यहाँ पर मुकुटधर पांडेय की कुछ लोकप्रिय कवितायेँ प्रस्तुत की जा रही हैं जो भी आपको अच्छा लगे कमेट कर जरुर बताएँगे
मेरा प्रकृति प्रेम / मुकुटधर पांडेय
हरित पल्लवित नववृक्षों के दृश्य मनोहर होते मुझको विश्व बीच हैं जैसे सुखकर सुखकर वैसे अन्य दृश्य होते न कभी हैं उनके आगे तुच्छ परम ने मुझे सभी हैं ।
छोटे, छोटे झरने जो बहते सुखदाई जिनकी अद्भुत शोभा सुखमय होती भाई पथरीले पर्वत विशाल वृक्षों से सज्जित बड़े-बड़े बागों को जो करते हैं लज्जित।
लता विटप की ओट जहाँ गाते हैं द्विजगण शुक, मैना हारील जहाँ करते हैं विचरण ऐसे सुंदर दृश्य देख सुख होता जैसा और वस्तुओं से न कभी होता सुख वैसा।
छोटे-छोटे ताल पद्म से पूरित सुंदर बड़े-बड़े मैदान दूब छाई श्यामलतर भाँति-भाँति की लता वल्लरी हैं जो सारी ये सब मुझको सदा हृदय से लगती न्यारी।
इन्हें देखकर मन मेरा प्रसन्न होता है सांसारिक दुःख ताप तभी छिन में खोता है पर्वत के नीचे अथवा सरिता के तट पर होता हूँ मैं सुखी बड़ा स्वच्छंद विचरकर।
नाले नदी समुद्र तथा बन बाग घनेरे जग में नाना दृश्य प्रकृति ने चहुँदिशि घेरे तरुओं पर बैठे ये द्विजगण चहक रहे हैं खिले फूल सानंद हास मुख महक रहे हैं ।
वन में त्रिविध बयार सुगंधित फैल रही है कुसुम व्याज से अहा चित्रमय हुई मही है बौर अम्ब कदम्ब सरस सौरभ फैलाते गुनगुन करते भ्रमर वृंद उन पर मंडराते ।
इन दृश्यों को देख हृदय मेरा भर जाता बारबार अवलोकन कर भी नहीं अघाता देखूँ नित नव विविध प्राकृतिक दृश्य गुणाकर यही विनय मैं करता तुझसे हे करुणाकर ।
वर्षा-बहार / मुकुटधर पांडेय
वर्षा-बहार सब के, मन को लुभा रही है नभ में छटा अनूठी, घनघोर छा रही है ।
बिजली चमक रही है, बादल गरज रहे हैं पानी बरस रहा है, झरने भी ये बहे हैं ।
चलती हवा है ठंडी, हिलती हैं डालियाँ सब बागों में गीत सुंदर, गाती हैं मालिनें अब ।
तालों में जीव चलचर, अति हैं प्रसन्न होते फिरते लखो पपीहे, हैं ग्रीष्म ताप खोते ।
करते हैं नृत्य वन में, देखो ये मोर सारे मेंढक लुभा रहे हैं, गाकर सुगीत प्यारे ।
खिलते गुलाब कैसा, सौरभ उड़ रहा है बाग़ों में ख़ूब सुख से आमोद छा रहा है ।
चलते हैं हंस कहीं पर, बाँधे कतार सुंदर गाते हैं गीत कैसे, लेते किसान मनहर ।
इस भाँति है, अनोखी वर्षा-बहार भू पर सारे जगत की शोभा, निर्भर है इसके ऊपर ।
गाँधी के प्रति / मुकुटधर पांडेय
तुम शुद्ध बुद्ध की परम्परा में आये मानव थे ऐसे, देख कि देव लजाये भारत के ही क्यों, अखिल लोक के भ्राता तुम आये बन दलितों के भाग्य विधाता!
तुम समता का संदेश सुनाने आये भूले-भटकों को मार्ग दिखाने आये पशु-बल की बर्बरता की दुर्दम आंधी पथ से न तुम्हें निज डिगा सकी हे गाँधी!
जीवन का किसने गीत अनूठा गाया इस मर्त्यलोक में किसने अमृत बहाया गूँजती आज भी किसकी प्रोज्वल वाणी कविता-सी सुन्दर सरल और कल्याणी!
हे स्थितप्रज्ञ, हे व्रती, तपस्वी त्यागी हे अनासक्त, हे भक्त, विरक्त विरागी हे सत्य-अहिंसा-साधक, हे सन्यासी हे राम-नाम आराधक दृढ़ विश्वासी!
हे धीर-वीर-गंभीर, महामानव हे हे प्रियदर्शन, जीवन दर्शन, अभिनव है घन अंधकार में बन प्रकाश तुम आये कवि कौन, तुम्हारे जो समग्र गुण गाये?
तुलसीदास / मुकुटधर पांडेय
कहाँ उद्दाम काम अविराम, वासनाविद्ध रूप का राग कहाँ उपरति का उर में उदय, निमिष में ऐसा तीव्र विराग राम को अर्पित तन-मन-प्राण, राम का नाम जीवनाधार कहाँ प्रिय पुर-परिजन-परिवेश? बन गया अखिल लोक परिवार किया तुमने विचरण स्वच्छन्द, वन्य निर्झर सा हो गतिमान किया मुखरित वन-गिरि, पुरग्राम, राम का गा-गाकर गुन गान तुम्हारा काव्यामृत कर पान, हृदय की बुझी चिरन्तन प्यास जी उठी मानवता म्रियमाण, हुआ मानव का चरम विकास। दिव्य, उद्गार, सुदिव्य विचार, दिव्यतर रचना छन्द प्रबन्ध शब्द झरते हैं जैसे फूल, टपकता पद-पद पर मकरन्द बहाकर भाषा में सुपवित्र, भक्ति गंगा की निर्मल धार कर दिया तुमने यह उन्मुक्त, लोक के लिए मुक्ति का द्वार। बिना तप के न सत्व की सिद्धि, बिना तप के न आत्म-संघर्ष काव्य में तुमने किया सयत्न, प्रतिष्ठित एक उच्च आदर्श त्याग जीवन का इष्ट न भोग, धर्म का वांछनीय विस्तार विजय का लक्ष्य नहीं साम्राज्य, लक्ष्य दानवता का संहार। तुम्हारे यशोगान में लग्न, सतत नत मस्तक देश-विदेश गूँजता मानस महिमासागर, मौक्तिकों का अप्रतिम निधान उन्हें जो चुगता है कर यत्न, कृती वह राजहंस मतिमान। विश्व वाङ्मय का है शृंगार, हिन्द हिन्दी का है अभिमान राष्ट्र को है अनुपम अवदान, तुम्हारा ‘मानस’ ग्रन्थ महान कलित कविता सहज विलास, राम का चारु चरित्र प्रकाश तुम्हारी वाणी में विश्वास, धन्य हो, तुम हे तुलसीदास!
ग्राम्य जीवन / मुकुटधर पांडेय
छोटे-छोटे भवन स्वच्छ अति दृष्टि मनोहर आते हैं रत्न जटित प्रासादों से भी बढ़कर शोभा पाते हैं बट-पीपल की शीतल छाया फैली कैसी है चहुँ ओर द्विजगण सुन्दर गान सुनाते नृत्य कहीं दिखलाते मोर ।
शान्ति पूर्ण लघु ग्राम बड़ा ही सुखमय होता है भाई देखो नगरों से भी बढ़कर इनकी शोभा अधिकाई कपट द्वेष छलहीन यहाँ के रहने वाले चतुर किसान दिवस बिताते हैं प्रफुलित चित, करते अतिथि द्विजों का मान ।
आस-पास में है फुलवारी कहीं-कहीं पर बाग अनूप केले नारंगी के तरुगण दिखालते हैं सुन्दर रूप नूतन मीठे फल बागों से नित खाने को मिलते हैं । देने को फुलेस–सा सौरभ पुष्प यहाँ नित खिलते हैं।
पास जलाशय के खेतों में ईख खड़ी लहराती है हरी भरी यह फसल धान की कृषकों के मन भाती है खेतों में आते ये देखो हिरणों के बच्चे चुप-चाप यहाँ नहीं हैं छली शिकारी धरते सुख से पदचाप
कभी-कभी कृषकों के बालक उन्हें पकड़ने जाते हैं दौड़-दौड़ के थक जाते वे कहाँ पकड़ में आते हैं । बहता एक सुनिर्मल झरना कल-कल शब्द सुनाता है मानों कृषकों को उन्नति के लिए मार्ग बतलाता है
गोधन चरते कैसे सुन्दर गल घंटी बजती सुख मूल चरवाहे फिरते हैं सुख से देखो ये तटनी के फूल ग्राम्य जनों को लभ्य सदा है सब प्रकार सुख शांति अपार झंझट हीन बिताते जीवन करते दान धर्म सुखसार.
किसान / मुकुटधर पांडेय
धन्य तुम ग्रामीण किसान सरलता-प्रिय औदार्य-निधान छोड़ जन संकुल नगर-निवास किया क्यों विजन ग्राम में गेह नहीं प्रासादों की कुछ चाह कुटीरों से क्यों इतना नेह विलासों की मंजुल मुसकान मोहती क्यों न तुम्हारे प्राण! तीर सम चलती चपल समीर अग्रहायण की आधी रात खोलकर यह अपना खलिहान खड़े हो क्यों तुम कम्पित गात उच्च स्वर से गा गाकर गान किसे तुम करते हो आह्वान सहन कर कष्ट अनेक प्रकार किया करते हो काल-क्षेप धूल से भरे कभी हैं केश कभी अंगों में पंक प्रलेप प्राप्त करने को क्या वरदान तपस्या का यह कठिन विधान स्वीय श्रम-सुधा-सलिल से सींच खेत में उपजाते जो नाज युगल कर से उसको हे बंधु लुटा देते हो तुम निर्व्याज विश्व का करते हो कल्याण त्याग का रख आदर्श महान लिए फल-फूलों का उपहार खड़ा यह जो छोटा सा बाग न केवल वह दु्रमवेलि समूह तुम्हारा मूर्तिमन्त अनुराग हृदय का यह आदान-प्रदान कहाँ सीखा तुमने मतिमान
देखते कभी-शस्य-शृंगार कभी सुनते खग-कुल-कलगीर कुसुम कोई कुम्हलाया देख बहा देते नयनों से नीर प्रकृति की अहो कृती सन्तान तुम्हारा है न कहीं उपमान!
राज महलों का वह ऐश्वर्य राजमुकुटों का रत्न प्रकाश इन्हीं खेतों की अल्प विभूति इन्हीं के हल का मृदु हास स्वयं सह तिरस्करण अपमान अन्य को करते गौरवदान
विश्व वैभव के स्रोत महान तुम्हारा है न कहीं उपमान!
खोमचा वाला / मुकुटधर पांडेय
खड़ी आज खोई-खोई सी कैसे ठेला गाड़ी? मौन प्रतीक्षा में है तू किसकी आँखे किए अगाड़ी? असमयमें हैकहाँ घूमने गया खोमचा वाला अब तक ढोने तुझे न आया लिए बालटी प्याला दही बड़े आलू की टिकिया फूल की थाल सजाता चने चटपटे चाट चकाचक की आवाज लगाता बन्द कोठरी लगा हुआ है दरवाजे पर ताला सौदा सुल्फा कर लौटा क्या नहीं खोमचावाला? देख रही तू राह किसी की देती शकल गवाही काश! लौट, मिल पाता तुझसे वह चिर-पथ का राही!
ग्रीष्म / मुकुटधर पांडेय
बीते दिवस बसन्त के, लगा ज्येष्ठ का मास विश्व व्यथित करने लगा, रवि किरणों का त्रास
अवनी आतप से लगी, जलने सब ही हाल जीव, जन्तु चर-अचर सब, हुए अमिल बेहाल
रवि मयूख के ताप से, झुलस गये बन बाग सूखे सरिता सर तथा, नाले कूप तड़ाग
लगी आग पुर ग्राम में, चिन्ता बढ़ी अपार नर नारी व्याकुल बसे, भय सदैव उर धार
धनी लोग मार्तण्ड का, देख प्रचण्ड प्रकाश शान्ति प्राप्ति के हेतु अब, चले हिमालय पास
नृप, रईस, धन पति सभी, दोपहरी के बेर सोते निज निज भवन में, खस की टट्टी घेर
पर गरीब, निर्धन सकल, सहते रवि का ताप कोस रहे हैं कर्म को, करते पश्चाताप
तरबूजों, ककड़ी तथा, बर्फ और बादाम पके आम-फल आदि के, अब बढ़ते हैं दाम
फिर जब आवेगा अही, सुखमय वर्षा-काल हो जावेगा जगत का, पुनः अन्य ही हाल
बाल परिचायक / मुकुटधर पांडेय
लॉज के है परिचायक बाल काश होते लक्ष्मी केलाल बीत पाया न अभी कैशोर टूट पाए न दूध के दाँत उनींदी आँखों में है तात् काट दी तुमने सारी रात।
हाथ में ले उशीर का व्यजन, छतों पर सोते हैं श्रीमान् मुक्त नभ के नीचे भी क्यों न छटपटाते हैं उनके प्राण कुन्द घर के अन्दर बेहाल, भूमि पर पड़े चीथड़ा डाल।
मिला है तुमको कितना रूप काश, तुम पाते उसे सम्हार असित अलकों का जाल निहार अलि-अवलि हो जाती बलिहार
मुख-कमल हुआ तुम्हारा म्लान ग्रीष्म में उस पर पड़ा तुषार लॉज की रखते हो तुम लाज लाज भी लजा रही है आज।
कुररी के प्रति / मुकुटधर पांडेय
बता मुझे ऐ विहग विदेशी अपने जी की बात पिछड़ा था तू कहाँ, आ रहा जो कर इतनी रात निद्रा में जा पड़े कभी के ग्राम-मनुज स्वच्छंद अन्य विहग भी निज नीड़ों में सोते हैं सानन्द इस नीरव घटिका में उड़ता है तू चिन्तित गात पिछड़ा था तू कहाँ, हुई क्यों तुझको इतनी रात ?
देख किसी माया प्रान्तर का चित्रित चारु दुकूल ? क्या तेरा मन मोहजाल में गया कहीं था भूल ? क्या उसका सौन्दर्य-सुरा से उठा हृदय तव ऊब ? या आशा की मरीचिका से छला गया तू खूब ? या होकर दिग्भ्रान्त लिया था तूने पथ प्रतिकूल ? किसी प्रलोभन में पड़ अथवा गया कहीं था भूल ?
अन्तरिक्ष में करता है तू क्यों अनवरत बिलाप ? ऐसी दारुण व्यथा तुझे क्या है किसका परिताप ? किसी गुप्त दुष्कृति की स्मृति क्या उठी हृदय में जाग जला रही है तुझको अथवा प्रिय वियोग की आग ? शून्य गगन में कौन सुनेगा तेरा विपुल विलाप ? बता कौन सी व्यथा तुझे है, है किसका परिताप ?
यह ज्योत्सना रजनी हर सकती क्या तेरा न विषाद ? या तुझको निज-जन्मभूमि की सता रही है याद ? विमल व्योम में टँगे मनोहर मणियों के ये दीप इन्द्रजाल तू उन्हें समझ कर जाता है न समीप यह कैसा भय-मय विभ्रम है कैसा यह उन्माद ? नहीं ठहरता तू, आई क्या तुझे गेह की याद ?
कितनी दूर कहाँ किस दिशि में तेरा नित्य निवास विहग विदेशी आने का क्यों किया यहाँ आयास वहाँ कौन नक्षत्र–वृन्द करता आलोक प्रदान ? गाती है तटिनी उस भू की बता कौन सा गान ? कैसा स्निग्ध समीरण चलता कैसी वहाँ सुवास किया यहाँ आने का तूने कैसे यह आयास ?
(शरद,बसन्त) श्रीशारदा साहित्य सदन ,रायगढ़ ,संपादक डाँ. बलदेव 1984″ विश्वबोध कविता संग्रह” से साभार
यहाँ पर सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’ की प्रसिद्ध कवितायेँ के बारे में बताया गया है , आपको कौन सी अच्छी लगी कमेंट कर जरुर बताएं
खँडहर के प्रति / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”
खँड़हर! खड़े हो तुम आज भी? अदभुत अज्ञात उस पुरातन के मलिन साज! विस्मृति की नींद से जगाते हो क्यों हमें– करुणाकर, करुणामय गीत सदा गाते हुए?
पवन-संचरण के साथ ही परिमल-पराग-सम अतीत की विभूति-रज- आशीर्वाद पुरुष-पुरातन का भेजते सब देशों में; क्या है उद्देश तव? बन्धन-विहीन भव! ढीले करते हो भव-बन्धन नर-नारियों के? अथवा, हो मलते कलेजा पड़े, जरा-जीर्ण, निर्निमेष नयनों से बाट जोहते हो तुम मृत्यु की अपनी संतानों से बूँद भर पानी को तरसते हुए?
किम्बा, हे यशोराशि! कहते हो आँसू बहाते हुए– “आर्त भारत! जनक हूँ मैं जैमिनि-पतंजलि-व्यास ऋषियों का; मेरी ही गोद पर शैशव-विनोद कर तेरा है बढ़ाया मान राम-कॄष्ण-भीमार्जुन-भीष्म-नरदेवों ने। तुमने मुख फेर लिया, सुख की तृष्णा से अपनाया है गरल, हो बसे नव छाया में, नव स्वप्न ले जगे, भूले वे मुक्त प्राण, साम-गान, सुधा-पान।” बरसो आसीस, हे पुरुष-पुराण, तव चरणों में प्रणाम है।
मित्र के प्रति / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”
(1)
कहते हो, ‘‘नीरस यह बन्द करो गान- कहाँ छन्द, कहाँ भाव, कहाँ यहाँ प्राण ? था सर प्राचीन सरस, सारस-हँसों से हँस; वारिज-वारिज में बस रहा विवश प्यार; जल-तरंग ध्वनि; कलकल बजा तट-मृदंग सदल; पैंगें भर पवन कुशल गाती मल्लार।’’
(2)
सत्य, बन्धु सत्य; वहाँ नहीं अर्र-बर्र; नहीं वहाँ भेक, वहाँ नहीं टर्र-टर्र। एक यहीं आठ पहर बही पवन हहर-हहर, तपा तपन, ठहर-ठहर सजल कण उड़े; गये सूख भरे ताल, हुए रूख हरे शाल, हाय रे, मयूर-व्याल पूँछ से जुड़े!
(3)
देखे कुछ इसी समय दृश्य और-और इसी ज्वाल से लहरे हरे ठौर-ठौर ? नूतन पल्लव-दल, कलि, मँडलाते व्याकुल अलि तनु-तन पर जाते बलि बार-बार हार; बही जो सुवास मन्द मधुर भार-भरण-छन्द मिली नहीं तुम्हें, बन्द रहे, बन्धु, द्वार?
(4)
इसी समय झुकी आम्र- शाखा फल-भार मिली नहीं क्या जब यह देखा संसार? उसके भीतर जो स्तव, सुना नहीं कोई रव? हाय दैव, दव-ही-दव बन्धु को मिला! कुहरित भी पञ्चम स्वर, रहे बन्द कर्ण-कुहर, मन पर प्राचीन मुहर, हृदय पर शिला!
(5)
सोचो तो, क्या थी वह भावना पवित्र, बँधा जहाँ भेद भूल मित्र से अमित्र। तुम्हीं एक रहे मोड़ मुख, प्रिय, प्रिय मित्र छोड़; कहो, कहो, कहाँ होड़ जहाँ जोड़, प्यार? इसी रूप में रह स्थिर, इसी भाव में घिर-घिर, करोगे अपार तिमिर- सागर को पार?
(6)
बही बन्धु, वायु प्रबल जो, न बँध सकी; देखते थके तुम, बहती न वह न थकी। समझो वह प्रथम वर्ष, रुका नहीं मुक्त हर्ष, यौवन दुर्धर्ष कर्ष- मर्ष से लड़ा; ऊपर मध्याह्न तपन तपा किया, सन्-सन्-सन् हिला-झुका तरु अगणन बही वह हवा।
(7)
उड़ा दी गयी जो, वह भी गयी उड़ा, जली हुई आग कहो, कब गयी जुड़ा? जो थे प्राचीन पत्र जीर्ण-शीर्ण नहीं छत्र, झड़े हुए यत्र-तत्र पड़े हुए थे, उन्हीं से अपार प्यार बँधा हुआ था असार, मिला दुःख निराधार तुम्हें इसलिए।
(8)
बही तोड़ बन्धन छन्दों का निरुपाय, वही किया की फिर-फिर हवा ‘हाय-हाय’। कमरे में, मध्य याम, करते तब तुम विराम, रचते अथवा ललाम गतालोक लोक, वह भ्रम मरुपथ पर की यहाँ-वहाँ व्यस्त फिरी, जला शोक-चिह्न, दिया रँग विटप अशोक।
(9)
करती विश्राम, कहीं नहीं मिला स्थान, अन्ध-प्रगति बन्ध किया सिन्धु को प्रयाण; उठा उच्च ऊर्मि-भंग- सहसा शत-शत तरंग, क्षुब्ध, लुब्ध, नील-अंग- अवगाहन-स्नान, किया वहाँ भी दुर्दम देख तरी विघ्न विषम, उलट दिया अर्थागम बनकर तूफान।
(10)
हुई आज शान्त, प्राप्त कर प्रशान्त-वक्ष; नहीं त्रास, अतः मित्र, नहीं ‘रक्ष, ‘रक्ष’। उड़े हुए थे जो कण, उतरे पा शुभ वर्षण, शुक्ति के हृदय से बन मुक्ता झलके; लखो, दिया है पहना किसने यह हार बना भारति-उर में अपना, देख दृग थके!
प्रेम के प्रति / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”
चिर-समाधि में अचिर-प्रकृति जब, तुम अनादि तब केवल तम; अपने ही सुख-इंगित से फिर हुए तरंगित सृष्टि विषम। तत्वों में त्वक बदल बदल कर वारि, वाष्प ज्यों, फिर बादल, विद्युत की माया उर में, तुम उतरे जग में मिथ्या-फल।
वसन वासनाओं के रँग-रँग पहन सृष्टि ने ललचाया, बाँध बाहुओं में रूपों ने समझा-अब पाया-पाया; किन्तु हाय, वह हुई लीन जब क्षीण बुद्धि-भ्रम में काया, समझे दोनों, था न कभी वह प्रेम, प्रेम की थी छाया।
प्रेम, सदा ही तुम असूत्र हो उर-उर के हीरों के हार, गूँथे हुए प्राणियों को भी गुँथे न कभी, सदा ही सार।
भारती वन्दना / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”
भारति, जय, विजय करे कनक-शस्य-कमल धरे!
लंका पदतल-शतदल गर्जितोर्मि सागर-जल धोता शुचि चरण-युगल स्तव कर बहु अर्थ भरे!
तरु-तण वन-लता-वसन अंचल में खचित सुमन गंगा ज्योतिर्जल-कण धवल-धार हार लगे!
मुकुट शुभ्र हिम-तुषार प्राण प्रणव ओंकार ध्वनित दिशाएँ उदार शतमुख-शतरव-मुखरे!
सखि, वसन्त आया / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”
सखि वसन्त आया । भरा हर्ष वन के मन, नवोत्कर्ष छाया । किसलय-वसना नव-वय-लतिका मिली मधुर प्रिय-उर तरु-पतिका, मधुप-वृन्द बन्दी– पिक-स्वर नभ सरसाया ।
लता-मुकुल-हार-गंध-भार भर, बही पवन बंद मंद मंदतर, जागी नयनों में वन- यौवन की माया । आवृत सरसी-उर-सरसिज उठे, केशर के केश कली के छुटे, स्वर्ण-शस्य-अंचल पृथ्वी का लहराया ।
अस्ताचल रवि / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”
अस्ताचल रवि, जल छलछल-छवि, स्तब्ध विश्वकवि, जीवन उन्मन; मंद पवन बहती सुधि रह-रह परिमल की कह कथा पुरातन ।
दूर नदी पर नौका सुन्दर दीखी मृदुतर बहती ज्यों स्वर, वहाँ स्नेह की प्रतनु देह की बिना गेह की बैठी नूतन ।
ऊपर शोभित मेघ-छत्र सित, नीचे अमित नील जल दोलित; ध्यान-नयन मन-चिंत्य-प्राण-धन; किया शेष रवि ने कर अर्पण ।
भारति, जय, विजय करे ! / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”
वर दे वीणावादिनी वर दे ! / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”
वर दे, वीणावादिनि वर दे! प्रिय स्वतंत्र-रव अमृत-मंत्र नव भारत में भर दे!
काट अंध-उर के बंधन-स्तर बहा जननि, ज्योतिर्मय निर्झर; कलुष-भेद-तम हर प्रकाश भर जगमग जग कर दे!
नव गति, नव लय, ताल-छंद नव नवल कंठ, नव जलद-मन्द्ररव; नव नभ के नव विहग-वृंद को नव पर, नव स्वर दे!
वर दे, वीणावादिनि वर दे।
कुकुरमुत्ता (कविता) / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”
एक थे नव्वाब, फ़ारस से मंगाए थे गुलाब। बड़ी बाड़ी में लगाए देशी पौधे भी उगाए रखे माली, कई नौकर गजनवी का बाग मनहर लग रहा था। एक सपना जग रहा था सांस पर तहजबी की, गोद पर तरतीब की। क्यारियां सुन्दर बनी चमन में फैली घनी। फूलों के पौधे वहाँ लग रहे थे खुशनुमा। बेला, गुलशब्बो, चमेली, कामिनी, जूही, नरगिस, रातरानी, कमलिनी, चम्पा, गुलमेंहदी, गुलखैरू, गुलअब्बास, गेंदा, गुलदाऊदी, निवाड़, गन्धराज, और किरने फ़ूल, फ़व्वारे कई, रंग अनेकों-सुर्ख, धनी, चम्पई, आसमानी, सब्ज, फ़िरोज सफ़ेद, जर्द, बादामी, बसन्त, सभी भेद। फ़लों के भी पेड़ थे, आम, लीची, सन्तरे और फ़ालसे। चटकती कलियां, निकलती मृदुल गन्ध, लगे लगकर हवा चलती मन्द-मन्द, चहकती बुलबुल, मचलती टहनियां, बाग चिड़ियों का बना था आशियाँ। साफ़ राह, सरा दानों ओर, दूर तक फैले हुए कुल छोर, बीच में आरामगाह दे रही थी बड़प्पन की थाह। कहीं झरने, कहीं छोटी-सी पहाड़ी, कही सुथरा चमन, नकली कहीं झाड़ी। आया मौसिम, खिला फ़ारस का गुलाब, बाग पर उसका पड़ा था रोब-ओ-दाब; वहीं गन्दे में उगा देता हुआ बुत्ता पहाड़ी से उठे-सर ऐंठकर बोला कुकुरमुत्ता- “अब, सुन बे, गुलाब, भूल मत जो पायी खुशबु, रंग-ओ-आब, खून चूसा खाद का तूने अशिष्ट, डाल पर इतरा रहा है केपीटलिस्ट! कितनों को तूने बनाया है गुलाम, माली कर रक्खा, सहाया जाड़ा-घाम, हाथ जिसके तू लगा, पैर सर रखकर वो पीछे को भागा औरत की जानिब मैदान यह छोड़कर, तबेले को टट्टू जैसे तोड़कर, शाहों, राजों, अमीरों का रहा प्यारा तभी साधारणों से तू रहा न्यारा। वरना क्या तेरी हस्ती है, पोच तू कांटो ही से भरा है यह सोच तू कली जो चटकी अभी सूखकर कांटा हुई होती कभी। रोज पड़ता रहा पानी, तू हरामी खानदानी। चाहिए तुझको सदा मेहरून्निसा जो निकाले इत्र, रू, ऐसी दिशा बहाकर ले चले लोगो को, नही कोई किनारा जहाँ अपना नहीं कोई भी सहारा ख्वाब में डूबा चमकता हो सितारा पेट में डंड पेले हों चूहे, जबां पर लफ़्ज प्यारा। देख मुझको, मैं बढ़ा डेढ़ बालिश्त और ऊंचे पर चढ़ा और अपने से उगा मैं बिना दाने का चुगा मैं कलम मेरा नही लगता मेरा जीवन आप जगता तू है नकली, मै हूँ मौलिक तू है बकरा, मै हूँ कौलिक तू रंगा और मैं धुला पानी मैं, तू बुलबुला तूने दुनिया को बिगाड़ा मैंने गिरते से उभाड़ा तूने रोटी छीन ली जनखा बनाकर एक की दी तीन मैने गुन सुनाकर।
काम मुझ ही से सधा है शेर भी मुझसे गधा है चीन में मेरी नकल, छाता बना छत्र भारत का वही, कैसा तना सब जगह तू देख ले आज का फिर रूप पैराशूट ले। विष्णु का मैं ही सुदर्शनचक्र हूँ। काम दुनिया मे पड़ा ज्यों, वक्र हूँ। उलट दे, मैं ही जसोदा की मथानी और लम्बी कहानी- सामने लाकर मुझे बेंड़ा देख कैंडा तीर से खींचा धनुष मैं राम का। काम का- पड़ा कन्धे पर हूँ हल बलराम का। सुबह का सूरज हूँ मैं ही चांद मैं ही शाम का। कलजुगी मैं ढाल नाव का मैं तला नीचे और ऊपर पाल। मैं ही डांड़ी से लगा पल्ला सारी दुनिया तोलती गल्ला मुझसे मूछें, मुझसे कल्ला मेरे उल्लू, मेरे लल्ला कहे रूपया या अधन्ना हो बनारस या न्यवन्ना रूप मेरा, मै चमकता गोला मेरा ही बमकता। लगाता हूँ पार मैं ही डुबाता मझधार मैं ही। डब्बे का मैं ही नमूना पान मैं ही, मैं ही चूना
मैं कुकुरमुत्ता हूँ, पर बेन्जाइन (Bengoin) वैसे बने दर्शनशास्त्र जैसे। ओमफ़लस (Omphalos) और ब्रहमावर्त वैसे ही दुनिया के गोले और पर्त जैसे सिकुड़न और साड़ी, ज्यों सफ़ाई और माड़ी। कास्मोपालिटन और मेट्रोपालिटन जैसे फ़्रायड और लीटन। फ़ेलसी और फ़लसफ़ा जरूरत और हो रफ़ा। सरसता में फ़्राड केपिटल में जैसे लेनिनग्राड। सच समझ जैसे रकीब लेखकों में लण्ठ जैसे खुशनसीब
मैं डबल जब, बना डमरू इकबगल, तब बना वीणा। मन्द्र होकर कभी निकला कभी बनकर ध्वनि छीणा। मैं पुरूष और मैं ही अबला। मै मृदंग और मैं ही तबला। चुन्ने खां के हाथ का मैं ही सितार दिगम्बर का तानपूरा, हसीना का सुरबहार। मैं ही लायर, लिरिक मुझसे ही बने संस्कृत, फ़ारसी, अरबी, ग्रीक, लैटिन के जने मन्त्र, गज़लें, गीत, मुझसे ही हुए शैदा जीते है, फिर मरते है, फिर होते है पैदा। वायलिन मुझसे बजा बेन्जो मुझसे सजा। घण्टा, घण्टी, ढोल, डफ़, घड़ियाल, शंख, तुरही, मजीरे, करताल, करनेट, क्लेरीअनेट, ड्रम, फ़्लूट, गीटर, बजानेवाले हसन खां, बुद्धू, पीटर, मानते हैं सब मुझे ये बायें से, जानते हैं दाये से।
ताताधिन्ना चलती है जितनी तरह देख, सब में लगी है मेरी गिरह नाच में यह मेरा ही जीवन खुला पैरों से मैं ही तुला। कत्थक हो या कथकली या बालडान्स, क्लियोपेट्रा, कमल-भौंरा, कोई रोमान्स बहेलिया हो, मोर हो, मणिपुरी, गरबा, पैर, माझा, हाथ, गरदन, भौंहें मटका नाच अफ़्रीकन हो या यूरोपीयन, सब में मेरी ही गढ़न। किसी भी तरह का हावभाव, मेरा ही रहता है सबमें ताव। मैने बदलें पैंतरे, जहां भी शासक लड़े। पर हैं प्रोलेटेरियन झगड़े जहां, मियां-बीबी के, क्या कहना है वहां। नाचता है सूदखोर जहां कहीं ब्याज डुचता, नाच मेरा क्लाईमेक्स को पहुचंता।
नहीं मेरे हाड़, कांटे, काठ का नहीं मेरा बदन आठोगांठ का। रस-ही-रस मैं हो रहा सफ़ेदी का जहन्नम रोकर रहा। दुनिया में सबने मुझी से रस चुराया, रस में मैं डूबा-उतराया। मुझी में गोते लगाये वाल्मीकि-व्यास ने मुझी से पोथे निकाले भास-कालिदास ने। टुकुर-टुकुर देखा किये मेरे ही किनारे खड़े हाफ़िज-रवीन्द्र जैसे विश्वकवि बड़े-बड़े। कहीं का रोड़ा, कही का पत्थर टी.एस. एलीयट ने जैसे दे मारा पढ़नेवाले ने भी जिगर पर रखकर हाथ, कहां,’लिख दिया जहां सारा’। ज्यादा देखने को आंख दबाकर शाम को किसी ने जैसे देखा तारा। जैसे प्रोग्रेसीव का कलम लेते ही रोका नहीं रूकता जोश का पारा यहीं से यह कुल हुआ जैसे अम्मा से बुआ। मेरी सूरत के नमूने पीरामेड मेरा चेला था यूक्लीड। रामेश्वर, मीनाछी, भुवनेश्वर, जगन्नाथ, जितने मन्दिर सुन्दर मैं ही सबका जनक जेवर जैसे कनक। हो कुतुबमीनार, ताज, आगरा या फ़ोर्ट चुनार, विक्टोरिया मेमोरियल, कलकत्ता, मस्जिद, बगदाद, जुम्मा, अलबत्ता सेन्ट पीटर्स गिरजा हो या घण्टाघर, गुम्बदों में, गढ़न में मेरी मुहर। एरियन हो, पर्शियन या गाथिक आर्च पड़ती है मेरी ही टार्च। पहले के हो, बीच के हो या आज के चेहरे से पिद्दी के हों या बाज के। चीन के फ़ारस के या जापान के अमरिका के, रूस के, इटली के, इंगलिस्तान के। ईंट के, पत्थर के हों या लकड़ी के कहीं की भी मकड़ी के। बुने जाले जैसे मकां कुल मेरे छत्ते के हैं घेरे।
सर सभी का फ़ांसनेवाला हूं ट्रेप टर्की टोपी, दुपलिया या किश्ती-केप। और जितने, लगा जिनमें स्ट्रा या मेट, देख, मेरी नक्ल है अंगरेजी हेट। घूमता हूं सर चढ़ा, तू नहीं, मैं ही बड़ा।”
(२) बाग के बाहर पड़े थे झोपड़े दूर से जो देख रहे थे अधगड़े। जगह गन्दी, रूका, सड़ता हुआ पानी मोरियों मे; जिन्दगी की लन्तरानी- बिलबिलाते किड़े, बिखरी हड्डियां सेलरों की, परों की थी गड्डियां कहीं मुर्गी, कही अण्डे, धूप खाते हुए कण्डे। हवा बदबू से मिली हर तरह की बासीली पड़ी गयी। रहते थे नव्वाब के खादिम अफ़्रिका के आदमी आदिम- खानसामां, बावर्ची और चोबदार; सिपाही, साईस, भिश्ती, घुड़सवार, तामजानवाले कुछ देशी कहार, नाई, धोबी, तेली, तम्बोली, कुम्हार, फ़ीलवान, ऊंटवान, गाड़ीवान एक खासा हिन्दु-मुस्लिम खानदान। एक ही रस्सी से किस्मत की बंधा काटता था जिन्दगी गिरता-सधा। बच्चे, बुड्ढे, औरते और नौजवान रह्ते थे उस बस्ती में, कुछ बागबान पेट के मारे वहां पर आ बसे साथ उनके रहे, रोये और हंसे।
एक मालिन बीबी मोना माली की थी बंगालिन; लड़की उसकी, नाम गोली वह नव्वाबजादी की थी हमजोली। नाम था नव्वाबजादी का बहार नजरों में सारा जहां फ़र्माबरदार। सारंगी जैसी चढ़ी पोएट्री में बोलती थी प्रोज में बिल्कुल अड़ी। गोली की मां बंगालिन, बहुत शिष्ट पोयट्री की स्पेशलिस्ट। बातों जैसे मजती थी सारंगी वह बजती थी। सुनकर राग, सरगम तान खिलती थी बहार की जान। गोली की मां सोचती थी- गुर मिला, बिना पकड़े खिचे कान देखादेखी बोली में मां की अदा सीखी नन्हीं गोली ने। इसलिए बहार वहां बारहोमास डटी रही गोली की मां के कभी गोली के पास। सुबहो-शाम दोनों वक्त जाती थी खुशामद से तनतनाई आती थी। गोली डांडी पर पासंगवाली कौड़ी स्टीमबोट की डोंगी, फ़िरती दौड़ी। पर कहेंगे- ‘साथ-ही-साथ वहां दोनो रहती थीं अपनी-अपनी कहती थी। दोनों के दिल मिले थे तारे खुले-खिले थे। हाथ पकड़े घूमती थीं खिलखिलाती झूमती थीं। इक पर इक करती थीं चोट हंसकर होतीं लोटपोट। सात का दोनों का सिन खुशी से कटते थे दिन। महल में भी गोली जाया करती थी जैसे यहां बहार आया करती थी।
एक दिन हंसकर बहार यह बोली- “चलो, बाग घूम आयें हम, गोली।” दोनों चली, जैसे धूप, और छांह गोली के गले पड़ी बहार की बांह। साथ टेरियर और एक नौकरानी। सामने कुछ औरतें भरती थीं पानी सिटपिटायी जैसे अड़गड़े मे देखा मर्द को बाबू ने देखा हो उठती गर्दन को। निकल जाने पर बहार के, बोली पहली दूसरी से, “देखो, वह गोली मोना बंगाली की लड़की । भैंस भड़्की, ऎसी उसकी मां की सूरत मगर है नव्वाब की आंखों मे मूरत। रोज जाती है महल को, जगे भाग आखं का जब उतरा पानी, लगे आग, रोज ढोया आ रहा है माल-असबाब बन रहे हैं गहने-जेवर पकता है कलिया-कबाब।” झटके से सिर-आंख पर फ़िर लिये घड़े चली ठनकाती कड़े। बाग में आयी बहार चम्पे की लम्बी कतार देखती बढ़्ती गयी फ़ूल पर अड़ती गयी। मौलसिरी की छांह में कुछ देर बैठ बेन्च पर फ़िर निगाह डाली एक रेन्ज पर देखा फ़िर कुछ उड़ रही थी तितलियां डालों पर, कितनी चहकती थीं चिड़ियां। भौरें गूंजते, हुए मतवाले-से उड़ गया इक मकड़ी के फ़ंसकर बड़े-से जाले से। फ़िर निगाह उठायी आसमान की ओर देखती रही कि कितनी दूर तक छोर देखा, उठ रही थी धूप- पड़ती फ़ुनगियों पर, चमचमाया रूप। पेड़ जैसे शाह इक-से-इक बड़े ताज पहने, है खड़े। आया माली, हाथ गुलदस्ते लिये गुलबहार को दिये। गोली को इक गुलदस्ता सूंघकर हंसकर बहार ने दिया। जरा बैठकर उठी, तिरछी गली होती कुन्ज को चली! देखी फ़ारांसीसी लिली और गुलबकावली। फ़िर गुलाबजामुन का बाग छोड़ा तूतो के पेड़ो से बायें मुंह मोड़ा। एक बगल की झाड़ी बढ़ी जिधर थी बड़ी गुलाबबाड़ी। देखा, खिल रहे थे बड़े-बड़े फ़ूल लहराया जी का सागर अकूल। दुम हिलाता भागा टेरियर कुत्ता जैसे दौड़ी गोली चिल्लाती हुई ‘कुकुरमुत्ता’। सकपकायी, बहार देखने लगी जैसे कुकुरमुत्ते के प्रेम से भरी गोली दगी। भूल गयी, उसका था गुलाब पर जो कुछ भी प्यार सिर्फ़ वह गोली को देखती रही निगाह की धार। टूटी गोली जैसे बिल्ली देखकर अपना शिकार तोड़कर कुकुरमुत्तों को होती थी उनके निसार। बहुत उगे थे तब तक उसने कुल अपने आंचल में तोड़कर रखे अब तक। घूमी प्यार से मुसकराती देखकर बोली बहार से- “देखो जी भरकर गुलाब हम खायंगे कुकुरमुत्ते का कबाब।” कुकुरमुत्ते की कहानी सुनी उससे जीभ में बहार की आया पानी। पूछा “क्या इसका कबाब होगा ऎसा भी लजीज? जितनी भाजियां दुनिया में इसके सामने नाचीज?” गोली बोली-”जैसी खुशबू इसका वैसा ही स्वाद, खाते खाते हर एक को आ जाती है बिहिश्त की याद सच समझ लो, इसका कलिया तेल का भूना कबाब, भाजियों में वैसा जैसा आदमियों मे नव्वाब”
“नहीं ऎसा कहते री मालिन की छोकड़ी बंगालिन की!” डांटा नौकरानी ने- चढ़ी-आंख कानी ने। लेकिन यह, कुछ एक घूंट लार के जा चुके थे पेट में तब तक बहार के। “नहीं नही, अगर इसको कुछ कहा” पलटकर बहार ने उसे डांटा- “कुकुरमुत्ते का कबाब खाना है, इसके साथ यहां जाना है।” “बता, गोली” पूछा उसने, “कुकुरमुत्ते का कबाब वैसी खुशबु देता है जैसी कि देता है गुलाब!” गोली ने बनाया मुंह बाये घूमकर फ़िर एक छोटी-सी निकाली “उंह!” कहा,”बकरा हो या दुम्बा मुर्ग या कोई परिन्दा इसके सामने सब छू: सबसे बढ़कर इसकी खुशबु। भरता है गुलाब पानी इसके आगे मरती है इन सबकी नानी।” चाव से गोली चली बहार उसके पीछे हो ली, उसके पीछे टेरियर, फ़िर नौकरानी पोंछती जो आंख कानी। चली गोली आगे जैसे डिक्टेटर बहार उसके पीछे जैसे भुक्खड़ फ़ालोवर। उसके पीछे दुम हिलाता टेरियर- आधुनिक पोयेट (Poet) पीछे बांदी बचत की सोचती केपीटलिस्ट क्वेट। झोपड़ी में जल्दी चलकर गोली आयी जोर से ‘मां’ चिल्लायी। मां ने दरवाजा खोला, आंखो से सबको तोला। भीतर आ डलिये मे रक्खे मोली ने वे कुकुरमुत्ते। देखकर मां खिल गयी। निधि जैसे मिल गयी। कहा गोली ने, “अम्मा, कलिया-कबाब जल्द बना। पकाना मसालेदार अच्छा, खायेंगी बहार। पतली-पतली चपातियां उनके लिए सेख लेना।” जला ज्यों ही उधर चूल्हा, खेलने लगीं दोनों दुल्हन-दूल्हा। कोठरी में अलग चलकर बांदी की कानी को छलकर। टेरियर था बराती आज का गोली का साथ। हो गयी शादी कि फ़िर दूल्हन-बहार से। दूल्हा-गोली बातें करने लगी प्यार से। इस तरह कुछ वक्त बीता, खाना तैयार हो गया, खाने चलीं गोली और बहार। कैसे कहें भाव जो मां की आंखो से बरसे थाली लगायी बड़े समादर से। खाते ही बहार ने यह फ़रमाया, “ऎसा खाना आज तक नही खाया” शौक से लेकर सवाद खाती रहीं दोनो कुकुरमुत्ते का कलिया-कबाब। बांदी को भी थोड़ा-सा गोली की मां ने कबाब परोसा। अच्छा लगा, थोड़ा-सा कलिया भी बाद को ला दिया, हाथ धुलाकर देकर पान उसको बिदा किया।
कुकुरमुत्ते की कहानी सुनी जब बहार से नव्वाब के मुंह आया पानी। बांदी से की पूछताछ, उनको हो गया विश्वास। माली को बुला भेजा, कहा,”कुकुरमुत्ता चलकर ले आ तू ताजा-ताजा।” माली ने कहा,”हुजूर, कुकुरमुत्ता अब नहीं रहा है, अर्ज हो मन्जूर, रहे है अब सिर्फ़ गुलाब।” गुस्सा आया, कांपने लगे नव्वाब। बोले;”चल, गुलाब जहां थे, उगा, सबके साथ हम भी चाहते है अब कुकुरमुत्ता।” बोला माली,”फ़रमाएं मआफ़ खता, कुकुरमुत्ता अब उगाया नहीं उगता।”
बादल राग / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”
झूम-झूम मृदु गरज-गरज घन घोर। राग अमर! अम्बर में भर निज रोर!
झर झर झर निर्झर-गिरि-सर में, घर, मरु, तरु-मर्मर, सागर में, सरित-तड़ित-गति-चकित पवन में, मन में, विजन-गहन-कानन में, आनन-आनन में, रव घोर-कठोर- राग अमर! अम्बर में भर निज रोर!
अरे वर्ष के हर्ष! बरस तू बरस-बरस रसधार! पार ले चल तू मुझको, बहा, दिखा मुझको भी निज गर्जन-भैरव-संसार!
उथल-पुथल कर हृदय- मचा हलचल- चल रे चल- मेरे पागल बादल!
देख-देख नाचता हृदय बहने को महा विकल-बेकल, इस मरोर से- इसी शोर से- सघन घोर गुरु गहन रोर से मुझे गगन का दिखा सघन वह छोर! राग अमर! अम्बर में भर निज रोर! सिन्धु के अश्रु! धारा के खिन्न दिवस के दाह! विदाई के अनिमेष नयन! मौन उर में चिह्नित कर चाह छोड़ अपना परिचित संसार-
सुरभि का कारागार, चले जाते हो सेवा-पथ पर, तरु के सुमन! सफल करके मरीचिमाली का चारु चयन! स्वर्ग के अभिलाषी हे वीर, सव्यसाची-से तुम अध्ययन-अधीर अपना मुक्त विहार,
छाया में दुःख के अन्तःपुर का उद्घाचित द्वार छोड़ बन्धुओ के उत्सुक नयनों का सच्चा प्यार, जाते हो तुम अपने पथ पर, स्मृति के गृह में रखकर अपनी सुधि के सज्जित तार।
पूर्ण-मनोरथ! आए- तुम आए; रथ का घर्घर नाद तुम्हारे आने का संवाद! ऐ त्रिलोक जित्! इन्द्र धनुर्धर! सुरबालाओं के सुख स्वागत। विजय! विश्व में नवजीवन भर, उतरो अपने रथ से भारत! उस अरण्य में बैठी प्रिया अधीर, कितने पूजित दिन अब तक हैं व्यर्थ, मौन कुटीर।
आज भेंट होगी- हाँ, होगी निस्संदेह आज सदा-सुख-छाया होगा कानन-गेह आज अनिश्चित पूरा होगा श्रमिक प्रवास, आज मिटेगी व्याकुल श्यामा के अधरों की प्यास। सिन्धु के अश्रु! धरा के खिन्न दिवस के दाह! बिदाई के अनिमेष नयन! मौन उर में चिन्हित कर चाह छोड़ अपना परिचित संसार– सुरभि के कारागार, चले जाते हो सेवा पथ पर, तरु के सुमन! सफल करके मरीचिमाली का चारु चयन। स्वर्ग के अभिलाषी हे वीर, सव्यसाची-से तुम अध्ययन-अधीर अपना मुक्त विहार, छाया में दुख के अंतःपुर का उद्घाटित द्वार छोड़ बन्धुओं के उत्सुक नयनों का सच्चा प्यार, जाते हो तुम अपने रथ पर, स्मृति के गृह में रखकर अपनी सुधि के सज्जित तार। पूर्ण मनोरथ! आये– तुम आये; रथ का घर्घर-नाद तुम्हारे आने का सम्वाद। ऐ त्रिलोक-जित! इन्द्र-धनुर्धर! सुर बालाओं के सुख-स्वागत! विजय विश्व में नव जीवन भर, उतरो अपने रथ से भारत! उस अरण्य में बैठी प्रिया अधीर, कितने पूजित दिन अब तक हैं व्यर्थ, मौन कुटीर। आज भेंट होगी– हाँ, होगी निस्सन्देह, आज सदा सुख-छाया होगा कानन-गेह आज अनिश्चित पूरा होगा श्रमित प्रवास, आज मिटेगी व्याकुल श्यामा के अधरों की प्यास।
उमड़ सृष्टि के अन्तहीन अम्बर से, घर से क्रीड़ारत बालक-से, ऐ अनन्त के चंचल शिशु सुकुमार! स्तब्ध गगन को करते हो तुम पार! अन्धकार– घन अन्धकार ही क्रीड़ा का आगार। चौंक चमक छिप जाती विद्युत तडिद्दाम अभिराम, तुम्हारे कुंचित केशों में अधीर विक्षुब्ध ताल पर एक इमन का-सा अति मुग्ध विराम। वर्ण रश्मियों-से कितने ही छा जाते हैं मुख पर– जग के अंतस्थल से उमड़ नयन पलकों पर छाये सुख पर; रंग अपार किरण तूलिकाओं से अंकित इन्द्रधनुष के सप्तक, तार; — व्योम और जगती के राग उदार मध्यदेश में, गुडाकेश! गाते हो वारम्वार। मुक्त! तुम्हारे मुक्त कण्ठ में स्वरारोह, अवरोह, विघात, मधुर मन्द्र, उठ पुनः पुनः ध्वनि छा लेती है गगन, श्याम कानन, सुरभित उद्यान, झर-झर-रव भूधर का मधुर प्रपात। वधिर विश्व के कानों में भरते हो अपना राग, मुक्त शिशु पुनः पुनः एक ही राग अनुराग।
निरंजन बने नयन अंजन! कभी चपल गति, अस्थिर मति, जल-कलकल तरल प्रवाह, वह उत्थान-पतन-हत अविरत संसृति-गत उत्साह, कभी दुख -दाह कभी जलनिधि-जल विपुल अथाह– कभी क्रीड़ारत सात प्रभंजन– बने नयन-अंजन! कभी किरण-कर पकड़-पकड़कर चढ़ते हो तुम मुक्त गगन पर, झलमल ज्योति अयुत-कर-किंकर, सीस झुकाते तुम्हे तिमिरहर– अहे कार्य से गत कारण पर! निराकार, हैं तीनों मिले भुवन– बने नयन-अंजन! आज श्याम-घन श्याम छवि मुक्त-कण्ठ है तुम्हे देख कवि, अहो कुसुम-कोमल कठोर-पवि! शत-सहस्र-नक्षत्र-चन्द्र रवि संस्तुत नयन मनोरंजन! बने नयन अंजन!
तिरती है समीर-सागर पर अस्थिर सुख पर दुःख की छाया- जग के दग्ध हृदय पर निर्दय विप्लव की प्लावित माया- यह तेरी रण-तरी भरी आकांक्षाओं से, घन, भेरी-गर्जन से सजग सुप्त अंकुर उर में पृथ्वी के, आशाओं से नवजीवन की, ऊँचा कर सिर, ताक रहे है, ऐ विप्लव के बादल! फिर-फिर! बार-बार गर्जन वर्षण है मूसलधार, हृदय थाम लेता संसार, सुन-सुन घोर वज्र हुँकार। अशनि-पात से शायित उन्नत शत-शत वीर, क्षत-विक्षत हत अचल-शरीर, गगन-स्पर्शी स्पर्द्धा-धीर। हँसते है छोटे पौधे लघुभार- शस्य अपार, हिल-हिल खिल-खिल, हाथ मिलाते, तुझे बुलाते, विप्लव-रव से छोटे ही है शोभा पाते। अट्टालिका नही है रे आतंक-भवन, सदा पंक पर ही होता जल-विप्लव प्लावन, क्षुद्र प्रफुल्ल जलज से सदा छलकता नीर, रोग-शोक में भी हँसता है शैशव का सुकुमार शरीर। रुद्ध कोष, है क्षुब्ध तोष, अंगना-अंग से लिपटे भी आतंक-अंक पर काँप रहे हैं धनी, वज्र-गर्जन से, बादल! त्रस्त नयन-मुख ढाँप रहे है। जीर्ण बाहु, है शीर्ण शरीर तुझे बुलाता कृषक अधीर, ऐ विप्लव के वीर! चूस लिया है उसका सार, हाड़ मात्र ही है आधार, ऐ जीवन के पारावार!
सन्ध्या-सुन्दरी / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”
दिवसावसान का समय – मेघमय आसमान से उतर रही है वह संध्या-सुन्दरी, परी सी, धीरे, धीरे, धीरे, तिमिरांचल में चंचलता का नहीं कहीं आभास, मधुर-मधुर हैं दोनों उसके अधर, किंतु ज़रा गंभीर, नहीं है उसमें हास-विलास। हँसता है तो केवल तारा एक – गुँथा हुआ उन घुँघराले काले-काले बालों से, हृदय राज्य की रानी का वह करता है अभिषेक। अलसता की-सी लता, किंतु कोमलता की वह कली, सखी-नीरवता के कंधे पर डाले बाँह, छाँह सी अम्बर-पथ से चली। नहीं बजती उसके हाथ में कोई वीणा, नहीं होता कोई अनुराग-राग-आलाप, नूपुरों में भी रुन-झुन रुन-झुन नहीं, सिर्फ़ एक अव्यक्त शब्द-सा ‘चुप चुप चुप’ है गूँज रहा सब कहीं –
व्योम मंडल में, जगतीतल में – सोती शान्त सरोवर पर उस अमल कमलिनी-दल में – सौंदर्य-गर्विता-सरिता के अति विस्तृत वक्षस्थल में – धीर-वीर गम्भीर शिखर पर हिमगिरि-अटल-अचल में – उत्ताल तरंगाघात-प्रलय घनगर्जन-जलधि-प्रबल में – क्षिति में जल में नभ में अनिल-अनल में – सिर्फ़ एक अव्यक्त शब्द-सा ‘चुप चुप चुप’ है गूँज रहा सब कहीं –
और क्या है? कुछ नहीं। मदिरा की वह नदी बहाती आती, थके हुए जीवों को वह सस्नेह, प्याला एक पिलाती। सुलाती उन्हें अंक पर अपने, दिखलाती फिर विस्मृति के वह अगणित मीठे सपने। अर्द्धरात्री की निश्चलता में हो जाती जब लीन, कवि का बढ़ जाता अनुराग, विरहाकुल कमनीय कंठ से, आप निकल पड़ता तब एक विहाग!
जुही की कली / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”
विजन-वन-वल्लरी पर सोती थी सुहाग-भरी–स्नेह-स्वप्न-मग्न– अमल-कोमल-तनु तरुणी–जुही की कली, दृग बन्द किये, शिथिल–पत्रांक में, वासन्ती निशा थी; विरह-विधुर-प्रिया-संग छोड़ किसी दूर देश में था पवन जिसे कहते हैं मलयानिल। आयी याद बिछुड़न से मिलन की वह मधुर बात, आयी याद चाँदनी की धुली हुई आधी रात, आयी याद कान्ता की कमनीय गात, फिर क्या? पवन उपवन-सर-सरित गहन -गिरि-कानन कुञ्ज-लता-पुञ्जों को पार कर पहुँचा जहाँ उसने की केलि कली खिली साथ। सोती थी, जाने कहो कैसे प्रिय-आगमन वह? नायक ने चूमे कपोल, डोल उठी वल्लरी की लड़ी जैसे हिंडोल। इस पर भी जागी नहीं, चूक-क्षमा माँगी नहीं, निद्रालस बंकिम विशाल नेत्र मूँदे रही– किंवा मतवाली थी यौवन की मदिरा पिये, कौन कहे? निर्दय उस नायक ने निपट निठुराई की कि झोंकों की झड़ियों से सुन्दर सुकुमार देह सारी झकझोर डाली, मसल दिये गोरे कपोल गोल; चौंक पड़ी युवती– चकित चितवन निज चारों ओर फेर, हेर प्यारे को सेज-पास, नम्र मुख हँसी-खिली, खेल रंग, प्यारे संग
प्रस्तुत हिंदी कविता का शीर्षक साक्षरता है जो कि साक्षरता का अर्थ बताती कविता हैं
साक्षरता का अर्थ बताती कविता
‘साक्षरता ‘ जैसा अक्षर नहीं, जिसका क्षरण सम्भव नहीं सा से बना सामंजस्य, क्ष से मिले क्षमता र से करते रचना ता से तारतम्यता। जिसने वरण किया साक्षरता का गहना , उसे फिर सजना ही सजना । अलौकिक छबि का यह है आइना, रूप दिखाये सुंदर सलोना । साक्षरता से आता संस्कार, संस्कृति और सभ्यता का मिले उपहार । साक्षरता लाए उच्च विचार, सुरभित हो जीवन, महके सदाचार । समय की है यही पुकार, जिससे होगा सबका उद्धार । साक्षर बनाने में जुट जाएँ हम, भारत के ललाट को दमकाए हम।
माला ‘पहल’ मुंबई
प्रधान संपादक की कलम से , हमें ख़ुशी है आपको हमारे द्वारा हिंदी कविता का संकलन पसंद आ रही है . हमारी भरपूर कोशिश होती है पाठकों के लिए दिवस , तिथि या विषय वस्तु पर केन्द्रित रचना प्रकाशित किया जा सके. और हिंदी साहित्य के लेखकों के लिए कोशिश होती है उनकी सामान्य रचना को भी प्रकाशित किया जाये, खास रूप से नवोदित साहित्यकार की रचनाएँ . यदि आपको हमारा काम पसंद आ रहा है तो हमें फॉलो करें :- टेलीग्राम यूजर्स के लिए @telegramlink , ट्विटर यूजर्स के लिए @twitterlink , फेसबुक यूजर्स के लिए @facebooklink , व्हात्सप्प यूजर्स के लिए @WhatsApplink .
विधवा पर कविता का विषय अक्सर समाज की उन कठिनाइयों और चुनौतियों को दर्शाता है, जो एक महिला को अपने पति के निधन के बाद सहन करनी पड़ती हैं। ये कविताएँ उसकी आंतरिक पीड़ा, संघर्ष, समाज की कठोरता, और कभी-कभी उसके पुनर्जीवन और आत्म-सशक्तिकरण की भी कहानी कहती हैं।
विधवा पर कविता
जो वक्त से पहले हो जाती हैं विधवाएं
वे मांए जो वक्त से पहले हो जाती हैं विधवाएं वे कभी- कभी बन जाया करती हैं प्रेमिकाएं उनके अंदर भी प्रेम फ़िर से एक नए रंग में दाखिल होने लगता है लेकिन उनका ये बदला रूप चुभने लगता है ऐसे समाज ,परिवार और घर को जो सिर्फ़ करते हैं बातें सतही वे नहीं सहन कर पाते ऐसे बदलाव को जिसमें होती है उनकी छवि धूमिल जिसे गढ़ा जाता रहा है ख़्वाहिशों की अधमरी पीठ पर उन्हें चाहिए रहती ,सदा वो भोली गुड़िया जिसे अपने हिसाब से चलाया जा सके जब तक विधवाएं अपने गुज़रे पति की याद में आंसू बहाती हैं तब तक बेचारी ,अबला ,अकेली ,कैसे काटेगी ज़िंदगी अकेले बोलकर ज़ाहिर करते हैं संवेदनाएं लेकिन जब वे ख़ुद को संवारने, स्व जीने की करती हैं कोशिश तब दखता है दोगला रूप समाज का कुल्टा ,चरित्रहीन ,बेशर्म ,घर का नाश करने वाली डायन आदि अनगिनत नामों को अपने नाम के पर्याय से दर्ज़ करवा चुकी होती हैं विधवाएं
विभा परमार,पत्रकार थिएटर आर्टिस्ट। बरेली उत्तर प्रदेश।
विधवा
जीवन की राहों पर चली अकेली, उसका सहारा छिन गया, बस यादें ही सजीली। सपनों का संसार बिखर गया, जीवन का साथी जब बिछड़ गया।
सजी थी जिस बगिया में खुशियों की बहार, अब वहाँ सिर्फ़ दर्द का आलम है हर बार। समाज की बेड़ियों में जकड़ी, हर कदम पर सवालों से टकराती।
क्या उसकी हँसी अब गुनाह है? क्या उसकी जिंदगी का अब यही सरताज है? आँखों में आंसू, दिल में दर्द, फिर भी जीने का करती है हर रोज़ मर्द।
अपनों ने भी उसे त्याग दिया, उसके अस्तित्व को जैसे नकार दिया। पर वो फिर भी हिम्मत से लड़े, जीवन की इस कठिन राह पर बढ़े।
उसके दिल की गहराई में उमंग की लौ, आशा की किरण से भरी हो नई भोर। वो फिर से अपने पंख फैलाएगी, नए सपनों की उड़ान भरेगी।
समाज के तानों से ऊपर उठकर, अपने जीवन को नई दिशा देगी। विधवा नहीं, एक सशक्त नारी, जो अपनी ताकत से नया सूरज चढ़ाएगी।
यह कविता विधवा स्त्रियों की पीड़ा और संघर्ष को शब्दों में पिरोती है, साथ ही उनके आत्मविश्वास और पुनर्जागरण की उम्मीद को भी दर्शाती है।