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  • बाबूलाल बौहरा के कुण्डलियाँ छंद

    बाबूलाल बौहरा के कुण्डलियाँ छंद

    छंद
    छंद

    संवेदना -कुण्डलिया छंद

    होती है संवेदना, कवि  पशु  पंछी  वृक्ष।
    मानव मानस हो रहे, स्वार्थ पक्ष विपक्ष।
    स्वार्थ पक्ष विपक्ष, शून्य  संवेदन  बनते।
    जाति धर्म के वाद,बंधु आपस में तनते।
    भूल रहे संस्कार,खो रहे संस्कृति मोती।
    हो खुशहाल समाज,जब संवेदना होती।

    बढ़ती  है  संवेदना, राज  धर्म संग  साथ।
    व्यक्ति वर्ग समाज भी,रखें मनुजता माथ।
    रखें मनुजता माथ, मान मानव  मन होवेें।
    मिल के हो संघर्ष, शक्ति  आतंकी  खोवें।
    समझें मनु की बात,अराजकतायें घटती।
    सत्ता  साथ  समाज, तब  संवेदना बढ़ती।

    बाबू लाल शर्मा, “बौहरा”
    सिकंदरा, दौसा,राजस्थान

    अधिकार पर कुण्डलिया

    भारत के संविधान में,दिए मूल अधिकार।
    मानवता  हक में  रहे, लोकतंत्र  सरकार।
    लोकतंत्र  सरकार, लोक से निर्मित होती।
    भूलो मत  कर्तव्य, कर्म  ही सच्चे  मोती।
    कहे लाल कविराय, अकर्मी पाते  गारत।
    मिले खूब अधिकार,सुरक्षा अपने भारत।

    दाता ने हमको दिया, जीवन का अधिकार।
    बुरी आदतें  छोड़ दें, अपने  को  मत मार।
    अपने को मत मार,समझ सुकृत मानव के।
    पर पीड़ा  का पंथ, कहाते मग  दानव  के।
    कहे लाल कविराय,करे सब भला विधाता।
    निभे  सतत  कर्तव्य, कर्मफल  देंगे  दाता।

    बाबू लाल शर्मा “बौहरा”
    सिकंदरा, दौसा,राजस्थान

    साधु    

    ऐसे सच्चे  साधु जन, जैसे सूप स्वभाव।
    यह तो बीती  बात है, शेष बचा पहनाव।
    शेष बचा पहनाव,तिलक छापे ही खाली।
    जियें विलासी ठाठ, सुनें तो बात निराली।
    कहे  लाल  कविराय, जुटाते  भारी पैसे। 
    सुरा  सुन्दरी  शान, बने   स्वादू अब ऐसे।
      ✨✨✨✨✨
    टोले  साधु  सनेह जन, चेले   चेली  संग।
    कार गाड़ियाँ काफिला, सुरा सुन्दरी भंग।
    सुरा  सुन्दरी  भंग, विलासी भाव अनोखे।
    दौलत  के  हैं  दास, ज्ञान  ये  बाँटे  चोखे।
    बुरे कर्म तन लाल, धर्म धन के बम गोले।
    नाम  कथा  सत्संग, माल ठगते  ये टोले।
        ✨✨✨✨✨

    बाबू लाल शर्मा, बौहरा
    सिकंदरा,दौसा,राजस्थान

    ऋतु फागुन

    लाया अलि ऋतुराज अब, पछुआ शुष्क समीर!
    प्राकृत रीति प्रतीत जग, चुभे मदन मन तीर!
    चुभे मदन मन तीर, लता तरु वन बौराए!
    चाहत प्रीत सजीव, मदन तन मन दहकाए!
    कहे “लाल” कविराय, विहग पशु जन भरमाया!
    मृग आलिंगन बद्ध, मिलन ऋतु फागुन लाया!

    बाबू लाल शर्मा, बौहरा
    सिकंदरा दौसा राजस्थान

    अबला  नारी  को कहे, होता है अपमान।
    बल पौरुष की खान ये,सबको दे वरदान।
    सबको दे  वरदान, ईश  भी  यह जन्माए।
    महा  बली  विद्वान, धीर   नारी  के  जाए।
    देश रीति इतिहास,बदलती धरती सबला।
    करें आत्मपहचान, नहीं  ये होती अबला।

    होती पीड़ा  प्रसव में, छूट सके  ये  प्रान।
    जानि  गर्भ धारण करे,नारी सबल महान।
    नारी सबल  महान, लहू से  संतति  सींचे।
    खान पान सब देय,श्वाँस जो अपने खींचे।
    सूखे में शिशु सोय, समझ गीले  में सोती।
    ममता सागर नारि, तभी ये सबला  होती।

    सबला ममता के लिए,त्याग सके हैं प्रान।
    देश धर्म  मर्याद हित, ले भी सकती जान।
    ले भी सकती जान,जान इतिहास रचाती।
    पढ़लो  पन्ना धाय, और जौहर  जज्बाती।
    देती  लेती जान, जान क्यों कहते अबला।
    सृष्टि धरा सम्मान,नारि प्राकृत सी सबला।

    बाबू लाल शर्मा “बौहरा”
    सिकंदरा, दौसा,राजस्थान

    सुन्दरता पर कुण्डलिया

    सुन्दर अपना देश है, सुन्दर जग  में  शान।
    वन्य खेत गिरि मेखला,सरिता सिंधु महान।
    सरिता सिंधु महान, ऋतु  ये हैं मन भावन।
    पेड़,गाय,जल,आग, इन्हे मानें  हम पावन।
    कहे लाल  कविराय,  बरसते  यहाँ  पुरंदर।
    सुन्दर सोच विचार, बोल भाषा सब सुन्दर।

    वंदन  सुन्दर  हो  रहा, सुन्दर शुभ परिवेश।
    सुन्दर फल फूलों सजे,सुन्दर जिसका वेश।
    सुन्दर जिसका वेश, कहें हम भारत माता।
    सागर चरण पखार, लगे ज्यों  वंदन गाता।
    कहे लाल कविराय,करें हम भी अभिनंदन।
    सुन्दर  साज  सँवार, करें  भारत  माँ वंदन।

    सुन्दरता  मन की भली, तन को  देखे भूल।
    सिया स्वर्ण मृग  देख के, भूली ज्ञान समूल।
    भूली  ज्ञान  समूल, लोभ  मन  में  गहराया।
    जागा नहीं विवेक, विचित्र निशाचरि  माया।
    कहे लाल कविराय, छले सुन्दरता  तन की।
    सुन्दरता सत भाव, प्रीत गुण होती मन की।

    कंचन वर्णी  गात हो, गुण मर्याद  विहीन।
    सुन्दरता  कैसे कहूँ, रीत प्रीत  मति  हीन।
    रीत प्रीत मति हीन,गर्व जो तन पर करते।
    सुन्दरता वह मान, मान हित देश पे मरते।
    कहे लाल  कविराय, शहीदी  गाथा मंचन।
    सुन्दरता  मत मान, छलावा काया  कंचन।


    बाबू लाल शर्मा “बौहरा”
    सिकंदरा,दौसा,राजस्थान

    भारत वतन  महान

    भारत वतन  महान है, विश्व गुरू  पहचान।
    लोकतंत्र  सबसे  बड़ा, सोन  चिरैया  मान।
    सोन  चिरैया  मान, बहे  नद  पावन  गंगा।
    जन गण मन अरमान,रहे बस शान तिरंगा।
    कहे “लाल” कविराय,बचे यह धरा अमानत।
    वतन शान  कश्मीर, तिरंगा अपना  भारत।
      

    आजादी, महँगी  मिली, हुए लाल  कुर्बान।
    राज फिरंगी देश में,जन गण मन अपमान।
    जन गण मन अपमान, रहे  अंग्रेजी  चंगा।
    बलिदानों की बाढ़, लिये  हर हाथ  तिरंगा।
    कहे लाल कविराय, हुई  जागृत  आबादी।
    छिड़ी तिरंगे तान,मिली तब यह आजादी।

    बाबू लाल शर्मा, बौहरा

    दीवाली  शुभ पर्व

    माटी  का  दीपक लिया, नई  रुई  की बाति।
    तेल डाल दीपक जला,आज अमावस राति।
    आज अमावस राति, हार तम सें  क्यों माने।
    अपनी दीपक शक्ति, आज प्राकृत भी जाने।
    कहे लाल कविराय, राति तम की बहु काटी।
    दीवाली  पर  आज, जला इक  दीपक माटी।
                   
    दीवाली  शुभ पर्व  पर, करना  मनुज प्रयास।
    अँधियारे  को  भेद  कर, फैलाना  उजियास।
    फैलाना  उजियास, भरोसे  पर  क्या  रहना।
    परहित जलना सीख,यही दीपक का कहना।
    कहे लाल कविराय, रीति  अपनी  मतवाली।
    करते   तम   से  होड़, भारती  हर  दीवाली।

    ✍©
    बाबू लाल शर्मा, बौहरा
    सिकंदरा,दौसा,राजस्थान

    रंग बसंती संत

    मधुकर  बासंती  हुए, भरमाए  निज  पंथ।
    सगुण निर्गुणी  बहस में, लौटे  प्रीत सुपंथ।
    लौटे   प्रीत  सुपंथ, हरित परवेज चमकते।
    गोपी विरहा  संत, भ्रमर दिन रैन खटकते।
    कहे लाल कविराय,सजे फागुन यों मनहर।
    कली गोपियों बीच, बने  उपदेशी  मधुकर।

    भँवरा  कलियों  से करे, निर्गुण  पंथी  बात।
    कली गोपियों सी सुने, भ्रमर कान्ह  सौगात।
    भ्रमर  कान्ह  सौगात,स्वयं का ज्ञान सुनाता।
    देख गोपियन प्रेम,कली,अलि कृष्ण सुहाता।
    कहे लाल कविराय, भ्रमर का जीवन सँवरा।
    रंग   बसन्ती  सन्त,  फिरे  मँडराता  भँवरा।

    बाबू लाल शर्मा “बौहरा”
    सिकंदरा,दौसा,राजस्थान

    भाई दूज

    चलती रीति सनातनी, पलती प्रीत विशेष!
    भाई बहिना दोज पर, रीत  प्रीत  परिवेश!
    रीत प्रीत  परिवेश, हमारी  संस्कृति न्यारी!
    करे तिलक इस दूज,बंधु को बहिनें प्यारी!
    शर्मा  बाबू लाल, सुहानी  संस्कृति पलती!
    राखी  भैया  दूज, रीति  भारत  में चलती!

    मीरा  जैसी  हो  बहिन, ऐसा  हो  अरमान!
    बहिन चाहती है  सदा, भ्राता  कृष्ण समान!
    भ्राता कृष्ण समान,रखे सुख दुख में समता!
    मात पिता सम प्यार, रखे जो सच्ची ममता!
    शर्मा  बाबू  लाल, बहिन  सब  चाहत  बीरा!
    मिलते सब सौभाग्य, सभी को बहिना मीरा!
    (बीरा~भाई)

    भैया , भैया   दूज   पर, ले  भौजाई   संग!
    मेरे  घर  आजाइयो, चाहत   मनो   विहंग!
    चाहत  मनो विहंग, याद  पीहर  की आती!
    कर बचपन की याद,आज भर आई छाती!
    शर्मा  बाबू  लाल, बहिन  अरु  गैया, मैया!
    रख  तीनों  का  मान, दूज पर  प्यारे भैया!

    ✍©
    बाबू लाल शर्मा,बौहरा
    सिकंदरा,दौसा, राजस्थान

    कविता

    कविता काव्य कवित्त के, करते कर्म कठोर।
    कविजन केका कोकिला,कलित कलम की कोर।
    कलित कलम की कोर, करे कंटकपथ कोमल।
    कर्म करे कल्याण, कंठिनी काली कोयल।
    कहता कवि करजोड़, करूँ कविताई कमिता।
    काँपे काल कराल, कहो कम कैसे कविता।

    कमिता ~कामना

    …… बाबू लाल शर्मा,बौहरा

    चितवन

    चंचल चर चपला चषक, चण्डी चूषक चाप्!
    चितवन चीता चोर चित, चाह चुभन चुपचाप!
    चाह चुभन चुपचाप, चाल चल चल चतुराई!
    चमन चहकते चंद, चतुर्दिश चष चमचाई!
    चाबुक चण्ड चरित्र, चतुर चतुरानन चंगुल!
    चारु चमकमय चित्र, चुनें चॅम चंदन चंचल!

    *चॅम ~ मित्र, चष ~ दृश्य शक्ति या नेत्र रोग*
    बाबू लाल शर्मा,बौहरा

    हिन्दी हिन्दुस्तान की


    हिन्दी हिन्दुस्तान की, भाषा मात समान।
    देवनागरी लिपि लिखें, सत साहित्य सुजान।
    सत साहित्य सुजान, सभी की है अभिलाषा।
    मातृभाष सम्मान , हमारी अपनी भाषा।
    सजे भाल पर लाल, भारती माँ के बिन्दी।
    भारत देश महान, बने जनभाषा हिन्दी।

    भाषा संस्कृत मात से, हिन्दी शब्द प्रकाश।
    जन्म हस्तिनापुर हुआ, फैला खूब प्रभास।
    फैला खूब प्रभास, उत्तरी भारत सारे।
    तद्भव तत्सम शब्द, बने नवशब्द हमारे।
    कहे लाल कविराय, तभी से जन अभिलाषा।
    देवनागरी मान, बसे मन हिन्दी भाषा।

    भाषा शब्दों का बना, बृहद कोष अनमोल।
    छंद व्याकरण के बने, व्यापक नियम सतोल।
    व्यापक नियम सतोल, सही उच्चारण मिलते।
    लिखें पढ़ें अरु बोल, बने अक्षर ज्यों खिलते।
    कहे लाल कविराय, मिलेगी सच परिभाषा।
    हर भाषा से श्रेष्ठ, हमारी हिन्दी भाषा।

    दोहा चौपाई रचे, छंद सवैया गीत।
    सजल रुबाई भी हुए, अब हिन्दी मय मीत।
    अब हिन्दी मय मीत, प्रवासी जन मन धारे।
    कविताई का भाव, भरें ये कवि जन सारे।
    हो जाता है लाल, तपे जब सोना लोहा।
    तुलसी रहिमन शोध, बिहारी कबिरा दोहा।


    भारत भू भाषा भली, हिन्दी हिंद हमेश।
    सुंदर लिपि से सज रहे, गाँव नगर परिवेश।
    गाँव नगर परिवेश, निजी हो या सरकारी।
    हिन्दी हित हर कर्म, राग अपनी दरबारी।
    कहे लाल कविराय, विरोधी होंगें गारत।
    कर हिन्दी का मान, श्रेष्ठ तब होगा भारत।

    हिन्दी सारे देश की, एकीकृत अरमान।
    प्रादेशिक भाषा भले, प्रादेशिक पहचान।
    प्रादेशिक पहचान, सभ्यता संस्कृति वाहक।
    उनका अपना मान, विवादी बकते नाहक।
    शर्मा बाबू लाल , सजे गहनों पर बिन्दी।
    प्रादेशिक हर भाष, देश की भाषा हिन्दी।

    वाणी देवोंं की कहें, संस्कृत संस्कृति शान।
    तासु सुता हिन्दी अमित, भाषा हिंदुस्तान।
    भाषा हिंदुस्तान, वर्ण स्वर व्यंजन प्यारे।
    छंद मात्रिका ज्ञान, राग रस लय भी न्यारे।
    गयेे शरण में लाल, मातु पद वीणा पाणी।
    रचे अनेकों ग्रंथ, मुखर कवियों की वाणी।

    बाबू लाल शर्मा

    जाड़ा

    जाड़ो पड़ गो जोर को, थर थर  काँपै गात।
    पाल़ो पड़तो फसल पै,होय जियाँ हिमपात।
    होय जियाँ हिमपात, ओस रात्यूँ  या टपकै।
    म्हारै  मरुधर  माँय, गाय  सूनी   ही  भटकै।
    गाड़ोलिया  लुहार, शरण उनकै बस  गाड़ो।
    सहै,  घाम  बरसात, बिगाड़ै   काँई   जाड़ो।


    जाड़ा तू है खोड़लो,दुशमन गुरबत ढोर।
    माकड़ कीट पखेरवाँ, विरहा  बूढ़ै  चोर।
    बिरहा  बूढ़ै चोर, शीत मैं  थर थर काँपै।
    होय साँस को रोग,जियाँ ये विरहा हाँपै।
    खाँसू  ल्यावै  ढोर, रजाई  बकरी,,पाड़ा।
    किय्याँ करै मजूँर, पड़ै जद जोराँ जाड़ा।


    पाणत फसलाँ मै करै,धरती पूत किसान।
    रात रात  रुल़ता फिरै, वै  भी  छै  इंसान।
    वै  भी  छै  इंसान, आज  गुरबत के मारै।
    भूख  नंग  महादेव , भरै   वै  पेट  हमारै।
    शर्मा बाबू लाल, देय अब कुण नै लानत।
    मंत्री,नेता दोय, एक दिन करल्यो पाणत।


    चारो  पटको  माछल़ी, पंछी   चींटी  ढोर।
    वस्त्र दान करताँ कहो,प्रात सबै शुभ भोर।
    प्रात सबै शुभ भोर,लगै फिर जाड़ो थोड़ो।
    गुड़ बाँटो अरु खाय, खींचड़ो  होवै घोड़ो।
    सबल़ाँ ताप अलाव, डरो क्यूँ जाड़ै  यारो।
    सबकी   करो  सहाय, बणैलो  भाई चारो।


    बाबू लाल शर्मा,”बौहरा”
    सिकंदरा, दौसा,राजस्थान

  • बाबूलाल शर्मा बौहरा के नवगीत

    बाबूलाल शर्मा बौहरा के नवगीत

    कविता संग्रह
    कविता संग्रह

    कहानी मोड़ मन मानस

    कहानी मोड़ मन मानस
    उदासी छोड़नी होगी।
    पिपासा पीर विश्वासी
    निराशा भूल मन योगी।।

    गरीबी की नहीं गिनती
    दुखों का जब पहाड़ा हो
    नही बेघर नदी समझो
    किनारा तल अखाड़ा ।
    वृथा भटको नहीं बादल
    विरह पथ दर्द संयोगी।,।

    उजाले भूल मन चातक
    अँधेरे सिंधु से ले लो
    बहे सावन दृगों से ही
    अकालों का यजन झेलो
    बहे गंगा कठौती में
    किसानी श्वेद श्रम भोगी।

    बनाले मीत वर्णों को
    लिखो हर पीर परिजन सी
    बसे परिवार छंदों के
    सृजन कविता प्रिया तन स
    वियोगी घन उठो बन कर
    सृजन संगीत संभोगी।।

    नदी की धार सम पर्वत
    पराई पीर हरनी है
    समंदर प्रीति का खाली
    जगत की गंद भरना ।
    तपन से भाप बन उड़ना
    बरसना खूब घन जोगी।।

    दुखों के ताल रीते कर
    तलाई बो मिताई की
    नहर बाँधों नदी नालों
    सनेही मन सिँचाई की ।
    मिटा अक्षर अभावों के
    सँभलना आज मन रोग।।


    ✍©
    बाबू लाल शर्मा *विज्ञ*
    बौहरा भवन, सिकंदरा,
    दौसा,राजस्थान ९७८२९२४४७९

    सूरज उगने वाला है

    मीत यामिनी ढलना तय है,
    कब लग पाया ताला है।
    *चीर तिमिर की छाती को अब,*
    *सूरज उगने वाला है।।*

    आशाओं के दीप जले नित,
    विश्वासों की छाँया मे।
    हिम्मत पौरुष भरे हुए है,
    सुप्त जगे हर काया में।

    जन मन में संगीत सजे है,
    दिल में मान शिवाला है।
    चीर तिमिर…………. ।

    हर मानव है मस्तक धारी,
    जिसमें ज्ञान भरा होता।
    जागृत करना है बस मस्तक,
    सागर तल जैसे गोता।

    ढूँढ खोज कर रत्न जुटाने,
    बने शुभ्र मणि माला है।
    चीर ………………….।

    सत्ता शासन सरकारों मे,
    जनहित बोध जगाना है।
    रीत बुराई भ्रष्टाचारी,
    सबको दूर भगाना है।

    मिले सभी अधिकार प्रजा को,
    दोनो समय निवाला है।
    चीर तिमिर……………..।

    हम भी निज कर्तव्य निभाएँ,
    बालक शिक्षित व्यवहारी।
    देश धरा मर्यादा पालें,
    सत्य आचरण हितकारी।

    शोध परिश्रम करना होगा,
    लाना हमे उजाला है।
    चीर तिमिर …………..।

    ✍©
    बाबू लाल शर्मा बौहरा
    सिकंदरा,दौसा, राजस्थान

    आज लेखनी रुकने मत दो


    आज लेखनी,रुकने मत दो
    गीत स्वच्छ भारत लिखना।
    दूजे कर में झाड़ू लेकर,
    घर आँगन तन सा रखना।।

    आदर्शो की जले न होली
    मेरी चिता जले तो जल
    कलम बचेगी शब्द अमर कर,
    स्वच्छ पीढ़ि सीखें अविरल

    रुके नही श्वाँसों से पहले
    फले लेखनी का सपना।
    आज……………………।।

    स्वच्छ रखूँ साहित्य हिन्द का
    विश्व देश अपना सारा
    शहर गाँव परिवेश स्वच्छ लिख
    चिर सपने निज चौबारा

    अपनी श्वाँस थमे तो थम ले,
    तय है मृत्यु स्वाद चखना।
    आज………………………।।

    एक हाथ में थाम लेखनी,
    मन के भाव निकलने दो
    भाव गीत ऐसे रच डालो,
    जन के भाव सुलगने दो

    खून उबलने जब लग जाए,
    बोलें जन गण मन अपना।
    आज……………………,।।

    सवा अरब सीनों की ताकत,
    हर संकट पर भारी है
    ढाई अरब जब हाथ उठेंगे,
    कर पूरी तैयारी है

    सुनकर सिंह नाद भारत का,
    नष्ट वायरस, तय तपना।
    आज……………………।।

    बाबू लाल शर्मा *विज्ञ*
    बौहरा भवन
    सिकदरा,303326
    दौसा,राजस्थान,9782924479

    गोरी दर्पण देख रही है

    नयन सीप से, दाड़िम दंती,
    अधर पंखुरी, खोल सही।
    मन मतवाली रेशम चूनर
    गोरी .. दर्पण देख रही ।।

    झीनी चूनर बणी ठणी सी
    नयन कटोरी कजरारी
    चिबुक सुहानी, नागिन वेणी
    कटि तट झूमर शृंगारी

    मोहित हो जाए दर्पण भी
    पछुआ शीतल श्वाँस बही
    अधर…………………।।

    माँग सजी मोती से अनुपम
    नथ टीका कुण्डल चमके
    जल दर्शी है कंठ सुकंठी
    कंठहार झिल मिल दमके

    दर्पण क्या प्रति उत्तर देगा
    मन मानस में खड़ग गही।
    अधर……..।।

    कंगन चूड़ी हिना प्रदर्शित
    छिपा कभी यौवन अँगिया
    लाल गुलाबी नील वर्ण में
    यौवन वन महके बगिया

    शायद मन नवनीत तुम्हारा
    तन की चाहत मथन दही।
    अधर………….।।

    रात चाँदनी जैसी टिम टिम
    धानी चूनर मय लहँगा
    प्रीत पायलें कदली पद में
    स्वप्न फले सावन महँगा

    मन का अवगुंठन तो खोलो
    प्रीत रीत की बात कही।
    अधर…………………..।।

    ✍ ©
    बाबू लाल शर्मा, विज्ञ
    सिकंदरा,दौसा, राजस्थान

    शूल से अब प्रीत पलती

    भागे भँवरे ताप देखकर
    शूल से अब प्रीत पलती।
    मरुस्थली का नेह पाकर
    विरह की गंगा छलकती।।

    गगन भाल की बिंदी रूठी
    रात अमावस चमक रही
    रंग बहे गंगा की धारा
    श्वेत वसन तन दमक रही

    पीर विरह में डूब चकोरी
    लगती संध्या सी ढलती।
    मकरंद……………….।।

    सागर में मिल नदिया अपना
    बिम्ब खोजती पानी में
    ओस जमी सूखी रेती पर
    आँसू की मनमानी में

    अवगुंठन में सूखी पलकें
    आँसू की श्रद्धा छलती।
    मकरंद……………….।।

    रीत प्रीत आकाशी खेती
    संयोगों की आशा है
    बरसाती नालो से भू की
    बुझती कहाँ पिपासा है

    नेह मेह चाहत में वसुधा।
    प्रिय घन की माला भजती।
    मकरंद………………….।।


    बाबू लाल शर्मा *विज्ञ*
    बौहरा-भवन
    सिकंदरा दौसा राजस्थान

    शांत सागर सा हृदय ले

    शांत सागर सा हृदय ले
    मेघ बैठा नद किनारे।
    छंद मन में गुन गुना कर
    उम्र सावन की विचारे।।

    ले कुहासा भोर जगती
    धुंध की चादर लपेटे
    मेघ धरती पर उतर कर
    साँझ की शैय्या समेटे

    बाग की आशा सुलगती
    भृंग का पथ रथ सँवारे।
    शांत………………..।।

    शीत में सावन सरसता
    प्रीत की बदरी लुभाए
    आग हिय में भर सके वह
    पुष्प ही नव गंध लाए

    बिजलियों की आस लेकर
    चंद्र भी भूला सितारे।
    शांत………………।।

    नाव बिन माँझी सरकती
    रेत की पगडंडियों में
    नेह की पतवार बिकती
    आसमानी मंडियों में

    गीत सुन सुन कर हवाएँ
    आँधियों का रूप धारे।
    शांंत………………..।।

    प्यास से व्याकुल हुआ घन
    ओस सुमनो को टटोले
    आस भँवरे में जगी है
    गीत गा कर मन सतोले

    फूल का मन डोल जाता
    पंथ तितली का निहारे।
    शांत सागर सा हृदय ले
    मेघ ..बैठा नद किनारे।।

    ✍©
    बाबू लाल शर्मा *विज्ञ*
    बौहरा- भवन ३०३३२६
    सिकंदरा, जिला-दौसा

    राजस्थान ९७८२९२४४७९

    बना लेखनी वह कविता


    टूटे पंखों से लिख दूँ मैं,
    बना लेखनी वह कविता।
    स्वर दे दो मय भाव सनेही,
    बह जाए मन की सरिता।

    शब्द शब्द को ढूँढ़ ढूँढ़ कर,
    भाव पिरो दूँ मन भावन।
    ज्येष्ठ ताप पाठक को भाए,
    जैसे रमणी को सावन।
    मानव मानस मानवता हित,
    छंद लिखूँ भव शुभ फलिता।
    टूटे पंखों से लिख दूँ मैं,
    बना लेखनी वह कविता।

    बात बुजुर्गों के हित चित लिख,
    याद दिला दूँ बचपन की।
    बच्चों के कर्तव्य लिखूँ सब,
    समझ जगा दूँ पचपन की।
    बेटी बने सयानी पढ़ कर,
    वृद्धा गाए बन बनिता।
    टूटे पंखों से लिख दूँ मैं,
    बना लेखनी वह कविता।

    लिखूँ गुटरगूँ युगल कपोती,
    नाच उठे वन तरुणाई।
    मोर मोरनी नृत्य लिखूँ वन,
    बाज बजाए शहनाई।
    नीड़ सहेजे चील बया का,
    सारस बक संगत चकिता।
    टूटे पंखों से लिख दूँ मैं,
    बना लेखनी वह कविता।

    चातक पपिहा पीड़ा भूले,
    काग करे पिक से यारी।
    जंगल में मंगलमय फागुन,
    शेर दहाड़ें भयहारी।
    भालू चीता संगत चीतल,
    रखें धरा को शुभ हरिता।
    टूटे पंखों से लिख दूँ मैं,
    बना लेखनी वह कविता।

    श्रमिक किसानी पीड़ा हर लें,
    ऐसे भाव लिखूँ सुख कर।
    स्वेद सुगंधित जग पहचाने,
    कहें प्रसाधन विपदा कर।
    बने सत्य श्रम के जन साधक,
    भाव हरे तन मन थकिता।
    टूटे पंखों से लिख दूँ मैं,
    बना लेखनी वह कविता।

    राजनीति के धर्म लिखूँ कुछ,
    पावन शासक शासन हो।
    स्वच्छ बने सत्ता गलियारे,
    सरकारें जन भावन हो।
    ध्रुव तारे सम मतदाता बन,
    नायक चुनलें भल भविता।
    टूटे पंखों से लिख दूँ मैं,
    बना लेखनी वह कविता।

    प्रीत रीत से पाले जन मन,
    खिला खिला जीवन महके।
    कटुता द्वेष भूल हर मानव,
    मानस मनुज हँसे चहके।
    रिश्ते नाते निभें पड़ोसी,
    याद करें क्यों नर अरिता।
    टूटे पंखों से लिख दूँ मैं,
    बना लेखनी वह कविता।

    सोच विकासी भाव जगे भव,
    भूल युद्ध बन अविकारी।
    कर्तव्यों की होड़ मचे मन,
    बात भूल जन अधिकारी।
    देश देश में जगे बंधुता,
    विश्व राज्य की मम कमिता।
    टूटे पंखों से लिख दूँ मैं,
    बना लेखनी वह कविता।

    जय जवान लिख जय किसान की,
    जय विज्ञान लिखूँ जग हित।
    नारी का सम्मान करें सब,
    बिटिया को लिख दूँ शुभ चित।
    गौ धरती जग मात मान लें,
    समझें जग पालक सविता।
    टूटे पंखों से लिख दूँ मैं,
    बना लेखनी वह कविता।

    सागर नदी भूमि नभ प्राकृत,
    मानवता के हित लिख दूँ।
    लिख आभार पंख धर का मैं,
    कलम शारदे पद रख दूँ।
    पहले लिख कर निज मन मंशा,
    भाव जगा माँ शुभ शुचिता।
    टूटे पंखों से लिख दूँ मैं,
    बना लेखनी वह कविता।

    बाबू लाल शर्मा *विज्ञ*

    आज पंछी मौन सारे


    देख कर मौसम बिलखता
    आज पंछी मौन सारे
    शोर कल कल नद थमा है
    टूटते बस तट किनारे।।

    विश्व है बीमार या फिर
    मौत का तांडव धरा पर
    जीतना है युद्ध नित नित
    व्याधियों का तम हरा कर

    छा रहा नैराश्य नभ में
    रो रहे मिल चंद्र तारे।
    देख कर…………….।।

    सिंधु में लहरें उठी बस
    गर्जना क्यूँ खो गई है
    पर्वतो से पीर बहती
    दर्द की गंगा नई है

    रोजड़े रख दिव्य आँखे
    खेत फसलों को निहारे।
    देख कर……………..।।

    तितलियाँ लड़ती भ्रमर से
    मेल फुनगी से ततैया
    ओस आँखो की गई सब
    झूठ कहते गाय मैया

    प्रीति की सब रीत भूले
    मीत धरते शर करारे।
    देख कर………….।।

    राज की बातें विषैली
    गंध मद दर देवरों से
    बैर बिकते थोक में अब
    सत्य ले लो फुटकरों से

    ज्ञान की आँधी रुकी क्यों
    डूबते जल बिन शिकारे।
    देख कर……………….।।


    बाबू लाल शर्मा *विज्ञ*
    सिकंदरा,दौसा, राजस्थान

    आपके बिन सब अधूरी


    कल्पना यह कल्पना है,
    आपके बिन सब अधूरी।
    गया भूल भी मधुशाला,
    वह गुलाबी मद सरूरी।

    सो रही है भोर अब यह,
    जागरण हर यामिनी को।
    प्रीत की ठग रीत बदली,
    ठग रही है स्वामिनी को।
    दोष देना दोष है अब,
    प्रीत की बाजी कसूरी।
    कल्पना यह कल्पना है,
    आपके बिन सब अधूरी।

    प्रीत भूले रीत को जब,
    मन भटक जाता हमारा।
    भूल जाता गात कँपता,
    याद कर निश्चय तुम्हारा।
    सत्य को पहचानता मन,
    जगत की बाते फितूरी।
    कल्पना यह कल्पना है,
    आपके बिन सब अधूरी।

    उड़ रहा खग नाव सा मन,
    लौट कर आए वहीं पर।
    सोच लूँ मन मे भले सब,
    बात बस मन में रही हर।
    प्रेम घट अवरोध जाते,
    हो तनों मन में हजूरी।
    कल्पना यह कल्पना है,
    आपके बिन सब अधूरी।

    प्रेम सपन,तन पाश लगे,
    यह मन मे रही पिपासा।
    शेष जगत में बची नहीं,
    अपने मन में जिज्ञासा।
    आओ तो जी भर देखूँ,
    कर दो मन्शा यह पूरी।
    कल्पना यह कल्पना है,
    आपके बिन सब अधूरी।
    . °°°°°°°
    ✍©
    बाबू लाल शर्मा बौहरा
    सिकंदरा दौसा राजस्थान

    आज दलदल में फँसे हैं

    आज दलदल में फँसे है, प्राण भी!
    यह सरल मन चाहता अब, त्राण भी।

    तन मन लगा है नयन शर , घाव है!
    भटक रहा तन माँझी मन, नाव है!!
    चंदा चुभता हिय लगे, कृपाण भी!
    आज दलदल में फँसे हैं, प्राण भी!

    बैरिन सम ऋतु बासंती, लग रही!
    कूँक कोयल बन हलाहल, मन बही!!
    पढ़े मन अब चाह गरुड पुराण भी!
    आज दलदल में फँसे है, प्राण भी!!

    झूठे हृदय ठगे माया, रीति से!
    सदा पालता जग रिपुता,प्रीति से!!
    लगता है दिल होता पाषाण भी!
    आज दलदल में फँसे हैं, प्राण भी!!

    ✍©
    बाबू लाल शर्मा बौहरा
    सिकंदरा,दौसा, राजस्थान

    पीर जलाए आज विरह फिर

    पीर जलाए आज विरह फिर,बनती रीत!
    लम्बी विकट रात बिन नींदे, पुरवा शीत!

    लगता जैसे बीत गया युग, प्यार किये!
    जीर्ण वसन हो बटन टूटते, कौन सिँए!
    मिलन नहीं भूले से अब तो, बिछुड़े मीत!
    पीर जलाए आज विरह फिर, बनती रीत!

    याद रहीं बस याद तुम्हारी, भोली बात!
    बाकी तो सब जीवन अपने, खाए घात!
    कविता छंद भुलाकर लिखता, सनकी गीत!
    पीर जलाए आज विरह फिर, बनती रीत!

    नेह प्रेम में रूठ झगड़ना, मचना शोर!
    हर दिन ईद दिवाली जैसे, जगना भोर!
    हर निर्णय में हिस्सा किस्सा, हारे जीत!
    पीर जलाए आज विरह फिर,बनती रीत!

    याद सताती तन सुलगाती, बढ़ती पीर!
    जितना भी मन को समझाऊँ, घटता धीर!
    हुआ चिड़चिड़ा जीवन सजनी,नैन विनीत!
    पीर जलाए आज विरह फिर, बनती रीत!

    प्रीत रीत की ऋतुएँ रीती, होती साँझ!
    सुर सरगम मय तान सुरीली, बंशी बाँझ!
    सोच अगम पथ प्रीत पावनी, मन भयभीत!
    पीर जलाए आज विरह फिर, बनती रीत!

    सात जन्म का बंधन कह कर, बहके मान!
    आज अधूरी प्रीत रीत जन, मन पहचान!
    यह जीवन तो लगे प्रिया अब, जाना बीत!
    पीर जलाए आज विरह फिर, बनती रीत!


    ✍©
    बाबू लाल शर्मा बौहरा
    सिकंदरा दौसा राज

    पत्थर दिल कब पिघले

    लता लता को खाना चाहे,
    कली कली को निँगले!
    शिक्षा के उत्तम स्वर फूटे,
    जो रागों को निँगले!

    सत्य बिके नित चौराहे पर,
    गिरवी आस रखी है
    दूध दही घी डिब्बा बंदी,
    मदिरा खुली रखी है!
    विश्वासों की हत्या होती,
    पत्थर दिल कब पिघले!
    लता लता को खाना चाहे
    कली कली को निँगले!

    गला घुटा है यहाँ न्याय का,
    ईमानों का सौदा!
    कर्ज करें घी पीने वाले
    चाहे बिके घरौंदा!
    होड़ा होड़ी मची निँगोड़ी,
    किस्से भूले पिछले!
    लता लता को खाना चाहे,
    कली कली को निँगले!

    अण्डे मदिरा मांस बिक रहे,
    महँगे दामों ठप्पे से!
    हरे साग मक्खन गुड़ मट्ठा,
    गायब चप्पे चप्पे से!
    पढ़े लिखे ही मौन मूक हो,
    मोबाइल से निकले!
    लता लता को खाना चाहे,
    कली कली को निँगले!

    बेटी हित में भाषण झाड़े,
    भ्रूण लिंग जँचवाते!
    कहें दहेजी रीति विरोधी,
    बहु को वही जलाते!
    आदर्शो की जला होलिका
    कर्म करें नित निचले!
    लता लता को खाना चाहे,
    कली कली को निँगले!

    संस्कारों को फेंक रहे सब,
    नित कचरा ढेरों में!
    मात पिता वृद्धाश्रम भेजें
    प्रीत ढूँढ गैरों में!
    वृद्ध करे केशों को काले,
    भीड़ भाड़ में पिट ले!
    लता लता को खाना चाहे,
    कली कली को निँगले!


    ✍©
    बाबू लाल शर्मा बौहरा
    सिकंदरा दौसा राजस्थान

    सन्नाटों के कोलाहल में

    सन्नाटों के कोलाहल में
    नदियों के यौवन पर पहरा।
    लम्पट पोखर ताल तलैया
    सोच रहे सागर से गहरा।।
    . १
    ज्वार उठा सागर में भारी
    लहरों का उतरा है गहना
    डरे हुए आँधी अँधियारे
    वृक्ष गर्त में ठाने रहना।

    मन पंछी उन्मुक्त गगन उड़
    वापस नीड़ों में आ ठहरा।
    . २
    खेत खेत सूखी तरुणाई
    मुख पर चीर दुपट्टा बाँधे
    काल कहार मसलते देखो
    तेल हाथ ले अपने काँधे

    जूहू चौपाटी नदिया तट
    रक्तबीज का झण्डा फहरा।
    . ३
    कंचन कामी तरुण कामिनी
    लता चमेली मुँह को ढाँपे
    प्रेम गली पथ दीवारें तम
    शयन कक्ष भी थर थर काँपे

    मीत मिताई रिश्ते नाते
    रोक पंथ ही पढे ककहरा।
    . ४
    चौक चाँदनी जंतर मंतर
    पगडंडी पथ गलियारों के
    घूँघट के पट लगे हुए हैं
    माँझी नद खेवनहारों के
    लाशें शोर मचाएँ भारी
    पुतले देखें दहन दशहरा।
    सन्नाटों के…………..।।


    बाबू लाल शर्मा *विज्ञ*
    बौहरा – भवन, ९७८२९२४४७९
    सिकंदरा ,दौसा, राजस्थान ३०३३२६

    रूठ भले कैसे गाएँगे

    रूठ भले कैसे गाएँगे
    विलग चंद्रिका से राकेश।
    रश्मिरथी से बना दूरियाँ
    कब दमके नभ घन आवेश।।

    नित्य शिलाओं से टकराए
    बहती गंगा अविरल धार
    नौकाएँ जल चीर चीर कर
    करे पथिक को नदिया पार
    प्राकृत सृष्टा मेल रहे तब
    खिलता है नूतन परिवेश।
    रूठ…………………..।।

    धरा रूठ कर शशि से कैसे
    धवल चंद्रिका ओढे नित्य
    सागर पर्वत ग्रह पिण्डों को
    उर्जा देता है आदित्य
    करे नही वे भेद किसी से
    सम रखते हर देश विदेश।
    रूठ…………………….।।

    व्रती चातकी शशि को ताके
    व्याकुल उल्लू चीखे रात
    चकवा चकवी नित्य बिछुड़ते
    करते रहते दिन भर बात
    चकमक देता अग्नि तभी जब
    संघर्षण हो मीत विशेष।
    रूठ………………….।।

    छंद रूठ जाए कविता से
    जल बिन जीए कैसे मीन
    कवि से रूठ लेखनी छिटके
    स्वर देगी फिर कैसे बीन
    सात स्वरों के इंद्रधनुष को
    देख खिले घन श्यामल वेश।
    रूठ……………………..।।

    मनो मनाओ श्यामल केशी
    विलग करो मत वीणा तार
    शब्द लेखनी कवि मिल रचिए
    नव गीतों से नव संसार
    मन में प्राकृत भाव पिरो लो
    बिम्ब रहे क्यों कोई शेष।
    रूठ………………….।।


    बाबू लाल शर्मा *विज्ञ*
    सिकंदरा,दौसा,राजस्थान

    नेह की बरसात पावन

    चाह सागर से मिलन की
    पर्वतों से पीर पलती।
    मोम की मूरत समंदर
    प्रीत की नदिया मचलती।।

    नेत्र खोले झाँकता मुख
    नेह की बरसात पावन
    दर्द की सौगात खुशियाँ
    जन्म दृग ले नित्य सावन

    पाहनों को चूम कर ही
    नीर ले नर्मद निकलती।

    मोम के पुतले बुलाते
    मौन आँखों के इशारे
    नाव बिन माँझी चली है
    रेत के सागर किनारे

    केश कंटक से चुभे कर
    गाल पर गंगा छलकती।

    पेड़ से लिपटी लता को
    खींच चूमे रेत के कण
    आँधियों के ज्वार भाटे
    सिंधु थामें आवरण

    नासिका की श्वाँस से तप
    आह की दरिया झलकती।

    जब छुए पाहन हृदय को
    मेघ सा मन हिय धड़कता
    बन्द आँखो की लपट वन
    कौंध नभमंडल कड़कता

    मूर्ति से अभिसार करती
    जाह्नवी धारा उछलती।
    चाह सागर ………….


    बाबू लाल शर्मा *विज्ञ*
    सिकंदरा,दौसा, राजस्थान


  • अविनाश तिवारी की रचना

    अविनाश तिवारी की रचना

    कविता संग्रह
    कविता संग्रह

    मां मंदिर की आरती

    मां मंदिर की आरती,मस्जिद की अजान है।
    मां वेदों की मूल ऋचाएं, बाइबिल और कुरान है।

    मां है मरियम मेरी जैसी,
    मां में दिखे खुदाई है।
    मां में नूर ईश्वर का
    रब ही मां में समाई है।
    मां आंगन की तुलसी जैसी
    सुन्दर इक पुरवाई है।
    मां त्याग की मूरत जैसी
    मां ही पन्ना धाई है।।
    मां ही आदि शक्ति भवानी
    सृष्टि की श्रोत है
    मां ग्रन्थों की मूल आत्मा
    गीता की श्लोक है।
    मां नदिया का निर्मल पानी
    पर्वत की ऊंचाई है
    मां में बसे हैं काशी गंगा,
    मन की ये गहराई है।
    मां ही मेरा धर्म है समझो
    मां ही चारों धाम है।
    मां चन्दा की शीतल चाँदनी
    ईश्वर का वरदान है।
    अविनाश तिवारी

    गांधी फिर कभी आओगे

    नमन बापू नमन गांधी
    गांधी तुम फिर आओगे
    जनमानस के पटल पर
    छुद्र स्वार्थ हटाओगे।


    जाति पाती ही ध्येय बना
    सत्ता के गलियारों का
    सत्य अहिंसा नारे बन गए
    जनता को भरमाने का
    बढ़ती पशुता नग्नता सी
    कैसी वैचारिक विषमता है
    मानवता शर्मिंदा होती
    ये कैसी समरसता है।
    चरखा पर हम सूत कातते
    स्वालम्बन कभी सिखाओगे
    भटकी देश की जनता सारी
    गांधी फिर कभी आओगे


    खादी बन गया सपना देखो
    चरखा गरीब ही कात रहा
    नारा स्वदेशी का देते देते
    विदेशी को अपना रहा।
    सत्याग्रह को अस्त्र बनाकर
    स्वराज फिर लाओगे
    पूछ रही है जनता सारी
    गांधी फिर कब आओगे
    बापू तुम फिर आओगे।।



    अविनाश तिवारी
    अमोरा
    जांजगीर चाम्पा

    मैं भारत का लोकतंत्र

    मैं भारत का लोकतंत्र,
    जन गण मुझमें समाया है ।
    संसद मेरा मंदिर,
    जनता ने मुझे बनाया है ।।


    मैं गरीब की रोजी रोटी,
    भूखों का निवाला हूँ ।
    मैं जनों का स्वाभिमान भी
    भारत का रखवाला हूँ ।।

    मैं जन हूँ जनता के खातिर,
    जनता द्वारा पोषित हूँ ।
    बन अधिकार जनता का मैं,
    पौधा जन से रोपित हूँ ? ।।


    ऐसे जनतंत्र को दाग लगाने,
    भेड़चाल तुम न चलना ।
    मत बिकना कभी नोटों से,
    प्रजातन्त्र अमर रखना ।।


    कहना दिल्ली सिंहासन से,
    ये जनता का दरबार है।
    भूल से भी भरम न रखना,
    ये तेरी सरकार है ।।


    अमर हमारा लोकतंत्र है,
    खुशियां रोज मनाते हैं ।
    ईद दिवाली वैसाखी क्रिसमस,
    मिलकर हम मनाते हैं ।।

    अविनाश तिवारी
    अमोरा जांजगीर चाम्पा 495668
    मो-8224043737

    एक पाती प्रेम की

    एक पाती प्रेम की
    तेरे नाम लिख रहा हूँ,
    तेरी आँखों की सुरमई पे
    जीवन तेरे नाम कर रहा हूँ।

    तेरा आँचल जब लहराये
    क्यों मन मेरा हर्षाये
    तेरे अधरों की है लाली
    तेरी लटकती कान की बाली
    तेरे पग पग को कमल
    लिख रहा हूँ
    इक पाती प्रेम की
    तेरे नाम कर रहा हूँ।

    यूँ लट से गिरती बुँदे
    मोती सा जो दमके
    तेरी खनखनाती बोली
    तेरी हंसी तेरी ठिठोली
    बस यही इकरार कर रहा हूँ
    प्रिये प्रेम की प्रथम पाती
    तेरे नाम कर रहा हूँ।
    कैसे भेजूं किससे भेजूं
    दिल का दर्द कैसे सहेजूं
    दिन को तेरे लिये रात कह रहा हूँ
    प्रिये ये पाती तेरे नाम
    कर रहा हूँ।
    तेरा खिड़की पे आना वो पर्दा उठाना
    उठाकर गिराना
    गजब ढा जाता है।
    नयनों के बाण से घायल बनाना
    रिझाकर हमसे आँखे चुराना
    क्यों तुमको भाता है।
    तेरी जुल्फों के छांव की
    आस ढूंढ़ रहा हूँ।
    प्रिये प्रीत की प्रथम पाती
    तेरे नाम कर रहा हूँ।।

    अविनाश तिवारी
    अमोरा
    जांजगीर चाम्पा

    हमसफ़र पर कविता

    अख्श मेरा वो ऐसे मिटाने लगे,
    न मिले थे कभी ऐसे दिखाने लगे

    कल तलक बसते थे धड़कन में जिनके,
    आज पर्दे में मुँह को छुपाने लगे।
    अख्श मेरा………

    आंख झुकती रही कुछ कह न सकी,
    राज दिल मे ही खुद दबाने लगे।

    न पूछे थे हम क्यूँ प्यार तूने किया
    अश्क आंखों से वो यूं बहाने लगे।
    अख्श……….

    पास आये थे यूं बनेंगे हमसफ़र
    आज अपने से ही दूर जाने लगे।
    वफ़ा हमने  कि जो बेवफा न कहा
    दर्द दिल का था उसे बहलाने लगे।
    अख्श…………..


    अविनाश तिवारी
    अमोरा जांजगीर चाम्पा

    रोम रोम में बसते प्रभु तुम

    शून्यता से पूर्णता
    अनन्त तुम्हारा विस्तार है।
    सृष्टि के कण कण में विराजित
    तेरा ही साम्राज्य है।

    आख्यान तुम व्याख्यान  हो
    अपरिमेय संपूरित  ज्ञान हो
    हे अनादि अनदीश्वर तुम्ही
    सांख्य विषय कला और विज्ञान हो।

    सूत्र हो सूत्र धार हो
    नियति तुम करतार हो
    हो परिभाषित संचिता
    अपरिभाषित तुम भरतार हो।

    जग नियंत्रक परिपालक
    संहारक प्राणवान हो
    उदित जीव जीवात्मा
    के बस तुम्ही आधार हो।

    हूँ अबोध शिशु तेरा
    मर्म न तेरा जान सका
    आदि तुम अंत तुम
    परम् सत्य न पहचान सका।

    तुम नसों में बहते रुधिर
    स्वांस और उच्छ्वास हो
    रोम रोम में बसते प्रभु तुम
    प्रतिपल मेरे पास हो
    कण कण में निवास हो।

    अविनाश तिवारी

    कोई तो है-ईश्वरीय सत्ता पर कविता

    बीज से पौधा फिर बीज
    क्रम है निरन्तर
    नियंता भी है
    सुनो कोई तो है।

    सुख और दुख अंतर्निहित
    मन के भाव द्वन्दित
    इन्हें सुलझाता है कौन
    सुनो कोई तो है

    नदिया से गागर गागर में सागर
    बूंदों का बनना
    फिर नीचे गिरना
    क्रम अनवरत
    कोई तो है

    जीवन और मृत्यु
    चिर निरन्तर अनुक्रम
    पाप और मोक्ष
    कर्मो का निर्वहन
    संतृप्त की खोज
    आत्म अन्वेषण
    सुनो कोई तो है

    आत्मा परमात्मा
    परम् सुख जीवात्मा
    मोह का बन्धन
    प्रेम अनुबन्धन
    बंधे है सब नियति की डोर
    कोई तो है
    तो क्यो नकारते
    तुम अदृश्य सत्ता
    क्यों झुठलाते
    निर्विकार रूप
    सत्य असत्य की कसौटी
    परमेश्वर का सत
    हां यही है यही है
    अनादि अनीश्वर का रूप
    हां कोई तो है
    कोई तो है।

    @अवि
    अविनाश तिवारी
    अमोरा जांजगीर चाम्पा

  • महान क्रिकेटर कपिल देव पर कविता

    महान क्रिकेटर कपिल देव पर कविता

    महान क्रिकेटर कपिल देव पर कविता

    क्रिकेट के असली हीरो”कपिल देव”

    क्रिकेट के इतिहास में ,
    जिसने किया कुछ ऐसा काम।
    विश्वकप हासिल करके,
    रौशन किया देश का नाम।

    क्रिकेट का जुनून नहीं उस वक्त,
    आपने क्रिकेट के खेल को सजाया।
    विश्वकप का खिताब जमाकर,
    आपने देश का मान बढ़ाया।

    हर भारतीय को गर्व है आप पर,
    भारत माँ के लाल,
    विश्व क्रिकेट में जग जीता आपने,
    बेहतर किया कमाल।

    भारत रत्न नहीं मिला आपको,
    इसका कोई गम नहीं।
    विश्व क्रिकेट के महान खिलाड़ी,
    आप किसी से कम नहीं।

    पुरस्कार के मोहताज नहीं आप,
    न इसका कोई संताप है।
    खेल प्रेमियों के ह्रदय में बसे हो,
    क्रिकेट के असली हीरो आप है।

    ✍️ रचनाकार-महदीप जँघेल ग्राम- खमतराई, खैरागढ़ जिला- राजनांदगांव(छ.ग)

    महान क्रिकेटर कपिल देव

    लॉर्ड्स के मैदान में
    भारत का डंका बजाया
    महान क्रिकेटर कपिल देव ने
    विश्वकप जीतकर दिखाया

    वेस्टइंडीज था महारथी
    उसको भी धूल चटाया
    क्रिकेट के इस महाकुंभ में
    भारत का मान बढ़ाया

    अद्भुत जीवट के आप खिलाड़ी
    साहस का पाठ पढ़ाया
    प्रतिद्वंदीयों की थी शामत आई
    एक-एक कर सब को हराया

    गर्व है हर हिंदुस्तानी को आप पर
    चिर प्रतिक्षित गौरव दिलाया
    बदल सकते हैं हम भी किस्मत
    हर भारतीय को एहसास दिलाया

    आप जैसा खिलाड़ी बनना
    बड़े सौभाग्य की है बात
    विरले ही मिलती है जग में
    अनूठी जीवटता वाली यह सौगात

    – आशीष कुमार मोहनिया बिहार

  • शीत ऋतु (ठण्ड) पर कविता

    यहाँ पर शीत ऋतु (ठण्ड) पर कविता दिए गये हैं आपको कौन सी अच्छी लगी , नीचे कमेंट बॉक्स पर जरुर लिखें

    कविता संग्रह
    कविता संग्रह

    शीत ऋतु का आगमन

    घिरा कोहरा घनघोर
    गिरी शबनमी ओस की बूंदे
    बदन में होने लगी
    अविरत ठिठुरन

    ओझल हुई आंखों से
    लालिमा सूर्य की
    दुपहरी तक भी दुर्लभ
    हो रही प्रथम किरण

    इठलाती बलखाती
    बर्फ के फाहे बरसाती
    शीत ऋतु का हुआ
    शनैः शनैः आगमन

    रजाई का होने लगा इंतजाम
    गर्म कपड़ों से लिपटे बदन
    धधकने लगी लकड़ियां
    अलाव तक खींचे जाते जन-जन

    होने लगी रातें लंबी
    कहर बरपाने लगा पवन
    दो घड़ी में होने लगा है
    ढलती शाम से मिलन

    इठलाती बलखाती
    बर्फ के फाहे बरसाती
    शीत ऋतु का हुआ
    शनैः शनैः आगमन

    – आशीष कुमार , मोहनिया बिहार

    सर्दी देखो आयी है

    चुभन शूल सी पवन सुहानी, अपने सँग में लायी है।
    तन में कम्पन अरु सिकुड़न ले, सर्दी देखो आयी है।।

    दिवस हुए अब छोटे-छोटे, लम्बी-लम्बी रातें हैं,
    मक्खी मच्छर रहित सकल घर, सर्दी की सौगातें हैं,
    प्यारी-प्यारी धूप सुहानी, हर मन को अति भायी है।
    तन में कम्पन अरु सिकुड़न ले, सर्दी देखो आयी है।।

    मूली गाजर सजे खेत में, धनिये की है महक बड़ी,
    फलियों के सँग मन हरषाती, सजती प्यारी मटर खड़ी,
    पालक- मेथी- राई -सरसों, भी सँग में लहरायी है।
    तन में कम्पन अरु सिकुड़न ले, सर्दी देखो आयी है।।

    वृक्षों के तन से देखो तो, झर-झर पत्ते झड़ते हैं,
    अरु मानव के अंग-अंग में, ढ़ेरों कपड़े सजते हैं,
    नदिया चुप-चुप ऐसे बहती, जैसे अति शरमायी है।
    तन में कम्पन अरु सिकुड़न ले, सर्दी देखो आयी है।।

    अद्भुत पुष्पों से धरती की, शोभा लगती प्यारी है,
    ऊँचे-ऊँचे गिरि शिखरों पर, बर्फ़ छटा अति न्यारी है,
    चहुँ दिशि देखो साँझ-सवेरे, धुन्ध अनोखी छायी है।
    तन में कम्पन अरु सिकुड़न ले, सर्दी देखो आई है।।

    बन्द हो गये पंखे -कूलर, हीटर- गीजर शुरू हुए,
    दाँत बजें सबके ही किट-किट, ठण्डा पानी कौन छुए,
    सर्दी के डर से सबने ही, ली अब ओढ़ रजायी है।
    तन में कम्पन अरु सिकुड़न ले, सर्दी देखो आयी है।।

    कम्बल ओढ़े आग सेकते, मजे चाय के लेते हैं,
    गाजर- हलुआ गरम पकौड़े, मन को खुश कर देते हैं,
    गजक -रेवड़ी- मूँगफली भी, सबके मन को भायी है।
    तन में कम्पन अरु सिकुड़न ले, सर्दी देखो आयी है।।

    धनवान ले रहे मजे शीत के, निर्धन है लाचार हुआ,
    थर-थर काँपे गात हर घड़ी, क्यों यह अत्याचार हुआ?
    बेदर्दी मौसम तूने यह, कैसी ली अँगड़ायी है?
    तन में कम्पन अरु सिकुड़न ले, सर्दी देखो आयी है।।

    अंशी कमल
    श्रीनगर गढ़वाल, उत्तराखण्ड

    मौसमी धूप

    तन को है कितना भाती
    जाड़े की धूप गुनगुनी सी,
    मन मयूर को थिरकाती
    सर्दी की धूप कुनकुनी सी।

    चीर चदरिया कोहरे की
    धरती को छूती मखमल सी,
    ऐसे खिल जाती वसुंधरा
    जैसे कलिका कोमल सी।

    सूरज धीरे धीरे तपता
    धरा की ठंड चुरा ले जाता,
    यूं चुपके से बिना कहे ही
    सदियों की वो प्रीत निभाता।

    यही धूप कितना झुलसाती
    तन को निर्मम गर्मी में,
    मन को बहुत सताती है
    तपिश धूप की गर्मी में।

    सुबह सवेरे से छा जाती
    पांव पसारे वसुधा पर,
    सांझ ढले तक बहुत तपाती
    धरणी के अंतस्तल पर।

    मनभावन पावस में धरती
    खिलती नवल यौवना सी,
    जैसे लगे क्षितिज में गगन से
    मिलती किसी प्रियतमा सी।।

    स्वरचित शची श्रीवास्तव
    लखनऊ।

    शीत ऋतु

    ग्रीष्म ऋतु के ताप से तप कर आए हम,
    बरसातों की बौछारो से निकल कर आए हम।।

    शीत ऋतु की ठंडी हवाओ से खिल उठा है बदन,
    हरियाली है चारों ओर मौसम करे हमें मौन ।।

    खाने में आती है मिठास परिवार हो जाए संग,
    मिलकर बनाते मंगोड़ी, बड़ी,खजले, पापड़ का मौसम।।

    नया साल का होता आगमन फूलों में रहते हैं रंग,
    तरह तरह के रंग होते, स्वेटर चद्दर के संग।।

    ठंडी हवा के झोंको से, खिल उठता है मन,
    सिगड़ी में शेके आग सब मिल, परिवार रहता है संग।।

    सुबह-सुबह ओश की प्यारी बूंदे बिछ जाती चहू चोर,
    सुबह सुबह की प्यारी धूप शरीर में भरे उमंग।।

    संस्कार अग्रवाल

    जाड़ हा जनावथे

    सादा-सादा देख कुहरा आगे।
    खेत-खार मा धुंधरा छागे।

    रुख,राई कुहरा मा तोपागे हे।
    जईसे लागथे अंधरऊटी छागे हे।

    जुड़जुहा के दिन आगे।
    हाथ, गोड़ हा ठुनठुनागे।

    दांत हा किनकिनावथे।
    शरीर जन्मों घुरघुरावथे।

    अऊ जाड़ में चटके मोर गाल हे।
    बताना जी तुहर कईसे हाल हे।

    जीभ हा घेरी-बेरी होंठ ला चाटथे।
    मोर होंठ हा चटके-चटके लागथे।

    गोड़ हाथ में किश्म-किश्म के भेसलिन चुपरथे डोकरा।
    तभोच ले बाबा के हाथ गोड़ हा दिखथे खरभुसरा।

    पईरा, पेरवसी, छेना झिठी
    आनी-बानी के सकेल के लाथन।

    सुत उठ के बड़े बिहनिया ले,
    हमन जी भुर्री बारथन।

    शिताय पईरा ला काकी हा धुकना में धुकथे।
    मुड़ी ला नवा के कका हा आगी ला फुकथे।।

    नोनी हा लकर-लकर पईरा ला ओईरथे।
    सिताय पईरा हा गुगवा-गुगवा के बरथे।

    जल्दी बारव न रे तुहर से कईसे नई बरथे।
    काहथे बाबु हा जाड़ में हाथ गोड़ मोर ठुठरथे।

    बबा उठ गेहे खटिया ले।
    वो हा बड़े बिहनिया ले।

    आगी के अंगरा।
    मागथे डोकरा।।

    डोकरी हा काहथे में आगी बारे नईहव।
    जाड़ में जोड़ी गोरसी में छेना सुलगाये नईहव।

    मुंदहरा ले बिहनिया होंगे।
    बेरा टगागे, रोनिया होंगे।

    मुड़ी ले कंचपी अऊ शरीर ले न काकरो सेटर निकले हे।
    शहरिया बबा हा ठण्ठा ला देख के मार्निंग वाक में नई निकले हे।

    मोठ्ठा-मोठ्ठा बेलांकीट ओढ़े,तभोच ले जाड़ हा जनावथे।

    रात भर ये हाड़ा ला रहि-रहि के पुस के महिना हा कंपकपावथे।

    डोकरी-डोकरा बुढ्हा जवान माईपिल्ला सर्दियाये हे।

    अऊ नान-नान लईका मन
    के नाक ले रेमट बहाये हे।

    हाथ गोड़ सब ठन्ठा पड़गे।
    नाक,कान, ढढ्ढी सब ठुठरगे।

    हमर जईसे गरीब मनखे के जी ला लेवथे।
    एसो के जाड़ हा अबड़ लाहो लेवथे।

    कवि-बिसेन कुमार यादव’बिसु’

    शीत लहर

    भीतर तो सिहरन है तन में,
    बाहर बारिश बरस रही है।
    वृष्टि-सृष्टि दोनों ही मिलकर,
    महि अम्बर को सता रही है।।


    धरती अम्बर सिमट गए हैं,
    इक-दूजे से लिपट गए हैं ।
    बदली बनी हुई है चादर,
    मानों दोनों ओढ़ लिए हैं।।


    जीव-जंतु सब काँप रहे हैं,
    कठिन समय को भाँप रहे हैं।
    शीत लहर सी हवा चली है,
    अग्नि सुहानी ताप रहे हैं ।।


        केतन साहू “खेतिहर”
    बागबाहरा, महासमुंद(छग.)

    जाड़ पर कविता

    अबड़ लागत हे जाड़ संगी
    हाड़ा कपकपात हे।
    आँखि नाक दुनो कोती ले
    पानी ह बोहात हे।।
    अंगेठा सिरा गे भुर्री बुझागे
    रजाई के भीतरी खुसर के
    नींद ह भगागे।।


    संम्पन्नता के स्वेटर ह
    गोदरी ल् बिजरात हे
    गरीब मर के सड़क म
    इंसानियत शरमात हे
    कोनो के थाली म सीथा नई हे
    कोनो महफ़िल म वो फेकात हे
    कोनो जगह पानी नई हे
    कोनो जगह मदिरा बोहात हे
    तिल तिल के मरत इंसानियत ह
    त कोनो रास रंग मनात हे

    अविनाश तिवारी

    शीत में निर्धन का वस्त्र -अखबार

    काया काँपे शीत से, ओढ़े तन अखबार।
    शीत लहर है चल रही, पड़े ठंड की मार।
    पड़े ठंड की मार, नन्हा सा निर्धन बच्चा।
    शीत कहाँ दे चैन, नींद से लगता कच्चा।
    कहे पर्वणी दीन, दीन पर आफत आया।
    देख बाल है निरीह, ठंड से कांपे काया।।

    मानवता है गर्त में, सिमट गया संसार।
    कौन सुने निर्धन व्यथा, कौन बने आधार।
    कौन बने आधार, राह पर बच्चा सोया।
    सोया खाली पेट, भूख को अपना खोया।
    कहे पर्वणी दीन, बाल की देख विवशता।
    कैसा है संसार, शर्म में है मानवता।।

    खोया बचपन राह में, मिला नहीं सुख चैन।
    देख दृश्य करुणा भरा, बहे अश्रु है नैन।
    बहे अश्रु है नैन, देख कर कागज तन में।।
    ऐसा मिला आघात, नहीं है उष्ण बदन में।।
    कहे पर्वणी दीन, रूठ कर किस्मत सोया।
    हृदय बना पाषाण, सड़क पर बचपन खोया।।

    पद्मा साहू “पर्वणी” शिक्षिका
    जिला राजनांदगांव
    खैरागढ़ छत्तीसगढ़

    शीत ऋतु का अंदाज

    शीत ऋतु की ठंडी हवाएं,
    लगता मानो शरीर को चीर के निकल जाए।
    ठिठुरते-कांपते शरीर में भी दर्द हो जाता,
    जब सर्दी का पारा ऊपर चढ़ जाता।

    कंबल रजाई ओढ़ कर काम कोई कैसे करें?
    हीटर के आगे से हटने का मन ना करें ।
    हाथ सुन्न और पैर भी सुन्न हुआ जाता,
    बाहर जाने के नाम से ही दिल घबरा जाता ।

    पैरों में जुराब,कानों पर स्कार्फ सुहाता,
    कपड़ों की तहो में शरीर गोल मटोल बन जाता।
    गरम-गरम खाने से उठता धुआं अच्छा लगता,
    जरा भी ठंडा खाना बेस्वाद लगता।

    ठंडे पानी में हाथ डालने से भी भय लगता,
    रजाई में बैठ मूंगफली,रेवड़ी खाने का मजा आ जाता।
    दिन कब शुरू, कब खत्म हो जाता?
    घड़ी की घूमती सुईयों की तेजी का पता नहीं चलता।

    एक फायदा इस मौसम का बस यही नजर आता,
    बिना बिजली के भी आराम से सोया जाता।
    लगता है जल्द ही यह ऋतु निकल जाए,
    अब तो कड़कड़ाती सर्दी सहनशक्ति के पार हुई जाए।


    -पारुल जैन

    सर्दियों का है मिजाज

    मौसम की रंगत सर्दियों का है मिजाज।
    घनघोर है कोहरा प्रकति का है लिबास।
    देख तेरा बदलता ,आसमान का नजारा।
    लग गई जोरो से ठिठुरन,मानुष बेचारा।


    उड़ने लगी परिंदे आसमान में,
    मछली तैरने लगी समुद्र तल में।
    नभ की पक्षी ,जल की रानी,
    नहीं लगती ठंड इनको सारी।

    चलने लगी है हवाएं,सागर भी लहराए।
    बागों में खिली फूल,देखकर मन भाए।
    बढ़ती रातों की ठंड तनबदन कसमसाए।
    सुबह की जलती अंगेठिया दिल गुदगुदाए।

    कवि डीजेंद्र कुर्रे (भंवरपुर बसना)

    जाड़ा कर मारे ( सरगुजिहा गीत ) 

         
    जाड़ा कर मारे, कांपत हवे चोला
    बदरी आऊ पानी हर बइरी लागे मोला।
    गरु कोठारे बैला नरियात है,
    दूरा में बईठ के कुकुर भुंकात हवे,
    आगी तपात हवे गली गली टोला,
    जाड़ा कर मारे………


    पानी धीपाए के आज मै नहाएन
    चूल्हा में जोराए के बियारी बनाएन
    आज सकूल नई जाओ कहत हवे भोला
    जाड़ा कर मारे……


    बाबू हर कहत हवे भजिया खाहूं
    नोनी कहत है छेरी नई चराहूं
    संगवारी कहां जात हवे धरीस हवे झोला,
    जाड़ा कर मारे………….


    मधु गुप्ता “महक”