Category: हिंदी कविता

  • मोम की गुड़िया-बेटियां

    मोम की गुड़िया-बेटियां

    मोम की गुड़िया सी कोमल होती है बेटियां
    माता पिता के दुलार में पलती है बेटियां
    अनजान घर की बहू बनती तब भी बेटी का ही रूप होती है बेटियां
    खुदा की सौगात ,जमा पूंजी का ब्याज सी होती है बेटियां


    दिन का चैन और रातों की नीद भी उड जाती है
    जब जवान हो जाती है बेटियां
    सन्तति तो अपनी, फिर भी पराया धन होती है बेटियां
    रोते है मात पिता जब डोली में बैठती है बेटियां


    क्यों रोते है लोग ,जब जन्म लेती है बेटियां
    बीज ही नहीं बचेगा,तो फसल कहां से काटोगे
    न जन्मी बेटियां तो,कन्यादान का धर्म कैसे निभाओगे
    नवरात्र में कन्या पूजन के लिये कहां से लाओगे बेटियां


    ईश्वरीय वरदान और सृष्टि की मूल होती है बेटियां
    दिल कभी न दुखाना, फूल सी कोमल होती है बेटियां
    मात पिता की परेशानी को जब भी सुनती है बेटियां
    सेवा भाव के लिये दौड़ी दौड़ी चली आती है बेटियां


    मात पिता के हृदय का टुकड़ा होती है बेटियां
    दो घरों का नाम रोशन करती है बेटियां
    बेटियाें का सुख भी वही कर पाते है
    जिनके घरों में पैदा होती है प्यारी सुन्दर बेटियां ।।

    कालिका  प्रसाद  सेमवाल

  • जिन्दगी पर कविता

    जिन्दगी पर कविता

    जिन्दगी है,  ऐसी कली।
    जो बीच काँटों के पली।
    पल्लवों संग झूल झूले,
    महकी सुमन बनके खिली।


    जिन्दगी  राहें अनजानी।
    किसकी रही ये पहचानी।
    कहीं राजपथ,पुष्पसज्जित,
    कहीं पगडण्डियाँ पुरानी।


    जिन्दगी सुख का सागर ।
    जिन्दगी नेह की गागर।
    किसी की आँखों का नूर ,
    धन्य विश्वास को पाकर।


    जब डगमगाती जिन्दगी।
    गमगीन होती जिन्दगी ।
    मिले  हौंसलों के पंख तब
    नभ में उड़ती है जिन्दगी।

    जिन्दगी एक अहसास है
    भटकी हुई सी प्यास है।
    जिन्दगी भूले सुरों  का ,
    अनुपम सुरीला राग है


    कर्म पथ से  ही गुजरती।
    मंजिलें मुश्किल से मिलती।
    जिन्दगी अमानत ईश की
    डोर इशारे उसके चलती । 

    पुष्पा शर्मा “कुसुम”

  • यादों के झरोखे से

    यादों के झरोखे से

    ख़त
    मिल गया
    तुम्हारा कोरा देखा, पढ़ा, चूमा
    और
    कलेजे से लगाकर
    रख लिया अनकही थी जो बात
    सब खुल गयी
    कालिमा भरी थी मन में
    सब धुल गयी हृदय की वीणा बज उठी
    छेड़ दी सरगम
    चाहते थे तुम कितना
    मगर वक़्त था कम

    और तुमने
    कुछ नहीं लिखकर भी
    जैसे
    सब कुछ लिख दिया
    मैंने
    देखा, पढ़ा, चूमा
    फिर
    कलेजे से लगाकर
    रख लिया


    राजेश पाण्डेय*अब्र*
      अम्बिकापुर

  • प्रभात हो गया

    प्रभात हो गया

    उठो
    प्रात हो गया
    आँखें खोलो
    मन की गठानें खोलो आदित्य सर चढ़कर
    बोल रहा है
    ऊर्जा संग मिश्री
    घोल रहा है नवल ध्वज लेकर
    अब तुम्हें
    जन मन धन के निमित्त
    लक्ष्य की ओर
    जाना है
    गंतव्य के छोर पर
    पताका फहराना है असीम शक्ति तरंगें
    तुम्हारे इंतज़ार में हैं उठो !
    मेघनाद की तरह
    हुंकार भरो
    घन गर्जन करो बढो!
    हासिल करो
    विजयी बनो
    इतिहास रचो
    समर तुम्हारा है भाग्य से नहीं
    कर्म से दुनियाँ को
    अपना बनाना है उठो !
    प्रात हो गया
    प्रभात हो गया।


    राजेश पाण्डेय *अब्र*
       अम्बिकापुर

  • दोहा पंचक

    दोहा पंचक

    दोहा पंचक

    -रामनाथ साहू ननकी

    किन्नर  खूब  मचा  रहे ,  रेलयान  में   लूट ।
    कैसी है  ये  मान्यता , दी  है किसने  छूट ।।


    जल थल नीले गगन पर ,, मानव का आतंक ।
    दोहन जो  करता  मिले , सागर को ही पंक ।।


    हिंसा  हुई  बढ़ोतरी , होत   अहिंसा    छोट ।
    सबके  मन  को भा  गई , लाल हरे ये नोट ।।


    भूल  रहा  ईमान  को , रोज  बढ़े  अपराध ।
    जीव दया को छोड़कर ,बना हुआ है ब्याध ।।  


    उल्टी  सीधी   बात   पर , बैठे   तंबू    तान ।
    स्वारथ डफली को बजा ,करते  गौरव गान ।।


                     ~   रामनाथ साहू  ” ननकी “
                                    मुरलीडीह