manibhai Navratna
मनीभाई पटेल नवरत्न

मनीभाई नवरत्न के गीत

मनीभाई नवरत्न के गीत

manibhai Navratna
मनीभाई पटेल नवरत्न

ओ मतवाले

अपनी जिंदगी को मौत से मिला ले ।
ओ मतवाले ओ दिलवाले।
खुद को कर दे देश के हवाले ।
ओ मतवाले ओ दिल वाले ।।

ये मिट्टी हमारी जन्नत है ।
ये मिट्टी हमारी दौलत है ।
ये खुशहाल रहे, ये मालामाल रहे
यही हमारी मन्नत है ।


इस मिट्टी पर हम अपना शीश नवा ले ।
ओ मतवाले ओ दिलवाले।।

हम को आगे बढ़ना है।
हमको नव देश गढ़ना है
प्रीत  दिल में समाई रहे
हिंदू मुस्लिम भाई रहे ।
हम को ना लड़ना है ।


सब इंसानियत का अपना धर्म निभाले।
ओ मतवाले ओ दिलवाले…

  • मनीभाई नवरत्न

वरिष्ठता

वैसे तो लगता है
सब कल की बातें हो,
मैं अभी कहां बड़ा हुआ?
पर जो अपने बच्चे ही,
कांधे से कांधे मिलाने लगे।
आभास हुआ
अपने विश्रांति का।

उनकी मासुमियत,
तोतली बातें
सियानी हो चुकी है।
वो कब
मेरे हाथ से
उंगली छुड़ाकर
आगे बढ़ चले
पता ही नहीं चला।

मैं उन संग
रहना चाहता हूं,
खिलखिलाना चाहता हूं।
पर क्यों ?
वो मुझे शामिल नहीं करते
अपने मंडली में।
जब भी भेंट होती उनसे,
बाधक बन जाता,
उनकी मस्ती में।
शांति पसर जाती
मेरे होने से
जैसे हूं कोई भयानक।
अहसास दिलाते वो मुझे
मेरे वरिष्ठता का।

मैं चाहता हूं स्वच्छंदता
पर मेरे सिखाए गए उनको
अनुशासन के पाठ
छीन लिया है
हमारे बीच की सहजता।
मैंने स्वयं निर्मित किये हैं
जाने-अनजाने में
ये दूरियां।

संभवतः ढला सकूं
अपना सूरज।
और विदा ले सकूं
सारे मोहपाश तोड़ के।
जिससे उन्हें भी मिलें,
अपना प्रकाश फैलाने का अवसर।

✍मनीभाई”नवरत्न”

क्या हम हिंदी हैं -मनीभाई ‘नवरत्न

घर में मिले जो , सम्मान नहीं है
राष्ट्रभाषा का अब ध्यान नहीं है

कैसे बचेगी  हिंदी की अस्मिता ?
क्या हम हिंदी हैं ?पूछती कविता

यूं तो बड़ी सरल प्यारी सी है भाषा.
राष्ट्र की एकता के लिए बनी आशा .

विकसित देशों की होती स्वतंत्र भाषा
पर देश ने स्वयं को गुलामी में फांसा ?
क्या अब गीता,
मानस में अभिमान नहीं है ?
घर में मिले जो , सम्मान नहीं है
राष्ट्रभाषा का अब ध्यान नहीं है

ज्ञान है भाषा में , विज्ञान भी समाया
दूर-दूर देशों तक , नाम भी कमाया ।
संतों की भाषा , संस्कृति को  बचाया
सात सूरों के , गीत संगीत भी रचाया
अनेकों है भाषा पर ,
हिंदी सा जुबान नहीं है।
घर में मिले जो , सम्मान नहीं है
राष्ट्रभाषा का अब ध्यान नहीं है

 मनीभाई ‘नवरत्न’, छत्तीसगढ़

जाग रे कृषक ( किसानों के लिए कविता)

जाग रे! कृषक, तू है पोषक ,नहीं तेरा मिशाल रे।
अपनी कृषि पद्धति की हर नीति हुई बदहाल रे।

गाय-बैल अपने सखा  जैसे।
हम संग मिलके काम करते।
गोबर खाद की गुण  निराली
पोषक तत्वों की खान रहते ।
खेत में रसायन मिलाके हमने
किया किसान मित्र ‘केंचुआ’ का हलाल रे ।।
जाग रे !कृषक ….

धरती मां में सौ गुण समाए ।
हर पौधे के बीज को उगाए ।
पौधों भी कृतज्ञता से पत्ते को
गिराके भूमि उपजाऊ बनाए ।
समझ ना पाया तू प्रकृति चक्र
किया आग से धरा को तुमने लाल रे ।।
जाग रे! कृषक ….

भीषण पावक से अपनी धरा
खो देती है अपनी भू  उर्वरा।
मर जाते हैं फिर कीट पतंगा
खाद्य श्रृंखला चोटिल गहरा ।
खेत सफाई की चाह में तुमने
भू जलाके बंजर बनाके खुद से की सवाल रे।।
जाग रे! कृषक. . . .

चलो हिंदी को दिलाएं उसका सम्मान

मां भारती के माथे में ,जो सजती है बिंदी।
वो ना हिमाद्रि की श्वेत रश्मियां ,
ना हिंद सिन्धु की लहरें ,
ना विंध्य के सघन वन,
ना उत्तर का मैदान।
है वो अनायास, मुख से विवरित हिन्दी।
जननी को समर्पित प्रथम शब्द ‘मां’ की ।
सरल ,सहज ,सुबोध ,मिश्री घुलित हर वर्ण में ।
सुग्राह्य, सुपाच्य हिंदी मधु घोले श्रोता कर्ण में ।
हमारा स्वाभिमान ,भारत की शान ।
सूर तुलसी कबीर खुसरो की जुबान।
मिली जिससे स्वतंत्रता की महक।
राष्ट्रभाषा का दर्जा दूर अब तलक ।
चलो हिंदी को दिलाएं उसका सम्मान।
मानक हिंदी सीखें , चलायें अभियान।।

 मनीभाई ‘नवरत्न’, छत्तीसगढ़

सत्य अभी दूर है

मैं सत्य मान बैठा प्रकाश को ,
पर वह तो रवि से है।
जैसे काव्य की हर पंक्तियां
कवि से है ।

धारा, किनारा कुछ नहीं होता ।
नदी के बिन।
नदी का भी कहां अस्तित्व है?
जल के बिन।

प्राण है तो तन है ।
ठीक वैसे ही,
तन है तो प्राण है ।
भूखंड है तो विचरते जीव।
वायु है तो उड़ते नभचर ।
मानव है तो धर्म है ।
वरना कैसे पनपती जातियां ,
भाषाएं ,रीति-रिवाजें,
खोखली परंपराएं ।

रात है तो दिन है ।
सुख का अहसास गम से है ।
मूल क्या है ?
खुलती नहीं क्यों ?
रहस्यमयी पर्दा।
असहाय,बेबस दे देते
ईश्वर का रूप।
कुछ जिद्दी ऐसे भी हैं
जो थके नहीं ?
तर्क- वितर्क चिंतन से।
खोज रहे हैं राहें ,
अंधेरी गलियों में
सहज व सरल ।

कुछ खोते ,कुछ पाते।
विकास की नींव जमाते।
फिर भी सत्य अभी दूर है ।
जाने कब सफर खत्म हो
और मिल जाए हमें,
सत्य रूपी ईश्वर..
ईश्वर रूपी सत्य…

✍मनीभाई”नवरत्न”

शिक्षक से है ज्ञान प्रकाश ।
शिक्षक  से बंधती है आस।
शिक्षक में करुणा का वास।
जिनके कृपा से चमके अपना ताज।
चलो मनाएं , शिक्षक दिवस आज।

शिक्षक दिलाते हैं पहचान ।
शिक्षक से ही बनते  महान ।
शिक्षक होते गुणों की खान।
निभायेंगे हम ये सम्मान का रिवाज।
चलो मनाएं , शिक्षक दिवस आज।

जग में सुंदर,  गुरू से नाता।
बिन गुरु ज्ञान कौन है पाता?
गुरु ही होते हैं  सच्चे विधाता ।
शीश नवाके आशीष पाऊंगा आज ।
चलो मनाएं , शिक्षक दिवस आज।

शिक्षक होते हैं रचनाकार ।
ज्ञान से करते हैं चमत्कार ।
बंजर में भी ला देते हैं बहार।
वो जो चाहे वैसे बन जायेगी समाज।
चलो मनाएं , शिक्षक दिवस आज।

प्रेम तो मैं करता नहीं

(रचनाकाल:-१४फरवरी २०१९,प्रेम दिवस)
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यूं किसी पे ,मैं मरता नहीं।
हां! प्रेम तो,मैं करता नहीं।

प्रेम होता तो,
ना होता खोने का डर।
प्रेम के सहारे
कट जाता मेरा सफर।
दुख दर्दों से
रहता  मैं कोसों दूर।
मैं ना होता
कभी विवश मजबूर।
विरह मुझको,खलता नहीं।
छुपके आहें,मैं भरता नहीं।
हां! प्रेम तो ,मैं करता नहीं।

सताती नहीं
लाभ हानि की चिंता।
सदा ही जीता
जो कह गई है गीता।
ना शिकवा होती
ना ही किसी से आशा।
पर क्या है प्रेम?
समझा नहीं परिभाषा।
अर्थ इसके,  टिकता नहीं।
गर है तो,क्यूं दिखता नहीं?
हां! प्रेम तो ,मैं करता नहीं।

जहां प्रेम है
वहां धर्म,जाति किसलिए?
रंग रूप भेद
सरहद-दीवार किसलिए?
राग द्वेष निंदा
प्रेम के शब्दकोश में कहां?
और ईर्ष्या बगैर
प्रेम का अस्तित्व भी कहां?
प्रेम में वश मेरा चलता नहीं।
प्रेम कर हाथ मैं मलता नहीं।
हां! प्रेम तो ,मैं करता नहीं।।

✍मनीभाई”नवरत्न”

हम भारत के वीर

हम भारत के वीर, वीर हैं हम भारत के ,हम भारत के वीर ।
सुंदर सुगठित शरीर ,धीर हैं अपने मन के, हम भारत के वीर ।

इतनी बड़ी धरती में मोती सी अपनी धरती।
धरती की खुशबू छुपी अपने प्यारे भारत में ।
मंद मंद समीर मानसून बरसाए नीर हमारे भारत के।।
हम भारत के वीर,वीर हैं हम भारत के ,हम भारत के वीर।

हिमालय का ताज पहने नदियां मानो इसके गहने ।
तीनों ओर धोते हैं पाद समंदर के क्या है कहने ?
हरे मैदान के चिर लक्ष्मी सी तस्वीर हमारे  भारत के ।
हम भारत के वीर,वीर हैं हम भारत के ,हम भारत के वीर।

मनीभाई ‘नवरत्न’,छत्तीसगढ़, 

सीखें दूसरों की गलती जानकर

होड़ आगे बढ़ने की,
सदा से ही दुखदाई .
खतरा होते पग पग में,
कहीं पत्थर ,कहीं खाई.

अच्छा है पीछे चलो .
देखो सामने वाले की भूल .
जो भी देखा ,उसे जान.
दोनों हाथों से करो कबूल.

नहीं कहता थम जाओ
और छोड़ दो ,आगे को बढ़ना.
पर सहज बनो ,सरल बनो
छोड़ दो जमे पत्थरों से हिलना.

मिला जो सांस्कृतिक विरासत
उसे जान अपना लेना, कम तो नहीं ?
पाश्चात्य संस्कृति पीछे पलट देखे,
सोचे स्वर्ग पीछे न छोड़ आए कहीं ?

हम भाग्यशाली हैं ,
कदम हमारे स्वर्ग के द्वार पर.
दहलीज लांघ जाएं नहीं ,
सीखें दूसरों की गलती जानकर.
( रचनाकाल: 5 अप्रैल 2020)
?*मनीभाई नवरत्न, छत्तीसगढ़*

 मनीभाई ‘नवरत्न’, छत्तीसगढ़

अन्न की कीमत

एक एक दाना बचा ले।
जो खाया खाना पचा ले।
क्यूँ बर्बादी करने को तुला है?
स्वार्थी बन इंसानियत को भुला है।

क्या हुआ कि तेरा पैसा है?
गरीब की भूख भी तो
हम ही जैसा है ।
आखिर क्या मिलता ?
जूठाकर फेंकना ।
जरूरत से ज्यादा हमें,
रोटी क्यूँ सेंकना ?

मत भूल कि,
ये किसानों की गाढ़ी कमाई है।
जिसने पसीने से सींचकर,
ये सोना पाई है।
स्वाद के वशीभूत होके ,
जिह्वा का कहा मत मान ।
ठूंस-ठूंसकर खाके
उदर को पाख़ाना न जान ।

मितव्ययिता का अर्थ
कब तुझे समझ आयेगा ?
आधी आबादी ही जब
भूखा मारा जायेगा ?

तू पूजा करता
 धन को देवी बनाकर ,
अन्न भी तो देवी स्वरूप है।
अब तो जाग,
मत बन भोगी
उतना ही थाल में रख  ,
जितना तेरा भूख है।

लक्ष्मण-रेखा
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जब भी देखता हूं
उसका चेहरा
उन्माद छा जाता मुझमें
उसमें जो बात है
वो उसकी छायाचित्र में भी
रंच कम नहीं।

उंगलियों से यात्रा करता
उसे पाने को तस्वीर में,
मंजिल तलाशता।
इस राह में पर्वतश्रृंखला है
तो गहरी खाईयां भी।
जिसमें बार-बार चढ़ता
बार-बार गिरता
बिखरता
खुद को बटोरता
उसकी मुस्कान की
टेढ़ी नाव लेकर
नैनों की झील पार करता।
माथे के सितारे से
अंधेरी गलियों से निकलता।

परन्तु उफ़!
ये रक्त-सी लक्ष्मण-रेखा माँग ।
मेरी मनोवृत्ति को
झकझोर दिया।
फिर मैंने गौर किया-
ये वासना थी
जो सदैव बहकाती
रति के वेश में
प्रेम तो बिल्कुल नहीं।
✍मनीभाई”नवरत्न”

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