Author: कविता बहार

  • नारी पर कविता

    स्त्री पर कविता ( Stree Par Kavita ): चैत्र नवरात्रि हिन्दु धर्म में नवरात्रि का बहुत महत्व है। चैत्र नवरात्रि चैत्र (मार्च अप्रेल के महीने) में मनाई जाती है, इसे चैत्र नवरात्रि कहा जाता है। नवरात्रि में दुर्गा के नौ रूपों की पूजा-आराधना की जाती है। चूकी दुर्गा माँ भी एक स्त्री है तो नारी शक्ति पर एक कविता

    स्त्री पर कविता ( Stree Par Kavita ):
    स्त्री या महिला पर हिंदी कविता

    नारी पर सुन्दर कविता

    आँखों   से  आंसू   बहते  हैं
    पानी   पानी  है  नारी।

    दुनियां की नज़रों में बस इक
    करूण कहानी है नारी।।

    युगों  -युगों  से  जाने  कितने
    कितने अत्याचार सहे।

    अबला से  सबला तक आयी
    हार न  मानी  है  नारी।।

    ब्रह्मा   विष्णु   गोद   खिलाए
    नाच नचाया नटवर को।

    अनुसुइया   है   कौसल्या   है
    राधा   रानी   है   नारी।।

    एक  नही दो  नही  महज़ इस
    के  किरदार  अनेकों  हैं।

    कभी   लक्षमी   कभी  शारदे
    कभी  भवानी  है   नारी।

    महफ़िल  में  रौनक  है इससे
    गुलशन  में  बहार  है ये।।

    सारी   दुनियां   महा   समंदर
    और   रवानी   है  नारी।।

    ——-✍

    जयपाल प्रखर करुण

    रवानी–धारा, गति, प्रवाह

    स्त्री की उड़ान – माला पहल

    वर्षा की फुहार में छप छप करती मैं।
    गगन में उड़ान भरती हूँ मैं।

    नयनों में भविष्य के सपने संजोती,
    धरा से पंखों में हवा हूँ भरती।

    सूरज करे मेरा अभिवादन,
    चंदा कहे अभिनन्दन,अभिनन्दन।

    तारों ने भरी मन्द मुस्कान,
    और ग्रहों ने दिया सम्मान।
    बादलों ने कहा तुम हो महान।

    सुनहरे है मेरे अनगिनत सपने,
    दृढता से बुने है मैंने इतने।

    गगन को छू लेने की तमन्ना,
    कोई न कर सके मेरा सामना।

    विश्व को दिखाऊँ मैं मेरी महत्ता,
    हिला सके न कोई मेरी सत्ता।

    अजर अमर हो मेरी गाथा,
    गौरव से ऊँचा हो भारत का माथा।

    माला पहल – मुंबई ।

    शक्ति की प्रतिमूर्ति स्त्री

    तुम अष्टभुजा तुम सरस्वती
    तुम कालरात्रि तुम भगवती
    हे स्त्री! तुम शक्ति की प्रतिमूर्ति

    ज्ञान का भंडार खोलती
    शंकराचार्य का दंभ तोड़ती
    जब बनती तुम भारती

    युद्ध क्षेत्र में कदम रखती
    दुष्टों का संहार करती
    जब वीरांगना लक्ष्मीबाई तुम बनती

    राजनीति की राह अपनाती
    सारी दुनिया भी हिल जाती
    जब तुम इंदिरा बन जाती

    सुदूर नभ में अंतरिक्ष यान उड़ाती
    एक नया वैज्ञानिक आयाम बनाती
    जब तुम कल्पना सुनीता बन जाती

    सर्वगुण से संपन्न करती
    सारी इच्छा पूर्ति करती
    मां के रूप में जब हमसे मिलती

    हे स्त्री! तुम शक्ति की प्रतिमूर्ति ।
    हे स्त्री! तुम शक्ति की प्रतिमूर्ति ।

    -आशीष कुमार

    दहेज पर कविता

    दे देते हैं
    वो अपनी औलाद तुझे
    फिर भी ना आई शर्म
    आंखो में बेशर्मी की हाय लेकर
    दिल में पैसे की आस लेकर
    फिर मांग रहा दहेज।

    आसान है क्या?

    अपने कलेजे के टुकड़े को

    कन्यादान कर देना।

    छाती से लिपट कर सोती

    मां की गोद में

    अब वो रो रही ।
    मां की पल्लू खोज रही ।
    दिया दर्द तूने ।

    अपने दकनायनुसी सोच से
    मारता रहा , गिराता रहा
    झुकाता रहा और
    दहेज मांगता रहा।

    रो रही है मां
    हो रहा है दुख उस बाप को
    जिसने पाई – पाई करके दे दिया
    अपना धन सारा।
    नहीं शर्म है,अब तुझमें
    अब बढ़ गई है लालच तेरी।

    तू तौल रहा है

    पैसे की तराजू में
    अरे ! तुझे  उन्होंने अपना
    अपना सब दिया है।।
    फिर  भी मांग रहा दहेज।

    नारी हूं या कठपुतली

    क्या अस्तित्व है मेरा
    कोई बताओ ना मुझे?
    नारी हूं या कठपुतली
    कोई समझाओ ना मुझे?

    कोशिश करते हो हरदममुझे नीचे गिराने के लिए।वस्त्र फाड़ देते हो सरेआममुझे नीचे दिखाने के लिए।कोई बताओ ना मुझे?
    कोई समझाओ ना मुझे?

    तुमने मुझे महज़ चीज जाना
    शौक अपने पूरा करने के लिए।
    मार देते हो मेरे सपने को
    अपने को ही ऊपर बढ़ाने के लिए।
    कोई बताओ ना मुझे?
    कोई समझाओ ना मुझे?

    अब पहचान बनाने दो मुझे,
    कुछ करके दिखाने दो मुझे ।
    तेरे जैसे ही, दुनिया अपनी
    अपनी जहान बनाने दो ना मुझे।
    अब बताओ ना मुझे?अब समझाओ ना मुझे?

    काजल साह

    नारी मांसल पिंड नहीं

    जब भी कोई चीख़
    दफ़न होती है
    आसमां के सीने में।
    तड़पकर मरती है
    जब भी कोई गूँज
    धरती के किसी कोने में ।
    आ खड़े होते हैं हम
    संवेदनहीन मूक चौराहों पर
    नारी अस्मिता का प्रश्न लिये हाथो में
    और ढूँढने लगते हैं जवाब
    मोमबत्ती के धुँधले मरते प्रकाश में ।

    क्या कभी कोई जवाब मिल पाया?
    नहीं, कभी नहीं, मिलेगा भी नहीं
    कैसे मिलेगा ?
    कैद जो है, हमारे ही अपने अंतस् में
    न जाने कब से
    और हम ढूँढते हैं उसे
    भीड़ की आँख में ।
    आह हमारा ये कृत्य
    अपनी ही लाश पर
    अपना नृत्य….

    यदि सच में, हाँ सच में
    फ़िक्र है हमें नारी सम्मान की
    परवाह यदि तरुणी मुस्कान की
    तो छाँटना होगा शैवाल हवस का
    सोच के सरवर से
    बोने होंगे बीज संस्कार के
    फिर से मन की जमीन में
    तोड़ना होगा तिलिस्म व्यभिचार का
    काटने होंगे पंख भोगी बाज के

    नारी मांसल पिंड नहीं
    सृजन का गीत है
    सृष्टि पर सृष्टि की जीत है
    ये बात
    हर माँ को घुट्टी में
    पिलानी होगी
    बहिन को राखी में
    पिरोनी होगी

    कराना होगा ध्यान पिता को
    निज पगड़ी का
    दिखानी होगी भाई को
    कॉलर अपनी कमीज की

    तब निश्चय ही फूटेगा अंकुर
    नारी सम्मान का
    होगा मस्तक फिर ऊँचा
    नारी स्वाभिमान का ।

    अशोक दीप

    मुझे इंसाफ चाहिए

    रो रही हूँ मैं
    खुद की जिंदगी पर।
    दर्द सह रही हूँ
    जिंदगी भर।
    फाड़ गये मेरे वस्त्र
    उन दरिंदो ने,
    अपने शौक पूरा करने के लिए।
    मां ने पाला था

    मुझे बड़े प्यार से।
    पिता ने किया था मेरी
    सारी इच्छओ को पूरा।
    डर सा लग रहा हैं अब
    मुझे गिरकर फिर से उठने में।
    फिर भी मैं उठूंगी ।
    दरिदों को सजा दूंगी।
    मैं इंसाफ़ लूंगी।
    हर बेटी को सीख दूंगी।
    ना डरना है,
    तुझे किसी से
    खड़ा होना है ,
    अपने पैरों पर।
    मुझे इंसाफ मिलेगा और तुझे भी
    अपने हक के लिए लड़ना तो होगा।

    काजल साह

    खोल दिये पावों की अनचाहे बेड़ियां

    अब नहीं रुकूंगी,
    नित आगे बढूंगी
    मैंने खोल दिए हैं ,
    पावों की अनचाहे बेड़ियां।
    जो मुझसे टकराए ,
    मैं धूल चटाऊंगी
    हाथों में डालूंगी ,
    उसके अब हथकड़ियां।।
    (१)
    अब धुल नहीं मैं ,
    ना चरणों की दासी।
    अब तो शूल बनूंगी
    अन्याय से डरूँगी नहीं जरा सी।
    क्रांति की ज्वाला हूँ मैं,
    समझ ना रंगीनी फुलझड़ियाँ ।।
    मैंने खोल दिए हैं ,
    पावों की अनचाहे बेड़ियां……
    ……..
    अब नहीं रुकूंगी,
    नित आगे बढूंगी ।।
    (२)
    दूर रही इतने दिनों तक,
    अपने वजूद की सदा तलाश थी ।
    तेरे फैसले ,विचार मुझ पर थोपे
    कभी ना जाना, मुझे क्या प्यास थी ?
    अब मौका मिला, बंधन मुक्ति का
    ख्वाहिश नहीं अब मोती की लड़ियां ।।
    मैंने खोल दिए हैं ,
    पावों की अनचाहे बेड़ियां…..
    अब नहीं रुकूंगी,
    नित आगे बढूंगी ।।
    (३)
    घर में सजी रही वस्तु बन,
    सपनों का गला घोंटा चारदीवारी में ।
    पीड़ित हो सामाजिक सरोकार से ,
    सती हो गई सिर्फ घरेलू जिम्मेदारी में ।
    क्या पहचान नहीं उन्मुक्त गगन में?
    किस बात में कम हैं हम लड़कियां?
    मैंने खोल दिए हैं ,
    पावों की अनचाहे बेड़ियां……
    ……….
    अब नहीं रुकूंगी,
    नित आगे बढूंगी ।।

    मनीभाई”नवरत्न

    ऐ बाबुल! बिटिया को भेजें क्यों ससुराल

    ऐ बाबुल! बिटिया को भेजें क्यों ससुराल ?
    देख ले बिटिया की ,क्या हो गई है हाल ?
    ऐ बिटिया !कभी तो जाना होगा पिया के द्वार।
    दुनिया की रीत को, कर ले स्वीकार।।


    विदाई  करना ही था तो क्यों?  इतना प्यार दिया।
    बस इतना समझ ले दुनिया से तुझको हार लिया।।
    ऐ बापू! बनूंगी तेरी ढाल ।
    बिटिया को भेजे क्यों ससुराल ?
    पल में पराया हुआ यह घर संसार।
    याद आएंगे सखियां मुझको बार-बार।।


    कैसे बीतेंगे महीने कैसे बीतेंगे साल ।
    बिटिया को भेजें क्यों ससुराल?
    हमारी अमानत थी तू ,हमारी है चाहत ।
    कैसे मिल पाएंगे तुझ बिन, मन को राहत।
    मेरी बेटी बनकर ही, जन्म लेना हर बार ।
    कभी तो जाना होगा ….

    नारी कल्याणी

    माया है संसार यहाँ है सत नारी।
    जन्माती है, पूत निभाती वय सारी।
    बेटी माता पत्नि बनी वे बहिना भी।
    रिश्ते प्यारे खूब निभे ये कहना भी।

    होती है श्रृद्धा मन से ही जन मानो।
    नारी सृष्टी सार रही है पहचानो।
    नारी का सम्मान करे जो मन मेरे।
    हो जाए कल्याण हमेशा तन तेरे।

    नारी है दातार सदा ही बस देती।
    नारी माँ के रूप विचारें जब लेती।
    नारी पृथ्वी रूप सदा ही सहती है।
    गंगा जैसी धार हमेशा बहती है।

    माताओ ने पूत दिए हैं जय होते।
    सीमा की रक्षाहित वे जो सिर खोते।
    पन्ना धायी त्याग करे जो जननी है।
    होगा कैसा धीर करे जो छलनी है।

    होती हैं वे वीर हमारी बहिने तो।
    भाई को भेजे अपना देश बचे तो।
    बेटी का तो रूप सदा ही मन जाने।
    होती है ईश्वर यही भारत माने।

    पन्नाधायी रीत निभाती तब माता।
    बेटा प्यारा ओढ़ तिरंगा घर आता।
    पत्नी वीरानी मन सिंदूर लुटाती।
    पद्मा जैसे जौहर की याद दिलाती।

    राखी खो जाती बहिनें ये बिलखाती।
    नारी का ही रूप तभी तो सह जाती।
    दादी नानी की कहनी है मनबातें।
    वीरो की कुर्बान कथाएँ सब राते।

    नारी कल्याणी धरती के सम होती।
    संस्कारों के बीज सदा ही तन बोती।
    माता मेरा शीश नवाऊँ पद तेरे।
    बेटी का सम्मान करें ओ मन मेरे।

    नारी कल्याणी जननी है अभिलाषी।
    बेटी का सम्मान करो भारत वासी।
    कैसे भूलोगे जननी को यह बोलो।
    नारी भारी त्याग सभी मानस तोलो।

    आजादी का बीज उगाया वह रानी।
    लक्ष्मी बाई खूब लड़ी थी मरदानी।
    अंग्रेजों को खूब छकाया उसने था।
    नारी का सम्मान बढ़ाया जिसने था।

    सीता राधा की हम क्या बात बताएँ।
    लक्ष्मी दुर्गा की सब को याद कथाएँ।
    गौरा गंगा भारत की शान दुलारी।
    नारी कल्याणी सब की है हितकारी।

    बाबू लाल शर्मा “बौहरा

    सत्य की खोज में नारी

    अगर सत्य की खोज में
    छोड़ती घर द्वार
    एक कमसिन बेबस
    जिज्ञासु नार
    तो क्या ,बन पाती वो
    महात्मा बुद्ध
    न जाने कितने होते 
    उसके भीतर बाहर 
    युद्ध ही युद्ध
    कटाक्ष,लाँछन,कर्ण भेदी ताने होते। 
    गैर तो गैर,अपने भी 
    उसके बेगाने होते।
    हाथ में पछतावा,
    आँखों मे आँसू,
    ढूंढती निगाहें होती।
    बचे जीवन मे बस उसके लिए,
    काँटों भरी राहें होती।
    सँग रहती,तो सबकी शर्ते होती,
    अलग थलग दिन रात वो रोती।
    ज़रा हो जाती और 
    पछता कर बोलती,यही सत्य है,
    तू अबला थी,है और रहेगी,
    बस सत्य में यही तथ्य है।

    जनी श्री बेदी

    नारी हूँ पर कब तक मै पीर सहूं

    नारी हूँ कोई वस्तु नहीं कब तक मै पीर सहूं।
    कब तक मैं खामोश रहूँ,कब तक………
    बेटियों की इज्जत लुटना,रोज रोज की बात,
    रावण दुशासन बैठेअब दरबार लगाके घात।


    फाँसी ही सजा इन्हें हो,कब तक हालात सहूं
    कब तक मैं खामोश रहूँ,कब तक……….
    सात वर्ष की बेटी को,हवस के शिकार बनाते
    भूखे भेड़िये मासूमों को,क्यों इतना तड़पाते।


    लहूलुहान हो रही बेटियाँ माँहूँ कैसे पीर सहूं
    कब तक मैं खामोश रहूँ,कब तक….
    बीच सभा में चीर हरण,चुप थे भीष्म,धृतराष्ट्र
    पंचपति बैठे थे मौन,द्रौपदी करते रही पुकार
    नहीं द्रोपदी आज की नारी,
    क्यों कर मैं ये जुल्म सहूं।


    कब तक मैं खामोश रहूँ,कब तक…..
    रघुवर के संग वन वन ड़ोली
    पत्नी व्रत धर्म निभाती।
    सुख दुख की बनी संगिनी,
    पिय संग हँसती गाती।


    धोबी के उलाहने मात्र से,
    वापस क्यूँ वनवास सहूं।
    कब तक मैं खामोश रहूँ…कब तक…..
    मीरा थी प्रेम दीवानी,कृष्ण प्रेम में जीती थी
    राणा के हाथों से,जहर का प्याला पीती थी
    हूँ कान्हा की प्रेम दीवानी,
    मैं क्योंकर विषपान करूँ।


    कब तक मैं खामोश रहूँ…..कब तक…..
    मैं रानी,झाँसी वाली,बलिदानों की बात कहूँ
    बाँधपीठ निजपुत्र,समरक्षेत्र में कूद पड़ूं
    आज नारियाँ अंबर को नापे,
    क्यूँ जौहर की बात कहूँ।


    कब तक मैं खामोश रहूँ….कब तक…
    बहन बेटियों की इज्जत को,
    तार तार नर जो करता है।
    अपनी माँ के कोख को वह,
    खुद बदनाम वो करता है।


    सरे राह जलवाऊँ उनको,
    क्यों कर यह दुष्कृत्य सहूं।
    कब तक मैं खामोश रहूँ, कब तक……..

    केवरा यदु “मीरा”

    अबला जागो

    अबला जागो,जागने की बारी है””तुम्हारी
    बता दो,की तुम्ही से,ये सृष्टि है सारी।

    सिर्फ़ शब्दों में है,नारी महान्
    काश दिल से भी हो,उसका सम्मान
    भाषण देने वाले”नारियों” के हक़ में
    बाहर भले हैँ,अंदर शैतान

    कितनी ही औरतेँ हैें,आज भी ग़ुलाम
    क़फ़स में देह और कफ़न में जान
    हर रिश्ते में नारी का,देखो
    ना ये जहाँ ,ना वो जहान

    पिता के घर,वो पराया धन है
    ससुराल में इसकी,गिरवी जान
    जिस दिन निकले ,दोगले जीवन से नारी
    उसी दिन मनाये”नारी दिवस”महान

    RAJNI SHREE BEDI

    नारी शक्ति को बधाई


    परन्तु उन नारियों को नहीं
    जो बेटी और बहु में फर्क समझती हैं
    जो हर दूसरी नारी को
    पुरुष की तुलना में कमज़ोर
    और पुरुषों की सेवक मात्र समझती हैं
    जो महिलाओं के पहनावें से
    उनके चरित्र का आंकलन करती हैं
    उन्हें तो बिल्कुल नहीं
    जो दहेज के मापदंड पर
    बहुओं का भविष्य निर्धारित करती हैं
    उन नारियों को मैं क्या बधाई दूँ
    जो अब तक
    पुरुष प्रधान मानसिकता में ही जी रही हैं
    मेरी बधाई उस महिला शक्ति को है
    जो जेट विमान लेकर
    शत्रु के घर मे घुसकर उसको मारती है
    जो पति के धोखा देने पर
    टूट के बिखरती नहीं
    अपितु बढ़ चढ़ कर
    अपनी काबिलियत प्रस्तुत करती है
    वो नारी जो आज वैज्ञानिक है
    अध्यापिका है संगीतकार है
    नृत्यांगना है नाटककार है इत्यादि
    जो हर वो कार्य करने में सक्षम है
    जो पुरुष कर सकता है
    वो नारी जो प्रत्येक नारी की
    भावनाओं और आकांक्षाओं का सम्मान करें
    वो नारी जो उत्पीड़न का
    खुल के विरोध कर सके
    वो नारी जो माँ है
    वो माँ
    जो सिर्फ एक नए जीवन को
    जन्म ही नहीं देती
    बल्कि अच्छे संस्कारों से
    अपनी संतान को धर्म और कर्म का
    उचित मार्ग दिखाती है
    मेरी बधाई हर उस नारी को है
    जो ईश्वर के दिये इस जीवन को
    अपनी मौलिकताओं और
    अपनी महत्वाकांशाओं के अनुरूप
    जीने को लालायित है
    यकीनन आज उस नारी को बधाई देती हूँ
    इक परिवार और समाज में
    प्रेम के अंतरंग रूपों को बिखेरती है
    मां, बहन,पत्नी,
    बेटी,सास, बहु,
    दादी ,नानी,
    बुआ, चाची, ताई,
    मासी, मामी होने के साथ साथ
    एक ज़िम्मेदार नागरिक भी है
    जिसकी ‘चाहत’
    पारिवार और समाज तक ही
    सीमित न हो
    जो राष्ट्रप्रेम से ओतप्रोत भी हो
    वह नारी जो कहीं न कहीं
    किसी न किसी रूप में
    राष्ट्र का गौरव बढ़ाती है
    ऐसी नारी शक्ति को मेरा नमन
    व हार्दिक बधाई।

    नेहा चाचरा बहल ‘चाहत

    औरत पर कविता

    औरत जानती है विस्तार को
    देखती है संसार को
    कभी नन्ही सी बिटिया बनकर
    कभी किसी की दुल्हन बनकर
    कभी अपनी ही कोख में
    एक नयी दुनिया को लेकर!


    नन्ही बिटिया से दादी-नानी का सफर,
    तय करती है इस उम्मीद के साथ
    बदलेगा समाज का नजरिया
    शायद कभी गणतंत्र में…….?
    अभिशप्त काल कोठरी में पड़ी,
    अनगिनत सवालों में जकड़ी,
    सारा जीवन अवरोधों और
    वंचनाओं में कट जाता है
    तपस्या और महानता कह
    समाज गौरवान्वित होता है!


    औरत आशाभरी नजरों से,
    समाज के बदलने का इंतजार करती है,
    थककर आंखें मूंद लेती है,
    फिर जन्म लेती है बेटी,
    वही कहानी शुरू होती है,
    मगर…….. इस बार……..
    इंदिरा के स्वाभिमान सी,
    कल्पना की उड़ान सी,
    गौरवान्वित कर राष्ट्र को
    ‘प्रेरणा’ बन जाती है
    समूचे नारी जाति की
    बदल देती है तकदीर,
    आजाद हिंदुस्तान में
    आजाद कर नारी को,
    बना जाती है नयी तस्वीर!
    अब औरत जीती है विस्तार को
    देखती है संसार को,
    जिज्ञासा से नहीं,विश्वास भरी आंखों से…..

    डॉ. पुष्पा सिंह’प्रेरणा’

    नारी

    बदलती चमन की फिजाँ नारियां।
    हँसीं हैं बनाती ज़हां नारियां।1

    नहीं काम कोई शुरू हो सके।
    न करती कभी वो जो हां नारियां।2

    मिलेकाम जो भी वो अद्भुत करें ।
    सदा छोड़ती हैं निशां नारियां।3

    नहीं बात कोई कभी मन रखें।
    नयन से है करतीं बयां नारियां।4

    सफलताऐं चूमें कदम जब धरें।
    बहुत खूबी रखती यहाँ नारियाँ।5

    सहे गम हजारों पता ना चले
    नहीं खोलती हैं जुबां नारियां।6
    प्रवीण त्रिपाठी

    नारी तुम प्रारब्ध हो

      नारी तेरी आँसु टपके,
      और सागर बन जाए।
      युगों-युगों से सारी सृष्टि,
        तुझसे जीवन पाए।।

    संस्कार की धानी बन तुम,
    करती हो ज्ञान प्रदान।
    ममता की थपकी लोरी से,
    माँ देती हो वरदान।।

    जब भी कोई संकट आया,
    छोंड़ के मोह का बन्धन।
    अपनें कलेजे के टुकड़े को
    इस देश में किया अर्पण।।

    इतनें सारे कष्टों कैसे,
    तुम अकेले सह जाती हो।
    पीकर अपनें सारे आँसु,
    बाहर से मुस्काती हो।।

    नारी तुम प्रारब्ध हो,
    हो अंतिम विश्वास।
    तुम्हे छोड़ ना बन पायेगा
    कोई भी इतिहास।।

    उमेश श्रीवास”सरल”

    मैं स्त्री हूँ

    मैं एक शायर की लिखी शायरी हूँ
    एक कवि की लिखी कविता हूँ
    कामिनी हूँ मैं, दामिनी भी हूँ
    दुर्गा ,सीता,सावित्री
    पार्वती ,लक्ष्मी,सरस्वती हूँ मैं


    मैं ब्रह्मांड का सृजन करने वाली हूँ
    मैं करुणा भी हूँ, रण चण्डी भी हूँ
    मैं कहानी हूँ, गजल भी हूँ
    मेरी उज्ज्वलता ये चांदनी है
    घने केश ये श्यामवर्णी जलद है


    उषाकाल मेरे अधरों की लालिमा है
    ये नदी आकाश-पट का लहराता अंचल है
    माला के मोती ये सितारे है
    मस्तक टीका ये पर्वत है
    सूर्य बिंदी ,चन्द्र आइना है


    निर्झर भुजाएं,सागर पद है
    मैं वनों -सी खुशहाली हूँ
    इस धरती की माली हूँ
    मैं माँ,भगिनी,आत्मजा हूँ
    तो जीवनसंगिनी भी हूँ
    घर की इज्जत हूँ,महकती फुलवारी हूँ
    मान,सम्मान,स्वाभिमानी हूँ
    दया का सागर………मैं स्त्री हूँ

    धर्मेन्द्र कुमार सैनी,बांदीकुई

    नारी सम्मान पर कविता

    करते हो तुम बातें,
    नारी के सम्मान की,
    गाते हो तुम गाथायें,
    नारी के बलिदान की।
    क्या तुमने कभी अपने,
    घर की नारी को देखा है,
    घर की चौखट ही जिसके,
    जीवन की लक्ष्मण रेखा है।

    सपने जिसके सारे,
    पलकों में ही खो जाते,
    इच्छाएँ जिसके पूरे,
    कभी भी न हो पाते।
    आज भी वो अबला है,
    कोख में मारी जाती है,
    अपने सपनों को करने साकार,
    जन्म तक न ले पाती है।
    बोलो समाज के प्रतिनिधि,
    दम्भ किस बात का भरते हो,
    जब अपनी जननी-भगिनी की,
    रक्षा ही ना करते हो।।

    मधुमिता घोष

    मैं ना केवल एक स्त्री हूँ

    मैं ना केवल एक स्त्री हूँ

    ऐसे न देखो मुझे ,
    कि मैं केवल एक स्त्री हूँ ,
    मुझमें माँ , बहन , बेटी ,
    और गृह – लक्ष्मी का रूप ,
    भी निहार लो।माथे पर मर्यादा का आँचल ,
    आँखों में ममता का सागर ,
    हाथों में सेवा का गागर ,
    हो सके तो इनसे अपना ,
    जीवन सँवार लो ।

    आस्था रखती हूँ मानवता में ,
    अटूट संबंध  है दयालुता से ,
    तप ही मेरा सर्वोत्तम गहना ,
    इस गहने से तुम भी अपना ,
    सहज श्रृंगार लो ।

    हृदय भी है धड़कने वाला ,
    अच्छा – बुरा समझने वाला ,
    अनादर की अधिकारिणी ,
    न थी कभी , न हूँ अभी ,
    अपनी भूल सुधार लो ।

    पिता , पुत्र , और भाई सम ,
    जब तुम्हें देख सकती हूँ मैं ,
    तब तुम क्यों भ्रमित होते हो ?
    करोगे सदा सम्मान मेरा ,
    अडिगता का प्रण , स्वीकार लो ।

    गीता द्विवेदी

    कभी दुर्गा कभी काली

    कभी तो दुर्गा है, कभी वो काली है,
    नारी अँधेरी रात में, चाँद सी उजाली है।
    नारी कभी बेटी है, कभी बहन का फर्ज़ निभाई है,
    नारी कभी बहु है, कभी माँ हो होकर माँ का मातृत्व लायी है।

    नारी अपने संघर्षों से कभी नहीं घबराई है,
    नारी अपने पति हेतु अमर प्रेम बन आयी है।
    नारी का सम्मान करोगे तो मान जहाँ में पाओगे,
    नारी का अपमान किया तो, मिट्टी बन भूतल में धंस जाओगे।

    नारी तुम ऐसा काम करो, जग में कुछ अपना नाम करो,
    न कर सको गर कोई बात नहीं, पर अपना तो आत्म सम्मान करो।
    शास्त्रों में भी है लिखा, “यत्र नारस्य पूज्यन्ते रम्यन्ते तत्र देवता”,
    नारी तुम ये याद रखो चंडी बनकर संहार करो, जो बुरी नज़र से हो देखता।

    समय आ गया अब नारी, ना अत्यचार आगे बढ़ाओ,
    ना बनोगी अबला-बेचारी, प्रत्यन्चा ये वेदी पर चढ़ाओ।

    -प्रिया शर्मा

    नारियां

    बदलती चमन की फिजाँ नारियां।
    हँसीं हैं बनाती ज़हां नारियां।1


    नहीं काम कोई शुरू हो सके।
    न करती कभी वो जो हां नारियां।2


    मिलेकाम जो भी वो अद्भुत करें ।
    सदा छोड़ती हैं निशां नारियां।3


    नहीं बात कोई कभी मन रखें।
    नयन से है करतीं बयां नारियां।4


    सफलताऐं चूमें कदम जब धरें।
    बहुत खूबी रखती यहाँ नारियाँ।5


    सहे गम हजारों पता ना चले
    नहीं खोलती हैं जुबां नारियां।6


    प्रवीण त्रिपाठी, नई दिल्ली

    नारी पर कविता – रमेश कुमार सोनी

    सिर पर भारी टोकरा
    टोकरे में है – भाजी , तरकारी
    झुण्ड में चली आती हैं
    सब्जीवालियाँ

    भोर , इन्हीं के साथ जागता है मोहल्ले में ;
    हर ड्योढ़ी पर
    मोल – भाव हो रहा है
    उनके दुःख और पसीने का ।

    लौकी दस और भाजी बीस रुपए में
    वर्षों से खरीद रहे हैं लोग ,
    सत्ता बदली , युग बदला,
    लोग भी बदल गए
    लेकिन उनका है

    वही पहनावा और वही हँसी – बोली ;
    घर के सभी सदस्यों को चिन्हती हैं वे
    हाल – चाल पूछते हुए
    दस रुपए में मुस्कान देकर लौट जाती हैं ।

    शादी – ब्याह के न्यौते में आती हैं
    आलू , प्याज , साबुन , चाँवल और
    पैसों के भेंट की टोकरी लिए ,

    कहीं छोटे बच्चे को देखी तो
    ममता उमड़ आती है
    सब्जी की टोकरी छोड़
    दुलारने बैठ जाती हैं ;

    मेरे मोहल्ले का स्वाद
    इन्ही की भाजी में जिंदा है आज भी
    औरतों का आत्मनिर्भर होना अच्छा लगता है
    रसोई तक उनकी गंध पसर जाती है

    ये बारिश में नहीं आती हैं
    उग रही होती हैं
    अपनी खेतों और बाड़ियों में
    सबके लिए थोड़ी – थोड़ी सी

    अँखुआ रहे हैं –
    आकाश , हवा , पानी
    इनकी भूमि सी कोख में
    सबके लिए थोड़ी – थोड़ी सी …. ।

    रमेश कुमार सोनी
    कबीर नगर – रायपुर,छत्तीसगढ़

    क्यूंकि नारी हूँ मैं

    नारी हूँ मैं , नारी हूँ मैं
    कभी सिसकती , कभी तड़पती हूँ मैं
    बंधनों में रहकर भी संवरती हूँ मैं
    नारी हूँ मैं , नारी हूँ मैं

    कभी घर के आँगन का चाँद हो जाती हूँ मैं
    कभी मर्यादाओं में रहकर भी संवरती हूँ मैं
    नारी हूँ मैं , नारी हूँ मैं

    कभी किसी कविता का विषय हो निखरती हूँ मैं
    और कभी जिन्दगी की ग़ज़ल बन संवरती हूँ मैं
    नारी हूँ मैं , नारी हूँ मैं

    क्यूं करूं खुद को व्यथित मैं
    कभी माँ , कभी बहन बनकर निखरती हूँ मैं
    नारी हूँ मैं , नारी हूँ मैं

    कभी चाँद बनकर घर को रोशन करती हूँ मैं
    कभी बाहों का आलिंगन हो संवरती हूँ मैं
    नारी हूँ मैं , नारी हूँ मैं

    क्यूं कर घूरती हैं निगाहें मुझको
    सजती हूँ, संवरती हूँ , खुद से मुहब्बत करती हूँ मैं
    नारी हूँ मैं , नारी हूँ मैं

    मातृत्व की छाँव तले खुद को पूर्ण करती हूँ मैं
    कभी वात्सल्य की पुण्यमूर्ति हो जाती हूँ
    कभी मातृत्व के स्पर्श से
    खुद को अभिभूत करती हूँ मैं
    नारी हूँ मैं , नारी हूँ मैं

    कभी देवी कह पूजी जाती हूँ मैं
    कभी क़दमों तले रौंदी जाती हूँ मैं
    कभी नारी के एहसास से गर्वित हो जाती हूँ मैं
    कभी पुरुषों के दंभ का शिकार हो जाती हूँ मैं
    नारी हूँ मैं , नारी हूँ मैं

    जन्म लेती हूँ , घर में लक्ष्मी होकर
    बाद में बोझ हो जाती हूँ मैं
    नारी हूँ मैं , नारी हूँ मैं

    ताउम्र सहेजती हूँ रिश्तों को मैं
    पल भर में परायी हो जाती हूँ मैं
    नारी हूँ मैं , नारी हूँ मैं

    कभी जीती हूँ पायल की छन – छन के साथ
    कभी “निर्भया” बन बिखर जाती हूँ मैं
    नारी हूँ मैं , नारी हूँ मैं

    कभी मेरी एक मुस्कान पर दुनिया फ़िदा हो जाती है
    कभी यही मुस्कान जिन्दगी की कसक बन जाती है
    कभी संवरती हूँ, सजती हूँ, कभी बिखरती हूँ
    नारी हूँ मैं , नारी हूँ मैं

    कभी लक्ष्मी बाई , दुर्गावती हो पूजी जाती हूँ मैं
    कभी आसमां की सैर कर कल्पना, सुनीता हो जाती हूँ मैं
    नारी हूँ मैं , नारी हूँ मैं

    कभी दहेज़ की आंच में तपती हूँ
    कभी सती प्रथा का शिकार हो जाती हूँ मैं
    नारी हूँ मैं , नारी हूँ मैं

    कभी इंदिरा बन संवरती हूँ
    कभी प्रतिभा की तरह रोशन हो जाती हूँ मैं
    नारी हूँ मैं , नारी हूँ मैं

    कभी अपनों के बीच खुद को अजनबी सा पाती हूँ मैं
    कभी सुनसान राह पर लुटती हूँ, कभी घर के भीतर ही नोची जाती हूँ मैं
    नारी हूँ मैं , नारी हूँ मैं

    मेरा तन मेरे अस्तित्व पर पड़ता है भारी
    मेरा होना मेरे जीवन के लिए हो रहा चिंगारी
    क्या कर उस परम तत्व ने रचा मुझको
    क्यों कर “निर्भया” कर दिया लोगों ने मुझको.


    क्यूं कर नहीं स्वीकारते मेरे अस्तित्व को
    क्यूं नहीं नसीब होती खुले आसमां की छाँव मुझको
    क्यूँ कर मुझसे मुहब्बत नहीं है उनको
    क्यूंकि नारी हूँ मैं , नारी हूँ मैं , नारी हूँ मैं

    नारी पर कविता

    kavita-bahar-hindi-kavita-sangrah

    है निरा निरादर नारी का,
    जहां माता का सम्मान नहीं।
    रुष्ट रूह रमती हरदम,
    बसते वहां भगवान नहीं।।

    नौ महीने तक दुख सुख पा के,
    कोख में जिसको ढोया था।
    सुला के सूखा, गीले सोई,
    मल मूत्र हाथों धोया था।।
    क्यों भूल गया सुत कर्म भला,
    जो मां का था एहसान नहीं…

    बड़ा फर्ज निभाया है मां ने,
    कुछ फर्ज तुम्हारा भी होगा।
    जो कर्ज दूध का चढ़ा पड़ा,
    वही कर्ज उतारा भी होगा।।
    जब गई गरज और मिटा मर्ज,
    तो बन जाते अनजान वही…

    मां यज्ञ हवन की समिधा सी,
    शनै: शनै: सब वार गई।
    जीत की देहरी चढ़कर वो,
    अपनों से ही हार गई।।
    वृद्धाश्रम या घर का कोना,
    रह गई है पहचान यही…

    काश याद बचपन लौट आए,
    वही मां का दर्श दिखाई दे।
    सीने में दर्द दफन बेशक,
    चेहरे का हर्ष दिखाई दे।।
    बस मन से इज्जत मांगे मां,
    चाहती कोई गुणगान नहीं…

    शिवराज चौहान* नान्धा, रेवाड़ी (हरियाणा)

    कविता बहार की कुछ अन्य कविताये : मातृ दिवस पर हिंदी कविता (Martee Divas Par Kavita )

    गणतंत्र दिवस पर कविता 

    औरत की सबसे बड़ी कमजोरी क्या है?

    औरत की सबसे बड़ी कमजोरी उसका संतानमोह है। इस केलिए वह पूरे संसार से लडने को तैयार रहती है।

    स्त्री क्या क्या कर सकती है?

    स्त्री सभी कार्य करने की हिम्मत रखती है, पुरुषों से ज्यादा मानसिक शक्ति स्त्रीओ में होती है।

  • शिव में ध्यान लगा -मनीभाई नवरत्न

    शिव में ध्यान लगा

    akelapan
    शिव पर कविता

    शिव में ध्यान लगा, रे मनुवा.
    शिव में ध्यान लगा.
    शिव में ध्यान लगा, रे मनुवा.
    शिव में ध्यान लगा.

    मौका मिला तुझे , शिव से मिलने को .
    जाने ना दे ये पल, दिन है ढलने को ।
    वरना होगा गुनाह, मिले ना फिर पनाह.
    मन से अपने आलस भगा .
    शिव में ध्यान लगा, रे मनुवा.
    शिव में ध्यान लगा.

    मंजिल है कठिन, और काँटों भरा .
    शिवतेरा सहारा है, मिटे दुःख गहरा .
    सब संभव है , तू जो मेरे पास है।
    हटा दे मालिक बस, माया का पहरा ।
    मेरे राम के प्यारे , बनो जी सहारे .
    मेरे राम के प्यारे , बनो जी सहारे .
    सिवा तेरे यहाँ , कोई ना सखा.
    शिव में ध्यान लगा, रे मनुवा.
    शिव में ध्यान लगा.

    तुमसे भोला, ना कोई दूजा,
    जग में है तेरा, नाम गूंजा.
    देवों में महादेव,  सबसे बड़े
    पाते हो विधाता , सबकी पूजा।
    दुखहर्ता प्रभु, सुखदाता प्रभु,
    दुखहर्ता प्रभु, सुखदाता प्रभु,
    नींद से अपने को आज जगा,
    शिव में ध्यान लगा, रे मनुवा.
    शिव में ध्यान लगा.

    -मनीभाई नवरत्न

  • जीवन बीमा निगम स्‍थापना दिवस कविता | LIC foundation day special poem

    LIC foundation day special poem

    आओ प्यारे साथ हमारे,
    जनसेवा हित सांझ सकारेl

    सम्यक संचय और निवेशन
    जन जन का हित संवर्धन,
    निगम नीति का उच्च लक्ष्य है,
    व्यक्ति और परिवारोंत्थान ।

    लोक हितैषी सेवा दीक्षा,
    जन मन प्रेरित सतत सुरक्षा,
    योगक्षेमं ही परम ध्येय है,
    निगम हमारा प्रिय संस्थान।

    उठो निगम के सच्चे सेवक,
    अभिकर्ता जन और प्रबंधक,
    बुला रहे हैं ,कार्य लोकहित ,
    तुम पर निर्भर जनकल्याण।

    आओ प्यारे साथ हमारे,
    जनसेवा हित सांझ सकारे।।

    संकलित

  • पिता पर कविता (Pita Par Kavita)

    फादर्स डे पिताओं के सम्मान में एक व्यापक रूप से मनाया जाने वाला पर्व हैं जिसमे पितृत्व (फादरहुड), पितृत्व-बंधन तथा समाज में पिताओं के प्रभाव को समारोह पूर्वक मनाया जाता है। अनेक देशों में इसे जून के तीसरे रविवार, तथा बाकी देशों में अन्य दिन मनाया जाता है। यह माता के सम्मान हेतु मनाये जाने वाले मदर्स डे (मातृ-दिवस) का पूरक है।

    पिता पर कविता (Pita Par Kavita)

    पिता पर कविता (Pita Par Kavita) :

    मैं साथ हूं हमेशा तेरे ( पिता पर कविता)

    हमारी और हमारे पापा की कहानी ।
    आसमान सा विस्तार ,सागर सा गहरा पानी।

    जब जन्म पायी इस धरा पर , वो पल मुझे याद नहीं।
    मां कहती है बेटा तेरे पापा के लिए,इससे बड़ी खुशी की कोई बात नहीं।।

    मां की मैं लाडली गुड़िया, पापा तेरी परी लाडली बिटिया रानी हूं।
    कहते हो मुझसे आके जो ,मैं तो तुम्हारी अनकही एक अनोखी कहानी हूं।।

    एक वक्त था पापा मैंने जब, समझा ना था तुम्हारे प्यार को।
    गुस्से में हमेशा छिपा लेते थे, जाने क्यों अपने दुलार को ।।

    सोचती थी आजादी ना दी, ना करते मुझ पर भरोसा हो।
    एक पल के लिए भी ना करते तन्हा मुझे,जैसे फिक्र ही अपना मुझ पर परोसा हो।।

    कुछ पल की भी जो दूरी होती थी, स्कूल से मुझको घर आने में।
    फिक्र इतनी जो करते हो तुम, और कौन कर सकेगा इतना सारे जमाने में।।

    मेरी मांगों को कर देते हो नज़र अंदाज़ , ऐसा भी कभी मैंने सोचा था।
    माफ करना पापा मेरे , उस वक्त तेरे प्यार को ना मैंने देखा था ।।

    बंद कमरों में मुझको, पिंजरे सा जीवन महसूस होता था।
    अनजान थी तब मैं पापा मेरे, तुमको फिक्र मेरी कितना सताता था।।

    पढ़ायी के लिए मेरी जो तुम, सारा दिन धूप धूप में भी फिरते थे।
    रुक ना जाए कहीं पढ़ायी मेरी , सोच के भी कितना डरते थे।।

    मेरी पढ़ायी के लिए मुझसे भी ज्यादा, तुम ही सक्रिय रहते हो।
    बेटा पढ़ लिख करो अपना हर सपना पूरा , मैं साथ हूं हमेशा तेरे मुझसे कहते हो।।

    आसमान सा हृदय तुम्हारा, मन सागर से भी गहरा है।
    शब्द कहां से जोडूं तुम्हारे लिए, भगवान से भी प्यारा तेरा चेहरा है।।

    बात स्वास्थ पर जब मेरी आती है, छींक से भी मेरी तुम कितना घबरा जाते हो।
    बीमार जो कभी थोड़ी हो जाती , थामे हाथ मेरा साथ ही रह जाते हो।।

    आज समझ में आ गया, एक पिता खुले आसमान सा होता है।
    शब्द इतने कहां मेरी लेखनी में , कि बता सकूं एक पिता कैसा होता है।।

    सब कुछ जानता ,सब कुछ समझता ,पर किसी से कुछ ना कहता है।
    समर्पित उसका सारा जीवन , अपने बच्चों पर ही रहता है।।

    एक जलता दीपक है जो खुद जल के ,रोशनी अपने बच्चों के जीवन में भरता है ।
    गहरे समंदर सा हृदय उसका , सारी नादानी हमारी माफ करता है।।

    पिता परम देवता सा महान , पिता एक बलवान , पिता होना भी आसान नहीं।
    श्रृष्टि की कोई अन्य रचना ,होती पिता के समान नहीं।।

    रीता प्रधान

    पिता दिवस पर कविता

    दर्द को भीतर छुपाकर,
    बच्चों संग मुसकाते।
    कभी डाँट फटकार लगाते,
    कभी कभी तुतलाते।

    हँस हँसकर मुँहभोज कराते,
    भूखे रहते हैं फिर भी।
    स्वच्छ जल पीकर सो जाते ,
    गोद में लेकर सिर भी।

    आँधी तूफाँ आये लाखों,
    चाहे सिर पर कितने।
    विशाल वक्ष में समा लेते हैं,
    दर्द हो चाहे जितने।

    बच्चों की खुशियाँ और,
    माँ की बिंदी टीका।
    पड़ने देते किसी मौसम में,
    कभी न इनको फीका।

    पर कुछ पिता ऐसे जो ,
    मानव विष पी जाते।
    बुरी आदतों में आकर ,
    अपनों का गला दबाते।

    माँ की अन्तरपीड़ा और,
    बच्चों की अंतः चीत्कार।
    जो न सुनता है पिता,
    समाज में जीना है धिक्कार।

    माँ तो है सृष्टिकर्ता पर,
    पिता है जीवन का आधार।
    अपनी महिमा बनाये रखना,
    हे! जग के पालनहार।।

    अशोक शर्मा,

    पिता ईश सम हैं दातारी

    पिता ईश सम हैं दातारी।
    कहते कभी नहीं लाचारी।।1

    देना ही बस धर्म पिता का।
    आसन ईश्वर सम माता का।।2

    तरु बरगद सम छाँया देता।
    शीत घाम सब ही हर लेता।।3

    बहा पसीना तन जर्जर कर।
    जीता मरता संतति हितकर।4

    संतति हित ही जनम गँवाता।
    भले जमाने से लड़ जाता।।5

    अम्बर सा समदर्शी रहकर।
    भीषण ताप हवा को  सहकर।।6

    बन्धु सखा गुरुवर का नाता।
    मीत भला सब पिता निभाता।।7

    पीढ़ी दर पीढ़ी खो जाता।
    बालक तभी पिता बन पाता।।8

    धर्म निभाना है कठिनाई।
    पिता धर्म जैसे प्रभुताई।।9

    अम्बर हित जैसा ध्रुव तारा।
    घर हित वैसा पिता हमारा।।10

    जगते देख भोर का तारा।
    पूर्व देखलो पिता हमारा।।11

    सुत के गम में पितु मर जाता।
    राजा दशरथ जग विख्याता।12

    मुगल काल में देखो बाबर।
    मरता स्वयं हुमायुँ बचा कर।।13

    ऋषि दधीचि सा दानी होता।
    यौवन जीवन दोनो खोता।।14

    पिता धर्म निभना अति भारी।
    पाएँ दुख संतति हित गारी।15

    पिता पीत वर्णी हो जाता।
    जब भी सुत हित संकट आता।16

    बाबू लाल शर्मा “बौहरा”

    fathers day पर पिता को क्या तोहफा दे?

    एक पिता का सबसे पढ़ा तोहफा तो उसकी संतान होती है। तो आप कोसिस करे की आप उनकी जो इच्चा है की आप अपने भविष्य को उज्वल बना ले वाही उनका तोहफा होगा।

    एक पिता ली खुशी किस्मे है?

    एक पिता ली खुशी उसके संतानों में होती है आगर उसके संतान खुश है तो वह भी खुश है ।

    कविता बहार की कुछ अन्य शानदार कविताये : जगन्नाथ रथयात्रा पर हिंदी कविता (Jagannath Rathyatra)

    स्त्री पर कविता ( Stree Par Kavita )

    शहीदों पर कविता

  • जगन्नाथ रथयात्रा पर हिंदी कविता (Jagannath Rathyatra)

    जगन्नाथ रथयात्रा पर हिंदी कविता (Jagannath Rathyatra) : Jagannath Rathyatra दूसरे शब्दों में रथ महोत्सव एकमात्र दिन है जब भक्तों को मंदिर में जाने की अनुमति नहीं है, उन्हें देवताओं को देखने का मौका मिल सकता है। यह त्योहार समानता और एकीकरण का प्रतीक है। रथ यात्रा भारत के पुरी में जून या जुलाई के महीनों में आयोजित भगवान जगन्नाथ (भगवान विष्णु का अवतार) से जुड़ा एक प्रमुख हिंदू त्योहार है| पुरी रथ यात्रा विश्व प्रसिद्ध है और हर साल एक लाख तीर्थयात्रियों को आकर्षित करती है, न केवल भारत से बल्कि दुनिया के विभिन्न हिस्सों से भी।

    जगन्नाथ रथयात्रा पर हिंदी कविता (Jagannath Rathyatra)

    जगन्नाथ रथयात्रा पर हिंदी कविता (Jagannath Rathyatra)

    शुक्ल पक्ष आषाढ़ द्वितीय।
    रथयात्रा त्योहार अद्वितीय।

    चलो चलें रथयात्रा में।
    पुरी में लोग बड़ी मात्रा में।

    जगन्नाथ के मंदिर से।
    भाई बहन वो सुन्दर से।

    जगन्नाथ, बलभद्र हैं वो।
    बहन सुभद्रा संग में जो।

    मुख्य मंदिर के बाहर।
    रथ खड़े हैं तीनों आकर।

    कृष्ण के रथ में सोलह चक्के।
    चौदह हैं बलभद्र के रथ में।
    बहन के रथ में बारह चक्के॥

    रथ को खींचों।
    बैठो न थक के।

    मौसी के घर जाएंगे।
    मंदिर (गुंडिचा )हो आएंगे।

    नौ दिन वहां बिताएंगे।
    लौट के फिर आ जाएंगे।

    बहुड़ा जात्रा नाम है इसका।
    नाम सुनो अब कृष्ण के रथ का।

    नंदिघोषा, कपिलध्वजा।
    गरुड़ध्वजा भी कहते हैं।

    लाल रंग और पीला रंग।
    शोभा खूब बढ़ाते हैं।

    तालध्वजा रथ सुन्दर सुन्दर।
    भाई बलभद्र बैठे ऊपर।

    नंगलध्वजा भी कहते हैं।
    बच्चे, बूढ़े और सभी।

    गीत उन्हीं के गाते हैं।
    रंग-लाल, नीला और हरा।

    ये त्योहार है खुशियों भरा।
    देवदलन रथ आता है।

    बहन सुभद्रा बैठी है।
    कपड़ों के रंग काले-लाल।

    दो सौ आठ किलो सोना।
    तीनों पर ही सजता है।

    खूब मनोहर सुन्दर झांकी।
    कीमत इसकी कोई न आंकी।

    दृश्य मन को भाता है।
    एक झलक तो पा लूँ अब।

    विचार यही बस आता है।

    चलो चलें रथ यात्रा में।
    पुरी में लोग बड़ी मात्रा में॥

    जगन्नाथ रथयात्रा पर कविता 2

    “हे प्रभु जगन्नाथ थाम मेरा हाथ,
    अपने रथ में ले चल मुझे साथ।
    लुभाये न मुझको अब कोई पदार्थ
    मेरा तो बस अब एक ही स्वार्थ,
    धर्म युद्ध हो या कर्म युद्ध हो
    तू बने सारथि, मैं बनूँ पार्थ ।
    मैं हूँ अन्जान बन के मेरा नाथ
    अपने रथ में ले चल मुझे साथ।”

    उसके हाथ में
    कोई हथियार नहीं था
    उसका चेहरा बड़ा भव्य था
    वह खुली जीप में आया था

    उसके आगे पीछे
    लम्बा चौड़ा काफ़िला था वाहनों का
    माथे पर पट्टियाँ बांधे
    जोश में नारे लगाती
    अनुयायियों की
    उन्मादी भीड़ थी
    उसके चारों ओर

    वह रौंदता जा रहा था
    मेहनतकशों की बनायी
    उम्मीदों की सड़क

    उसके आने से पहले ही
    लोग दुबक चुके थे घरों में
    किसी अनिष्ट की आशंका से
    बंद हो गए थे बाज़ार
    फैला हुआ था सन्नाटा चारों ओर
    कोई नहीं देख रहा था
    उसकी सवारी
    अनुयायियों की उन्मादी भीड़ के सिवा

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