Blog

  • परोपकार पर हिंदी में कविता

    परोपकार पर हिंदी में कविता

    kavita-bahar-banner

    परोपकार पर कविता-सुधीर श्रीवास्तव

    संवेदनशील भाव
    संवेदनाओं के स्वर
    परोपकार की
    निःस्वार्थ भावना
    गैरों की चिंता से जोड़कर
    स्वेच्छा से सामने वाले की
    पीड़ा से/मर्म से
    खुद को जोड़ने की कोशिश ही
    परोपकार है।
    बिना लोभ मोह
    अपने पराये के भेद किये बिना
    किसी का सहयोग/सहायता ही
    तो परोपकार है,
    हमारे द्वारा किया गया
    परोपकार ही तो
    हमारी खुशियों का बेजोड़
    आधार है।
    परोपकार ही तो
    हमारी संस्कृति, सभ्यता
    और संस्कार है।

    सुधीर श्रीवास्तव
    गोण्डा(उ.प्र.)

    बस एक परोपकार करना – प्रवीण गौतम

    शीत ऋतु किसी के लिए पर्यटन है
    बर्फ में घूमने की मस्ती है।

    किसी को गलन वाली ठंड
    मानो ठंड चिढ़ा रही हो ।

    टूटी छत खुला आसमान
    चौड़ा सा आंगन शीत लहर।

    तुम घूमना बर्फ की चादर पर
    बस एक परोपकार करना ।

    जहां खुली कुटिया हो
    सिकुड़ता मानव हो ।

    स्टेशन पर किसी अजनवीको
    उसे बस एक कंबल उढा देना ।

    पीछे मुड़कर न देखना
    दिल की पुकार सुनकर।

    ईश्वर का फरिशता बन जाना ।
    उसका भरोसा आस्था ईश्वर है।

    प्रवीण गौतम

    करो परोपकार सभी निस्वार्थ – रेखा

    करो परोपकार सभी निस्वार्थ।

    पेड़-पौधे करते है जैसे ऑक्सिजन देकर मानव पर उपकार।

    सूरज करता है जैसे अपनी किरणों से रौशन ये संसार।

    नदियां बहती है जैसे चारों दिशाओं में बुझाने को प्राणियों का प्यास।

    सैनिक करते है जैसै देश कि रक्षा देकर अपने प्राण।

    किसान फसलो को जैसे उपजा कर करता है लोगो का कल्याण।

    करो सबकी सहायता भूलकर अपना स्वार्थ।

    रेखा
    गाजियाबाद (उ.प्र.)

    परोपकारी बने- सुरंजना पाण्डेय

    गुजारनी है तो जिन्दगी हमें
    कुछ इस नव विचारों से तो ,
    बनाना है हर पल को
    यादगार अपने तरीके से।
    हर पल को बनाना है बहुत शानदार
    रहना है यूं तो हमें नये सोच के सलीके से।
    कि लोग आपकी तो मिसाल दे
    होना है जीवन में सफल इतना कि
    सब आपकी कामयाबी की मिसाल दे।
    चुनने है सबसे खुबसुरत लम्हों को
    कैद करना है उनको दिल की तिजोरी में।
    सँजोने है हमें बेहिसाब से सपने
    बिताने है हँसी पल अपनो के संग में।
    यकीन मानिए उस दिन आप
    सच में भाग्यशाली इंसान कहलायेगे।
    जीवन में जब आप किसी के काम आयेगें
    करिए बेहिसाब मदद आप दूसरो की।
    तो हो सके तो आप परोपकारी बने
    पाइए बदले में हर मदद के आप
    दुआ ,प्यार और आर्शीवाद ढेरों सारा
    हर उस जरूरतमंदो से तो।
    फिर ना होगी कभी भी आपको
    किसी भी चीज की कमी आपको।
    आपका जीवन सच में तो सुन्दर बन जाएगा
    तब जा के सच्चे अर्थों में आप इंसान बनेगे।
    हो जायेगे आप अजीज सभी के लिए
    हो जाएगा आपका नाम अमिट सदा के लिए।
    तो आप सचमुच एक अमीर इन्सान कहलायेगे
    बनिए दिल से आप सदा ही तो अमीर
    धन से अमीर तो यहां सब ही होते है।
    जो अपने व्यवहार और कार्य से तो
    सबका दिल जीते वही सच्चे अर्थो में
    एक काबिल इन्सान और परोपकारी होता है।
    ✍️ सुरंजना पाण्डेय

    परहित – डॉ शशिकला अवस्थी

    जग को मानवता का पाठ पढ़ाना ।
    खुद भी मानव धर्म निभाना।
    परहित कर ,सभ्य समाज बनाना।
    दुख दर्द में सबको गले लगाना।
    तन -मन- धन देकर, परहित में जुट जाना।
    इस धरती पर स्वर्ग है लाना।
    कोई रहे ना भूखा प्यासा मदद पहुंचाना ।
    अन्न, वस्त्र, औषधि देकर ,दर्द बंटाना ।
    दया ,परहित धर्म ,सदा निभाना ।
    परोपकार करते, धरती के फरिश्ते बन जाना ।
    मुस्कुराहट मन भर के लुटाना।
    सब की हंसी खुशी में तुम मुस्काना।
    प्रगति पथ पर सब को आगे बढ़ाना।
    विश्व बंधुत्व भाव ,जन-जन में जगाना।
    आदर्श विचारों की पावन गंगा बहाना।
    राष्ट्रहित में जीना और कुर्बान हो जाना ।
    करोना महामारी में संवेदना जगाना।
    जरूरतमंदों की मदद में हाथ बढ़ाना।
    देशवासियों को भी परोपकार में लगाना।
    जग को मानवता का पाठ पढ़ाना।
    खुद भी मानव धर्म निभाना।

    रचयिता
    डॉ शशिकला अवस्थी, इंदौर
    मध्य प्रदेश

    परोपकार- ममता प्रीति श्रीवास्तव

    लू के थपेड़ों से लड़ लड़ के,
    जिसने जिलाया था तुझे।
    हो शीत ताप या बरसात,
    सीने लगाया था तुझे।

    खुद कष्ट सारे सहके,
    हर नाम कर दिया तुझे।
    देखा आज,,,
    मन अकिंचन दुखी हुवा,
    असहय पीड़ा से ग्रसित हुवा।
    स्निग्ध ममता से भरे चक्षु से,
    नित अश्रु धार बहे।

    जो भाव दुःख विषाद है,
    बयां करूं शब्दों में वो मेरा हाल ना।
    अस्थि पंजर सी काया,
    थे वो पत्थर बीन रहे।

    ट्रेन की पटरी किनारे,
    वो आसरा है ढूंढ रहे।
    जल की बूंद एक तो मिले,
    दो जून की रोटी मिले।

    इस आस में एक पिता,
    बूढ़ी अस्थियों से खेल रहा।
    क्या यही गति है?
    सोचूं मैं बावरी सी,
    व्याकुलता से भरी सी।

    स्नेह पूरित आगे बढ़ के,
    पैरों में मैं गिर पड़ीं।
    बूढ़ी काया में जान आई,
    बुझती आंखों में आस आई।

    देखा अपलक सोचा
    फिर बोला
    तू मेरी वही लाडली
    जो रहती थी मेरी गली।

    अश्रु की धारा उधर भी,
    अश्रु की धारा इधर भी।
    अविरल है चली।।

    स्नेहपुरित साथ पा के,
    सोया हुवा विश्वास जागा।
    बूढ़ी काया चल पड़ी,
    अधरों पर मुस्कान छाया।
    तोड़ी
    तोड़ी मैने सगाई,
    निष्ठुर हृदय इंसान से।
    जो पिता का सगा ना हुवा,
    वो क्या देगा सम्मान मुझे।।


    स्वरचित
    ममता प्रीति श्रीवास्तव (प्रधानाध्यापक) गोरखपुर, उत्तर -प्रदेश।

  • संस्कार(जीवन मूल्य) पर हिंदी कविता-सुरंजना पाण्डेय

    संस्कार(जीवन मूल्य) पर हिंदी कविता

    कविता संग्रह
    कविता संग्रह



    बलिदानों को क्यूँ कर रहे तिजारत यूं
    देश को क्यूँ बाट रहे हर रोज रहे हम यूं।
    अपनी देश की मिटटी को क्यों कर रहे
    यूं अपमानित क्यूँ अपनी ओछी हरकतों से।


    उठा रहे क्यूँ अपनो पे यूं शमशीरे तुम
    क्यूँ तौल रहे अपनो को यूं रख के तराजू में।
    जाति पाति के बंधन में झूठे पाखण्डो में
    आदर्शो और वाह्य आडम्बरो में यूं।


    सब व्यर्थ ही रह जाएगा तो यहां
    करते हो हाय तौब्बा हर रोज ही क्यों।
    अपनो का गला काटते हर रोज यूं
    सब खाली रह जाएगा तो यहां।


    खाली हाथ ही आए थे तुम बंदे
    खाली हाथ ही यहां से जाओगे तुम।
    शर्म करो कुछ तो अपने पे थोड़ा
    जीवन में अच्छे कर्म कुछ करो तुम।


    चार कंधो पे मुस्कान बिखरते जाओ तुम
    मरने का दुख हो सबको ऐसे दिल में बसो तुम।
    वरना पीढीयांँ भी कलंकित हो जाएगी
    तुम्हारी इन ओंछी गिरी हरकतो पे।


    अपने संस्कारो और आदर्शो पे गर्व करो तुम
    यूं ना धूल धूसरित करो अपने मर्यादा को तुम।
    पैमानो पे तौल सभी को यूं तो रोज क्यों
    शर्मिन्दा कर रहे क्युं तुम तो देश को क्यों।


    देश है अपना ये सबसे प्यारा सा तो
    भाईचारा और अपनापन बना रहने दे।
    मानवता को महामण्डित करो तुम
    यूं ना अपनी बेवजह की हरकतों
    से देश की मर्यादा का हर रोज।
    हम अपने हरकतों से यूं दहन ना करे
    जीवन मूल्यों को लेकर जीवन में आगे बढे हम।
    ✍️ सुरंजना पाण्डेय

  • जीवन मूल्य पर आधारित कविता-राजकिशोर धिरही

    जीवन मूल्य पर आधारित कविता

    कविता संग्रह
    कविता संग्रह


    कोई भी विपदा आ जाए,
    कभी नहीं घबराना।
    बाधाओं से लड़कर के ही,
    हमको बढ़ते जाना।।

    सत्य मार्ग में चलकर के हम,
    लक्ष्य सदा पा सकते ।
    कठिन डगर भी हो फिर भी हम,
    मंजिल तक जा सकते।।

    अधिकार मिले जो भी हमको,
    उसको पढ़ना होगा।
    वंचित करना चाहे हमको,
    आगे बढ़ना होगा।।

    भाईचारे की चाहत रख,
    प्रेम शांति से रहना।
    हम सब एक रहें दुनिया में,
    हाथ जोड़ के कहना।।

    अच्छा हो व्यवहार हमारा,
    यह है जिम्मेदारी।
    अडिग रहें जवाबदेही पर,
    नर हो या हो नारी।।

    सहनशील बनके रहना है,
    कभी नहीं हम हारे।
    गलती से कोई कुछ कह दे,
    उनको तो मत मारे।।

    राजकिशोर धिरही
    तिलई,जांजगीर छत्तीसगढ़


  • सेवा -प्रेम आधारित कविता-डॉ शशिकला अवस्थी

    सेवा -प्रेम आधारित कविता

    kavita

    सेवा ,प्रेम पुण्योदय से हो जाओ मालामाल।
    प्रभु खुशियों से झोली भर कर,
    हे मानव तुम्हें कर देंगे खुशहाल।
    जनहित के कार्य करो,
    कोई ना रहे बेहाल।
    परमार्थ में जीवन बीते,सबके
    जीवन में,उड़ाओ खुशी गुलाल।
    मन, कर्म ,वचन से सबके कष्ट हरो
    , तुम हो भारत माता के लाल।
    प्रकृति पर्यावरण के संरक्षक बनो ,
    भारत मातृभूमि कर देगी निहाल।
    धरती से गगन तक उमंग तरंग में,
    गांवों गीत ,हों सुंदर लय -ताल।
    नैतिकता ,मानवता पथ के राही बनो,
    दुनिया के लिए बनो मिशाल।

    रचयिता
    डॉ शशिकला अवस्थी, इंदौर

  • बाबूलाल शर्मा के लावणी छंद

    बाबूलाल शर्मा के लावणी छंद

    बाबूलाल शर्मा के लावणी छंद

    बाबूलाल शर्मा के लावणी छंद

    काव्य रंगोली- लावणी छंद


    पूजा की थाली सजती है
    अक्षत पुष्प रखें रोली।
    काव्यजगत में ध्रुव सी चमके,
    कवि प्रिया,काव्य रंगोली।

    हिन्दी साहित सृजन साधना,
    साध करे भाषा बोली।
    कविता गीत गजल चौपाई,
    लिखे कवि काव्य रंगोली।

    दोहा छंदबद्ध कविताई,
    मुक्तछंद,प्रीत ठिठोली।
    प्रेम रीति शृंगार सलौने,
    पढ़ि देख काव्य रंगोली।

    लिखे सभी पर्व की बातें,
    ईद दीवाली व होली।
    गंगा जमनी रीत निभाती,
    अरमान काव्य रंगोली।

    नीरज खिलते काव्य सरोवर,
    बीच सभा कविजन टोली।
    करे पुरस्कृत कलमकार को,
    यही वह काव्य रंगोली।

    रामायण गीता की बातें,
    बाइबिल कुरान सतोली।
    देश धर्म मर्याद मुसाफिर,
    पथ,यही काव्य रंगोली।

    देश सुरक्षा,सीमा रक्षा,
    शत्रु की छाती में गोली।
    जागरूक साहित्यिक प्रहरी,
    रहे प्रिय काव्य रंगोली।

    *बाबू लाल शर्मा “बौहरा”*

    प्यारी  पृथ्वी

    प्यारी  पृथ्वी  जीवन दात्री,
    सब  पिण्डों में, अनुपम है।
    जल,वायु का मिलन यहाँ पर,
    अनुकूलन भी उत्तम है।
    सब जीवो को जन्माती है,
    माँ  के जैसे पालन    भी।
    मौसम ऋतुएँ वर्षा,जल,का
    करती यह संचालन भी।
    ?
    सागर हित भी जगह बनाती,
    द्वीपों   में  यह बँटती  है।
    पर्वत नदियाँ ताल तलैया,
    सब के  संगत  लगती  है।
    मानव ने निज स्वार्थ सँजोये,
    देश   प्रदेशों  बाँट  दिया।
    पटरी  सड़के  पुल बाँधो से,
    माँ  का  दामन  पाट  दिया।
    ?
    इससे आगे सुख सुविधा मे,
    भवन,  इमारत  पथ भारी।
    कचरा  गन्द प्रदूषण बाधा,
    घिरती  यह  पृथ्वी  प्यारी।
    पेड़ वनस्पति जंगल जंगल,
    जीव जन्तु जड़ दोहन कर।
    प्राकृत की सब छटा बिगाड़े,
    मानव  ने  अन्धे   हो  कर।
    ?
    विपुल भार,सहती माँ धरती,
    निजतन  धारण करती है।
    अन,धन,जल,थल,जड़चेतन का,
    सब का पालन करती है।
    प्यारी पृथ्वी का संरक्षण,
    अपनी   जिम्मेदारी   हो।
    विश्व सुमाता पृथ्वी रक्षण,
    महती  सोच  हमारी  हो।
    ?
    माँ वसुधा सी अपनी माता,
    यह शृंगार नहीं जाए।
    आज नये संकल्प करें मनु,
    माँ की क्षमता बढ़ जाए।
    नाजायज पृथ्वी उत्पीड़न,
    विपदा को आमंत्रण है।
    धरती  माँ की इज्जत करना,
    वरना  प्रलय निमंत्रण है।
    ?
    पृथ्वी संग संतुलन छेड़ो,
    कीमत  चुकनी है  भारी।
    इतिहासो के पन्ने  पढ़लो,
    आपद ने संस्कृति मारी।
    प्यारी पृथ्वी प्यारी ही हो,
    ऐसी  सोच  हमारी    हो।
    सब जीवों से सम्मत रहना,
    वसुधा माँ सम प्यारी हो।
    ?
    माँ काया से,स्वस्थ रहे तो,
    मनु में क्या बीमारी हो।
    मन से सोच बनाले  मानव,
    कैसी, क्यों  लाचारी  हो।
    माँ पृथ्वी प्राणों की दाता,
    प्राणो  से   भी  प्यारी  है।
    पृथ्वी प्यारी माँ भी प्यारी,
    माँ   से   पृथ्वी  प्यारी है।
    ?
    मानव तुमको आजीवन ही,
    धरती  ने माँ सम पाला।
    बन,दानव तुमने वसुधा में,
    क्यूँ,तीव्र हलाहल डाला।
    मानव  ने  खो दी  मानवता,
    छुद्र स्वार्थ के फेरों में।
    माँ का अस्तित्व बना रहता,
    आशंका के घेरों में।
    ?
    वसुधा का श्रृंगार छिना अब
    पेड़  खतम वन कर डाले।
    जल, खनिजों का दोहन कर के,
    माँ के तन मन कर छाले।
    मातु मुकुट से मोती छीने,
    पर्वत नंगे  जीर्ण किए।
    माँ को घायल करता पागल,
    उन  घावों  को  कौन  सिंए।
    ?
    मातु नसों में अमरित बहता,
    सरिता दूषित क्यूँ कर दी।
    मलयागिरि सी हवा धरा पर,
    उसे  प्रदूषित क्यूँ कर दी ।
    मातृशक्ति गौरव अपमाने,
    मानव  भोले  अपराधी।
    जिस शक्ति को आर्यावर्त में,
    देव  शक्ति  ने  आराधी।
    ?
    मिला मनुज तन दैव दुर्लभम्,
    “वन्य भेड़िये” क्यूँ बनते।
    अपनी माँ अरु बहिन बेटियाँ,
    उनको भी तुम क्यों छलते।
    माँ की सुषमा नष्ट करे नित,
    कंकरीट तो मत सींचे।
    मातृ शक्ति की पैदाइश तुम,
    शुभ्र केश तो मत खींचे।
    ?
    ताल  तलैया  सागर,नाड़ी,
    नदियों को मत अपमानो।
    क्षितिजल,पावकगगन,समीरा,
    इनसे  मिल जीवन मानो।
    चेत अभी तो समय बचा है,
    करूँ जगत का आवाहन।
    बचा सके तो बचा मानवी,
    कर पृथ्वी का आराधन।
    ?
    शस्य श्यामला इस धरती को,
    आओ मिलकर नमन करें।
    पेड़ लगाकर उनको सींचे,
    वसुधा आँगन चमन करें।
    स्वच्छ जलाशय रहे हमारे,
    अति दोहन से बचना है।
    पर्यावरणन शुद्ध रखें हम,
    मुक्त प्रदूषण  रखना  है।
    ?
    ओजोन परत में छिद्र बढ़ा,
    उसका भी उपचार करें।
    कार्बन गैस की बढ़ी मात्रा,
    ईंधन  कम  संचार  करे।
    प्राणवायु भरपूर मिले यदि,
    कदम कदम पर पौधे हो।
    पर्यावरण प्रदूषण रोकें,
    वे  वैज्ञानिक  खोजें  हो।
    ?
    तरुवर पालें पूत सरीखा,
    सिर के बदले पेड़ बचे।
    पेड़ हमे जीवन देते है,
    मानव-प्राकृत नेह बचे।
    गउ बचे संग पशुधन सारा,
    चिड़िया,मोर पपीहे भी।
    वन्य वनज,ये जलज जीव ये,
    सर्प  सरीसृप गोहें भी।
    ?
    धरा संतुलन बना रहे ये,
    कंकरीट वन कम कर दो।
    धरती का शृंगार करो सब,
    तरु वन वनज अभय वर दो।
    पर्यावरण सुरक्षा से हम,
    नव जीवन पा सकते हैं।
    जीव जगत सबका हित साधें,
    नेह गीत  गा सकते  हैं।

    बाबू लाल शर्मा “बौहरा”

    बेटी -बाबूलाल शर्मा (लावणी छंद)


    बेटी है अनमोल धरा पर,
    उत्तम अनुपम  सौगातें।
    सृष्टि नियंता मात् पुरुष की,
    ईश जनम जिससे पाते।

    बेटी से घर आँगन खिलता,
    परिजन प्रियजन सब हित में।
    इनका भी सम्मान करें ये
    जीवन बाती परहित में।

    बेटी सबकी रहे लाड़ली,
    सबको वह दुलराती है।
    ईश भजन सी शुद्ध दुआएँ,
    माँ बनकर सहलाती हैं।

    बेटी तो वरदान ईश का ,
    जो दुख सुख को भी साधे।
    बहिन बने तो आशीषों से,
    रक्ष सूत बंधन बाँधे।

    मात पिता घर रोशन करती,
    पिय घर जाकर उजियाली।
    मकानात को घर कर देती,
    घर लक्ष्मी ज्यों दीवाली।

    बेटी जिनके घर ना जन्मे,
    लगे भूतहा वह तो घर।
    जिस घर बेटी चिड़िया चहके,
    उस घर में काहे का डर।

    मर्यादा बेटी से निभती,
    बहु बनती है लाड़ो जब।
    रीत प्रीत के किस्से कहती,
    नानी दादी बनती तब।

    दुर्गा सी रण चण्डी बनती,
    मातृभूमि की रक्षा को।
    कौन भूलता भारत भू पर,
    रानी झाँसी,इन्द्रा को।

    करे कल्पना अंतरिक्ष की,
    सच में सुता कल्पना थी।
    पेड़ के बदले शीश कटाए,
    उनके संग अमृता थी।

    सिय सावित्री राधा मीरा,
    रजिया पद्मा याद करो।
    अनुराधा व लता के गीतों,
    संगत भी आह्लाद भरो।

    शिक्षा और चिकित्सा देखो,
    पीछे कब ये रहती हैं।
    दिल दूखे तब पूछूँ सबसे,
    अनाचार क्यों सहती है।

    जग जननी को गर्भ मारते,
    हम ही तो सब दोषी हैं।
    नारिशक्ति को जो अपमाने,
    पूर्वाग्रह संपोषी है।

    बेटी का सम्मान करें हम,
    नारि शक्ति को सनमाने।
    विविध रूप संपोषे इनके,
    सुता शक्ति को पहचाने।

    इनको बस इनका हक चाहे,
    लाड़ प्यार अकसर दे दो।
    आसमान छू लेंगी तय है,
    बेटे ज्यों अवसर दे दो।

    बाबू लाल शर्मा “बौहरा”
    सिकंदरा,303326
    दौसा,राजस्थान,9782924479

    पर्यावरण संरक्षण


    .(लावणी छंद १६,१४)

    सुनो मनुज इस,अखिल विश्व में,
    पृथ्वी पर जीवन कितने।
    पृथ्वी जैसे पिण्ड घूमते,
    अंतरिक्ष में वे कितने।।

    नभ में गंगा , सूरज मंडल,
    कैसे,किसने बना दिए।
    इतने तारे,चन्द्र, पिण्ड,ग्रह,
    उप ग्रह कितने गिना दिए।।

    पृथ्वी पर जल वायू जीवन,
    और सभी सामान सजे।
    सबसे सुन्दर मनुज बना है,
    मनु ने कितने साज सृजे।।

    ईश सृष्टि और मानव निर्मित,
    दृग से दिख रहे आवरण।
    चहूँ मुखी है अर्थ समाहित,
    मिल कर बने पर्यावरण ।।

    मानव विकास के ही निमित्त,
    नित नूतन इतिहास रचें।
    इसी दौड़ में भूल रहे मनु ,
    पर्यावरण जरूर बचे।।

    पर्यावरण जरूर संतुलन
    स्वच्छ,स्वस्थ आवरण रहे।
    मनु बस मानवता अपनाले,
    शुद्ध,सत्य , सदाचरण हो।।

    मातप्रकृति ब्रह्माण्ड सुसृष्टा,
    कुल संचालन करती है।
    सूर्य, चन्द्र, नक्षत्र, सितारे,
    ग्रह, उपग्रह, सरती है।।

    जगमाता का रक्षण वंदन,
    पर्यावरण सुरक्षण कर।
    ब्रह्माण्ड संतुलन बना रहे,
    अपना मन संकल्पित कर।

    मात् प्रकृति,है माता जननी,
    सृष्टा का साम्राज्य चले।
    आज अभी संकल्प करे हम,
    माता समता रहे भले।।

    नीर प्रदूषण, वायु प्रदूषण,
    भू प्रदूषण,ध्वनि प्रदूषण।
    अमन प्रदूषण,गगन प्रदूषण,
    मानव मन, मनो प्रदूषण।

    ओजोन पर्त भी भेद रहे,
    नितनूतन राकेटो से।
    अंतरिक्ष में भेज उपग्रह,
    नभ वन में आखेटों से।।

    ‘ग्रीनहाउस इफेक्ट’ चलाते,
    तापमान भू का बढ़ता।
    ध्रुवक्षेत्रों की बर्फ पिघलती,
    सागर जल थल को चढ़ता।

    कहीं बाढ़ है,सूख कहीं है,
    कंकरीट के वन भारी।
    प्राकृत से यूँ खेल खेलना,
    बस हल्की सोच हमारी।।

    एटम बम या युद्ध परीक्षण,
    नये नये हथियार,खाद।
    देश,होड़ से दौड़ मे दौड़े,
    नित नित करे विवाद।।

    “बीती ताहि बिसारि मनुज” तू
    जीवन की तैयारी कर।
    पेड़ लगे बचे पर्यावरण,
    संरक्षण तैयारी कर।

    पर्यावरण अशुद्ध रहा तो,
    जीवन क्या बच पाएगा।
    वरना प्यारे, मनुज हमारे,
    धरा धरा रह जाएगा।
    . ____
    बाबू लाल शर्मा,बौहरा


    धरा पुत्र


    अन्न उगाए, कर्म देश हित,
    कुछ अधिकार इन्हे भी दो।
    मेघ मल्हारें दे न सको तो,
    मन आभार इन्हे भी दो।
    टीन , छप्परों में रह लेता,
    जगते जगते..सो लेता।
    धूप,शीत,में हँसता रहता,
    गिरे शीत हिम रो लेता।

    वर्षा रूठ रही तो क्या है,
    वर्ष निकलते रहतें है।
    फसलें सूखे तो तन सूखे,
    विवश सिसकते रहतें है।
    बच्चों की शिक्षा भी कैसी,
    अन पढ़ जैसे रहतें है।
    कर्जे ,गिरवी , घर के खर्चे,
    सदा ठिनकते ..रहतें है।

    वही दिगम्बर खेतों का नृप
    जून दिसम्बर रहा खड़े।
    हक मांगे तो मिलें गोलियाँ,
    या नंगे तन बैंत पड़े।
    फसल बचे तो सेठ चुकेगा,
    पिछले कर्जे ब्याज धरे।
    बिजली बिल, अरु बैंक उधारी ,
    मनु , राधा की फीस भरे।

    बिटिया के कर करने,पीले
    माता का उपचार करे।
    खर्च बहुत राजस्व मुकदमे,
    गिरते घर पर छान धरे।
    सब की थाली भरे सदा वह
    रूखी रोटी खाता है।
    सब को दूध दही घी देता,
    बिना छाछ रह जाता है।

    रहन रखे अपने खेतों कोे,
    बैंको में रिरियाता है।
    सबको अन्न खिलाने वाला,
    खुद क्यों फाँसी खाता है?
    धरती के धीर सपूतों की,
    साधें सच में पूरी हों।
    आने वाली पीढ़ी को भी,
    कुछ सौगात जरूरी हों।

    इससे ज्यादा धरा पूत को,
    कब कोई दरकार रहीं।
    आप और हम नही सुन रहे,
    सुने राम, सरकार नहीं।
    धरा पुत्र अधिकार चाहता,
    हक उसका,खैरात नहीं।
    मत भूलो इस मजबूरी में,
    इससे बढ़ सौगात नहीं।

    जाग उठे ये भूमि पुत्र तो,
    फिर – सिंहासन खैर नहीं।
    लोकतंत्र की सरकारों के,
    निर्धारक ये, गैर नहीं।
    ठाठ बाट अय्याश तम्हारे,
    होली जला जला देंगे।
    सत्ता की रबड़ी भूलोगे,
    मिथ भ्रम सभी गला देंगे।

    भू सपूत भगवान हमारे,
    सच वरदान यही तो हैं।
    फटेहाल यह जब रहते हो,
    लगे मशान मही तो है।
    धरा देश की सोना उगले,
    गौरव गान किसानी का।
    सोने की चिड़िया कहलाया,
    यह, वरदान, किसानी का।

    इनके तो पेट रहे चिपके
    दूध दही तुम. .पीते हों।
    सबके हित में दुख ये झेलेे,
    मौज, तुम्ही बस जीते हो।
    इनके हक, को छीन,छीन कर,
    ठाठ बाट तुम जीते हो।
    इनके घर को जीर्ण शीर्ण कर,
    राज मद्य तुम पीते हो।

    वोट किसानी, जीते हो तुम,
    पुश्तैनी जागीर नहीं।
    ठकुर सुहाती करे किसी की,
    कृषकों की तासीर नहीं।
    सुनो सभी नेता शासन के,
    भारी अमला सरकारी।
    अगर किसानो को तड़पाया
    भूलोगे सब अय्यारी।

    परिवर्तन का चक्र चला तो,
    सुन्दर साज जलेंं वे सब।
    इनको खोने को क्या, बोलो,
    कोठी,कार जलेंगे तब।।
    राज, राम, से हार रहे ये
    गैरो की औकात नहीं।
    धरा पुत्र हो दुखी देश में,
    ….शेष शर्म की बात नहीं।

    जयजवान,या जयकिसान के,
    … नारों का सम्मान करें।
    पर …साकार तभी ये होंगें,
    कृषकों के.. अरमान सरे।
    खाद,बीज ,औजार दवाएँ,
    बिना दाम बिजली दे दो।
    जीने का अधिकार दिला कर,
    संगत काम इन्हे दे दो।

    पीने और सिँचाई लायक,
    जल ,की सुविधा दिलवादो।
    मंदिर, मस्जिद मुद्दों पहले,
    …..घर शौचालय बनवा दो।
    हँसते सुबहो, शाम दिखे ये,
    मन का मान दिला दो जन।
    बच्चों का पालन हो जाए,
    नव अरमान दिला दो मन।


    बाबू लाल शर्मा ‘बौहरा’ विज्ञ
    सिकंदरा,303326

    मातृशक्ति

    जननी आँचल,भूमि धरातल,
    पावन भावन होता है।
    मानस करनी दैत्य सरीखी,
    अहसासो को खोता है।
    路‍♀
    मानव तन को माँ आजीवन,
    भू ने भी माँ सम पाला।
    बन,दानव तुमने वसुधा में,
    तीव्र हलाहल क्यूँ डाला।
    路‍♀
    मानव  ने  खो दी  मानवता,
    छुद्र स्वार्थ के फेरों में।
    बना हुआ अस्तित्व मात का,
    आशंका के घेरों में।
    路‍♀
    वसुधा का शृंगार छीन कर,
    जन, वन पेड़ काट डाले।
    जल,खनिजों का अति दोहन कर,
    माँ के तन मन दे छाले।
    路‍♀
    मात् मुकुट से मोती छीने,
    पर्वत नंगे जीर्ण किए।
    मानव  घायल होती माता,
    उन घावों को कौन सिंए।
    路‍♀
    अमृत मात् के नस नस बहता,
    सरिताएँ  दूषित कर दी।
    मलयागिरि सी पवन धरा पर,
    उसे  प्रदूषित क्यूँ  कर दी।
    路‍♀
    मातृशक्ति गौरव अपमाने,
    ओ मन,भोले अपराधी।
    जिस माता को आर्य सभ्यता,
    देव शक्ति ने आराधी।
    路‍♀
    मिला मनुज तन दैव दुर्लभम्,
    “वन्य भेड़िये”  क्यों बनते हो।
    अपनी माँ अरु बहिन बेटियां,
    उनको तुम क्यों छलते हो।
    路‍♀
    माँ की सुषमा नष्ट करे नित,
    कंकरीट से उसको क्यों भींचे।
    मातृ शक्ति की पैदाइश हो,
    शुभ्र केश फिर क्यों खींचे।
    路‍♀
    ताल तलैया सागर,नाड़ी,
    नदियों को मत अपमानो।
    क्षिति,जल,पावक,गगन,समीरा,
    इनसे  मिल जीवन मानो।
    路‍♀
    माँ तो दुर्लभ अमरित फल है,
    समझ सको तो कद्र करो।
    माँ की सेवा सात धाम फल,
    भव सागर से पार तरो।

    बाबू लाल शर्मा “बौहरा”

    गया साल ये गया गया

    साल गया फिर नूतन आता
    ऐसा चलता आया है।
    हम भी कभी हिसाब लगालें,
    क्या खोया क्या पाया है।

    ईस्वी सन या देशी सम्वत,
    फर्क करें बेमानी है।
    साथ समय के चलना सीखें,
    बात यही ईमानी है।

    साल गया हर साल गया जो,
    आगे भी फिर जाएगा।
    गया समय लौट नहीं आता,
    वह इतिहास कहाएगा।

    समय कीमती कद्र करो तो,
    सारे काम सुहाने हो,
    समय गँवाना जीवन खोना,
    लगते सब बेगाने हो।

    इसीलिए समय संग सीखो,
    सुर व कदम ताल मिलाना।
    सतत सजग जीवन में रहना।
    जग के व्यवहार निभाना।

    जाने कितने साल बीतते,
    कोई गया नया आता।
    कीर्ति बची बस शेष किसी की,
    बीत गया जो कब पाता।

    इतिहास लिखे जाते जिनके,
    मानव वर्ष कभी होते।
    शेष वेश जीवन व समय को,
    मन के वश में ही खोते।

    इसीलिए सब जतन करो जी,
    आने वाला साल नया।
    पीछे पछतावा न कभी हो,
    गया साल ये गया गया।

    बाबू लाल शर्मा “बौहरा”

    माँ

    दिव्य जनों के,देव लोक से,
    कैसे,नाम भुलाएँगे।
    कैसे बन्धुः इन्द्रधनुष के
    प्यारे रंग चुराएँगे।

    सिंधु,पिण्ड,नभ,हरि,मानव भी
    उऋण कभी हो पाएँगें?
    माँ के प्रतिरूपों का बोलो,
    कैसे कर्ज चुकाएँगे।

    माँ को अर्पित और समर्पित,
    अक्षर,शब्द सहेजे है।
    उठी लेखनी मेरे कर से,
    भाव *मातु* ने भेजे है।

    पश्चिम की आँधी में अपना,
    निर्मल मन, क्यों बहकाएँ।
    आज नया संकल्प करें हम,
    *माँ* की ऋजुता महकाएँ।

    *मात्* प्रकृति ब्रह्माण्ड सुसृष्टा,
    कुल संचालन करती है।
    सूरज,चन्द्र,नक्षत्र,सितारे,
    ग्रह,उप ग्रह,सब सरती है।

    जग माता का रक्षण वंदन,
    पर्यावरण सुरक्षा हो।
    ब्रह्माण्ड संतुलन बना रहे,
    निज मन में यह इच्छा हों।

    माता प्राकृत,माता जननी,
    सृष्टि क्रम सदैव चलाए।
    आज नया संकल्प करे हम,
    *माँ*, की समता महकाएँ।

    *माँ* धरती सहती विपुल भार,
    तन पर धारण करती है।
    अन,धन,जल,थल,जड़ चेतन के,
    सम् पालन जो करती है।

    इस धरती का संरक्षण तो,
    अपनी जिम्मेदारी हो।
    विश्व *सुमाता* पृथ्वी रक्षण,
    महती सोच हमारी हो।

    माँ,वसुधा सम् अपनी माता,
    माँ का श्रृंगार न जाए।
    आज नया संकल्प करें हम,
    *माँ*, की क्षमता महकाएँ।
    *मात* भारती,स्वयं देश की,
    आरती नित्य उतारती।
    निज संतति के सृजन कर्म से,
    सर्व सौभाग्य सँवारती।

    माँ, बलिवेदी प्रज्वल्य रहे,
    बस इतना अरमान रहे।
    दुष्ट जनों के आतंको से,
    मुक्त रहे *माँ* ध्यान रहे।

    भारत माता सी निज माता,
    माँ के हित शीश नवाएं।
    आज नया संकल्प करे हम,
    *माँ* की ममता महकाएँ।

    *मात्* शारदे सबको वर दे,
    तम हर ज्योति विज्ञान दें।
    शिक्षा से ही जीवन सुधरे,
    वे संस्कार सम्मान दे।

    चले लेखनी सतत हमारी,
    ब्रह्मसुता अभिनंंदन में।
    सैनिक,कृषक,श्रमिक,माता,के,
    मानवता के वंदन में। उठा लेखनी, ऐसा रच दें,
    सारे काज सँवर जाए।
    आज नया संकल्प करें हम,
    *माँ* की शिक्षा महकाएँ।

    *माँ* जननी है हर दुख हरनी,
    प्राणों का जो सृजन करे।
    सर्व समर्पित करती हम पर,
    निज श्वाँसों से श्वाँस भरे।

    माँ के हाथों की रोटी का,
    रस स्वादन पकवान परे।
    माँ की बड़ बड़ वाली लोरी,
    सप्त स्वरों से तान परे।

    माँ का आँचल स्वर्गिक सुन्दर,
    कैसे गौरव गान करें।
    माँ के चरणों में जन्नत है,
    क्या,क्या हम गुणगान करें।

    माँ की ममता मान सरोवर,
    सप्तधाम सेवा फल है।
    माँ का तप हिमगिरि से ऊँचा,
    हम भी उस तप के बल है।

    माँ की सारी बाते लिख दे
    किस की वह औकात अरे।
    वसुन्धरा को कागज करले,
    सागर यदि मसिपात्र करे।

    और लेखनी छोटी पड़ती,
    सब वृक्षों को कलम करे।
    राम,खुदा,सत संत,पीर,जन,
    माँ के चरणों नमन करे।

    उस माँ का सम्मान करें हम,
    वह भी शुभफल को पाए।
    सोच समर्पण की रखले तो,
    वृद्धाश्रम  *माँ* क्यों जाए।

    मातृशक्ति जन की जननी है,
    बात समझ यह आ जाए।
    आज नया संकल्प करें हम,
    *माँ* की सत्ता  महकाएँ।

    *गौमाता* है खान गुणों की,
    भारत में सनमानी है।
    युगों युगों से महिमा इसकी,
    जन गण मन ने मानी है।

    भौतिकता की चकाचौंध में,
    गौ,कुपोषित हो न जाएँ।
    अल्प श्रमी हम बने अगर तो,
    गौ कशी, हरकत न आए।

    निज माता सम् गौ माता हो,
    भाव भक्तिमय बन पाए।
    आज नया संकल्प करे हम,
    *माँ* की शुचिता महकाएँ ।

    *माँ* गंगा,माँ यमुना,नर्मद,
    कावेरी सी सरिताएँ।
    वसुधा का श्रृंगार करें ये,
    लगे खेत ज्यों वनिताएँ।

    इनका भी सम्मान करें ये,
    तृषिता कभी न हो पाएँ।
    सब पापों को हरने वाली,
    *माँ*  न प्रदूषित हो जाएँ।

    सरिताएँ अरु माता निर्मल,
    निर्मल मन साज सजाएँ।
    आज नया संकल्प करें हम,
    *माँ* पावनता महकाएँ।

    मैने शब्द सुमन चुन चुन के,
    शब्दमाल में गिन जोड़े।
    भाव,सुगंध वीणापाणि के,
    मैने  दोनो कर जोड़े।

    मात् कृपा से हर मानव को,
    मानवता सुधि आ जाए।
    आज नया संकल्प करें हम
    *माँ* वरदानी हो जाए।
           
    *बाबू लाल शर्मा “बौहरा”*

    अमर शहीद

    आजादी के हित नायक थे,
    .        उनको शीश झुकाते हैं।
    भगत सिह सुखदेव राजगुरु,
    .         अमर शहीद कहातें हैं।
    *भगतसिंह* तो बीज मंत्र सम,
    .          जीवित है अरमानों में।
    भारत भरत व भगतसिंह को,
    .            गिनते है सम्मानों में। *राजगुरू* आदर्श हमारे,
    .          नव पीढ़ी की थाती है।
    इंकलाब की ज्योति जलाती,
    .         दीपक  वाली  बाती है।
    *सुख देव* बसे हर बच्चे में,
    .          मात भारती चाहत है।
    जब तक इनका नाम रहेगा,
    .         अमर तिरंगा भारत है। जिनकी गूँज सुनाई देती,
    .          अंग्रेज़ों की छाती में।
    वे हूंकार लिखे हम भेजें,
    .          वीर शहीदी पाती में।
    इन्द्रधनुष के रंग बने वे,
    .          आजादी के परवाने।
    उन बेटों को याद रखें हम,
    .        वीर शहादत सनमाने। याद बसी हैं इन बेटों की,
    .          भारत माँ की यादों में।
    बोल सुनाई देते अब भी,
    .            इंकलाब के नादों में।
    तस्वीरों को देख आज भी,
    .            सीने  फूले  जाते हैं।
    उनके देशप्रेम के वादे,
    .       सैनिक आन निभाते हैं। वीर शहीदी परंपरा को,
    .        उनकी  याद  निभाएँगे।
    शीश कटे तो कटे हमारे,
    .       ध्वज का मान  बढ़ाएँगे।
    श्रद्धांजलि हो यही हमारी,
               भारत माँ के पूतों को।
    याद रखें पीढ़ी दर पीढ़ी,
    .          सच्चे  वीर सपूतों को।

    बाबू लाल शर्मा,”बौहरा”

    आतंकवाद एक खतरा

    खतरा बना आज यह भारी,विश्व प्रताड़ित है सारा।
    देखो कर लो गौर मानवी, मनु विकास इससे हारा।

    देश देश में उन्मादी नर, आतंकी बन जाते हैं।
    धर्म वाद आधार बना कर, धन दौलत पा जाते हैं।

    भाई चारा तोड़ आपसी, सद्भावों को मिटा रहे।
    हो,अशांत परिवेश समाजी,अपनों को ये पिटा रहे।

    भय आतंकवाद का खतरा, दुनिया में मँडराता है।
    पाक पड़ौसी इनको निशदिन,देखो गले लगाता है।

    मानवता के शत्रु बने ये,जो खुद के भी सगे नहीं।
    कट्टरता उन्माद खून में, गद्दारी की लहर बही।

    बम विस्फोटों से बारूदी,करे धमाके नित नाशक।
    मानव बम भी यह बन जाते, आतंकी ऐसे पातक।

    अपहरणों की नित्य कथाएँ, हत्या लूट डकैती की।
    करें तस्करी चोरी करते, आदत जिन्हे फिरौती की।

    मादक द्रव्य रखें, पहुँचाए,हथियारों का नित धंधे।
    आतंकी उन्मादी होकर, बन जाते है मति अंधे।

    रूस चीन जापान ब्रिटानी,अमरीका तक फैल रहे।
    भारत की स्वर्गिक घाटी में,देखें सज्जन दहल रहे।

    बने सख्त कानून विश्व में, मारें बिन सुनवाई के।
    मानवता भू रहे शांति पथ, हित देखो जगताई के।

    जेल भरे मत बैठो इनसे, रक्षा खातिर बंद करो।
    वैदेशिक नीति कुछ बदलो, तुष्टिकरण पाबंद करो।

    गोली का उत्तर तोपों से, अब तो हमको देना है।
    मानवता को घाव दिए जो, उनका बदला लेना है।

    गोली मारो फाँसी टाँगो, प्रजा हवाले इन्हे करो।
    उड़ा तोप से सभी ठिकाने,कहदो अपनी मौत मरो।

    जगें देश मानवता हित में, सोच बनालें सब ऐसी।
    करो सफाया आतंकी का, सूत्र निकालो अन्वेषी।

    मिलें देश सब संकल्पित हों, आतंकी जाड़े खोएँ।
    विश्वराज्य की करें कल्पना,बीज विकासी ही बोएँ।

    बाबू लाल शर्मा,बौहरा
    सिकंदरा,दौसा, राजस्थान

    लेखनी

    एक हाथ में थाम लेखनी,
    गीत स्वच्छ भारत लिखना
    दूजे कर में झाड़ू लेकर,
    घर आँगन तन सा रखना
    स्वच्छ रहे तन मन सा आंगन,
    घर परिवेश वतन अपना
    शासन की मर्यादा मानें
    सफल रहेगा हर सपना

    अपनी श्वाँस थमें तो थम लें,
    जगती जड़ जंगम रखना
    जग कल्याणी आदर्शों में
    तय है मृत्यु स्वाद चखना
    आदर्शो की जले न होली
    मेरी चिता जले तो जल
    कलम बचेगी शब्द अमर कर,
    स्वच्छ पीढ़ि सीखें अविरल

    रुके नही श्वाँसों से पहले
    मेरी कलम रहे चलती
    जाने कितनी आस पिपासा
    इन शब्दों को पढ़ पलती
    स्वच्छ रखूँ साहित्य हिन्द का
    विश्व देश अपना सारा
    शहर गाँव परिवेश स्वच्छ लिख
    चिर सपने सो चौबारा

    आज लेखनी रुकने मत दो,
    मन के भाव निकलने दो।
    भाव गीत ऐसे रच डालो,
    जन के भाव सुलगने दो।
    जग जाए लहू उबाल सखे,
    भारत जन गण मन कह दो।
    आग लगादे जो संकट को,
    वह अंगार उगलने दो।

    सवा अरब सीनों की ताकत,
    हर संकट पर भारी है।
    ढाई अरब जब हाथ उठेंगे,
    कर पूरी तैयारी है।
    सुनकर सिंह नाद भारत का,
    हिल जाएगी यह वसुधा।
    काँप उठें नापाक वायरस,
    रच दे कवि ऐसी समिधा।

    कविजन ऐसे गीत रचो तुम,
    मंथन हो मन आनव का,
    सुनकर ही जग दहल उठे दिल,
    संकटकारी दानव का।
    जन मन में आक्रोश जगादो,
    देश प्रेम की ज्वाला हो।
    मानवता मन जाग उठे बस,
    जग कल्याणी हाला हो।

    आनव=मानवोचित
    बाबू लाल शर्मा विज्ञ