Blog

  • 31 अक्टूबर इंदिरा गांधी पुण्यतिथि पर कविता

    31 अक्टूबर इंदिरा गांधी पुण्यतिथि पर कविता

    ये जमीं रो पड़ी

    ● राजेंद्र राजा

    ये जमीं रो पड़ी आसमाँ रो पड़ा ।

    भोर होते ही सारा जहाँ रो पड़ा ।।

    छोड़कर साथ सबका जुदा जब हुई।

    राह चलता हुआ कारवाँ रो पड़ा ।।

    यूँ अकारण ही सोते हुए देखकर ।

    गाँव, कूँचा, गली हर मकाँ रो पड़ा ।

    फूल को यूँ पड़ा देखकर धूल में।

    डाल के साथ ही बागबाँ रो पड़ा ।

    ओढ़कर जब चलीं वे यहाँ से कफन ।

    जो जहाँ पर खड़ा था वहाँ रो पड़ा ।

    बालकों को दिलासा क्या देते भला ।

    जब वृद्ध स्वयं हर जवाँ रो पड़ा ।।

    कौन होगा यतीमों का राजा यहाँ ।

    सोचकर ही यह सारा समाँ रो पड़ा ।

    लिखते-लिखते गीत अचानक मातम

    ० राजेंद्र राजा

    लिखते-लिखते गीत अचानक मातम गाने लगी लेखनी।

    पल भर में ही मौसम बदला रुदन मचाने लगी लेखनी ॥

    आज अहिंसा के सीने में फिर हिंसा ने गोली मारी,

    धरती काँपी अंबर सहमा दर्द सुनाने लगी लेखनी ॥

    सूरज तो निकला था लेकिन चेहरे पर मुसकान नहीं थी,

    दिन क्यूँ बदला अँधियारे में, हमें बताने लगी लेखनी ॥

    विश्वासों के ऊपर कोई अब कैसे विश्वास करेगा,

    अपने ही कुत्तों का काटा जख्म दिखाने लगी लेखनी ॥

    जिसने घर को स्वर्ग बनाया द्वार-द्वार खुशियाँ बिखराईं,

    मौन देखकर उस देवी को, हमें रुलाने लगी लेखनी ॥

    कल क्या होगा इस बगिया का कौन बचाएगा पतझर से ?

    आँसू के सागर में डूबी प्रश्न उठाने लगी लेखनी ॥

    जो सबका प्यारा होता है उसको ‘मौत’ नहीं आती है,

    अमर हुई भारत की बिटिया, धीर बँधाने लगी लेखनी ॥

  • 19 नवम्बर झाँसी की रानी लक्ष्मी बाई पुण्यतिथि पर कविता

    खूब लड़ी मरदानी

    सुभद्राकुमारी चौहान

    बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,

    खूब लड़ी मरदानी वह तो झाँसीवाली रानी थी।

    सिंहासन हिल उठे, राजवंशों ने भृकुटी तानी थी,

    बूढ़े भारत में भी आई, फिर से नई जवानी थी,

    गुमी हुई आजादी की कीमत सबने पहचानी थी,

    दूर फिरंगी को करने की, सबने मन में ठानी थी,

    चमक उठी सन सत्तावन में, वह तलवार पुरानी थी।

    कानपूर के नाना की मुँहबाली बहन ‘छबीली’ थी,

    लक्ष्मीबाई नाम, पिता की वह संतान अकेली थी,

    नाना के संग पढ़ती थी, वह नाना के संग खेली थी,

    बरछी, ढाल, कृपाण, कटारी, उसकी यही सहेली थी,

    वीर शिवाजी की गाथाएँ, उसको याद जबानी थी।

    लक्ष्मी थी या दुर्गा थी वह, स्वयं वीरता की अवतार,

    देख मराठे पुलकित होते उसकी तलवारों के वार,

    नकली युद्ध, व्यूह की रचना और खेलना खूब शिकार,

    सैन्य घेरना, दुर्ग तोड़ना, ये थे उसके प्रिय खिलवार,

    महाराष्ट्र, कुल देवी उसकी भी आराध्य भवानी थी।

    हुई वीरता की वैभव के साथ सगाई झाँसी में,

    ब्याह हुआ रानी बन आई, लक्ष्मीबाई झाँसी में,

    राजमहल में बजी बधाई, खुशियाँ छाई झाँसी में,

    चित्रा ने अर्जुन को पाया, शिव को मिली भवानी थी।

    उदित हुआ सौभाग्य मुदित, महलों में उजियाली छाई,

    किंतु कालगति चुपके-चुपके, काली घटा घेर लाई,

    तीर चलाने वाले कर में, उसे चूड़ियाँ कब भाईं,

    रानी विधवा हुई, हाय ! विधि को भी नहीं दया आई,

    निःसंतान मरे राजा जी, रानी शोक समानी थी।

    बुझा दीप झाँसी का तब डलहौजी मन में हरषाया,

    राज्य हड़प करने का उसने वह अच्छा अवसर पाया,

    फौरन फौजें भेज दुर्ग पर अपना झंडा फहराया,

    लावारिस का वारिस बनकर ब्रिटिश राज झाँसी आया,

    अश्रुपूर्ण रानी ने देखा झाँसी हुई विरानी थी ।

    अनुनय-विनय नहीं सुनता है, विकट शासकों की माया,

    व्यापारी बन दया चाहता था यह जब भारत आया,

    डलहौजी ने पैर पसारे, अब तो पलट गई काया,

    राजा और नवाबों को भी उसने परों ठुकराया,

    रानी दासी बनी, बनी वह दासी अब महारानी थी।

    छीनी राजधानी देहली की, लखनऊ छीना बातों-बात,

    कैद पेशवा था बिठूर में हुआ नागपूर का भी घात,

    उदेपूर, तंजौर, सतारा, करनाटक की कौन बिसात,

    जबकि सिंध, पंजाब, ब्रह्म पर अभी हुआ था वज्र निपात,

    बंगाले, मद्रास आदि की भी तो वही कहानी थी।

    रानी रोई रनिवासों में, बेगम गम से थीं बेजार,

    उनके गहने कपड़े बिकते थे कलकत्ते के बाजार,

    सरे आम नीलाम छापते थे, अंग्रेजों के अखबार,

    नागपुर के जेवर ले लो, लखनऊ के नौलख हार,

    यों परदे की इज्जत परदेसी के हाथ बिकानी थी।

    कुटियों में थी विकल वेदना महलों में आहत अपमान,

    वीर सैनिकों के मन में था अपने पुरखों का अभिमान,

    नाना धुंधूपंत पेशवा जुटा रहा था सब सामान,

    बहिन छबीली ने रणचंडी का कर दिया प्रकट आह्वान,

    हुआ यज्ञ आरंभ उन्हें तो सोई ज्योति जगानी थी।

    महलों ने दी आग झोंपड़ीं ने ज्वाला सुलगाई थी,

    यह स्वतंत्रता की चिंगारी अंतरतम से आई थी,

    झाँसी चेती, दिल्ली चेती, लखनऊ लपटें छाई थी,

    मेरठ, कानपुर, पटना ने भारी धूम मचाई थी,

    जबलपुर, कोल्हापुर में भी कुछ हलचल उकसानी थी।

    इस स्वतंत्रता महायज्ञ में कई वीरवर आए काम,

    नाना धुंधूपंत ताँतिया, चतुर अजीमुल्ला सरनाम,

    अहमदशाह मौलवी ठाकुर कुँवरसिंह सैनिक अभिराम,

    भारत के इतिहास गगन में अमर रहेंगे जिनके नाम,

    लेकिन आज जुर्म कहलाती, उनकी जो कुर्बानी थी॥

    इनकी गाथा छोड़ चलें हम झाँसी के मैदानों में,

    जहाँ खड़ी है लक्ष्मीबाई मर्द बनी मर्दानों में,

    लेफ्टीनेंट बोकर आ पहुँचा आगे बढ़ा जवानों में,

    रानी ने तलवार खींच ली, हुआ द्वंद्व असमानों में,

    जख्मी होकर बोकर भागा उसे अजब हैरानी थी।

    रानी चढ़ी कालपी आई कर सौ मील निरंतर पार,

    घोड़ा थककर गिरा भूमि पर गया स्वर्ग तत्काल सिधार,

    यमुना तट पर अंग्रेजों ने फिर खाई रानी से हार,

    विजयी रानी आगे चल दी किया ग्वालियर पर अधिकार,

    अंग्रेजों के मित्र सिंधिया ने छोड़ी राजधानी थी।

    विजय मिली, पर अंग्रेजों की फिर सेना घिर आई थी,

    अब के जनरल स्मिथ सम्मुख था, उसने मुँह की खाई थी,

    काना और मंदिरा सखियाँ रानी के सँग आई थीं,

    युद्धक्षेत्र में उन दोनों ने भारी मार मचाई थी,

    पर पीछे ह्यूरोज आ गया, हाय घिरी अब रानी थी।

    तो भी रानी मार-काट कर चलती बनी सैन्य के पार,

    किंतु सामने नाला आया, था यह संकट विषम अपार,

    घोड़ा अड़ा, नया घोड़ा था, इतने में आ गए सवार,

    रानी एक, शत्रु बहुतेरें, होने लगे वार पर वार,

    घायल होकर गिरी सिंहनी, उसे वीरगति पानी थी।

    रानी गई सिधार, चिता अब उसकी दिव्य सवारी थी,

    मिला तेज से तेंज, तेज की वह सच्ची अधिकारी थी,

    अभी उम्र कुल तेईस की थी, मनुज नहीं अवतारी थी,

    हमको जीवित करने आई, बन स्वतंत्रता नारी थी,

    दिखा गई पथ, सिखा गई जो हमको सीख सिखानी थी।

    जाओ रानी, याद रखेंगे, ये कृतज्ञ भारतवासी,

    यह तेरा बलिदान जगावेगा स्वतंत्रता अविनाशी,

    होवे चुप इतिहास, लगे सच्चाई को चाहे फाँसी,

    हो मदमाती विजय, मिटा दें गोलों से चाहे झाँसी,

    तेरा स्मारक तू ही होगी, तू खुद अमर निशानी थी।

    बुंदेलों, हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी।

    खूब लड़ी मरदानी वह तो झाँसीवाली रानो थी ।

    इस समाधि में छिपी

    ● सुभद्राकुमारी चौहान


    इस समाधि में छिपी हुई है

    एक राख की ढेरी ।

    जलकर जिसने स्वतंत्रता की

    दिव्य आरती फेरी ॥

    यह समाधि, यह लघु समाधि, है

    झाँसी की रानी की।

    अंतिम लीलास्थली यही है

    लक्ष्मी मर्दानी की ॥

    यहीं कहीं पर बिखर गई वह

    भग्न विजय माला सी।

    उसके फूल यहाँ संचित हैं

    है यह स्मृति – -शाला सी।

    सहे वार पर वार अंत तक

    लड़ी वीर बाला-सी ।

    आहुति-सी गिर चढ़ी चिता पर

    चमक उठी ज्वाला-सी ॥

    बढ़ जाता है मान वीर का

    रण में बलि होने से ।

    मूल्यवती होती सोने की

    भस्म यथा सोने से |

    रानी से भी अधिक हमें अब

    यह समाधि है प्यारी ॥

    यहाँ निहित है स्वतंत्रता की

    आशा की चिनगारी ॥

    इससे भी सुंदर समाधियाँ

    हम जग में हैं पाते।

    उनकी गाथा पर निशीथ में

    क्षुद्र जंतु ही हैं गाते ॥

    पर कवियों की अमर गिरा में

    इसकी अमिट कहानी ।

    स्नेह और श्रद्धा से गाती

    है वीरों की बानी ॥

    बुंदेले हरबोलों के मुख

    हमने सुनी कहानी ।

    खूब लड़ी मर्दानी वह थी

    झाँसी वाली रानी ॥

    यह समाधि, यह चिर समाधि

    हैं झाँसी की रानी की।

    अंतिम लीलास्थली यही है।

    लक्ष्मी मर्दानी की ॥

    अमर रहे लक्ष्मीबाई

    ● डॉ. ब्रजपाल सिंह संत

    हिंदी भाषा, हिंदू, भोजन, सबके बन बैठे अधिकारी ।

    अंग्रेजी भाषा ही बोलो, था खान-पान मांसाहारी ।

    महारानी को पता लगा, अंग्रेज कुटिल हैं चालों में ।

    वे फूट डालते फिरते हैं, भारत माँ के रखवालों में।

    थी ‘ईस्ट इंडिया’ व्यापारी पर शासक बनकर छाई थी।

    सन् अठारह सौ सत्तावन में, वह सचमुच बनी कसाई थी।

    रानी बोली-अपनी झाँसी, सात स्वर्ग से न्यारी है।

    इस पर हम सब हैं बलिहारी, हमको प्राणों से प्यारी है।

    आँखें अँगारे बरसाती, बच्चा-बच्चा बन गया शोला ।

    झाँसी का कण-कण बोल उठा, जय माँ दुर्गा, शंकर भोला ।

    जय हो जय मात भवानी की, जय हो जय लक्ष्मी रानी की।

    जन-जन जयकारा गूँज उठा, जय हो झाँसी के पानी की।

    जय हो नारी के सतबल की, जय हो जय नर के संबल की।

    जय हो वीरों की हलचल की, हो सदा पराजय अरिदल की।

    अब झाँसी था आजाद राज, भगवा ध्वज ही लहराता था ।

    ‘शिव-गणेश’ के गीत गुँजा, झाँसी की महिमा गाता था ।

    कैसा फिर आया था दुर्दिन, कुछ उसका हाल बताता हूँ।

    गद्दार दुष्ट मन के मैले, उनके कुकृत्य सुनाता हूँ।

    घोड़े की बाग पकड़ मुख में, और कमर में फेंटा बाँध लिया।

    दोनों हाथों से तलवारें, ललकार निशाना साध लिया ।

    होली खेलूंगी खूनी मैं, दुश्मन का दल रक्तिम होगा ।

    रानी ने मन में सोच लिया, बस आज युद्ध अंतिम होगा ।

    चारों और शत्रु सेना, चमचम तलवारें चलती थीं।

    शत्रु के टुकड़े करती थी, मृत्यु भी हाथ मसलती थी।

    काटो मारो हल्ला बोला, रानी ने जंग जमाया था ।

    चंडी मात भवानी बन, गोरों का किया सफाया था ।

    नत्थू खाँ और नबाब अली ने गद्दारी का गुड़ खाया ।

    अंग्रेज हमें झाँसी देंगे, कितनों को कहकर बहकाया ।

    जनरल ह्यूरोज धूर्त ही था, वह महाकुटिल था चालों में।

    सब जमींदार जागीरदार, फँस गए मकड़ जंजालों में।

    पीर अली था वफादार, जो अब तक झाँसी रानी का ।

    वह जासूस बना खुफिया, महारानी की जिंदगानी का ।

    महलों के नक्शे दे आया, जनरल को अते-पते सारे।

    घर के चिराग से आग लगी, जल गए महल और चौबारे ।

    तोपची गौस खाँ देशभक्त, भाऊ बख्शी दमदार बने ।

    दुलहाजू राव और पीर बख्श वे छुपे हुए गद्दार बने ।

    अंग्रेज महापापी-कपटी, चालाक, अधर्मी, कुविचारी ।

    बेईमान, स्वार्थी, लंपट थे, तोतेचश्मी, अत्याचारी ।

    अठारह जून का दिन आया, रानी भुजदंड विशाल हुई।

    आँखों से निकली चिंगारी, वे जलती हुई मशाल हुई।

    रामचंद्र देशमुख आए थे, रघुनाथ सिंह की सैन चलीं।

    काना, मूँदड़ा, झलकारी सब सखियाँ रानी के संग चलीं।

    अरि दलन किए हो गई अमर, तब गंगादास आशीष दिया।

    तू सच्ची भारत बेटी थी, गद्दारों को अभिशाप दिया ।

    गद्दारों के मुँह पर थूको, जिसने गद्दारी दिखलाई ।

    स्वाधीन रहो आजादी ले, युगदूत बनी लक्ष्मीबाई ॥

  • 9 मई महाराणा प्रताप जयन्ती पर कविता

    मई महाराणा प्रताप जयन्ती 9 मई को मनाई जाती है, महाराणा प्रताप एक महान पराक्रमी और युद्ध रणनीति कौशल में दक्ष थे। महाराणा प्रताप ने मुगलों के बार-बार हुए हमलों से मेवाड़ की रक्षा की। जिनका जन्म जन्म 9 मई 1540 को राजस्‍थान के मेवाड़ में हुआ था ये एक ऐसे राजा थे जिनकी ख्यति विश्व प्रसिद्द है.

    9 मई महाराणा प्रताप जयन्ती पर कविता

    किसके लिये उठीं बन्दूकें

    ● श्यामनारायण पांडेय

    किसके लिए उठीं बंदूकें, आँखों में क्यों अरुणाई।

    कहाँ चले तुम वीर सिपाही, बाँहों में भर अँगड़ाई ||

    सागर से गंभीर बने तुम, सुनने की कुछ चाह नहीं,

    महापर्व की कौन घड़ी यह, जिसकी रुकती राह नहीं,

    पाँवों में ऐसी गति जिसको, छू न सके निज परछाईं ।

    कहाँ चले तुम वीर सिपाही… ॥१॥

    तोपों से अभिवादन कर, रणचंडी का पूजन होगा,

    लेने को वरदान विजय का, शीशों से अर्जन होगा,

    महासमर का पर्व आ गया, हमें न अब रोको भाई ।

    कहाँ चले तुम वीर सिपाही… ॥२॥

    तुझे न प्यारे बेटी-बेटे, तुझे न अपनी माँ प्यारी,

    चिर सहचरी उदास तुम्हारी, जिसकी सूनी फुलवारी,

    ममता खड़ी निराश सिसकती कैसी तेरी निठुराई ।

    कहाँ चले तुम वीर सिपाही…. 11311

    ‘सब हैं प्यारे, वतन हमारा हमको सबसे प्यारा हैं,

    आया, उस धरती पर संकट जिसने हमें सँवारा है,

    जो सबकी माँ है माता है, दुश्मन ने आँखें दिखलाईं।

    कहाँ चले तुम वीर सिपाही… ॥४॥

    जीवन की सारी आशाएँ, छोड़ सभी अरमान चले,

    प्राणों का कुछ मोह नहीं, करने जिसको बलिदान चले,

    भय की इस भीषण वेला में, मन में क्यों खुशियाँ छाईं ।

    कहाँ चले तुम वीर सिपाही… ॥५॥

    आशा के मृगजल के पीछे, क्यों प्यासा रह प्राण गँवाएँ,

    क्यों न वीरता की वेदी पर, हँसते हुए अमर हो जाएँ,

    आज स्वर्ग का द्वार खुला है, स्वयं मुक्ति लेने आई।

    कहाँ चले तुम वीर सिपाही…. ॥६॥

    ‘सब हैं प्यारे, वतन हमारा हमको सबसे प्यारा हैं,

    आया, उस धरती पर संकट जिसने हमें सँवारा है,

    जो सबकी माँ है माता है, दुश्मन ने आँखें दिखलाईं।

    कहाँ चले तुम वीर सिपाही… ॥४॥

    जीवन की सारी आशाएँ, छोड़ सभी अरमान चले,

    प्राणों का कुछ मोह नहीं, करने जिसको बलिदान चले,

    भय की इस भीषण वेला में, मन में क्यों खुशियाँ छाईं ।

    कहाँ चले तुम वीर सिपाही… ॥५॥

    आशा के मृगजल के पीछे, क्यों प्यासा रह प्राण गँवाएँ,

    क्यों न वीरता की वेदी पर, हँसते हुए अमर हो जाएँ,

    आज स्वर्ग का द्वार खुला है, स्वयं मुक्ति लेने आई।

    कहाँ चले तुम वीर सिपाही…. ॥६॥

    सैनाणी

    मेघराज ‘मुकुल’

    सैनाणी पड्यो हथळेवै रो, हिंगळू माथै में दमकै ही ।

    रखड़ी फेरां री आण लियां गमगमाट करती गमकै ही ।

    कांगण-डोरो पूंचे मांही, चुड़लो सुहाग लै सुघड़ाई ।

    चुंदड़ी रो रंग न छूट्यो हो, था बंध्या रह्या बिछिया थांई।

    अरमाण सुहाग-रात रा ले, छत्राणी महलां में आई।

    ठमकै सूं ठुमक ठुमक छम-छम, चढ़गी महलां में सरमाई।

    पोढ़ण री अमर लियां आसा, प्यास नैणां में लियां हेत ।

    चूंडावत गठजोड़ो खोल्यो, तन-मन री सुध-बुध अमिट मेट।

    पण बाज रहीं थी सहनाई, महलां में गूंज्यो संखनाद ।

    अधरों पर अधर झुक्या रह ग्या, सरदार भूल ग्यो आलिङ्गन ।

    रजपूती मुख पीळो पड़ग्यो, बोल्यो, ‘रण में नहिं जाऊंला ।

    राणी! थारी पलकां सहळा, हूं गीत हेत रा गाऊंला ।’

    ‘आ बात उचित है की हद तक, ब्या’ में भी चैन न ले पाऊं ?

    मेवाड़ भलां क्यूं हो न दास, हूं पण में लड़ण नहीं जाऊं ।’

    बोली छत्राणी, ‘नाथ! आज थे मती पधारो रण मांही।

    तलवार बताद्यो, हूं जासूं, थे चूड़ो पैर रैवो घर मांही।’

    कह, कूद पड़ी झट सेज त्याग, नैणां मैं अगनी झमक उठी।

    चंडी रो रूप बण्यो छिण में, बिकराळ भवानी भभक उठी।

    बोली, ‘आ बात जचै कोनी, पति नै चाहूं मैं मरवाणो ।

    पति म्हारो कोमळ कूंपळ सो, फूलां सो छिण में मुरझाणो ।

    पैल्यां की समझ नहीं आई, पागल सो बैठ्यो रह्यो मूर्ख ।

    पण बात समझ में जद आई, हो गया नैण इकदम्म सुर्ख ।

    बिजली सी चाली रग-रग में, वो धार कवच उतस्यो पोड़ी।

    हुङ्कार ‘बम-बम महादेव’, ‘ठक-ठक-ठक-ठपक’ बढ़ी घोड़ी ।

    पैल्यां राणी नै हरख हुयो, पण फेर ज्यान सी निकल गई।

    काळजो मूंह कानी आयो, डब डब आंखड़ियां पथर गई।

    उन्मत सी भाजी महलां में, फिर बीच झरोखां टिक्या नैण ।

    बारै दरवाजै चूंडावत, उच्चार रह्यो थो वीर-बैण ।

    आंख्यां सूं आंख मिळी छिण में, सरदार वीरता बिसराई ।

    सेवक नैं भेज रावळे में, अन्तिम सैनाणी मंगवाई।

    सेवक पहुंच्यो अन्तःपुर में, राणी सूं मांगी सैनानी ।

    राणी सहमी फिर गरज उठी, बोली, ‘कह दै मरगी राणी।’

    फिर कह्यो, ‘ठहर! लै सैनाणी’, कह झपट खङ्ग खींच्यो भारी।

    सिर कट्यो हाथ में उछळ पड्यो, सेवक भाज्यो ले सैनाणी ।

    सरदार ऊछळ्यो घोड़ी पर, बोल्यो, ‘ल्या-ल्या-ल्या सैनाणी।’

    फिर देख्यो कट्यो सीस हंसतो, बोल्यो, ‘राणी ! मेरी राणी !’

    ‘तूं भली सैनाणी दी राणी ! है धन्य धन्य तू छत्राणी !

    हूं भूल चुक्यो हो रण-पथ नै, तू भलो पाठ दीन्यो राणी !’

    कह एड़ लगाई घोड़ी कै, रण बीच भयङ्कर हुयो नाद ।

    केहरी करी गर्जन भारी, अरि-गण रै ऊपर पड़ी गाज ।

    फिर कट्यो सीस गळ में धारयो, बेणी री दो लट बांट बळी ।

    उन्मत्त बण्यो फिर करद धार, असपत्त फौज नै खूब दळीं ।

    सरदार विजय पाई रण में, सारी जगती बोली, ‘जय हो !’

    ‘रण- देवी हाड़ी राणी री, मां भारत री जय हो ! जय हो !’

    दिन पूरा बीत गया था

    o आचार्य मायाराम ‘पतंग’

    दिन पूरा बीत गया था संध्या की वेला आई।

    शैशव रोदन धरता था गम खाती थी तरुणाई ।।

    कुछ मिला नहीं खाने को, जठरागिन जरा बुझ पाती।

    बालक बालिका बिलखते रह रहकर भूख सताती ॥

    रवि अस्त हुआ अंबर में निर्द्वद्व तिमिर गहराया।

    स्वातंत्र्य सूर्य ग्रसने को राहू ने मुँह फैलाया ॥

    सेनानी समरांगण के थे भटक रहे वन-वन में।

    सहने की शक्ति असीमित संकल्प लिये जीवन में ॥

    दो मीन कहीं जंगल से बथुआ बटोर कर लाए।

    पीसा गूँथा रानी ने दो मोटे रोट बनाए ।

    सेंके फिर जैसे-तैसे जल के बल से सरकाए ।

    जंगली बिलाव झपटकर बच्ची के ऊपर आया ।।

    वह बिफर- बिफर कर रोई लेकिन वह हाथ न आया।

    महाराणा का मस्तक भी यह दृश्य देख चकराया ||

    पर्वत की छाती पिघली नयनों में जल भर आया ।

    राणा की देह कुलिश में करुणा अंकुर उग आया ||

    यह जीवन भी क्या जीवन रोटी को बिटिया तरसी ।

    राणा प्रताप की आँखें, उस बेवस पल में बरसी ॥

    स्वातंत्र्य धर्म है मेरा संघर्ष मुझे करना है।

    शिशुओं की तड़पन देखूँ इससे बेहतर मरना है ।

    फिर सोचा क्यों ना में भी आसान पंथ अपनाऊँ ?

    मुगलों की सत्ता मानूँ वैभव की महिमा गाऊँ ।।

    रानी ने देखा राणा, दुविधा में जूझ रहे हैं।

    माया-ममता में डूबे सत्पथ को भूल रहे हैं ॥

    हे प्राणनाथ परमेश्वर विनती मैं यही सुनाऊँ ।

    दासता न झेलूँ पल भर, प्राणों की भेंट चढ़ाऊँ ।

    दाने-दाने को तरसें बच्चे भूखे मर जाएँ ।

    आजादी की राहों से पग पीछे नहीं हटाएँ ॥

    पातळ’र पीथळ

    अरै घास री रोटी ही जद बन बिलावडो ले भाग्यो ।

    नान्हो सो अमरयो चीख पड्यो राणा रो सोयो दुख जाग्यो ।

    हूं लड्यो घणो हूं सह्यो घणो

    मेवाड़ी बचावण नै,

    मान हूं पाछ नहीं राखी रण में

    बैरयां रो खून बहावण में,

    जद याद करूं हळदी घाटी नैणां में रगत उतर आवै,

    सुख दुख रो साथी चेतकड़ो सूती सी हूक जगा ज्यावै,

    पण आज बिलखतो देखूं हूं

    जद राज कंवर नै रोटी नै,

    तो क्षात्र धरम नै भूलूं हूं

    भूलूं हिंदवाणी चोटी नै

    मैंलां में छप्पन भोगा जका मनवार बिना करता कोनी,

    सोनै री थाळ्यां नीलम रै बाजोट बिना धरता कोनी,

    औ हाय जका करता पगल्या

    फूलां री कंवळी सेजां पर,

    बै आज रुळै भूखा तिसिया

    हिंदवाणै सूरज रा टाबर,

    आ सोच हुई दो टूक तड़क राणा री भीम बजर छाती,

    आंख्या में आंसू भर बोल्या मैं लिख स्यूं अकबर नै पाती,

    पण लिखूं किंयां जद देखे है आडावळ ऊंचो हियो लियां,

    चित्तौड़ खड्यो है मगरां में विकराळ भूत सी लियां छियां,

    मैं झुकूं कियां ? है आण मनै

    कुळ रा केसरिया बानां री,

    मैं बुझं किंयां ? हूं सेस लपट

    आजादी रै परवानां री,

    पण फेर अमर री सुण बुसक्यां राणा रो हिवड़ो भर आयो,

    मैं मानूं हूं दिल्लीस तनै समराट् सनेसो कैवायों ।

    राणा रो कागद बांच हुयो अकबर रो सपनूं सो सांचो,

    पण नैण कस्यो बिसवास नहीं जद बांच बांच नै फिर बांच्यो,

    कै आज हिंमाळो पिघळ बह्यो

    कै आज हुयो सूरज सीतळ,

    कै आज सेस रो सिर डोल्यो

    आ सोच हुयो समराट् विकळ,

    बस दूत इसारो पा भाज्या पीथळ नै तुरत बुलावण नै,

    किरणां रो पीथळ आ पूग्यो ओ सांचो भरम मिटावण नै,

    र्बी वीर बांकुड़ै पीथळ नै

    रजपूती गौरव भारी हो,

    बो क्षात्र धरम रो नेमी हों

    राणा रो प्रेम पुजारी हो,

    बैरयां रै मन से कांटो हो बीकाणूं पूत खरारो हो,

    राठौड़ रणां में रातो हो बस सागी तेज दुधारो हो,

    आ बात पातस्या जाणै हो

    घावां पर लूण लगावण नै,

    पीथळ नै तुरत बुलायो हो

    राणा री हार बंचावण नै,

    म्हे बांध लियो है पीथळ सुण पिंजरे में जंगळी शेर पकड़,

    ओ देख हाथ से कागद है तूं देखां फिरसी किया अकड़ ?

    मर डूब चळू भर पाणी में

    बस झूठा गाल बजावै हो,

    पण टूट गयो बीं राणा रो

    तूं भाट बण्यो बिड़दावै हो,

    मैं आज पातस्या धरती से मेवाड़ी पाण पगां में है,

    अब बता मनै किण रजवट रै रजपूती खून रंगां में है ?

    जब पीथळ कागद ले देखी

    राणा री सागी सैनाणी,

    नीवै स्यूं धरती खसक गई

    आंख्यां में आयो भर पाणी,

    पण फेर कही ततकाल संभळ आ बात सफा ही झूठी है,

    राणा री पाघ सदा ऊंची राणा री आण अटूटी है।

    ल्यो हुकम हुवै तो लिख पूछूं

    राणा ने कागद रे खातर,

    लै पूछ भलाई पीथळ तूं

    आ बात सही बोल्यो अकबर,

    म्हे आज सुणी है नाहरियो

    स्याळां रे सागै सोवैलो,

    म्हे आज सुणी है सूरजड़ो

    बादळ री ओटा खोवैलो,

    म्हे आज सुणी है चातगड़ो

    धरती रो पाणी पीवैलो,

    म्हे आज सुणी है हाथीड़ो

    कूकर री जूणां जीवैलो,

    म्हे आज सुणी है थकां खसम

    अब रांड हुवैली रजपूती,

    म्हे आज सुणी है म्यानां में

    तरवार रवैली अब सूती,

    तो म्हांरो हिवड़ो कांपै है मूख्यां री मोड़ मरोड़ गई,

    पीथळ नै राणा लिख भेजो आ बात कठे तक गिणां सही ?

    पीथळ रा आखर पढ़ता ही

    राणा री आंख्यां लाल हुई,

    धिक्कार मनै हूं कायर हूं

    नाहर री एक दकाल हुई,

    हूं भूख मरूं हूं प्यास मरूं

    मेवाड़ घरा आजाद रवै

    हूं घोर उजाड़ा में भटकूं

    पण मन में मां री याद रवै,

    हूं रजपूतण रो जायो हूं रजपूती करज चुकाऊंला,

    ओ सीस पड़े पण पाघ नहीं दिल्ली रो मान झुकाऊंला,

    पीथळ के खिमता बादळ री

    जो रोकै सूर उगाळी नै,

    सिंघां री हाथळ सह लेवै

    बा कूख मिली कद स्याळी नै ?


    धरती रो पाणी पिवै इसी

    चातग री चूच बणी कोनी,

    कूकर री जूणां जिवै इसी

    हाथी री बात सुणी कोनी,

    आं हाथां में तरवार थकां

    कुण रांड कवै है रजपूती ?

    म्यानां रै बदळै बैरयां री

    छात्यां में रैवै ली सूती,

    मेवाड़ धधकतो अंगारो आंध्यां में चमचम चमकैलो,

    कड़खैरी उठती तानां पर पग पग पर खांडौ खड़कैलो,

    राखो थे मूंछ्यां ऐंठ्योड़ी

    लोही री नदी बहा दयूंला,

    हूं अथक लडूंला अकबर स्यूं

    उजड्यो मेवाड़ बसा यूला,

    जद राणा रो संदेश गयो पीथळ री छाती दूणी ही,

    हिंदवाणो सूरज चमकै हो अकबर री दुनियां सूनी ही ।

  • 14 अप्रैल डॉ.भीमराव अम्बेडकर जयन्ती पर कविता

    भीमराव रामजी आम्बेडकर (14 अप्रैल, 1891 – 6 दिसंबर, 1951), वे डॉ॰ बाबासाहब आम्बेडकर नाम से लोकप्रिय थे उन्होंने दलित बौद्ध आंदोलन को प्रेरित किया और अछूतों (दलितों) से सामाजिक भेदभाव के विरुद्ध अभियान चला

    14 अप्रैल डॉ. भीमराव अम्बेडकर जयन्ती पर कविता

    बाबा तुमको कोटि नमन

    सबको जीवन दान दिया है, बाबा तुमको कोटि नमन ।

    तूने मरुथल हरित किया है बाबा तुमको कोटि नमन ।।

    बन मेहमान एक दल आया, उसने सब छीना हथियाया ।

    सब कुछ वापस छीन लिया है, बाबा तुमको कोटि नमन ॥

    जीवन की परतों में जाकर, सच्चाई को सम्मुख लाकर ।

    तूने हिया बुलंद किया है, बाबा तुमको कोटि नमन ।।

    सबने तुझको ही उलझाया, लाख भ्रमों का जाल बिछाया।

    जाल काट उन्मुक्त किया है, बाबा तुमको कोटि नमन ।।

    बौद्ध धम्म का दीप जलाकर, विषम भेद दीवार गिराकर ।

    सबको समता भाव दिया है, बाबा तुमको कोटि नमन ।।

    हम सबकी आवाज थे बाबा मंजिल का आगाज थे बाबा ।

    हमने ‘सुमन’ पीयूष पिया है, बाबा तुमको कोटि नमन ॥

    एकता का बिगुल

    ● राम चरण सिंह ‘साथी’

    आदमी के साथ होता पशुओं सा बरताव

    भारत में जाने ऐसे कितने रिवाज थे।

    छुआछूत, ऊँच-नीच, जात-पाँत, भेद-भाव,

    टुकड़ों-ही-टुकड़ों में बिखरे समाज थे।

    कितने ही दंश झेले बाबा भीमरावजी ने,

    प्यार और पैसा हर चीज को मोहताज थे।

    भारतीय संविधान लिख के हुए महान्

    शोणित, दलित व गरीब की आवाज थे।

    गहरी नींद सोने वालों सर्वस्व खोने वालों

    जागो जागो तुमको जगाया बाबा भीम ने ।

    अँधेरा भी दूर होगा, सवेरा जरूर होगा,

    यही दस्तूर बतलाया बाबा भीम ने ।

    पढ़ो लिखो आगे बढ़ो बुलंदी पे नित्य चढ़ो,

    बार-बार यही समझाया बाबा भीम ने ।

    एकता में ही छुपा है शक्ति का मूल मंत्र,

    एकता का बिगुल बजाया बाबा भीम ने ॥

  • स्वामी दयानन्द सरस्वती जयन्ती (फाल्गुन कृष्ण) पर कविता

    स्वामी दयानन्द सरस्वती जयन्ती (फाल्गुन कृष्ण) पर कविता

    वह दयानन्द ब्रह्मचारी

    O डॉ. ब्रजपाल सिंह संत

    दुनिया की प्यास स्वयं पीता, जल लहर बाँटता चलता है,

    पूरी आजादी का आसव, हर पहर बाँटता चलता है,

    स्वाभिमान की भावना से, भीरुता काटता चलता है,

    मानवता का संचालक बन, युग के आगे चलता है।

    अमृत की वर्षा करता, खुद जहर चाटता चलता है,

    इतिहास सदा पीछे चलता, योगी भूगोल बदलता है,

    आर्य तीर्थ पुरुषार्थ शिविर, युग तपोनिष्ठ सुविचारी था,

    आजादी डंका बजा गया, वह दयानंद ब्रह्मचारी था।

    टंकारा में जनम लिया, वह मूलशंकर मस्ताना था,

    मानवता का पैगंबर था, वह सत् का सरल तराना था,

    दीवाना बना, बहाना था, जनता ने वह पहचाना था,

    भारत वीरों को जगा दिया, स्वाधीनता का परवाना था।

    शक्ति की ऊर्जा देता था, वह निराकार व्यापारी था,

    आजादी का डंका बजा गया, वह दयानंद ब्रह्मचारी था,

    नारी थी पैरों की जूती, वह परदे से बाहर आई,

    बाल विवाह हो गए बंद, ऋषिवर ने जनता समझाई।

    भाई ने भाई मिला दिए, संगठन था ऐसा कर डाला,

    अन्याय का करें सामना हम, हाथों को मिला बनी माला,

    वह नगर नगर की डगर चला, कामी उससे भय खाते थे,

    सुन महर्षि उपदेश वीर, गंगाजल गजल सुनाते थे ।

    कुतर्क काट किए खंड-खंड, वह युग तलवार दुधारी था,

    आजादी का डंका बजा गया, वह दयानंद ब्रह्मचारी था।

    जहाँ स्वाभिमान का सुख मिलता, करुणा समीर थे दयानंद,

    जो फिक्र मुल्क का मिटा गए, दिल के अमीर थे दयानंद,

    जो नहीं मिटाए मिट सकती, ऐसी लकीर थे दयानंद,

    जो विष पीकर हो गए अमर, आजादी वीर दयानंद ।

    है इतिहास साक्षी अपनी संस्कृति को याद करो,

    जाति वर्ग भेद को भूलो, नव जागृति आबाद करो,

    परिवर्तन लाने वाला हर क्रांतिकारी आभारी था,

    आजादी का डंका बजा गया, वह दयानंद ब्रह्मचारी था ।