Blog

  • सलिल हिंदी – डाॅ ओमकार साहू

    सलिल हिंदी (सरसी छंद)

    *स्वर व्यंजन के मेल सुहाने, संधि सुमन के हार।*
    *रस छंदों से सज धज आई, हिंदी कर श्रृंगार..*

    वर्णों का उच्चारण करतें, कसरत मुख की जान।
    मूर्धा जिह्वा कंठ अधर सह, दंतो से पहचान।
    ध्वनियों को आधार बनाकर, करते भेद सुजान।
    *भाव सहित संदर्भ समाहित, सहज शील संचार…*
    *रस छंदों से सज धज आई, हिंदी कर श्रृंगार..*

    अभिव्यक्ति की सरल इकाई, मधुरस से है बोल।
    तत्सम अरु तद्भव कानों में, मिश्री देते घोल।
    मुहावरे गागर में सागर, सामासिक अनमोल।
    *जाति धर्म में मेल बढ़ाती, सामंजित संस्कार….*
    *रस छंदों से सज धज आई, हिंदी कर श्रृंगार..*

    अपने ही घर में गुमसुम है, देखो हिंदी आज
    अंग्रेजी उर्दू में होते, शासन के सब काज।
    लौटा दो हिंदी का गौरव, आसन सत्ता राज।
    *हिंदी भाषी राज्य बने सब,नाद करे टंकार…*
    *रस छंदों से सज धज आई, हिंदी कर श्रृंगार..*

    == डॉ ओमकार साहू *मृदुल* 14/09/22==

  • हिंदी का पासा – उपेन्द्र सक्सेना

    पलट गया हिंदी का पासा

    गीत-उपमेंद्र सक्सेना एडवोकेट

    हिंदी बनी राजभाषा ही, लेकिन नहीं राष्ट्र की भाषा
    क्षेत्रवाद के चक्कर में ही, पूरी हो न सकी अभिलाषा।

    पूर्वोत्तर के साथ मिले जब, दक्षिण के भी लोग यहाँ पर
    हिंदी का विरोध कर जैसे, जला रहे हों अपना ही घर
    हिंदी की सेवा में जिसको, देखा गया यहाँ पर तत्पर
    ऐसा हंस तड़पता पाया, मानो झुलस गए उसके पर

    कूटनीति से यहाँ बन गयी, अंग्रेजी सम्पर्की भाषा
    चतुराई से कुछ लोगों ने, हिंदी की बदली परिभाषा।
    हिंदी बनी राजभाषा ही……

    आज तीन सौ अड़तालिसवीं, संविधान की ऐसी धारा
    जिसमें लागू प्रावधान से, अंग्रेजी को मिला सहारा
    कामकाज हो गया प्राधिकृत, अंग्रेजी ने रूप निखारा
    वादा था पंद्रह वर्षों का, मिला नहीं अब तक छुटकारा

    ठीक नहीं स्थिति हिंदी की, केवल मिलती रही दिलासा
    छँटी नहीं क्यों भ्रम की बदली,मन इतना हो गया रुँआसा।
    हिंदी बनी राजभाषा ही…….

    हिंदी का सरकारी ठेका, मिला जिसे फूला न समाया
    जिसको चाहा उसे उठाया, जिसको चाहा उसे गिराया
    तत्कालिक सरकारी गलती, प्रश्न यहाँ पर उठकर आया
    तिकड़म के ताऊ के कारण, सीधा-सादा उभर न पाया

    अंग्रेजी का दौर चला है, पलट गया हिंदी का पासा
    जैसे कोई कुँआ खोदता, फिर भी रह जाता हो प्यासा।
    हिंदी बनी राज भाषा ही……

    सरकारी लोगों में क्यों अब, यहाँ बढ़ी हिंदी से दूरी
    अंग्रेजी से मोह बढ़ गया, और ढोंग हो गया जरूरी
    कानवेंट में बच्चे पढ़ते, उनकी सब इच्छाएँ पूरी
    तड़क-भड़क की इस दुनिया में, हिंदी उनकी रही अधूरी

    समझ न आया क्यों हिंदी को, देते लोग यहाँ पर झाँसा
    फैला जाल स्वार्थ का इतना, अपनों ने अपनों को फाँसा।
    हिंदी बनी राजभाषा ही……

    रचनाकार- उपमेंद्र सक्सेना एड०
    ‘कुमुद- निवास’
    बरेली (उ० प्र०)
    मोबा० नं०- 98379441 87

  • परवाह करने वाले – विनोद सिल्ला

    परवाह करने वाले

    होते हैं कम ही
    परवाह करने वाले
    होता है हर एक
    इस्तेमाल करने वाला

    वास्तव में
    परवाह करने वाले
    इस्तेमाल नहीं करते
    वहीं इस्तेमाल करने वाले
    परवाह नहीं करते

    पहचानिए
    कौन हैं परवाह करने वाले
    कौन हैं इस्तेमाल
    करने वाले

    होते हैं विरले ही
    परवाह करने वाले
    उनकी परवाह
    अवश्य करें ।

    -विनोद सिल्ला

  • श्रीराम पर कविता – बाबूराम सिंह

    कविता

    भक्त वत्सल भगवान श्रीराम
    —————————————–

    सूर्यवंशी सूर्यकेअवलोकि सुचरित्र -चित्र,
    तन – मन रोमांच हो अश्रु बही जात है।
    सुखद- सलोना शुभ सदगुण दाता प्रभु ,
    नाम लेत सदा भक्त बस में हो जातहैं।

    नाम सीताराम सुखधाम पतित -पावन ,
    पाप-ताप आपो आप पलमें जरि जात है ।
    पामर ,पतित अरू पातकी अघोर हेतु ,
    सेतु बनी तार बैकुण्ठ को ले जात है।

    नेम तार नरकिन के होत ना बिलम्ब नाथ,
    शरणागत आपही अधम के लखात है।
    तारो कुल रावन पतित पावन श्रीराम ,
    दियो निज धाम आप स्वामी तात मात है।

    गणिकाअजामिल,गज,गिध्द उबारो नाथ,
    आरत पुकार सुनि नंगे पांव दौडी़ जात है।
    आप हर वेष देश काल में कमाल कियो,
    भक्त हेतु खम्भ से नरसिंह बन जात है।

    धन्य अवध राजा – रानी दरबार -कुल,
    धन्य श्रीराम विश्वामित्र संघ जात है।
    राक्षस संहार और अहिल्या उध्दार करी,
    तोड़ के पिनाक टारे जनक संताप है ।

    कैकयी कृपासे घर छोडे़ सत्य कृपासिन्धु,
    विप्र सुर ,धेनु हेतु छानत पात -पात हैं।
    धीमर से प्रीति -रीति खाये शबरी के बेर,
    प्रेम प्रधान में ना भेद जात – पात है।

    कृपा के सिन्धु करी कृपा सभी पर सदा,
    निज पद ,रुप दे के सदा मुस्कात हैं ।
    कण-कणके वासीअघनाशी सर्वत्र आप,
    निज में निहारने से आप ही लखात हैं।

    भगवन सदा ही हृदय में बिराजो नाथ,
    निज में मिला लो बस इतनी सी बात है।
    सन्त प्रतिपाल बान रुप को ध्यान करि,
    अपना लो प्रभु ” बाबूराम ” बिलखात है।

    ———————————————–
    बाबूराम सिंह कवि
    बड़क खुटहाँ, विजयीपुर(भरपुरवा )
    जि0-गोपालगंज(बिहार)८४१५०८
    मो०नं० – ९५७२१०५०३२
    ———————————————–

  • सुफल बनालो जन्म कृष्णनाम गायके – बाबूराम सिंह

    सुफल बनालो जन्म कृष्णनाम गायके

    कृष्ण सुखधाम नाम परम पुनीत पावन ,
    पतित उध्दार में भी प्यार दिखलाय के।
    कर की मुरलिया से मोहे त्रिलोक जब ,
    सुफल बना लो जन्म कृष्ण नाम गाय के।

    चौदह भुवन ब्रह्मांण्ड त्रिलोक सारा ,
    पालन संहार सृष्टि छन में रचाय के ।
    कलिमल त्रास से उदास आज जन-जन ,
    वेंणु स्वर फूंक फिर भारत में आय के ।

    ललाटे तिलक भाल गीता में सुन्दर माल ,
    अधरन पर प्रेम सर मुरली सहाय के ।
    आँख रतनारे केश घुंघर के लट सोहे ,
    मोहे देव किन्नर नाग छवि छांव पाय के ।

    खलहारी कारीकृष्ण खेल यशोदाके गोद ,
    ब्रज को बचायो नख पर्वत उठाय के ।
    सखियन के रोम-रोम बसत बिहारी ब्रज ,
    सार रस सुधा अतुलित वर्षाय के।

    बन्धन छुडा़इ बसुदेव देवकी के जेल ,
    कुब्जा को काया दीन्ही बांसुरी बजाय के ।
    गीता उपदेश भेष सारथी बनाइ आपन ,
    अर्जुनको दीन्हो हरि शिष्य सदपाय के ।

    पांव में पैजनी पीताम्बरी बदन हरि ,
    चारों फल राखे करतल में छुपाय के ।
    शेष महेश सुरेश और सरस्वती संत ,
    पार नाही पावे कोई रूप गुण गाय के ।

    कण-कणमें वासकर हरअघ हर -हर के ,
    सारा जग रहे लौ तोही से लगाय के ।
    भाव में विभोर प्रेम नेम तार नर्की के ,
    होत ना विलम्ब नाथ नंगे पांव धाय के ।

    होत ना बखान बलिहारी जाऊँ बार-बार ,
    हारे शत कोटि काम रूप से लजाय के ।
    बस वही रूप हरि हृदय में बास करे ,
    कहे “बाबूराम कवि”शीश पद नाय के ।

    ———————————————–
    बाबूराम सिंह कवि
    बड़का खुटहाँ , विजयीपुर
    गोपालगंज (बिहार)851508
    मो॰ नं ॰ – 9572105032

    ———————————————–