Category: हिंदी कविता

  • भावना और भगवान

    भावना और भगवान

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    यदि सच्ची हो भावना,मिल जाते भगवान।
    जग में सच्चे बहुत हैं,अच्छे दिल इंसान।।
    देश हमारे हैं बहुत, दाता अरु धन वान।
    संसकारों संग भरा,प्यारा  हिंदुस्तान।।
    मुझे गर्व है शान है,मेरा देश महान।,
    जल,थल संग वायु चले,आज हमारे यान।।
    जिसमें बैठे गगन को, छू जाए संतान।
    नव पीढी को मैं भले, देऊँ ऐसा ज्ञान।।
    पारस्परिक विचार को,करते सदा प्रणाम।
    उन्नत नित करते रहें,नए नए आयाम।।
    खुशियों से भरपूर है, सबको यह पैगाम।
    बन कर्मठ करते रहें,नित्य निरंतर काम।।
    होगा संगत देश के,अपना ऊँचा नाम।
    नेक भावना राखिए, कहलाएँ भगवान।।
    करते हैं सद्कर्म ही, विदुषी अरु विद्वान।
    इंसानों की भावना,कहै उन्हें भगवान ।।
    कवयित्री: डॉ० ऋचा शर्मा
    करनाल(हरियाणा)
    कविता बहार से जुड़ने के लिये धन्यवाद

  • बसंत  की  बहार में

    बसंत  की  बहार में

    बसंत दूत कोकिला, विनीत मिष्ठ बोलती।
    बखान रीत गीत से, बसंत गात  डोलती।

    बसंत  की  बहार में, उमा महेश साथ  में।
    बजाय कान्ह बाँसुरी,विशेष चाल हाथ में।

    दिनेश  छाँव  ढूँढते , सुरेश  स्वर्ग  वासते।
    सुरंग  पेड़  धारते, प्रसून  काम    सालते।

    कली खिले बने प्रसून, भृंग संग  सोम से।
    खिले विशेष  चंद्रिका  मही रात व्योम से।

    पपीह मोर  चातकी  चकोर शोर काम के।
    बसंत  बाग  फाग में  बहार बौर आम के।

    बटेर   तीतरी  कपोत, कीर  काग  बावरे।
    लता  लपेट खाय, पेड़ मौन कामना  भरे।

    निपात होय पेड़ जोह बाट फूल पात की।
    विदेश पीव  है, बसंत याद आय  पातकी।

    स्वरूप  ये  मही सजे, समुद्र छाल  मारते।
    पलंग शेष  क्षीर सिंधु,विष्णु श्री विराजते।

    मचे  बवाल कामना, पिया पिया पुकारते।
    बढ़े, सनेह  भावना, बसंत  काम  भावते।

    निराश नहीं छात्र हो, नवीन पाठ सीखते।
    बसंत  के  प्रभाव  गीत चंग संग  दीखते।

    मने , बसंत  पंचमी, मनाय  मात  शारदा।
    मिटे समस्त कामना,पले न घोर  आपदा।

    विवेक शील ज्ञान संग  आन मान शान दे।
    अँधेर नाश  मानवी प्रकाश स्वाभिमान दे।

    बसंत  की  उमंग    संग  पूजनीय  शारदे।
    किसान भाग्य खेल मात कर्ज भार तारदे।

    फले चने  कनेर  आम  कैर बौर  खेजड़ी।
    प्रसून खूब  है खिले शतावरी खिले जड़ी।

    पके अनाज,खेत में  कपोत  कीर  तारते।
    नसीब, हाय होलिके, हँसी खुशी पजारते।

    विवाह साज  साजते, विधान ईश  मानते।
    समाज के विकास को,सुरीत प्रीत पालते।

    विशेष शीत मुक्ति से,सिया समेत राम से।
    घरों समेत खेत के, सुकाम मे सभी  लसे।

    विशाल भाल भारती,नमामि मात आरती।
    हिमालयी  प्रपात  नीर  मात गंग  धारती।

    अखंड  देश  संविधान  वीर  रक्ष  सर्वदा।
    प्रणाम है शहीद को, नमामि  नीर  नर्मदा।

    बसंत  की उमंग, फाग संग छंद  भावना।
    सुरंग भंग  चंग  मंद  मोर  बुद्धि  मानना।


    .          बाबू लाल शर्मा °बौहरा”
    .        सिकंदरा, दौसा,राजस्थान

  • अभयदान

    अभयदान

    शांति कपोत,
    लहूलुहान।
    वो जलायेंगे,
    खलिहान।
    युद्ध व्यापार,
    आलीशान।
    मानवता झेलती,
    घमासान।
    दानवता करे,
    अभिमान।
    सभ्यता विलोपन,
    अभियान।
    कैसे मिलेगा,
    अभयदान???
    भावुक
    कविता बहार से जुड़ने के लिये धन्यवाद

  • वो स्काउट कैम्प है मेरा

    वो स्काउट कैम्प है मेरा

    जहाँ प्रकृति की सुंदर गोदी में स्काउट करता है बसेरा
    वो स्काउट कैम्प है मेरा
    जहाँ सत्य सेवा और निष्ठा का हर पल लगता है फेरा
    वो स्काउट कैम्प है मेरा
    यह धरती जहाँं रोज फहरता,नीला झण्डा हमारा
    जहाँ जंगल में मंगल करता है,स्काउट वीर हमारा
    जहाँ शिविर संचालक सबसे पहले डाले तम्बू डेरा
    वो स्काउट कैम्प है मेरा —-
    बालचरों की इस नगरी के काम भी नित अलबेले
    कभी लेआउट की झटपट है, कभी हाइक के रेले
    मौज मस्ती का रात में लगता, शिविर ज्वाला घेरा
    वो स्काउट कैम्प है मेरा ———-
    जहाँ मान सभा में बातें करते, पेट्रोल लीडर सारे
    सभी शिविर में नीली ड्रेस पर,गले में स्कार्फ डारे
    तीन अंगुली से सेल्यूट करता,पॉवेल ‘रिखब’ तेरा
    वो स्काउट कैम्प है मेरा ——-
    जहाँ प्रकृति की सुंदर गोदी में, स्काउट करता है बसेरा
    वो स्काउट कैम्प है मेरा
    जहाँ सत्य सेवा और निष्ठा का,हर पल लगता है फेरा
    वो स्काउट कैम्प है मेरा

     रिखब चन्द राँका ‘कल्पेश’जयपुर राजस्थान

  • बूढ़ी हो गई हैं स्वेटर

    बूढ़ी हो गई हैं स्वेटर

    समय के साथ
    बूढ़ी हो गई हैं स्वेटर…
    यकायक आज..
    संदूक से निकालकर… आलमारी में सजाते समय
    धर्मपत्नी बोल उठी थी..
    आधुनिक समय में कद्र कहाँ है …?
    दिन रात…
    आंखें चुंधिया गई थी..
    बूढ़ी आंखें….
    लेकिन स्नेह से भरपूर…
    मशीनों में स्नेह थोड़े ही होता है…?
    नदारद..
    कितना मोलभाव किया था..
    पसंद की पषम…
    आज तो दुकानें भी मिलती हैं सहज..
    दुर्लभ है ढूंढना…
    आधुनिकीकरण का रंग जो चढ़ गया है…
    युवा पीढ़ी…
    नहीं करती पसंद छूना…
    अपनत्व छिपा था लेकिन…
    उस बूढ़ी स्वेटर में…
    कितनी पहचान होती हैं…
    एक “मां” को…
    आंखों से नाप लेती हैं… लंबाई चौड़ाई…
    उसका मीटर…
    सटीकता से आंकलन कर लेता है…
    आजकल एक्सल…डबल एक्सल…
    भरे पड़े हैं…
    बाजार… डिजाइन… न जाने क्या क्या..
    लेकिन…
    उस बूढ़ी स्वेटर का…
    रंग आज भी है सुर्ख…
    उस मावठ में…
    उन
    सरद हवाओं में…
    कांपती हैं जब रूह सारी..उसका मोटा लबादा..
    बेपरवाह…
    बेहिचक, बेहिसाब
    ढांप लेता हैं पूरा बदन…
    सर्दी जुकाम..
    नहीं फटकता पास…
    युवा पीढ़ी की नजरों में…”मां” की स्वेटर…
    बूढ़ी हो चली हैं…
    कितने अरमानों से…
    घर का कामकाज छोड़ कर…
    काली स्याह रातों की मेहनत…
    पलभर में..
    हर कोई… सोचता नहीं है…
    उस बूढ़ी स्वेटर के बारे में…
    स्नेह के धागों का मोल कहाँ है जनाब ?
    धागे…धागे मात्र है…
    अनमोल होने की बू….
    चढ़ती नहीं है नथुनों में..क्योंकि
    हमारे नथुनों को..
    सूंघ गई है पश्चिमी सभ्यता संस्कृति…
    थपेडे़ ..तूफान के
    उस बूढ़ी स्वेटर से मैंने देखा है रूकते अक्सर…
    हंसी फूट पड़ती हैं…
    आधुनिकता के रंग में रंगे चेहरों पर..
    ताज्जुब हैं…
    उस “मां” की कलाई…
    मुड़ी होगी न जाने कितनी बार..?
    झाड़ू पौंछा..
    कपड़ें लत्ते…रसोई घर.. चूल्हा चौका…
    खिलाना पिलाना…
    घर के हरेक सदस्य को…
    बीच बीच में ढोर…
    अनगिनत… कितने काम हैं एक स्त्री को…
    सुबह से शाम…
    मशीन तो नहीं है…
    इतना मशीनी होने के बीच.. स्वेटर बुनना…
    आसां कहाँ हैं..?
    फिर भी…
    न जाने…
    आज…
    क्यों हो चली हैं ..वह स्वेटर
    बूढ़ी ?
    निरी बूढ़ी…।
    धार्विक नमन, “शौर्य”,डिब्रूगढ़, असम,मोबाइल 09828108858
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    कविता बहार से जुड़ने के लिये धन्यवाद