                 समाज सुधारक रो रहा है ।।04।।

    आज के इंसान में ,
                          इंसानियत नहीं है ।
    आज के मानव में ,
                           मानवता नहीं है ।।05।।

    लड़ रहे हैं हम ,
                      सिर्फ अपने आप से ।
    रूढ़िवाद, जातिवाद ,
                           और अंधविश्वास से ।।06।।

    सभ्यता और संस्कृति कहकर ,
                           बुराई को भी ढ़ो रहे हैं ।
    शिक्षित हैं फिर भी ,
                    अशिक्षित जैसे सो रहे हैं ।।07।।

    तर्क – वितर्क लगता नहीं कोई ,
                      फिर भी धार्मिक बंदा है ।
    धर्म तो एक धंधा है ,
                         मानव आज भी अंधा है ।।08।।

    सिर्फ नारा लगाते हैं लोग :—-

    हिन्दू , मुस्लिम, सिख ,ईसाई ।
                            आपस में हैं ,भाई – भाई ।
    तो आप ही बताइए ?
                      धर्म के नाम पर क्यो होता है लड़ाई ? ।।9।।

    मुझे तो लगता है :—

    तर्क – वितर्क लगता नहीं कोई ,
                                फिर भी धार्मिक बंदा है ।
    धर्म तो एक धंधा है ,
                        मानव आज भी अन्धा है ।।10।।

                       गंगाधर मनबोध गांगुली ” सुलेख “
                         समाज सुधारक ” युवा कवि “

                             9754217202

  • महामानव अटल बिहारी बाजपेयी पर कविता

    महामानव अटल बिहारी बाजपेयी पर कविता

    महामानव अटल बिहारी बाजपेयी पर कविता

    atal bihari bajpei
    अटल बिहारी वाजपेयी

    मानवता के प्रेणता थे।
                राष्ट के जन नेता थे।
    भारत माँ के थे तुम लाल।
           प्रजातंत्र में किया कमाल।।
    विरोधी भी कायल थे।
             दुश्मन भी घायल थे।।
    पत्रकार व कवि सुकुमार।
            प्रखर वक्ता में थे सुमार।।
    जीवन की सच्चाई लिखने वाले।
         सबके दिलो को जीतने वाले।।
    तुम्हारे मृत्यु पर दुनिया रोया है।
    आसमान मे घने कोहरे होया है।।
    प्रकृति मे कभी -कभी ,
                   हमने ऐसा देखा है।  
    महामानव के रूप में,
                  हमने तुम्हे देखा है।।
    माँ भारती ने अपना  ,
               दुलारा लाल खोया है।
    तम्हारे वदाई पर,
                 पुरी दुनिया रोया है।।

           चिन्ता राम धुर्वे
    ग्राम -सिंगारपुर(पैलीमेटा)

  • मैं हर पत्थर में तुम्हीं को देखता हूँ

    मैं हर पत्थर में तुम्हीं को देखता हूँ,

    मैं हर पत्थर में तुम्हीं को देखता हूँ,
    जब आँखों से मोहब्बत देखता हूँ।
    अब जल्दी नहीं कि सामने आओ मेरे,
    मैं तो तस्वीर भी दूर कर देखता हूँ।
    जहां में सब उजाले में देखते हैं तुम्हें,
    मैं तो अंधेरे में तेरा चेहरा देखता हूँ।
    सब तुझमें, खुद को देखना चाहते थे,
    मैं चाहता ही नहीं हूँ, बस देखता हूँ।
    अजीब है न किसी की उल्फ़तें देखना,
    मगर किरदार में, मैं हूँ, तो देखता हूँ।
    मेरी हरकतों ने बतलाया होगा “चंचल”,
    मैं किस कदर ग़ज़ल में उसे देखता हूँ।


    सागर गुप्ता “चंचल”