मैं छोटी सी टिवंकल, क्या बताऊ क्या भोगा, आदमी के रूप में, राक्षस है ये लोगा । मैं तो समझी उसको चाचा, मैं मुनियाँ छोटी सी, मैंने नही उसको बाँचा, गोद में बैठ चली गई, उस दरिंदे से छली गई , दो उस कुत्तेको बद्दुआ उस कुत्ते ने देखो मुझको कहाँ कहाँ नही छुआ , उसके बाद भी देखो उसका नही भरा था मन , टुकड़े टुकड़े काट दिया , उसने मेरा तन । पूछ रही है ये टिवंकल क्या न्याय दिलवाओगे इतना तो जानती हूं मैं, जैसे औरों को भूले हो तुम मुझको भी भूल जाओगे राजनीति भी , चुप्पी साधे देखो कैसी बैठी है, न्याय की कुर्सी भी, बंद आँखे देखो कैसी लेटी है, सबके स्वार्थ आड़े है, सबके अपने पहाड़े है, फिर भी कहती – ये टिवंकल, अपने अपने बच्चों को इनसे तुम बचा लेना, हो सके तो इन दरिंदों को सरे राह, सरे आम फांसी देना, यही मेरी आत्मा का शान्ति का उपाय होगा । मैं छोटी सी टिवंकल क्या बताऊ क्या भोगा आदमी के रूप में, राक्षस है ये लोगा । –सुनील उपमन्यु,खण्डवा
फिर से नारे गूंजेंगे फिर तख्तियां उठाई जाएंगी नम आंखों के आंसू से फिर से मोम जलाई जाएंगी फिर धरना प्रदर्शन होगा गांव गली चौराहों पर फिर से होगा ख़ूब ड्रामा संसद के दोराहों पर श्वेत लुटेरे आ कर के फिर अपने पासे फेंकेंगे धर्म मज़हब का चोला ओढ़े अपनी रोटी सेंकेंगे सब मिल कर ट्विंकल की तस्वीरों पे शीश झुकाएंगे अपनी मैली श्रद्धा के सूखे सुमन चढ़ाएंगे फिर से खून दिखेगा हर भारतवासी की आंखों में फ़िर से चिड़िया दब मर जाएगी ख़ुद अपनी ही पाँखों में इनके काले कुकर्मों पर पर्दा कब तक डालोगे इनकी हैवानी हरकत को आख़िर कब तक टालोगे इन ग़द्दारों के नामों को आख़िर कब तक रोएंगे इन धरती के बोझों को आख़िर कब तक ढोएंगे कानून बना कर शैतानों को अब तोपों से भुनवा दो शीश उठाए गर रावण तो दीवारों में चुनवा दो इनकी काली करतूतों का खुल के उत्तर देंगे हम सीने के अंदर तक अब के पीतल भर देंगे श्री राम बन कर उतरो सीता के सम्मान में कोई रावण बच ना पाए मेरे हिंदुस्तान में कोई रावण बच ना पाए…
तीन बरस की गुड़िया तिल तिल मरके आखिर चली गयी, आज अली के गढ़ में बिटिया राम कृष्ण की छली गयी, नन्हे नन्हे पंख उखाड़े, मज़हब के मक्कारों ने, देखो कैसे ईद मनाई,दो दो रोज़ेदारों ने,
कोमल अंग काट कर खाये, कुत्तों ने इफ्तारों में, नोच कुचल कर लाश फेंक दी रमजानी बाज़ारो में आस्तीन में खंज़र रखकर कलियों से गुलफाम मिले, हमको देखो कैसे भाई चारे के परिणाम मिले,
आओ थोड़ा शोर मचा लें,हम अपनी लाचारी पे, चार दिवस हो हल्ला कर लें,उस ज़ाहिद व्यभिचारी पर, लेकिन हम कब समझेंगे,मज़हब के कुटिल इरादों को, तहज़ीबें जो सीखा गयी हैं दहशत कत्ल फसादों को,
पूछ रहा हूँ,कहाँ मर गए कठुआ पर रोने वाले, शर्मिंदा होने की तख्ती छाती पर ढोने वाले, बॉलीवुड के बेशर्मो की टोली आखिर कहां गयी, और दोगलों की वो सूरत भोली आखिर कहां गयी,
स्वरा भास्कर कहाँ मर गयी,कहाँ गया वो ददलानी, तैमूरी अम्मा गायब है,कहाँ गयी सोनम रानी, टीवी वाले वो रवीश क्या जीभ कटाने चले गए, डी जे वाले बाबू भी क्या बेस घटाने चले गए,
कहाँ गया बेगूसराय का किशन कन्हैया ढूंढों तो, और आसिफा पर रोता वो राहुल भैया ढूंढो तो, कोई नही मिलेगा,सबने पट्टी आंख लपेटी है, क्योंकि अभागिन ट्विंकल देखो इक हिन्दू की बेटी है,
और किसी हिन्दू की बेटी इसी हश्र को पाएगी, अरबी आयत पढ़ के देखो,समझ तुम्हे आ जायेगी, सोच रहा था योगी जैसा हिन्दू शेर दहाड़ेगा, मोदी अपना जेहादी गुर्गों के जबड़े फाडेगा,
लेकिन ये भी जब्त हो गए वोट बैंक के बक्से में, पाकिस्तान नज़र आता है अब भारत के नक्से में, ईद सवेरे देखो बस में तोड़ फोड़ की जाती है, सड़कों पर होती नमाज़ फिर जाम रोड हो जाती है,
सोच था छुटकारा होगा अब जेहादी रोगी से, सन्नाटे की आस नही थी हमको मोदी योगी से, ये कौमी भेड़िये,बुझेगी इन सबकी ना प्यास कभी, जीत नही पाओगे मोदी इन सबका विश्वास कभी,
ट्विंकल बिटिया चीख रही है,इंसाफी दरबारों में, कुछ ऐसा कर दो,भय भर दो इन दुष्टों गद्दारों में, ऐसी आग लगा दो मोदी इस जेहादी जंगल को, कोई ज़ाहिद आंख उठाकर देख न पाए ट्विंकल को,
वरना यूँ ही सिर्फ आंसुओं से ज़ख्मो को धोएंगे, आज किसी ट्विंकल पर,कल सीता गीता पर रौएँगे,
क्यों मैं रातों को सो नहीं पाता अनसुलझे सवालों का बोझ ढो नहीं पाता… रूचि, संस्कार, आदत सब भिन्न होते हुए भी क्यों मुक्तिबोध से दूर हो नहीं पाता… क्यों मैं रातों को सो नहीं पाता अनसुलझे सवालों का बोझ ढो नहीं पाता… क्यों बंजर दिल के खेत में आशाओं के बीज बो नहीं पाता… जज़्बातों का ज़लज़ला उठने पर भी आखिर क्यों मैं खुलकर रो नहीं पाता… क्यों मैं रातों को सो नहीं पाता अनसुलझे सवालों का बोझ ढो नहीं पाता… क्यों अपने अंदर व्याप्त ब्रह्मराक्षस के मलिन दागों को धो नहीं पाता… मुझे कुरेदती, जर्जर करती स्मृतियों को चाहकर भी खो नहीं पाता… क्यों मैं रातों को सो नहीं पाता अनसुलझे सवालों का बोझ ढो नहीं पाता…
अंकित भोई ‘अद्वितीय’ महासमुंद (छत्तीसगढ़) कविता बहार से जुड़ने के लिये धन्यवाद