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यहाँ पर हिन्दी कवि/ कवयित्री आदर०नरेन्द्र कुमार कुलमित्रके हिंदी कविताओं का संकलन किया गया है . आप कविता बहार शब्दों का श्रृंगार हिंदी कविताओं का संग्रह में लेखक के रूप में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका अदा किये हैं .

  • विकास पर कविता-नरेन्द्र कुमार कुलमित्र

    विकास पर कविता

    उनकी सोच विकासवादी है
    उन्हें विश्वास है केवल विकास पर
    विकास के सारे सवालों पर
    वे मुखर होकर देते है जवाब
    उनके पास मौजूद हैं
    विकास के सारे आँकड़े

    कृषि में आत्मनिर्भर हैं
    खाद्यान से भरे हुए हैं उनके भंडार
    आप भूख से मरने का सवाल नहीं करना
    वे आंकड़ों में जीत जाएंगे
    आप सबूत नहीं दे पाएंगे
    आपको मुँह की खानी पड़ेगी

    वे विज्ञान में भी हैं आगे
    वे आसमान की बातें करते हैं
    धरती की बात उन्हें गवारा नहीं
    अंतरिक्ष, चाँद और उपग्रह पर
    चाहे जितना सवाल उनसे पूछ लो
    कभी ग़लती से भी
    ज़मीनी सवाल पूछने की ज़ुर्रत नहीं करना
    वरना जमींदोज हो जावोगे एक दिन

    उनके संचार भी बड़े तगड़ें हैं
    वे आपके बारे में पल-पल की ख़बर रखते हैं
    ये और बात है
    बाख़बर होते हुए भी बेख़बर होते हैं
    उनके संचार व्यवस्था पर
    आप सवाल करें यह मुमकिन ही नहीं
    उसने मुफ़्त में बांट रखे हैं फोर जी नेटवर्क
    खाना आपको मिले या न मिले
    ख़बरों से जरूर भरा जाएगा आपका पेट

    भाई साहब उनके पास
    विकास के तमाम आँकड़े हैं
    आपके पास उतने तो
    विकास के सवाल भी नहीं हैं
    गरीबी,बेकारी,भूखमरी ये सारे
    पीछड़ेपन की निशानी है
    उनके लिए पीछड़ेपन पर चर्चा करना
    सवाल उठाना महज़ बेवकूफ़ी से कम नहीं

    वे भला विकास छोड़
    पिछड़ों से बात करें
    उनके सवाल सुनें
    हरगिज़ संभव नहीं
    दरअसल उनके लिए
    पिछड़ों के सवाल सवाल ही नहीं होते
    इसलिए
    सावधान !याद रखना विकास के सवालों में
    कभी आदमी का सवाल मत करना
    उनके लिए सबसे बड़ा गुनाह है
    विकास के सवालों में आदमी को जोड़ना।

    — नरेन्द्र कुमार कुलमित्र
    9755852479

  • रुकना भी है चलना- नरेन्द्र कुमार कुलमित्र

    रुकना भी है चलना

    हमें तो बस यही सिखाया गया है चलते रहो चलते रहो
    बस चलते ही रहो चलते ही रहने का नाम है जिंदगी
    रुक जाने से जिन्दगी भी रुक जाएगी तुम्हारी
    उनके लिए विरोधाभासों में जीना जैसे जिंदगी ही नहीं होती
    मैं कहूँ रूकने से जिंदगी सँवर जाती है तो आप हँसेंगे
    आपने कभी रुकना सीखा ही नहीं
    आपने कभी समझा ही नहीं रुकने का दर्शन
    आपकी नज़रों में नकारात्मक सोच की ऊपज है रुक जाना
    रुकना उनके शान के ख़िलाफ़ है
    आप रुकने के लिए उन्हें कहें और मज़ाल है कि वे रुकें
    उनके ज्ञान, धर्म और शिक्षा के ख़िलाफ़ है आपका रुक जाना
    रुकना बुद्धिमानी है अगर जिंदगी के मुहाने पर मौत खड़ी हो
    चलना फिर तेज़ चलना फिर और तेज़ चलना फिर दौड़ने लगना जिंदगी नहीं होती
    जिंदगी हमारी रफ़्तार में कतई नहीं होती
    जैसे पूरा-पूरा जागने के लिए पूरी-पूरी गहरी नींद में सोना ज़रूरी होता है
    वैसे ही चलायमान जिंदगी के लिए ज़रूरी होता है रुकना
    बताओ आखिर सोए बिना कैसे जागोगे और कब तक जागोगे..?
    सत्य कई बार खुली आँखों से दिखाई नहीं देता
    साफ़-साफ़ दूर-दूर तक देखने के लिए
    जरूरी होता है आँखों को बंद करके देखना
    आँख बंद करके चलते रहने से अच्छा है रूक जाना
    चलते रहने वालों के ख़िलाफ़ है ट्रैफ़िक की लाल बत्ती पर रूक जाना
    रुकना समझदारी है रुकना ऊर्जा का केंद्र है रुकना बाहर और भीतर देखना है रुकना चलने की प्रेरणा है
    आप मानो या ना मानो सहीं मायने में रुकना भी चलना है।

    — नरेन्द्र कुमार कुलमित्र
    9755852479

  • पुरूष सत्ता पर कविता- नरेन्द्र कुमार कुलमित्र

    पुरूष सत्ता पर कविता

    लोग कहते रहे हैं
    महिलाओं का मन
    जाना नहीं जा सकता
    जब एक ही ईश्वर ने बनाया
    महिला पुरुष दोनों को
    फिर महिला का मन
    इतना अज्ञेय इतना दुरूह क्यों.. ?

    कहीं पुरुषों ने जान बूझकर
    अपनी सुविधा के लिए
    तो नहीं गढ़ लिए हैं
    ये छद्म प्रतिमान !

    क्या सचमुच पुरुषों ने कभी
    समझना चाहा है स्त्रियों का मन ..?

    अपनी अहंवादी सत्ता के लिए
    पुरुषों ने गढ़े फेबीकोल संस्कार
    बनाएं नैतिक बंधन
    सामाजिक दायरे
    करने न करने के नियम
    और पाबंदिया कई

    हमने कहा—
    “तुम बड़ी नाज़ुक हो।”
    वह मान गई
    अपनी कठोरता
    अपनी भीतरी शक्ति जाने बिना
    ताउम्र कमज़ोर बनी रही

    हमने कहा—
    “तुम बड़ी सहनशील हो।”
    वह मान गई
    बिना किसी प्रतिवाद के
    पुरुषों की उलाहनें
    शारीरिक मानसिक अत्याचार
    जीवनभर सहती रही चुपचाप

    हमने कहा—
    “तुम बड़ी भावुक हो।”
    वह मान गई
    वह अपनी पीड़ा को कहे बिना
    भीतर ही भीतर टूटती रही रोज़
    जीवनभर बहाती रही आँसू

    हमने कहा—
    “तुम बड़ी पतिव्रता हो।”
    वह स्वीकार कर ली
    वह प्रतिरोध करना छोड़ दी
    हमारी राक्षसी कृत्यों
    बुराईयों को करती रही नजरअंदाज
    पूजती रही ताउम्र ईश्वर की तरह

    हमने कहा—
    “तुम बड़ी विनम्र हो।”
    वह स्वीकार ली
    हमारी बातों को पत्थर की लकीर मान
    बिना किसी धृष्टता किए
    बस मौन ताउम्र ढोती रही आज्ञाएँ

    पुरुषों ने बड़ी चालाकी से
    सब जानते हुए समझते हुए
    षडयंत्रों का जाल बनाकर
    खूबसूरत आकर्षक शब्दों के चारे डाल
    जाल बिछाता रहा-फँसाता रहा
    बेवकूफ शिकार सदियों से
    फँसती रही-फँसती रही-फँसती रही।

    — नरेन्द्र कुमार कुलमित्र
    9755852479

  • छात्र राजनीति और राजनीतिक संस्कार पर लेख

    छात्र राजनीति और राजनीतिक संस्कार (सामयिक प्रतिक्रिया )

     

    हमारे महाविद्यालय में कल यानी 28.02.2020 को वार्षिकोत्सव एवं पुरस्कार वितरण समारोह का आयोजन किया गया।इस कार्यक्रम के दौरान कुछ निराशाजनक घटनाएं और दृश्य देखने को मिला।मंच संचालन जैसी छोटी सी बात को लेकर दो छात्र यूनियन के बीच जिस तरह से आरोप -प्रत्यारोप लगाते हुए शोर-शराबा, हंगामा, शिक्षकों से बदतमीजी, अपमानजनक शब्दों का प्रयोग,मंच एवं बैठक व्यवस्था में तोड़फोड़, अर्थहीन नारेबाजी करके पूरे कार्यक्रम में व्यवधान डाला गया यह बेहद ही निंदनीय है। भर्त्सना के कोई भी शब्द उन हरक़तों के लिए पर्याप्त नहीं हो सकते हैं।

    मुझे पूरी घटना में सबसे अफसोसनाक लगा छात्रों की दिशाहीनता।हम मानते हैं राजनैतिक जीवन की शुरूआत छात्र जीवन से होना चाहिए मगर ऐसे दिशाहीन छात्र जिन्हें साधारण समझ भी न हों आख़िर राजनीति को कहाँ ले जाएंगे, पता नहीं।जो शैक्षणिक विषयों को पढ़ना,क्लास अटेंड करना, नियमों का पालन करना,शिक्षकों की बात मानना अपने छात्र राजनीति के ख़िलाफ़ समझ बैठे है।क्या पढ़ना-लिखना,समझदारी की बात करना राजनीति के ख़िलाफ़ है ?कोई भी छात्र संगठन से जुड़े ऐसे छात्र जिनमें साधारण समझ भी नहीं है वे आगे चलकर किसी राजनीतिक दलों के महज़ पिछलग्गू बनकर रह जाते हैं।वे राजनेता बनने के सपने तो संजोते हैं मगर उनकी नींव इतनी कमज़ोर होती है कि भविष्य में राजनीतिक चमचों में शुमार हो जाते हैं।

    सच्ची राजनीतिक चेतना के अभाव में ऐसे दिग्भर्मित छात्र न तो राजनीति में सफल होते न ही अन्य क्षेत्रों में बल्कि उनका भविष्य अंधकारमय हो जाता है।छात्रों में यह धारणा बन चुकी है कि बिना वज़ह विरोध करने,शोर-शराबा एवं नारेबाजी करने से ही राजनीतिक कैरियर बनाई जा सकती है।अपने आपको छात्र नेता कहने वाले तथाकथित छात्रहित-चिंतक छात्र नेता महाविद्यालय में सालभर दिखाई नहीं देते बल्कि मौसमी कुकुरमुत्ते की तरह यदा-कदा अपनी राजनीति चमकाने के लिए दिख जाते हैं।आखिरकार ऐसे सस्ते राजनीतिक संस्कार से गढ़े हुए छात्र नेताओं से देश की भलाई को जोड़कर देखना बेमानी है।

    छात्र जीवन में ही राजनीतिक चेतना का बीज बोने के जिस उद्देश्य से छात्र -राजनीति की संकल्पना की गई थी उससे ये छात्र नेता कोसो दूर दिखाई देते हैं।न तो इनमें उत्कृष्ट नेतृत्व क्षमता दिखाई देती,न लोकतांत्रिक कार्यप्रणाली में निष्ठा, न महाविद्यालयीन वास्तविक समस्याओं के प्रति सजगता,न ही छात्र हितों के प्रति चिंतन।यह उचित है कि महाविद्यालय स्तर से छात्र राजनीति की शुरुआत हो मगर यह कतई उचित नहीं की महाविद्यालय बस क्षुद्र राजनीति का अड्डा बन जाए,जहाँ राजनीतिक रोटी सेंकी जा सके।महाविद्यालय का मुख्य धर्म और कर्म अध्ययन और अध्यापन ही होना चाहिए।

    -नरेन्द्र कुमार कुलमित्र
    छात्रसंघ प्रभारी
    शास.स्नातकोत्तर महाविद्यालय,
    कवर्धा, कबीरधाम(छ. ग.
    9755852479

  • जिंदगी पर कविता

    जिंदगी पर कविता

    रंगीन टेलीविजन-सी यह ज़िन्दगी
    लाइट गुल होने पर
    बंद हो जाती है अचानक
    काले पड़ जाते हैं इसके पर्दे
    बस यूँ ही–
    अचानक थम जाती है
    हमारी उम्र
    और थम जाते हैं
    जीवन और मृत्यु के अहसास
    और सारे रहस्य।

    — कुलमित्र
    9755852479