अपने पापा की मैं हूँ सबसे प्यारी बिटिया… उनकी ख़ुशियों की मैं हूँ जादू की इक पुड़िया… अपने पापा की मैं हूँ सबसे प्यारी बिटिया…
प्राण बसते हैं उनके तो बस मेरे ही अंदर। मेरी खुशियाँ का वह है इक अनंत समन्दर।। मैं छोटी सी चिड़ियाँ उनके अँगना की… वह है मेरे उड़ने की खातिर खुले आसमां का अम्बर…
मैं हूँ सबसे सुन्दर इस दुनियाँ में ऐसा वह कहते हैं… मेरी खुशियों की ख़ातिर अम्मा से वह लड़ते हैं… मुझें प्रेम से भर देते वह कहकर अपनी गुड़िया… अपने पापा की मैं हूँ सबसे प्यारी बिटिया…
मेरी हर जरूरत का वह बड़ा ध्यान है रखते। सबसे ज्यादा पाप मेरे मेरा ख्याल है रखते।।
पूरी बिरादरी से लड़कर मुझको विद्यालय भेजा। अक्सर कहते चिड़िया मेरी ऊँचे गगन में उड़ कर आ।।
उनकी लाडली होने से सब पर मेरा हुकुम ही चलता। मेरे आगे मेरे घर मे किसी का कुछ ना मनता।। किस्मत से मेरी ईंर्ष्या करती मेरी सखियाँ… अपने पापा की मैं हूँ सबसे प्यारी बिटिया…
उनकी तीन संतानों में मैं हूँ सबसे छोटी। शामत आ जाती बड़के भैय्यों की मैं जब-जब खेल में रो देती।।
मेरी दुनिया पापा मेरे मैं पापा की दुनिया। अक्सर अम्मा ले लेती है हम दोनों की बलैयाँ।।
मेरे पापा जैसे हो अगर हर लड़की का पापा। कोई फर्क ना पड़ता फिर लड़की हो या लड़का।।
ऐसे अच्छे पापा मेरे। सच में सच्चे पापा मेरे।।
प्रेम से कहते हैं सब मुझको… किस्मत वाली बिटिया हाँ किस्मत वाली बिटिया। अपने पापा की मैं हूँ… सबसे प्यारी बिटिया हाँ सबसे प्यारी बिटिया।
ताज मोहम्मद 287 कनकहा मोहनलालगंज लखनऊ-226301 मोबाइल नंबर-9455942244
है बात कई साल पुरानी,
माँ मुझे सुनाती लोरी सुहानी,
मैं फिर झट सो जाता,
सपनों में खो जाता,
लोरी गाकर करती तुकबंदी, और करती निन्दिया को बंदी,
समय ने ली अंगडाई,
प्यारी माँ की उम्र बढाई ।
अब जब थक कर माँ होती चूर,
बिस्तर पर लेट कर ताकती दूर-दूर,
मै समझ जाता माँ के मन की हूक,
मैं झट उठ जाता बिना किए फिर चूक,
जल्दी से बैठ माँ के सिरहाने,
कई जतन करता माँ को सुलाने,
लोरी गाता,सिर सहलाता,
चूमता माथा, दिल बहलाता,
निन्दिया रानी को बेचैन हो बुलाता,
आमंत्रण पाकर आ जाती निन्दिया रानी,
और फिर सो जाती मेरी मैया सयानी।
एड्स एक लाइलाज बीमारी है, जिसके फैलने का सबसे बड़ा कारण असुरक्षित यौन संबंध है, इस बीमारी से असल में बचाव सिर्फ सुरक्षा में निहित है। एचआईवी/ एड्स से ग्रसित लोगों की मदद करने के लिए धन जुटाना, लोगों में एड्स को रोकने के लिए जागरूकता फैलाना और एड्स से जुड़े मिथ को दूर करना है । लोगों को शिक्षित करने के उद्देश्य से विश्व एड्स दिवस की शुरूआत 1 दिसंबर 1988 को की गयी। तभी से प्रति वर्ष 1 दिसंबर को विश्व एड्स दिवस मनाया जाता है।
अज्ञान और असुरक्षा ही , आज युवाओं की सबसे बड़ी बीमारी ।
एड्स नियंत्रण संभव करें , चलो देकर यौन शिक्षा की जानकारी ।।
– मनीभाई नवरत्न की कलम से
विश्व एड्स दिवस का उद्देश्य एचआईवी संक्रमण के प्रसार की वजह से एड्स महामारी के प्रति जागरूकता बढाना है। सरकार और स्वास्थ्य अधिकारी, ग़ैर सरकारी संगठन और दुनिया भर में लोग अक्सर एड्स की रोकथाम और नियंत्रण पर शिक्षा के साथ, इस दिन का निरीक्षण करते हैं।
एड्स दिवस मनाया जाना एक जन आंदोलन है जिससे इस बीमारी के स्वरूप और प्रभाव के विषय में लोगों को जानकारी मिले। यह बीमारी असुरक्षित जीवन शैली , खुले यौन संबंध, संक्रमित रक्त, तथा सुई और संक्रमित मां से बच्चे में आती है ।
इसका इलाज भी बड़ा महंगा है और आसानी से सर्वत्र सुलभ भी नहीं है ।अज्ञानता और सुरक्षा के कारण विश्व की जनसंख्या का एक हिस्सा इस बीमारी से काल का ग्रास हो चुका है । अब भी समय है कि हम सचेत हो जाएं और इसके संक्रमण से बचने के कारगर उपाय करें।
एड्स का पूरा नाम ‘एक्वायर्ड इम्यूलनो डेफिसिएंशी सिंड्रोम’ है और यह एक तरह का विषाणु है, जिसका नाम HIV (Human immunodeficiency virus) है. प्रारंभ में विश्व एड्स दिवस को सिर्फ बच्चों और युवाओं से ही जोड़कर देखा जाता था। परन्तु बाद में पता चला कि एचआईवी संक्रमण किसी भी उम्र के व्यक्ति को प्रभावित कर सकता है।
इस बीमारी की सबसे बड़ी विडंबना यह है कि संक्रामक व्यक्ति के साथ सामाजिक भेदभाव किया जाता है । उसे हेय और उपेक्षित दृष्टि से देखा जाता है यह दिवस मानवता की पुकार सुनाने का प्रयास करता है कि उन्हें भी सम्मान पूर्वक जीने का अधिकार है ।
आज इस बीमारी के कुछ दवाइयां भी इजाद कर ली गई हैं और रोगी ठीक भी हो रहे हैं । एड्स दिवस नागरिकों को एक सुअवसर प्रदान करता है कि इसके विभिन्न पहलुओं को समझें और वैज्ञानिक तरीके से इसकी रोकथाम करें । इस दिन कार्यकर्ता उल्टे V आकार का लाल फीता लगाकर जन जागरूकता बढ़ाते हैं।
विश्व एड्स दिवस पर कविता
विश्व एड्स दिवस की कविता
मानव रखना ज्ञान को,एडस घातक रोग। यौन रोग कहते इसे,फँसते इसमें लोग।। फँसते इसमें लोग,एचआईवी कहते। जननांगों में घाव,गले में सूजन रहते।। ज्वर आते हैं देह,लगा बढ़ने यह दानव। रोको इसकी वृद्धि,सावधानी से मानव।।
राजकिशोर धिरही छत्तीसगढ़
एड्स पीड़ित – आशीष कुमार
समाज समझता जिनको घृणित कुसूर बस इतना हैं एड्स पीड़ित जीने की इच्छा भी हो चुकी है मृत असह्य वेदना सहते एड्स पीड़ित
समाज इनसे दूरी बनाए सर्वदा तीखी जली कटी सुनाए वसुधैव कुटुंबकम पीछे छूटा उपेक्षा से करता है दंडित सद्भावना की बाट जोहते हैं दुखित एड्स पीड़ित
एड्स है असाध्य बीमारी सुरक्षा इससे हो पूर्ण जानकारी यौन संबंध हो जब असुरक्षित या माता-पिता हो एचआईवी संक्रमित रक्त हो जब इससे दूषित संक्रमण फैलता इनसे त्वरित
पर नहीं फैलता चुंबन से या रोगी के आलिंगन से ना शिशु के स्तनपान से अज्ञानता में हम कर देते अपनेपन से उनको वंचित तिरस्कार का दंश झेलते एड्स पीड़ित
हमें इनकी व्यथा को समझना होगा मन के घावों को भरना होगा अलग-थलग जो पड़ गए हैं उन्हें मुख्यधारा में शामिल करना होगा जीने की ललक जगेगी उनमें होंगे प्रफुल्लित एड्स पीड़ित।
– आशीष कुमार
आओ विश्व एड्स दिवस मनाएँ
आओ विश्व एड्स दिवस मनाएँ रचनाकार-महदीप जंघेल विधा- कविता
आओ हम सब मिलकर , विश्व एड्स दिवस मनाएँ। इस महामारी के नियंत्रण हेतू, जन जागरूकता लाएँ। चिरनिद्रा में लीन हुए रोग से, उनका शोक मनाएँ। आओ हम सब मिलकर , विश्व एड्स दिवस मनाएँ। एच.आई.वी. संक्रमण की, रोकथाम व नियंत्रण हेतू कुछ ठोस कदम उठाएँ। सूचना व शिक्षा के बल पर, जन-जन को बतलाएँ। मानवता व विश्व समुदाय को , इस प्राणघातक रोग से बचाएँ। आओ हम सब मिलकर, 1 दिसम्बर को, विश्व एड्स दिवस मनाएँ।
संदेश-एड्स जैसे घातक बीमारी के प्रति लोगो में ,युवाओं में जनजागरूकता लाएँ।
एक अंकुरित आम , पड़ा था सड़क किनारे । आते जाते लोग , सभी थे उसे निहारे ।। खोज रहा अस्तित्व , उठा ले कोई सज्जन । दे दे जड़ को भूमि , लगा दे लेकर उपवन ।। करता वह चीत्कार है , जीना चाहूँ मैं सुनो । मुझे सहारा दो तनिक , कोई तो मुझको चुनो ।।
सुनते नहीं पुकार , हुए क्या मानव बहरे । हुई चेतना शून्य , भाव भी हुए न गहरे ।। बड़ी तेज है धूप , कई दिन से प्यासा हूँ । बुद्धिमान इंसान , तुम्हारी ही श्वासा हूँ ।। मैं आशातित दृष्टि से ,ताक रहा हूँ हे मनुज । जीवन दोगे तुम मुझे , या बन जाओगे दनुज ।।
मेरे कोमल पर्ण , लगे हैं अब मुरझाने । टूट रही है साँस , मरण जीवन वो जाने ।। पड़ने लगी दरार , सूखता जीवन रस है । अब तो मिले दुलार , टूटता सारा नस है ।। जब तक अंतिम साँस है , तब तक मुझको आस है । मानवता है जिंदा अभी , मन में यह विश्वास है ।।
प्यारा पौधा एक , नर्सरी का हूँ जाया । रखती मेरा ख्याल , ध्यान से हर पल आया ।। शीतल पानी डाल , धूप में मुझे सुलाती । पौष्टिक खाना रोज , समय पर मुझे खिलाती ।। पला बढ़ा हूँ मैं वहाँ , निशदिन लाड़ दुलार से । दुःख कभी जाना नहीं , दूर रहा संसार से ।।
मुनगा, बेर, अनार , आँवला नीबू केला । भरा पड़ा अंबार , पौध का रेला पेला ।। पौधा बन तैयार , तभी बिछड़ा माली से । यात्रा के दौरान , गिरा मैं उस ट्राली से ।। जीने को संघर्ष मैं , पल – पल करता हूँ सदा । मानवीयता ढूढ़ता , रोज झेलता आपदा ।।
चमक उठी है नैन , किसी ने मुझको देखा । शायद अब हो भोर , भाग्य का चमके लेखा ।। उठा लिया निज हाथ , मुझे गड्ढे में रोपा । उसने फिर जलधार ,शीश पर मेरे थोपा ।। तत्क्षण तब मैं जी उठा , हे जीवन दाता नमन। देता हूँ मैं ये वचन , जग में लाऊँगा अमन ।।
26 तालाब
भरे लबालब ताल , तैरते बच्चे तट पर । तट पर वट का पेड़ , पड़े लट छींटे पट पर ।। नीलम वर्ण सरोज , खिले सर में अति सुंदर । क्रीड़ा करते हंस , मीन उछले जल अंदर ।। स्वर्णिम किरणें भोर , जल तरंग में झूमती । जीवन रेखा गाँव की , ताल किनारे घूमती ।।
पशु पक्षी के झुंड , नित्य पीते जल शीतल । ताल किनारे पेड़ , लगाते बरगद पीपल ।। वट सावित्री पर्व , नारियाँ पूजन करती । शंख घंट की नाद , कर्ण प्रिय सबको लगती ।। कुछ गिलहरियाँ शाख पर , करती थी अटखेलियाँ । पास बेर की शाख पर , चढ़ी हुई थीं बेलियाँ ।।
बच्चे आकर ताल , सीखते हैं तैराकी । नित प्रति रविवार , देखिए इसकी झाँकी ।। मछली रानी पास , उन्हें आकर ललचाती । पल में जाती भाग , पकड़ में कभी न आती।। आश्रय जलचर जीव की , होती ये तालाब है । मेंढक मछली सीपियाँ ,पनडूबी नायाब है ।।
खिड़की
खिड़की घर की शान , लगे बिन गेह अधूरी । आये हवा प्रकाश , खिड़कियाँ बहुत जरूरी ।। आकर खिड़की पास , झाँकते बाहर हम सब । खाना हो जब वात , पास बैठे आकर तब ।। बारिश की बूँदें तको , खिड़की में आकर अभी । धर के प्याली चाय की , खड़े – खड़े पीते सभी ।।
बस मोटर या कार , नहीं मिलता है खाली । सभी चाहते नित्य , सीट हो खिड़की वाली ।। बहता नित्य समीर , बहलता सबका मन है । बाहर झाँके लोग , खेत मंदिर या वन है ।। यात्रा बनता आसान है , खिड़की वाली सीट पर । लोग टूट पड़ते वहाँ , जैसे मुर्गी कीट पर ।।
लगा रहे हैं दौड़ , कई यात्री चढ़ने को । पाने को अधिकार , सीट कब्जा करने को ।। कई बार दो लोग , झरोखे पर लड़ते । कितना अधिक महत्व , यही वे साबित करते ।। कै होना भी मान ले , इस झगडे़ का इक वजह । समझौते कुछ लोग कर , दे देते अपना जगह ।।
इसी झरोखे पास , अनेकों प्रेम कहानी । प्रेम मिलन का द्वार , मिले राजा को रानी ।। सुंदर लड़की देख , प्रेम के गाते गाने । जब – जब होती बंद , तड़प जाते दीवाने ।। लहराती पर्दा मखमली , रास्ते की बाधा बने । शाम ढले आती है सुंदरी , यहीं झरोखे सामने ।।
गौरैया आ रोज , बैठती है खिड़की पर । चीं- चीं – चीं – चीं बोल , फुदकती वह झिड़की पर ।। पास पेड़ अमरूद , घोंसला से वक ताके । धामन चढ़कर पेड़ , घोंसला अंदर झाँके ।। सुनते कई कहानियाँ , खिड़की से शुरुवात की । बात इशारों की समझ , छुप – छुप कर हालात की ।।
गेह अँधेरा कूप ,नहीं जब खिड़की कोई । आये नहीं प्रकाश , शांति उस घर की खोई ।। वास्तु दोष इक जान , अशुभ माना जाता है । मिले बुरे संकेत , घर न मन को भाता है ।। बनता मुश्किल से निलय , सोच समझ कर कीजिए । खिड़की रोशन दान से , घर पवित्र कर लीजिए ।।
दर्पण
यथार्थता का ज्ञान , सदा करवाता दर्पण । खुद का साक्षात्कार , करे खुद को ही अर्पण । खुद की हो पहचान , स्वयं से मिलवाता है । देख न पाये नेत्र , वही सब दिखलाता है । दर्पण बिन खुद को कभी , मानव कैसे देखता । खुद के ही पहचान को , कैसे भला सहेजता ।
नारी का शृंगार , अधूरा बिन दर्पण के । रहे अधूरा साज , गीत के बिन अर्पण के । बिन काजल के नेत्र , लुभाते कैसे चितवन । भौंहें टंकाकार , भेदता कैसे तन मन । बिन दर्पण की नारियाँ , जीती कैसी जिंदगी । उम्र छुपा पाती नहीं , पचपन सत्तर की लगी ।
बिन दर्पण इक चीज , बहुत अच्छा होता तब। रूप रंग को छोड़ , गुणों का आदर कर सब । पाते तब ही देख , सखी मन की सुंदरता । जो है सत्य यथार्थ , दर्श फिर उसका करता । अंतर्मन से देखता , अंतर्मन से सोचता । बाह्य दिखावे से परे , सत्य गुणों को खोजता ।
गणेश वंदना
जय जय देव गणेश , विघ्न हर्ता वंदन । लम्बोदर शुभ नाम , शक्ति शंकर नंदन है ।। सर्व सगुण की मूर्ति , सिद्धियों के हो मालिक । अतुल ज्ञान भंडार , सुमंगल अति चिर कालिक ।। सबका घमंड दूर कर , करे सत्व का खोज है । इनके परम प्रताप से , मिले सदा ही ओज है ।।
माता आज्ञा धार्य , लड़े अपने पालक से । सबके पालन हार , जगत पति संचालक से । तेजस्वी था पुत्र , अपरिचित थे त्रिपुरारी । माता की पहचान , चरण जाये बलिहारी । वचन पूर्ण अपना किया , देखो देकर प्राण वह । मातृ शक्ति का मान रख , पाया अद्भुत त्राण वह ।।
मात पिता है तीर्थ , यही सबको समझाये । परिक्रमा कर सात , अग्र पूजा वे पाये । बुद्धिमान गणराज , बने सबके प्यारे थे । अद्वितीय कर काज , बने सबके तारे थे ।। सृजनकला के विज्ञ श्री , बनो प्रेरणा स्रोत तुम । रुचि भी आई है शरण , बनो लेखनी जोत तुम ।।
सरस्वती माता
ज्ञान दायिनी ज्योति , गिरी दुर्गा गायत्री । सर्व व्यापिनी मातु , नमः हे माँ स्वर दात्री ।। मातु शारदा शुभ्र , विमल भावों की देवी । सकल चराचर जीव , परम पद वंदन सेवी ।। जड़ चेतन में संगीत की , देती शक्ति सरस्वती । स्वरागिनी माँ पद्मासना , ज्ञान दान दे भारती ।।
वंदन बारंबार , करूँ मैं वीणापाणी । दे दो माँ वरदान , मधुर हो मेरी वाणी ।। ज्ञान दायिनी मातु , ज्ञान का भर दो गागर । मैं हूँ बूँद समान , आप करुणा की सागर ।। निस दिन मैं पूजन करूँ , करना उर में वास माँ । माँगू कृपा प्रसाद मैं , देना नव उल्लास माँ ।।
जीवन तुझ पर वार , बनूँ माता आराधक । तपो भूमि संसार , काव्य की मैं हूँ साधक ।। सेवक की है चाह , बनूँ तेरी पूजारन । रचूँ नवल साहित्य , तुम्हारी बनकर चारन ।। धारदार हो लेखनी , मिले प्रेरणा आपकी । दे पाऊँ उपहार मैं , काव्य कुंज की पालकी ।।
श्रृंगार
नौ रस नौ है भाव , पले मानव मन अंदर । मधुर भाव श्रृंगार , समाये उर के कंदर ।। रति स्थायी भाव , भेद दो इसका जानो । प्रेमी जब हो साथ , परम् संयोगी मानो ।। जल वियोग की आग में , प्रेमी जोड़े तड़पते । रुचि वियोग श्रृंगार में , मिलने को वे तरसते ।।
मंद- मंद मुस्कान , गुलाबी होती गालें । अल्हड़ सी मद मस्त , हुई हिरनी सी चालें ।। बिना नशा के झूम , रही बनकर बावरिया । प्रेम डगर में साथ , चले गाते साँवरिया ।। मधुर मिलन की रात है ,रिमझिम सी बरसात है । पुलकित कुसुमित गात है , मन में झंझावात है ।।
मधुर मिलन की रात , याद कर रोती विरहन । बही अश्रुवन धार , भीगता तकिया सिहरन।। आँखें सूजी लाल , कपकपाते अधरों पर । लेती पिय का नाम , बसा साजन नजरों पर ।। बेदर्दी मौसम हुए , चिढ़ा रहे हैं अब मुझे । प्रेम अगन दिल में जले , नहीं बुझाये ये बुझे ।।
ताली
ताली की आवाज , करे मन को उत्साही । बातों की हो पुष्टि , चाह की बने गवाही ।। प्रभु की कीर्तन भक्ति , नहीं ताली बिन होता । आवश्यक यह काम , सफलता माल पिरोता ।। ताली कई प्रकार की , स्काउट में बच्चे बजा । नियम कायदा सीखते , लेते सदैव वे मजा ।।
करतल ध्वनि संकेत , बने अच्छा उद्घोषक । होते अनेक लाभ , स्वास्थ्य का होता पोषक ।। रक्त चाप हो ठीक , दर्द होते छूमंतर । यह भी है व्यायाम , गुप्त इक मानो मंतर ।। गूँज उठी अब तालियाँ , जयकारे के संग में । कृष्ण कथा में झूमते , रँग राधे के रंग में ।।
शादी का है जश्न , लोग गाते कव्वाली । गाते सुमधुर गीत , ताल में दे सब ताली ।। जब ताली की बात , किन्नरों को मत भूलें। नित उत्सव में नाच , सभी मस्ती में झूलें ।। आमद का जरिया यही , ताली ही औजार है । यह किन्नर की खासियत , बने सहज व्यवहार है ।।
एकांत
कभी रहें एकांत , और अपने उर झाँकें । कसें कसौटी आज , स्वयं को उसमें आँकें ।। दर्पण सा एकांत , स्वच्छ छवि दिखलाएगा । मिटते हैं मनभेद ,समस्या सुलझाएगा ।। लेखा जोखा को समझ ,काम करोगे नित्य तब । आत्म चेतना से जगे , अंतस का आदित्य तब ।।
संयम जीवन सार , इसे मानव मत खोना । यही सफलता द्वार , नहीं उत्तेजित होना ।। मंगल दायक धीर , सदा देता है शुभ फल । ढृढ़ चरित्र पहचान , समस्याओं का है हल ।। जीवन रखना संयमित , नायक बन उद्दात रे । अंतिम हो इतिहास में , बन मानव विख्यात रे ।।
बनकर रहिए सेतु , बढ़ायें सबको आगे । करें नित्य सहयोग , देख अपनापन जागे ।। टाँग खींचना पाप , काम ये कभी न करना । रखना भाव उदार , बहे परहित ज्यों झरना ।। कुछ पल की है जिंदगी , कर ले परोपकार रे । अब तो कर ले स्नेह का ,जग में तू व्यापार रे ।।
वस्त्र
पेशे के अनुरूप , वस्त्र होता निर्धारण । परिचय वर्ग विशेष , जानते जिसके कारण ।। धर्म कर्म पहचान ,वस्त्र करवा देता है । हिन्दू मुस्लिम सिक्ख , समझ सबको लेता है ।। संस्कृति के अनुरूप ही , पहने सब पोशाक को । अपनाकर निज सभ्यता , ऊँचा रखते नाक को ।।
बुने जुलाहा वस्त्र , लिए भावों की माला । रंग- रंग के वस्त्र , लाल सादा अरु काला ।। बुने बड़ा आकार , कल्पना कर मोटे का । सुंदर शिशु आकार , बुने कपड़े छोटे का ।। सबकी इच्छा पूरण करे , निशदिन सोच विचार कर । विविध रूप में सबके लिए , अम्बर वह तैयार कर ।।
चले यौवना आज , पहनकर छोटे कपड़े । फिल्मी चलते चाल , कई होते हैं लफड़े ।। अंग प्रदर्शन रीत , कभी भी ठीक न होता । ढककर रखिए देह , भावना पाक पिरोता ।। पट प्रतीक होता सदा , चारित्रिक निर्माण का । वस्त्र बने पहचान रुचि , मन की शुचिता त्राण का ।।