खूब लड़ी मरदानी
● सुभद्राकुमारी चौहान
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मरदानी वह तो झाँसीवाली रानी थी।
सिंहासन हिल उठे, राजवंशों ने भृकुटी तानी थी,
बूढ़े भारत में भी आई, फिर से नई जवानी थी,
गुमी हुई आजादी की कीमत सबने पहचानी थी,
दूर फिरंगी को करने की, सबने मन में ठानी थी,
चमक उठी सन सत्तावन में, वह तलवार पुरानी थी।
कानपूर के नाना की मुँहबाली बहन ‘छबीली’ थी,
लक्ष्मीबाई नाम, पिता की वह संतान अकेली थी,
नाना के संग पढ़ती थी, वह नाना के संग खेली थी,
बरछी, ढाल, कृपाण, कटारी, उसकी यही सहेली थी,
वीर शिवाजी की गाथाएँ, उसको याद जबानी थी।
लक्ष्मी थी या दुर्गा थी वह, स्वयं वीरता की अवतार,
देख मराठे पुलकित होते उसकी तलवारों के वार,
नकली युद्ध, व्यूह की रचना और खेलना खूब शिकार,
सैन्य घेरना, दुर्ग तोड़ना, ये थे उसके प्रिय खिलवार,
महाराष्ट्र, कुल देवी उसकी भी आराध्य भवानी थी।
हुई वीरता की वैभव के साथ सगाई झाँसी में,
ब्याह हुआ रानी बन आई, लक्ष्मीबाई झाँसी में,
राजमहल में बजी बधाई, खुशियाँ छाई झाँसी में,
चित्रा ने अर्जुन को पाया, शिव को मिली भवानी थी।
उदित हुआ सौभाग्य मुदित, महलों में उजियाली छाई,
किंतु कालगति चुपके-चुपके, काली घटा घेर लाई,
तीर चलाने वाले कर में, उसे चूड़ियाँ कब भाईं,
रानी विधवा हुई, हाय ! विधि को भी नहीं दया आई,
निःसंतान मरे राजा जी, रानी शोक समानी थी।
बुझा दीप झाँसी का तब डलहौजी मन में हरषाया,
राज्य हड़प करने का उसने वह अच्छा अवसर पाया,
फौरन फौजें भेज दुर्ग पर अपना झंडा फहराया,
लावारिस का वारिस बनकर ब्रिटिश राज झाँसी आया,
अश्रुपूर्ण रानी ने देखा झाँसी हुई विरानी थी ।
अनुनय-विनय नहीं सुनता है, विकट शासकों की माया,
व्यापारी बन दया चाहता था यह जब भारत आया,
डलहौजी ने पैर पसारे, अब तो पलट गई काया,
राजा और नवाबों को भी उसने परों ठुकराया,
रानी दासी बनी, बनी वह दासी अब महारानी थी।
छीनी राजधानी देहली की, लखनऊ छीना बातों-बात,
कैद पेशवा था बिठूर में हुआ नागपूर का भी घात,
उदेपूर, तंजौर, सतारा, करनाटक की कौन बिसात,
जबकि सिंध, पंजाब, ब्रह्म पर अभी हुआ था वज्र निपात,
बंगाले, मद्रास आदि की भी तो वही कहानी थी।
रानी रोई रनिवासों में, बेगम गम से थीं बेजार,
उनके गहने कपड़े बिकते थे कलकत्ते के बाजार,
सरे आम नीलाम छापते थे, अंग्रेजों के अखबार,
नागपुर के जेवर ले लो, लखनऊ के नौलख हार,
यों परदे की इज्जत परदेसी के हाथ बिकानी थी।
कुटियों में थी विकल वेदना महलों में आहत अपमान,
वीर सैनिकों के मन में था अपने पुरखों का अभिमान,
नाना धुंधूपंत पेशवा जुटा रहा था सब सामान,
बहिन छबीली ने रणचंडी का कर दिया प्रकट आह्वान,
हुआ यज्ञ आरंभ उन्हें तो सोई ज्योति जगानी थी।
महलों ने दी आग झोंपड़ीं ने ज्वाला सुलगाई थी,
यह स्वतंत्रता की चिंगारी अंतरतम से आई थी,
झाँसी चेती, दिल्ली चेती, लखनऊ लपटें छाई थी,
मेरठ, कानपुर, पटना ने भारी धूम मचाई थी,
जबलपुर, कोल्हापुर में भी कुछ हलचल उकसानी थी।
इस स्वतंत्रता महायज्ञ में कई वीरवर आए काम,
नाना धुंधूपंत ताँतिया, चतुर अजीमुल्ला सरनाम,
अहमदशाह मौलवी ठाकुर कुँवरसिंह सैनिक अभिराम,
भारत के इतिहास गगन में अमर रहेंगे जिनके नाम,
लेकिन आज जुर्म कहलाती, उनकी जो कुर्बानी थी॥
इनकी गाथा छोड़ चलें हम झाँसी के मैदानों में,
जहाँ खड़ी है लक्ष्मीबाई मर्द बनी मर्दानों में,
लेफ्टीनेंट बोकर आ पहुँचा आगे बढ़ा जवानों में,
रानी ने तलवार खींच ली, हुआ द्वंद्व असमानों में,
जख्मी होकर बोकर भागा उसे अजब हैरानी थी।
रानी चढ़ी कालपी आई कर सौ मील निरंतर पार,
घोड़ा थककर गिरा भूमि पर गया स्वर्ग तत्काल सिधार,
यमुना तट पर अंग्रेजों ने फिर खाई रानी से हार,
विजयी रानी आगे चल दी किया ग्वालियर पर अधिकार,
अंग्रेजों के मित्र सिंधिया ने छोड़ी राजधानी थी।
विजय मिली, पर अंग्रेजों की फिर सेना घिर आई थी,
अब के जनरल स्मिथ सम्मुख था, उसने मुँह की खाई थी,
काना और मंदिरा सखियाँ रानी के सँग आई थीं,
युद्धक्षेत्र में उन दोनों ने भारी मार मचाई थी,
पर पीछे ह्यूरोज आ गया, हाय घिरी अब रानी थी।
तो भी रानी मार-काट कर चलती बनी सैन्य के पार,
किंतु सामने नाला आया, था यह संकट विषम अपार,
घोड़ा अड़ा, नया घोड़ा था, इतने में आ गए सवार,
रानी एक, शत्रु बहुतेरें, होने लगे वार पर वार,
घायल होकर गिरी सिंहनी, उसे वीरगति पानी थी।
रानी गई सिधार, चिता अब उसकी दिव्य सवारी थी,
मिला तेज से तेंज, तेज की वह सच्ची अधिकारी थी,
अभी उम्र कुल तेईस की थी, मनुज नहीं अवतारी थी,
हमको जीवित करने आई, बन स्वतंत्रता नारी थी,
दिखा गई पथ, सिखा गई जो हमको सीख सिखानी थी।
जाओ रानी, याद रखेंगे, ये कृतज्ञ भारतवासी,
यह तेरा बलिदान जगावेगा स्वतंत्रता अविनाशी,
होवे चुप इतिहास, लगे सच्चाई को चाहे फाँसी,
हो मदमाती विजय, मिटा दें गोलों से चाहे झाँसी,
तेरा स्मारक तू ही होगी, तू खुद अमर निशानी थी।
बुंदेलों, हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी।
खूब लड़ी मरदानी वह तो झाँसीवाली रानो थी ।
इस समाधि में छिपी
● सुभद्राकुमारी चौहान
इस समाधि में छिपी हुई है
एक राख की ढेरी ।
जलकर जिसने स्वतंत्रता की
दिव्य आरती फेरी ॥
यह समाधि, यह लघु समाधि, है
झाँसी की रानी की।
अंतिम लीलास्थली यही है
लक्ष्मी मर्दानी की ॥
यहीं कहीं पर बिखर गई वह
भग्न विजय माला सी।
उसके फूल यहाँ संचित हैं
है यह स्मृति – -शाला सी।
सहे वार पर वार अंत तक
लड़ी वीर बाला-सी ।
आहुति-सी गिर चढ़ी चिता पर
चमक उठी ज्वाला-सी ॥
बढ़ जाता है मान वीर का
रण में बलि होने से ।
मूल्यवती होती सोने की
भस्म यथा सोने से |
रानी से भी अधिक हमें अब
यह समाधि है प्यारी ॥
यहाँ निहित है स्वतंत्रता की
आशा की चिनगारी ॥
इससे भी सुंदर समाधियाँ
हम जग में हैं पाते।
उनकी गाथा पर निशीथ में
क्षुद्र जंतु ही हैं गाते ॥
पर कवियों की अमर गिरा में
इसकी अमिट कहानी ।
स्नेह और श्रद्धा से गाती
है वीरों की बानी ॥
बुंदेले हरबोलों के मुख
हमने सुनी कहानी ।
खूब लड़ी मर्दानी वह थी
झाँसी वाली रानी ॥
यह समाधि, यह चिर समाधि
हैं झाँसी की रानी की।
अंतिम लीलास्थली यही है।
लक्ष्मी मर्दानी की ॥
अमर रहे लक्ष्मीबाई
● डॉ. ब्रजपाल सिंह संत
हिंदी भाषा, हिंदू, भोजन, सबके बन बैठे अधिकारी ।
अंग्रेजी भाषा ही बोलो, था खान-पान मांसाहारी ।
महारानी को पता लगा, अंग्रेज कुटिल हैं चालों में ।
वे फूट डालते फिरते हैं, भारत माँ के रखवालों में।
थी ‘ईस्ट इंडिया’ व्यापारी पर शासक बनकर छाई थी।
सन् अठारह सौ सत्तावन में, वह सचमुच बनी कसाई थी।
रानी बोली-अपनी झाँसी, सात स्वर्ग से न्यारी है।
इस पर हम सब हैं बलिहारी, हमको प्राणों से प्यारी है।
आँखें अँगारे बरसाती, बच्चा-बच्चा बन गया शोला ।
झाँसी का कण-कण बोल उठा, जय माँ दुर्गा, शंकर भोला ।
जय हो जय मात भवानी की, जय हो जय लक्ष्मी रानी की।
जन-जन जयकारा गूँज उठा, जय हो झाँसी के पानी की।
जय हो नारी के सतबल की, जय हो जय नर के संबल की।
जय हो वीरों की हलचल की, हो सदा पराजय अरिदल की।
अब झाँसी था आजाद राज, भगवा ध्वज ही लहराता था ।
‘शिव-गणेश’ के गीत गुँजा, झाँसी की महिमा गाता था ।
कैसा फिर आया था दुर्दिन, कुछ उसका हाल बताता हूँ।
गद्दार दुष्ट मन के मैले, उनके कुकृत्य सुनाता हूँ।
घोड़े की बाग पकड़ मुख में, और कमर में फेंटा बाँध लिया।
दोनों हाथों से तलवारें, ललकार निशाना साध लिया ।
होली खेलूंगी खूनी मैं, दुश्मन का दल रक्तिम होगा ।
रानी ने मन में सोच लिया, बस आज युद्ध अंतिम होगा ।
चारों और शत्रु सेना, चमचम तलवारें चलती थीं।
शत्रु के टुकड़े करती थी, मृत्यु भी हाथ मसलती थी।
काटो मारो हल्ला बोला, रानी ने जंग जमाया था ।
चंडी मात भवानी बन, गोरों का किया सफाया था ।
नत्थू खाँ और नबाब अली ने गद्दारी का गुड़ खाया ।
अंग्रेज हमें झाँसी देंगे, कितनों को कहकर बहकाया ।
जनरल ह्यूरोज धूर्त ही था, वह महाकुटिल था चालों में।
सब जमींदार जागीरदार, फँस गए मकड़ जंजालों में।
पीर अली था वफादार, जो अब तक झाँसी रानी का ।
वह जासूस बना खुफिया, महारानी की जिंदगानी का ।
महलों के नक्शे दे आया, जनरल को अते-पते सारे।
घर के चिराग से आग लगी, जल गए महल और चौबारे ।
तोपची गौस खाँ देशभक्त, भाऊ बख्शी दमदार बने ।
दुलहाजू राव और पीर बख्श वे छुपे हुए गद्दार बने ।
अंग्रेज महापापी-कपटी, चालाक, अधर्मी, कुविचारी ।
बेईमान, स्वार्थी, लंपट थे, तोतेचश्मी, अत्याचारी ।
अठारह जून का दिन आया, रानी भुजदंड विशाल हुई।
आँखों से निकली चिंगारी, वे जलती हुई मशाल हुई।
रामचंद्र देशमुख आए थे, रघुनाथ सिंह की सैन चलीं।
काना, मूँदड़ा, झलकारी सब सखियाँ रानी के संग चलीं।
अरि दलन किए हो गई अमर, तब गंगादास आशीष दिया।
तू सच्ची भारत बेटी थी, गद्दारों को अभिशाप दिया ।
गद्दारों के मुँह पर थूको, जिसने गद्दारी दिखलाई ।
स्वाधीन रहो आजादी ले, युगदूत बनी लक्ष्मीबाई ॥