भोर का तारा पद्ममुख पंडा के द्वारा रचित आशावादी कविता है जिसमें उन्होंने प्रकृति का बेहद सुंदर ढंग से वर्णन किया है। साथ में यह भी बताया है कि किस तरह से रात्रि के बाद दिवस हो रहा है अभिप्राय दुख के बाद सुख का आगमन हो रहा है।
भोर का तारा. एक आशावादी कविता
निशा जा चुकी, अपने घर पर, फैल रहा हैै अब उजियारा। गूंज उठा संगीत, फिजां में, मधुर मनोहर कितना प्यारा। पंछी कलरव करते, उड़ते, चहक रहे आपस में मिलकर। अपना अपना सुख दुःख कहकर, भूल गए हैं दुःख वे सारा। निशा जा चुकी, अपने घर पर, फैल रहा है अब उजियारा।। निर्मल मंदाकिनी, प्रवाहित होती है , कल कल ध्वनियों पर। ठंडी ठंडी हवा बह रही, तन ढकने का करे इशारा। बत्तख घर से निकल रहे हैं, पंक्तिबद्ध होकर बतियाते। उनको बहुत पसंद मिले जो, नन्हीं मछली का हो चारा। लोग बाग , चहलकदमी के लिए, घरों से निकल पड़े हैं, आसमान पर दमक रहा है, सबको देख भोर का तारा।। निशा जा चुकी अपने घर पर, फैल रहा है अब उजियारा।।
रानी दुर्गावती पर कविता- भारत में जब भी महिलाओं के सशक्तिकरण की बात होती है तो महान वीरांगना रानी दुर्गावती की चर्चा ज़रूर होती है। रानी रानी दुर्गावती न सिर्फ़ एक महान नाम है बल्कि वह एक आदर्श हैं उन सभी महिलाओं के लिए जो खुद को बहादुर मानती हैं
रानी दुर्गावती पर कविता
जब दुर्गावती रण में निकलीं हाथों में थीं तलवारें दो। हाथों में थीं तलवारें दॊ हाथों में थीं तलवारें दॊ। जब दुर्गावती रण में निकलीं हाथों में थीं तलवारें दो।
धीर वीर वह नारी थी, गढ़मंडल की वह रानी थी। दूर-दूर तक थी प्रसिद्ध, सबकी जानी-पहचानी थी।
उसकी ख्याती से घबराकर, मुगलों ने हमला बोल दिया। विधवा रानी के जीवन में, बैठे ठाले विष घोल दिया।
मुगलों की थी यह चाल कि अब, कैसे रानी को मारें वो। जब दुर्गावती रण में निकलीं हाथों में थीं तलवारें दो।
सैनिक वेश धरे रानी, हाथी पर चढ़ बल खाती थी। दुश्मन को गाजर मूली-सा, काटे आगे बढ़ जाती थी।
तलवार चमकती अंबर में, दुश्मन का सिर नीचे गिरता। स्वामी भक्त हाथी उनका, धरती पर था उड़ता-फिरता।
लप-लप तलवार चलाती थी, पल-पल भरती हुंकारें वो। जब दुर्गावती रण में निकलीं हाथों में थीं तलवारें दो।
जहां-जहां जाती रानी, बिजली-सी चमक दिखाती थी। मुगलों की सेना मरती थी, पीछे को हटती जाती थी।
दोनों हाथों वह रणचंडी, कसकर तलवार चलाती थी। दुश्मन की सेना पर पिलकर, घनघोर कहर बरपाती थी।
झन-झन ढन-ढन बज उठती थीं, तलवारों की झंकारें वो। जब दुर्गावती रण में निकलीं हाथों में थीं तलवारें दो।
पर रानी कैसे बढ़ पाती, उसकी सेना तो थोड़ी थी। मुगलों की सेना थी अपार, रानी ने आस न छोड़ी थी।
पर हाय राज्य का भाग्य बुरा, बेईमानी की घर वालों ने उनको शहीद करवा डाला, उनके ही मंसबदारों ने।
कितनी पवित्र उनके तन से, थीं गिरीं बूंद की धारें दो। जब दुर्गावती रण में निकलीं हाथों में थीं तलवारें दो।
रानी तू दुनिया छोड़ गई, पर तेरा नाम अमर अब तक। और रहेगा नाम सदा, सूरज चंदा नभ में जब तक।
हे देवी तेरी वीर गति, पर श्रद्धा सुमन चढ़ाते हैं। तेरी अमर कथा सुनकर दृग में आंसू आ जाते हैं।
है भारत माता से बिनती, कष्टों से सदा उबारें वो। जब दुर्गावती रण में निकलीं हाथों में थीं तलवारें दो।
नारी की शक्ति है अपार, वह तॊ संसार रचाती है। मां पत्नी और बहन बनती, वह जग जननी कहलाती है।
बेटी बनकर घर आंगन में, हंसती खुशियां बिखराती है। पालन-पोषण सेवा-भक्ति, सबका दायित्व निभाती है।
आ जाए अगर मौका कोई तो, दुश्मन को ललकारे वो। जब दुर्गावती रण में निकलीं हाथों में थीं तलवारें दो।
प्रभुदयाल श्रीवास्तव वरिष्ठ बाल साहित्यकार 12 शिवम सुन्दरम नगर छिन्दवाड़ा मध्य प्रदेश
रानी दुर्गावती के बलिदान दिवस पर कविता-
शिखरो से ऊंची जिसकी नभ में छूती ख्याति थी। वह कोई और नही रानी दुर्गावती करामाती थी।।
जिसके स्वाभिमान को कोई नही पा पाया था। अंत समय तक उसने मुगलो को मार गिराया था।।
चंदेलों की बेटी ने नारी का गौरव और मान बढ़ाया था। जब आशफ खान को उसने नाको चना चबवाया था।।
दुर्गा का रूप लिए साहस,शौर्य की वह मूरत थी। मुगलो को पराभूत कराती देवी की वह सूरत थी।।
दुश्मन थर थर कांप गया उसका जब पौरुष जागा था। उसके दृढ़ व तेज के आगे अकबर भी रण से भागा था।
ऐसी वीरांगना छत्राणी को ‘नरेश’ का शत शत वंदन है। बरेला की वह धरा महकाती ऐसा बहुमूल्य चंदन है।।
-गौपुत्र श्याम नरेश दीक्षित
कालिंजर राजा की बेटी दुर्गावती
पंद्रह सौ चौबीस में जन्मी, वो चन्देलों की शान थी। कालिंजर राजा की बेटी, वो इकलौती संतान थी।
दुर्गाष्टमी अवतरण दिवस, दुर्गा का ही अवतार थी। थर्रायी मुग़लों की सेना ऐसी भीषण ललकार थी।
बचपन से ही दुर्गावती ने सीखीं सारी युद्ध कलाएँ। तलवारबाज़ी, तीरंदाज़ी, घुड़सवारी आदि विद्याएँ।
संग्राम शाह की थी पुत्र वधू , गढ़ मंडला की रानी थी। झुकी नहीं वो मुग़लों के आगे, राजपूत स्वाभिमानी थी।
युवावस्था में खोया पति को, बेटा केवल पाँच साल का, दलपत शाह के स्वर्गवास से गढ़ मंडला का बुरा हाल था।
ऐसी संकट की बेला में भी, धैर्य नहीं खोया अपना। मंडला पर कब्ज़ा करने का किया चूर मुग़लों का सपना।
गोंडवाना पर हमला करने सुलतान मालवा से आया। दुर्गावती ने किया पराजित, सेना सहित उसे भगाया।
सोलह वर्षों के सुशासन में, प्रजा हित के ही काम किये। कुँए, बावड़ी, मठ इत्यादि के खूब उन्होंने निर्माण किये।
जाना उन्हें साधारण नारी, असफ खान ने हमला बोला। शौर्य पराक्रम देख के उनका दुश्मन का मनोबल डोला।
ह्रदय से ममतामयी रानी, रण में चंडी सी हुंकार। शत्रु सेना भय से काँपी सुनी जब तलवारों की टंकार।
रण कौशल देख के उनका शत्रु ऐसे चकित हैरान हुए। अबुल फज़ल के अकबरनामा में, खूब उनके गुणगान हुए।
हां मैं सेकुलर हूँ समता का समर्थक हूँ मैं संविधान प्रस्त हूँ सेकुलर होना गुनाह नहीं
गुनाह है सांप्रदायिक होना गुनाह है जातिवादी होना गुनाह है पितृसत्ता का समर्थक होना गुनाह है भाषावादी होना गुनाह है क्षेत्रवादी होना गुनाह है भेदभाव का पोषक होना।
मिले कई अधिकार, जीवधारी को जग में| कुछ हैं ईश प्रदत्त, बने उपयोगी पग में | जीने का अधिकार, जगत में सबने पाया | भोजन पानी संग, भ्रमण का हक दिलवाया | अपने मन का नृप बने, जीव सभी इनसंसार में | अधिकारों का कर हनन, मस्त रहे व्यवहार में ||
अधिकारों कीइन 5 बात, समझता जो बोया है | हक का पाकर नूर, भला किसने खोया है | करते भाषण खूब, गिनाते अधिकारों को | भूले निज कर्तव्य, भूलते आधारों को | एक दूसरे से जुड़े, जाल बना संसार रुचि | पृथक नहीं कर्तव्य से, कोई भी अधिकार रुचि ||
तुमको है अधिकार, चलाये अपना सिक्का | पहन राज का ताज, चलाये अपना इक्टी का | नामंजूरी कौन, करे अब आगे तेरे | मिले तुझे वर्चस्व, मिला कानूनी घेरे | इस सत्ते ऊपर बना, सच्ची सत्ता ईश का | जो अंतिम सर्वोच्च है, न्याय तंत्र जगदीश का |