Tag: 28th जुलाई विश्व प्रकृति संरक्षण दिवस पर हिंदी कविता

28th जुलाई विश्व प्रकृति संरक्षण दिवस
हर साल 28 जुलाई को दुनिया भर में विश्व प्रकृति संरक्षण दिवस मनाया जाता है। विश्व संरक्षण दिवस हर साल प्राकृतिक संसाधनों का संक्षरण करने के लिए सर्वोत्तम प्रयासों के बारे में जागरूकता बढ़ाने के लिए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मनाया जाता है। पृथ्वी हमें सीमित मात्रा में ऐसे चीजों की आपूर्ति करती है, जिन पर हम सभी पूरी तरह निर्भर हैं जैसे पानी, हवा, मिट्टी और पेड़-पौधे।

  • हसदेव नदी बचाओ अभियान पर कविता- तोषण कुमार चुरेन्द्र “दिनकर “

    हसदेव नदी बचाओ अभियान पर कविता- तोषण कुमार चुरेन्द्र “दिनकर “

    हसदेव नदी बचाओ अभियान पर कविता

    हसदेव नदी बचाओ अभियान पर कविता- तोषण कुमार चुरेन्द्र "दिनकर "

    रुख राई अउ जंगल झाड़ी
    बचालव छत्तीसगढ़ के थाती ल
    कोनों बइरी झन चीर सकय
    हसदेव के छाती ल

    किसम किसम दवा बूटी
    इही जंगल ले मिलत हे
    चिरइ चिरगुन जग जीव के
    सुग्घर बगिया खिलत हे
    झन टोरव पुरखा ले जुड़े
    हमर डोर परपाटी ल
    कोनों बइरी झन चीर सकय
    हसदेव के छाती ल

    चंद रुपिया खातिर
    कोख ल उजरन नइ देवन
    जल जंगल जमीन बचाए बर
    आज पर न सब लेवन
    खनन नइ देवन कहव मिलके
    छत्तीसगढ़ के माटी ल
    कोनों बइरी झन चीर सकय
    हसदेव के छाती ल

    कोइला के लालच म काबर
    हमर जंगल उजड़ै गा
    सुमत रहय हम सबके संगी
    नीत नियम ह सुधरै गा
    नइ मानय त टें के रखव
    तेंदू सार के लाठी ल
    कोनों बइरी झन चीर सकय
    हसदेव के छाती ल

    आदिवासी पुरखा मन के
    जल जंगल ह चिन्हारी हे
    एकर रक्षा खातिर अब
    हमर मनके पारी हे
    कोनों  ल लेगन नइ देवन
    महतारी के छांटी ल
    कोनों बइरी झन चीर सकय
    हसदेव के छाती ल

    जल जंगल जमीन नइ रही त
    हम हवा पानी कहां पाबो
    बांचय हमर पुरखौती अछरा
    अइसन अलख जगाबो
    जुरमिलके हम रक्षण करबे
    दिन देखन न राती ल
    कोनों बइरी झन चीर सकय
    हसदेव के छाती ल

    तोषण कुमार चुरेन्द्र “दिनकर “
    धनगांव डौंडीलोहारा
    बालोद

  • प्रकृति विषय पर दोहे

    प्रकृति विषय पर दोहे

    प्रकृति विषय पर दोहे


    सूरज की लाली करें,इस जग का आलोक।
    तन मन में ऊर्जा भरे,हरे हृदय का शोक।।

    ओस मोतियन बूँद ने,छटा बनाकर धन्य।
    तृण-तृण में शोभित हुई,जैसे द्रव्य अनन्य।।

    डाल-डाल में तेज है, पात-पात में ओज।
    शुद्ध पवन पाता जगत,हरियाली में रोज।।

    उड़कर धुंध प्रभात में,भू पर शीत बिखेर।
    पुण्य मनोरम दृश्य से,लिया जगत को घेर।।

    झूम रहे तरुवर लता,सुरभित कर संसार।
    कोहिनूर तरु रोपकर,कर भू का श्रृंगार।।


    रचनाकार – डिजेन्द्र कुर्रे”कोहिनूर”

  • कुल्हाड़ी पर कविता – आशीष कुमार

    कुल्हाड़ी पर कविता – आशीष कुमार

    जीवन मूल्य चुकाती कुल्हाड़ी – आशीष कुमार

    कुल्हाड़ी

    तीखे नैन नक्श उसके
    जैसे तीखी कटारी
    रुक रुक कर वार करती
    तीव्र प्रचंड भारी
    असह्य वेदना सह रहा विशाल वृक्ष
    काट रही है नन्हीं सी कुल्हाड़ी

    शक्ति मिलती उसको जिससे
    कर रही उसी से गद्दारी
    खट खटाक खट खटाक
    चीर रही नि:शब्द वृक्ष को
    काट रही अंग-अंग उसका
    जिसके अंग से है उसकी यारी

    परंतु दोषी वह भी नहीं
    अपनों ने ही उसे भट्ठी में डाला
    देकर उसे आघात बागी बना डाला
    हर एक चीख पर हृदय से
    निकल रही थी चिंगारी
    अस्तित्व में आ रही थी
    विद्वेष की भावना लिए
    अपनों का अस्तित्व मिटाने वाली
    कठोर निर्दयी कुल्हाड़ी

    यह जीवन उनकी देन है
    जिनके लिए यह लाभकारी
    जीवन पर्यंत बनी रहेगी कठपुतली उनकी
    बस उनके इशारों पर इसका खेल जारी
    पशु पक्षी अरण्य पर्यावरण
    सबकी हाय ले रही
    मगर बनाने वाले की इच्छा तृप्त कर रही
    जीवन मूल्य चुकाती कुल्हाड़ी |

                        – आशीष कुमार
                         मोहनिया बिहार

  • प्रकृति की पीड़ा – माला पहल

    प्रकृति की पीड़ा – माला पहल

    प्रकृति की पीड़ा – माला पहल

    Global-Warming-
    Global-Warming-

    हे प्यारी प्रकृति,
    तुझ में आ रही विकृति,
    तू बन जा अनुभूति,
    विनाश को न दे तू आकृति,
    तू रच ऐसी सुंदर सुकृति।


    संभाल ले, तू कर उद्धार ,
    भूमंडल में मच रहा हाहाकार, कौन होगा इसका जिम्मेदार?
    हे मानव! कर प्रकृति पर उपकार,
    मत मचा तू इतना शोर ,
    होगी विकृति तो न चलेगा तेरा जोर।


    सभी प्रदूषण से बेजार,
    साँस लेना भी हो गया दुस्वार
    जीने के लिए करना होगा इंतजार
    न कर चूक तू बारंबार,
    सोच ले तू एक बार
    धरा से अंबर तक कर ले तू सुधार ,
    विश्व में होगी तेरी जय जयकार।

    माला पहल मुंबई

  • धरा की आह पर कविता

    धरा की आह पर कविता

    धरा की आह पर कविता

    धरा की आह पर कविता

    न कभी सुनने की थी चाह,
    फिर भी मैंने सुनी है आह।
    कभी कर्कश आवाजें करती थी टहनियाँ,
    कह रही है अनकही कहानियाँ,
    कभी हवाओं के झोंके से मचलती थी मेरी सहेलियाँ,
    अब खड़ी है फैलाकर झोलियाँ,
    अब न कटे हमारे साथी और न सखियाँ।

    न कभी सुनने की थी चाह,
    फिर भी मैंने सुनी है आह।
    ऊंचे-ऊंचे पर्वतों की सूनी चोटियाँ,
    सूखे दरख्त सूखी लताएँ व सूखी झाडियाँ,
    तेज़ी से पिघलती बर्फ की सिल्लियाँ।

    न कभी सुनने की चाह,
    फिर भी मैंने सुनी है आह।
    मैं हूँ धरा, सुनो तो मेरी जरा,

    कितनी अट्टालिकाओं की बलि चढ़ती मैं,
    सीमेंट व कॉन्क्रीट के बोझ सहती मैं।

    हे मानव! मेरी चीख पुकार को ठुकरा न तू,
    वरना कराह भी न पाएगा तू।
    अब न कर हमारे अंग भंग,
    वरना मिट जाएगा तू भी हमारे संग संग।
    आह को महसूस कर!
    आह को महसूस कर!
    अपने इन डगमगाते कदमों को थाम ले,
    अपना भविष्य संवार ले,
    सबका भविष्य संवार ले।

    माला पहल, मुंबई