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  • पिता पर कविता (Pita Par Kavita)

    फादर्स डे पिताओं के सम्मान में एक व्यापक रूप से मनाया जाने वाला पर्व हैं जिसमे पितृत्व (फादरहुड), पितृत्व-बंधन तथा समाज में पिताओं के प्रभाव को समारोह पूर्वक मनाया जाता है। अनेक देशों में इसे जून के तीसरे रविवार, तथा बाकी देशों में अन्य दिन मनाया जाता है। यह माता के सम्मान हेतु मनाये जाने वाले मदर्स डे (मातृ-दिवस) का पूरक है।

    पिता पर कविता (Pita Par Kavita)

    पिता पर कविता (Pita Par Kavita) :

    मैं साथ हूं हमेशा तेरे ( पिता पर कविता)

    हमारी और हमारे पापा की कहानी ।
    आसमान सा विस्तार ,सागर सा गहरा पानी।

    जब जन्म पायी इस धरा पर , वो पल मुझे याद नहीं।
    मां कहती है बेटा तेरे पापा के लिए,इससे बड़ी खुशी की कोई बात नहीं।।

    मां की मैं लाडली गुड़िया, पापा तेरी परी लाडली बिटिया रानी हूं।
    कहते हो मुझसे आके जो ,मैं तो तुम्हारी अनकही एक अनोखी कहानी हूं।।

    एक वक्त था पापा मैंने जब, समझा ना था तुम्हारे प्यार को।
    गुस्से में हमेशा छिपा लेते थे, जाने क्यों अपने दुलार को ।।

    सोचती थी आजादी ना दी, ना करते मुझ पर भरोसा हो।
    एक पल के लिए भी ना करते तन्हा मुझे,जैसे फिक्र ही अपना मुझ पर परोसा हो।।

    कुछ पल की भी जो दूरी होती थी, स्कूल से मुझको घर आने में।
    फिक्र इतनी जो करते हो तुम, और कौन कर सकेगा इतना सारे जमाने में।।

    मेरी मांगों को कर देते हो नज़र अंदाज़ , ऐसा भी कभी मैंने सोचा था।
    माफ करना पापा मेरे , उस वक्त तेरे प्यार को ना मैंने देखा था ।।

    बंद कमरों में मुझको, पिंजरे सा जीवन महसूस होता था।
    अनजान थी तब मैं पापा मेरे, तुमको फिक्र मेरी कितना सताता था।।

    पढ़ायी के लिए मेरी जो तुम, सारा दिन धूप धूप में भी फिरते थे।
    रुक ना जाए कहीं पढ़ायी मेरी , सोच के भी कितना डरते थे।।

    मेरी पढ़ायी के लिए मुझसे भी ज्यादा, तुम ही सक्रिय रहते हो।
    बेटा पढ़ लिख करो अपना हर सपना पूरा , मैं साथ हूं हमेशा तेरे मुझसे कहते हो।।

    आसमान सा हृदय तुम्हारा, मन सागर से भी गहरा है।
    शब्द कहां से जोडूं तुम्हारे लिए, भगवान से भी प्यारा तेरा चेहरा है।।

    बात स्वास्थ पर जब मेरी आती है, छींक से भी मेरी तुम कितना घबरा जाते हो।
    बीमार जो कभी थोड़ी हो जाती , थामे हाथ मेरा साथ ही रह जाते हो।।

    आज समझ में आ गया, एक पिता खुले आसमान सा होता है।
    शब्द इतने कहां मेरी लेखनी में , कि बता सकूं एक पिता कैसा होता है।।

    सब कुछ जानता ,सब कुछ समझता ,पर किसी से कुछ ना कहता है।
    समर्पित उसका सारा जीवन , अपने बच्चों पर ही रहता है।।

    एक जलता दीपक है जो खुद जल के ,रोशनी अपने बच्चों के जीवन में भरता है ।
    गहरे समंदर सा हृदय उसका , सारी नादानी हमारी माफ करता है।।

    पिता परम देवता सा महान , पिता एक बलवान , पिता होना भी आसान नहीं।
    श्रृष्टि की कोई अन्य रचना ,होती पिता के समान नहीं।।

    रीता प्रधान

    पिता दिवस पर कविता

    दर्द को भीतर छुपाकर,
    बच्चों संग मुसकाते।
    कभी डाँट फटकार लगाते,
    कभी कभी तुतलाते।

    हँस हँसकर मुँहभोज कराते,
    भूखे रहते हैं फिर भी।
    स्वच्छ जल पीकर सो जाते ,
    गोद में लेकर सिर भी।

    आँधी तूफाँ आये लाखों,
    चाहे सिर पर कितने।
    विशाल वक्ष में समा लेते हैं,
    दर्द हो चाहे जितने।

    बच्चों की खुशियाँ और,
    माँ की बिंदी टीका।
    पड़ने देते किसी मौसम में,
    कभी न इनको फीका।

    पर कुछ पिता ऐसे जो ,
    मानव विष पी जाते।
    बुरी आदतों में आकर ,
    अपनों का गला दबाते।

    माँ की अन्तरपीड़ा और,
    बच्चों की अंतः चीत्कार।
    जो न सुनता है पिता,
    समाज में जीना है धिक्कार।

    माँ तो है सृष्टिकर्ता पर,
    पिता है जीवन का आधार।
    अपनी महिमा बनाये रखना,
    हे! जग के पालनहार।।

    अशोक शर्मा,

    पिता ईश सम हैं दातारी

    पिता ईश सम हैं दातारी।
    कहते कभी नहीं लाचारी।।1

    देना ही बस धर्म पिता का।
    आसन ईश्वर सम माता का।।2

    तरु बरगद सम छाँया देता।
    शीत घाम सब ही हर लेता।।3

    बहा पसीना तन जर्जर कर।
    जीता मरता संतति हितकर।4

    संतति हित ही जनम गँवाता।
    भले जमाने से लड़ जाता।।5

    अम्बर सा समदर्शी रहकर।
    भीषण ताप हवा को  सहकर।।6

    बन्धु सखा गुरुवर का नाता।
    मीत भला सब पिता निभाता।।7

    पीढ़ी दर पीढ़ी खो जाता।
    बालक तभी पिता बन पाता।।8

    धर्म निभाना है कठिनाई।
    पिता धर्म जैसे प्रभुताई।।9

    अम्बर हित जैसा ध्रुव तारा।
    घर हित वैसा पिता हमारा।।10

    जगते देख भोर का तारा।
    पूर्व देखलो पिता हमारा।।11

    सुत के गम में पितु मर जाता।
    राजा दशरथ जग विख्याता।12

    मुगल काल में देखो बाबर।
    मरता स्वयं हुमायुँ बचा कर।।13

    ऋषि दधीचि सा दानी होता।
    यौवन जीवन दोनो खोता।।14

    पिता धर्म निभना अति भारी।
    पाएँ दुख संतति हित गारी।15

    पिता पीत वर्णी हो जाता।
    जब भी सुत हित संकट आता।16

    बाबू लाल शर्मा “बौहरा”

    fathers day पर पिता को क्या तोहफा दे?

    एक पिता का सबसे पढ़ा तोहफा तो उसकी संतान होती है। तो आप कोसिस करे की आप उनकी जो इच्चा है की आप अपने भविष्य को उज्वल बना ले वाही उनका तोहफा होगा।

    एक पिता ली खुशी किस्मे है?

    एक पिता ली खुशी उसके संतानों में होती है आगर उसके संतान खुश है तो वह भी खुश है ।

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    स्त्री पर कविता ( Stree Par Kavita )

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  • खेल कराते मेल – खेल दिवस पर कविता

    भारत में राष्ट्रीय खेल दिवस प्रत्येक वर्ष 29 अगस्त को मनाया जाता है। 29 अगस्त को मनाने का कारण यह है कि इस दिन भारत के दिग्गज हॉकी प्लेयर मेजर ध्यान चन्द कुशवाहा का जन्म हुआ था। मेजर ध्यान चन्द को हॉकी का जादूगर कहा जाता है।

    खेल कराते मेल – खेल दिवस पर कविता

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    व्यस्तता की गहरी खाई में,
    भौतिकता की अंगड़ाई में,
    जहाँ अपना कोई न समझे,
    हो रहा जहाँ पर ठेलमठेल,
    देखो तब खेल कराते मेल।

    मानव को मानव से जोड़े,
    हाथ मिला विष नाता तोड़े,
    दूरी दिल की या हो मीटर,
    राह के रोड़े देते हैं ठेल,
    देखो हैं खेल कराते मेल।

    भावना भरी है भाईचारे की,
    जय हो ऐसे खेल प्यारे की,
    कटुता द्वेष सब भूल जाते,
    जब हो मैदां में रेलमरेम,
    देखो ना खेल कराते मेल।

    जीवन की इस लघुता में,
    भौतिकता की पंगुता में,
    प्यार से सबको गले लगाएं
    आओ मिलकर खेले खेल,
    देखो हैं खेल कराते मेल।

    ★★☆★★★☆★★★★
    अशोक शर्मा,कुशीनगर,उ.प्र.
    ★★★★★★★★★★★

  • प्राकृतिक आपदा पर कविता

    प्राकृतिक आपदा पर कविता

    नदी

    कहीं कहीं सूखा कहीं,
    बाढ़ की विभीषिका है।
    कहीं पर जंगलों में ,
    आग है पसरती।

    कहीं ज्वालामुखी कहीं,
    फटते है बादल तो।
    कहीं पे भूकम्पनों से,
    शिला है दरकती।

    तेज धूप कहीं कहीँ,
    लोग भूखे मरे कहीं।
    पेड़ों की कमी से आँधी,
    घर है उजारती।

    कहीं ठिठुरन बस,
    बेहताशा लोग मरे।
    कहीं तीव्र धूप बस,
    बरफ़ पिघलती।

    कहीं पानी बिन देखो,
    पड़ता अकाल भाई।
    लहरें समुद्र कहीं,
    सुनामी उफनती।

    जाने ऐसी बुद्धि काहे,
    लोग तो लगा रहे हैं।
    जिसके कारन अब,
    आपदा पसरती।

    बुद्धिमान होना भी तो,
    जरूरी है सबको ही।
    कुबुद्धि विकास की है,
    चुहिया कतरती।

    यदि हमें अपनी ब,
    चानी आगे पीढ़ियाँ तो।
    बुद्धिमता बस तुम,
    बचा लो यह धरती।

    ★★★★★★★★★★★
    अशोक शर्मा,कुशीनगर,उ.प्र.
    ★★★★★★★★★★★

  • प्रकृति से खिलवाड़/बिगड़ता संतुलन-अशोक शर्मा

    प्रकृति से खिलवाड़/बिगड़ता संतुलन-अशोक शर्मा

    प्रकृति से खिलवाड़/बिगड़ता संतुलन

    प्रकृति से खिलवाड़/बिगड़ता संतुलन-अशोक शर्मा
    हसदेव जंगल

    बिना भेद भाव देखो,
    सबको गले लागती है।
    धूप छाँव वर्षा नमीं,
    सबको ही पहुँचाती है।

    हम जिसकी आगोश में पलते,
    वह है मेरी जीवनदाती।
    सुखमय स्वस्थ जीवन देने की,
    बस एक ही है यह थाती।

    जैसे जैसे नर बुद्धि बढ़ी,
    जनसंख्या होती गयी भारी।
    शहरीकरण के खातिर हमने,
    चला दी वृक्षों पर आरी।

    नदियों को नहीं छोड़े हम,
    गंदे मल भी बहाया।
    मिला रसायन मिट्टी में भी,
    इसको विषाक्त बनाया।

    छेड़ छाड़ प्रकृति को भाई,
    बुद्धिमता खूब दिखाई।
    नहीं रही अब स्वस्थ धरा,
    और जान जोखिम में आई।

    बिगड़ रहा संतुलन सबका,
    चाहे जल हो मृदा कहीं।
    ऋतु मौसम मानवता बिगड़ी,
    शुद्ध वायु अब नहीं रही।

    ऐसे रहे गर कर्म हमारे,
    भौतिकता की होड़ में।
    भटक जाएंगे एक दिन बिल्कुल,
    कदम तम पथ की मोड़ में।

    हर जीव हो स्वस्थ धरा पर,
    दया प्रेम मानवता लिए।
    करो विकास है जरूरी,
    बिना प्रकृति से खिलवाड़ किये।



    ★★★★★★★★★★★
    अशोक शर्मा, कुशीनगर,उ.प्र.
    ★★★★★★★★★★★

  • बढ़ती जनसंख्या – घटते संसाधन

    बढ़ती जनसंख्या – घटते संसाधन

    11 जुलाई 1987 को जब विश्व की जनसंख्या पाँच अरव हो गई तो जनसंख्या के इस विस्फोट की स्थिति से बचने के लिए इस खतरे से विश्व को आगाह करने एवं बढ़ती जनसंख्या को नियंत्रित करने हेतु 11 जुलाई 1987 को विश्व जनसंख्या दिवस के रूप में मनाने की घोषणा संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा की गई। तब से ग्यारह जुलाई को विश्व जनसंख्या दिवस के रूप में मनाया जाता है।

    बढ़ती जनसंख्या – घटते संसाधन


    अशिक्षा ने हमें खूब फसाया,
    धर्म के नाम पर खूब भरमाया ।
    अंधविश्वास के चक्कर में पड़,
    जनसंख्या बढ़ा हमने क्या पाया?

    बढ़ती जनसंख्या धरा पर ,
    बढ़ रहा है इसका भार।
    चहुँ ओर कठिनाई होवे,
    होवे समस्या अपरम्पार।

    वन वृक्ष सब कटते जाते,
    श्रृंगार धरा के कम हो जाते।
    रहने को आवास के खातिर,
    कानन सुने होते जाते।

    जब लोग बढ़ते जाएंगे,
    धरती कैसे फैलाएंगे।
    सोना पड़ेगा खड़े खड़े,
    नर अश्व श्रेणी में आ जाएंगे।

    अब तो हॉस्पिटल में भाई,
    मरता मरीज नम्बर लगाई।
    भीड़ भाड़ के कारण भइया,
    कभी कभी जान चली जाई।

    उत्तम स्वास्थ्य उत्तम शिक्षा,
    नहीं होती अब पूरी इच्छा ।
    हर पल हर घड़ी होती बस,
    उत्तमता की यहाँ परीक्षा।

    स्वच्छ वायु व स्वच्छ पानी,
    नहीं बची मदमस्त जवानी ।
    कर दी जनसंख्या बढ़करके,
    बे रंग धरा का चुनर धानी।


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    अशोक शर्मा, कुशीनगर,उ.प्र.
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