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  • प्रकृति की पीड़ा – माला पहल

    प्रकृति की पीड़ा – माला पहल

    प्रकृति की पीड़ा – माला पहल

    Global-Warming-
    Global-Warming-

    हे प्यारी प्रकृति,
    तुझ में आ रही विकृति,
    तू बन जा अनुभूति,
    विनाश को न दे तू आकृति,
    तू रच ऐसी सुंदर सुकृति।


    संभाल ले, तू कर उद्धार ,
    भूमंडल में मच रहा हाहाकार, कौन होगा इसका जिम्मेदार?
    हे मानव! कर प्रकृति पर उपकार,
    मत मचा तू इतना शोर ,
    होगी विकृति तो न चलेगा तेरा जोर।


    सभी प्रदूषण से बेजार,
    साँस लेना भी हो गया दुस्वार
    जीने के लिए करना होगा इंतजार
    न कर चूक तू बारंबार,
    सोच ले तू एक बार
    धरा से अंबर तक कर ले तू सुधार ,
    विश्व में होगी तेरी जय जयकार।

    माला पहल मुंबई

  • मुकुटधर पांडेय की लोकप्रिय कवितायेँ

    यहाँ पर मुकुटधर पांडेय की कुछ लोकप्रिय कवितायेँ प्रस्तुत की जा रही हैं जो भी आपको अच्छा लगे कमेट कर जरुर बताएँगे

    मुकुटधर पांडेय की लोकप्रिय कवितायेँ
    hindi poet and their poetry

    मेरा प्रकृति प्रेम / मुकुटधर पांडेय

    हरित पल्लवित नववृक्षों के दृश्य मनोहर
    होते मुझको विश्व बीच हैं जैसे सुखकर
    सुखकर वैसे अन्य दृश्य होते न कभी हैं
    उनके आगे तुच्छ परम ने मुझे सभी हैं ।

    छोटे, छोटे झरने जो बहते सुखदाई
    जिनकी अद्भुत शोभा सुखमय होती भाई
    पथरीले पर्वत विशाल वृक्षों से सज्जित
    बड़े-बड़े बागों को जो करते हैं लज्जित।

    लता विटप की ओट जहाँ गाते हैं द्विजगण
    शुक, मैना हारील जहाँ करते हैं विचरण
    ऐसे सुंदर दृश्य देख सुख होता जैसा
    और वस्तुओं से न कभी होता सुख वैसा।

    छोटे-छोटे ताल पद्म से पूरित सुंदर
    बड़े-बड़े मैदान दूब छाई श्यामलतर
    भाँति-भाँति की लता वल्लरी हैं जो सारी
    ये सब मुझको सदा हृदय से लगती न्यारी।

    इन्हें देखकर मन मेरा प्रसन्न होता है
    सांसारिक दुःख ताप तभी छिन में खोता है
    पर्वत के नीचे अथवा सरिता के तट पर
    होता हूँ मैं सुखी बड़ा स्वच्छंद विचरकर।

    नाले नदी समुद्र तथा बन बाग घनेरे
    जग में नाना दृश्य प्रकृति ने चहुँदिशि घेरे
    तरुओं पर बैठे ये द्विजगण चहक रहे हैं
    खिले फूल सानंद हास मुख महक रहे हैं ।

    वन में त्रिविध बयार सुगंधित फैल रही है
    कुसुम व्याज से अहा चित्रमय हुई मही है
    बौर अम्ब कदम्ब सरस सौरभ फैलाते
    गुनगुन करते भ्रमर वृंद उन पर मंडराते ।

    इन दृश्यों को देख हृदय मेरा भर जाता
    बारबार अवलोकन कर भी नहीं अघाता
    देखूँ नित नव विविध प्राकृतिक दृश्य गुणाकर
    यही विनय मैं करता तुझसे हे करुणाकर ।

    वर्षा-बहार / मुकुटधर पांडेय

    वर्षा-बहार सब के, मन को लुभा रही है
    नभ में छटा अनूठी, घनघोर छा रही है ।

    बिजली चमक रही है, बादल गरज रहे हैं
    पानी बरस रहा है, झरने भी ये बहे हैं ।

    चलती हवा है ठंडी, हिलती हैं डालियाँ सब
    बागों में गीत सुंदर, गाती हैं मालिनें अब ।

    तालों में जीव चलचर, अति हैं प्रसन्न होते
    फिरते लखो पपीहे, हैं ग्रीष्म ताप खोते ।

    करते हैं नृत्य वन में, देखो ये मोर सारे
    मेंढक लुभा रहे हैं, गाकर सुगीत प्यारे ।

    खिलते गुलाब कैसा, सौरभ उड़ रहा है
    बाग़ों में ख़ूब सुख से आमोद छा रहा है ।

    चलते हैं हंस कहीं पर, बाँधे कतार सुंदर
    गाते हैं गीत कैसे, लेते किसान मनहर ।

    इस भाँति है, अनोखी वर्षा-बहार भू पर
    सारे जगत की शोभा, निर्भर है इसके ऊपर ।

    गाँधी के प्रति / मुकुटधर पांडेय

    तुम शुद्ध बुद्ध की परम्परा में आये
    मानव थे ऐसे, देख कि देव लजाये
    भारत के ही क्यों, अखिल लोक के भ्राता
    तुम आये बन दलितों के भाग्य विधाता!

    तुम समता का संदेश सुनाने आये
    भूले-भटकों को मार्ग दिखाने आये
    पशु-बल की बर्बरता की दुर्दम आंधी
    पथ से न तुम्हें निज डिगा सकी हे गाँधी!

    जीवन का किसने गीत अनूठा गाया
    इस मर्त्यलोक में किसने अमृत बहाया
    गूँजती आज भी किसकी प्रोज्वल वाणी
    कविता-सी सुन्दर सरल और कल्याणी!

    हे स्थितप्रज्ञ, हे व्रती, तपस्वी त्यागी
    हे अनासक्त, हे भक्त, विरक्त विरागी
    हे सत्य-अहिंसा-साधक, हे सन्यासी
    हे राम-नाम आराधक दृढ़ विश्वासी!

    हे धीर-वीर-गंभीर, महामानव हे
    हे प्रियदर्शन, जीवन दर्शन, अभिनव है
    घन अंधकार में बन प्रकाश तुम आये
    कवि कौन, तुम्हारे जो समग्र गुण गाये?

    तुलसीदास / मुकुटधर पांडेय

    कहाँ उद्दाम काम अविराम, वासनाविद्ध रूप का राग
    कहाँ उपरति का उर में उदय, निमिष में ऐसा तीव्र विराग
    राम को अर्पित तन-मन-प्राण, राम का नाम जीवनाधार
    कहाँ प्रिय पुर-परिजन-परिवेश? बन गया अखिल लोक परिवार
    किया तुमने विचरण स्वच्छन्द, वन्य निर्झर सा हो गतिमान
    किया मुखरित वन-गिरि, पुरग्राम, राम का गा-गाकर गुन गान
    तुम्हारा काव्यामृत कर पान, हृदय की बुझी चिरन्तन प्यास
    जी उठी मानवता म्रियमाण, हुआ मानव का चरम विकास।
    दिव्य, उद्गार, सुदिव्य विचार, दिव्यतर रचना छन्द प्रबन्ध
    शब्द झरते हैं जैसे फूल, टपकता पद-पद पर मकरन्द
    बहाकर भाषा में सुपवित्र, भक्ति गंगा की निर्मल धार
    कर दिया तुमने यह उन्मुक्त, लोक के लिए मुक्ति का द्वार।
    बिना तप के न सत्व की सिद्धि, बिना तप के न आत्म-संघर्ष
    काव्य में तुमने किया सयत्न, प्रतिष्ठित एक उच्च आदर्श
    त्याग जीवन का इष्ट न भोग, धर्म का वांछनीय विस्तार
    विजय का लक्ष्य नहीं साम्राज्य, लक्ष्य दानवता का संहार।
    तुम्हारे यशोगान में लग्न, सतत नत मस्तक देश-विदेश
    गूँजता मानस महिमासागर, मौक्तिकों का अप्रतिम निधान
    उन्हें जो चुगता है कर यत्न, कृती वह राजहंस मतिमान।
    विश्व वाङ्मय का है शृंगार, हिन्द हिन्दी का है अभिमान
    राष्ट्र को है अनुपम अवदान, तुम्हारा ‘मानस’ ग्रन्थ महान
    कलित कविता सहज विलास, राम का चारु चरित्र प्रकाश
    तुम्हारी वाणी में विश्वास, धन्य हो, तुम हे तुलसीदास!

    ग्राम्य जीवन / मुकुटधर पांडेय

    छोटे-छोटे भवन स्वच्छ अति दृष्टि मनोहर आते हैं
    रत्न जटित प्रासादों से भी बढ़कर शोभा पाते हैं
    बट-पीपल की शीतल छाया फैली कैसी है चहुँ ओर
    द्विजगण सुन्दर गान सुनाते नृत्य कहीं दिखलाते मोर ।

    शान्ति पूर्ण लघु ग्राम बड़ा ही सुखमय होता है भाई
    देखो नगरों से भी बढ़कर इनकी शोभा अधिकाई
    कपट द्वेष छलहीन यहाँ के रहने वाले चतुर किसान
    दिवस बिताते हैं प्रफुलित चित, करते अतिथि द्विजों का मान ।

    आस-पास में है फुलवारी कहीं-कहीं पर बाग अनूप
    केले नारंगी के तरुगण दिखालते हैं सुन्दर रूप
    नूतन मीठे फल बागों से नित खाने को मिलते हैं ।
    देने को फुलेस–सा सौरभ पुष्प यहाँ नित खिलते हैं।

    पास जलाशय के खेतों में ईख खड़ी लहराती है
    हरी भरी यह फसल धान की कृषकों के मन भाती है
    खेतों में आते ये देखो हिरणों के बच्चे चुप-चाप
    यहाँ नहीं हैं छली शिकारी धरते सुख से पदचाप

    कभी-कभी कृषकों के बालक उन्हें पकड़ने जाते हैं
    दौड़-दौड़ के थक जाते वे कहाँ पकड़ में आते हैं ।
    बहता एक सुनिर्मल झरना कल-कल शब्द सुनाता है
    मानों कृषकों को उन्नति के लिए मार्ग बतलाता है

    गोधन चरते कैसे सुन्दर गल घंटी बजती सुख मूल
    चरवाहे फिरते हैं सुख से देखो ये तटनी के फूल
    ग्राम्य जनों को लभ्य सदा है सब प्रकार सुख शांति अपार
    झंझट हीन बिताते जीवन करते दान धर्म सुखसार.

    किसान / मुकुटधर पांडेय

    धन्य तुम ग्रामीण किसान
    सरलता-प्रिय औदार्य-निधान
    छोड़ जन संकुल नगर-निवास
    किया क्यों विजन ग्राम में गेह
    नहीं प्रासादों की कुछ चाह
    कुटीरों से क्यों इतना नेह
    विलासों की मंजुल मुसकान
    मोहती क्यों न तुम्हारे प्राण!
    तीर सम चलती चपल समीर
    अग्रहायण की आधी रात
    खोलकर यह अपना खलिहान
    खड़े हो क्यों तुम कम्पित गात
    उच्च स्वर से गा गाकर गान
    किसे तुम करते हो आह्वान
    सहन कर कष्ट अनेक प्रकार
    किया करते हो काल-क्षेप
    धूल से भरे कभी हैं केश
    कभी अंगों में पंक प्रलेप
    प्राप्त करने को क्या वरदान
    तपस्या का यह कठिन विधान
    स्वीय श्रम-सुधा-सलिल से सींच
    खेत में उपजाते जो नाज
    युगल कर से उसको हे बंधु
    लुटा देते हो तुम निर्व्याज
    विश्व का करते हो कल्याण
    त्याग का रख आदर्श महान
    लिए फल-फूलों का उपहार
    खड़ा यह जो छोटा सा बाग
    न केवल वह दु्रमवेलि समूह
    तुम्हारा मूर्तिमन्त अनुराग
    हृदय का यह आदान-प्रदान
    कहाँ सीखा तुमने मतिमान

    देखते कभी-शस्य-शृंगार
    कभी सुनते खग-कुल-कलगीर
    कुसुम कोई कुम्हलाया देख
    बहा देते नयनों से नीर
    प्रकृति की अहो कृती सन्तान
    तुम्हारा है न कहीं उपमान!

    राज महलों का वह ऐश्वर्य
    राजमुकुटों का रत्न प्रकाश
    इन्हीं खेतों की अल्प विभूति
    इन्हीं के हल का मृदु हास
    स्वयं सह तिरस्करण अपमान
    अन्य को करते गौरवदान

    विश्व वैभव के स्रोत महान
    तुम्हारा है न कहीं उपमान!

    खोमचा वाला / मुकुटधर पांडेय

    खड़ी आज खोई-खोई सी
    कैसे ठेला गाड़ी?
    मौन प्रतीक्षा में है तू किसकी
    आँखे किए अगाड़ी?
    असमयमें हैकहाँ घूमने
    गया खोमचा वाला
    अब तक ढोने तुझे न आया
    लिए बालटी प्याला
    दही बड़े आलू की टिकिया
    फूल की थाल सजाता
    चने चटपटे चाट चकाचक
    की आवाज लगाता
    बन्द कोठरी लगा हुआ है
    दरवाजे पर ताला
    सौदा सुल्फा कर लौटा क्या
    नहीं खोमचावाला?
    देख रही तू राह किसी की
    देती शकल गवाही
    काश! लौट, मिल पाता तुझसे
    वह चिर-पथ का राही!

    ग्रीष्म / मुकुटधर पांडेय

    बीते दिवस बसन्त के, लगा ज्येष्ठ का मास
    विश्व व्यथित करने लगा, रवि किरणों का त्रास

    अवनी आतप से लगी, जलने सब ही हाल
    जीव, जन्तु चर-अचर सब, हुए अमिल बेहाल

    रवि मयूख के ताप से, झुलस गये बन बाग
    सूखे सरिता सर तथा, नाले कूप तड़ाग

    लगी आग पुर ग्राम में, चिन्ता बढ़ी अपार
    नर नारी व्याकुल बसे, भय सदैव उर धार

    धनी लोग मार्तण्ड का, देख प्रचण्ड प्रकाश
    शान्ति प्राप्ति के हेतु अब, चले हिमालय पास

    नृप, रईस, धन पति सभी, दोपहरी के बेर
    सोते निज निज भवन में, खस की टट्टी घेर

    पर गरीब, निर्धन सकल, सहते रवि का ताप
    कोस रहे हैं कर्म को, करते पश्चाताप

    तरबूजों, ककड़ी तथा, बर्फ और बादाम
    पके आम-फल आदि के, अब बढ़ते हैं दाम

    फिर जब आवेगा अही, सुखमय वर्षा-काल
    हो जावेगा जगत का, पुनः अन्य ही हाल

    बाल परिचायक / मुकुटधर पांडेय

    लॉज के है परिचायक बाल
    काश होते लक्ष्मी केलाल
    बीत पाया न अभी कैशोर
    टूट पाए न दूध के दाँत
    उनींदी आँखों में है तात्
    काट दी तुमने सारी रात।

    हाथ में ले उशीर का व्यजन,
    छतों पर सोते हैं श्रीमान्
    मुक्त नभ के नीचे भी क्यों न
    छटपटाते हैं उनके प्राण
    कुन्द घर के अन्दर बेहाल,
    भूमि पर पड़े चीथड़ा डाल।

    मिला है तुमको कितना रूप
    काश, तुम पाते उसे सम्हार
    असित अलकों का जाल निहार
    अलि-अवलि हो जाती बलिहार

    मुख-कमल हुआ तुम्हारा म्लान
    ग्रीष्म में उस पर पड़ा तुषार
    लॉज की रखते हो तुम लाज
    लाज भी लजा रही है आज।

    कुररी के प्रति / मुकुटधर पांडेय

    बता मुझे ऐ विहग विदेशी अपने जी की बात
    पिछड़ा था तू कहाँ, आ रहा जो कर इतनी रात
    निद्रा में जा पड़े कभी के ग्राम-मनुज स्वच्छंद
    अन्य विहग भी निज नीड़ों में सोते हैं सानन्द
    इस नीरव घटिका में उड़ता है तू चिन्तित गात
    पिछड़ा था तू कहाँ, हुई क्यों तुझको इतनी रात ?

    देख किसी माया प्रान्तर का चित्रित चारु दुकूल ?
    क्या तेरा मन मोहजाल में गया कहीं था भूल ?
    क्या उसका सौन्दर्य-सुरा से उठा हृदय तव ऊब ?
    या आशा की मरीचिका से छला गया तू खूब ?
    या होकर दिग्भ्रान्त लिया था तूने पथ प्रतिकूल ?
    किसी प्रलोभन में पड़ अथवा गया कहीं था भूल ?

    अन्तरिक्ष में करता है तू क्यों अनवरत बिलाप ?
    ऐसी दारुण व्यथा तुझे क्या है किसका परिताप ?
    किसी गुप्त दुष्कृति की स्मृति क्या उठी हृदय में जाग
    जला रही है तुझको अथवा प्रिय वियोग की आग ?
    शून्य गगन में कौन सुनेगा तेरा विपुल विलाप ?
    बता कौन सी व्यथा तुझे है, है किसका परिताप ?

    यह ज्योत्सना रजनी हर सकती क्या तेरा न विषाद ?
    या तुझको निज-जन्मभूमि की सता रही है याद ?
    विमल व्योम में टँगे मनोहर मणियों के ये दीप
    इन्द्रजाल तू उन्हें समझ कर जाता है न समीप
    यह कैसा भय-मय विभ्रम है कैसा यह उन्माद ?
    नहीं ठहरता तू, आई क्या तुझे गेह की याद ?

    कितनी दूर कहाँ किस दिशि में तेरा नित्य निवास
    विहग विदेशी आने का क्यों किया यहाँ आयास
    वहाँ कौन नक्षत्र–वृन्द करता आलोक प्रदान ?
    गाती है तटिनी उस भू की बता कौन सा गान ?
    कैसा स्निग्ध समीरण चलता कैसी वहाँ सुवास
    किया यहाँ आने का तूने कैसे यह आयास ?

    (शरद,बसन्त) श्रीशारदा साहित्य सदन ,रायगढ़ ,संपादक डाँ. बलदेव 1984″ विश्वबोध कविता संग्रह” से साभार

  • श्रीमती पदमा साहू की 10 कवितायेँ

    कविता संग्रह
    कविता संग्रह

    नारी का साहस

    जग में नारी का अवतार चार,
    माता , भार्या, पुत्री, बहना।
    सौम्य स्वभाव ,त्याग ,सेवा ,
    नारी का है अद्भुत गहना।
    नारी साहस, प्रेरणा की मूर्ति ,
    ममता ,वात्सल्य नारी का खजाना।
    नारी है गृहस्ती का पहिया,
    परिवार की आस्था और भावना।
    रणक्षेत्र में दुर्गा ,लक्ष्मी नारी ।
    समाज रक्षक शत्रु संहारणा ।
    प्राचीन नारी का गौरव देखो ,
    बनके उभरी सामाजिक संरचना।
    पशु बलि के पाप कारण,
    तजा विवाह श्रमणा ने अपना।
    विदुषी नारी का साहस देखो,
    गार्गी ने की वेद ऋचा की रचना।
    विश्वरा, घोसा,देवयानी,
    वैदिक काल की बनी प्रेरणा।
    सती अनुसुइया की ममता देखो,
    त्रिदेव बाल बनाएं झुलाए पालना।
    नारी शौर्य की प्रतिमा देखो,
    अंतरिक्ष उड़ान भरने वाली कल्पना।
    नारी ,शासन की साम्राज्ञानी,
    दुर्गावती ,लक्ष्मी रजिया सुल्ताना।
    नारी सुदृढ़ समाज की कड़ी,
    नारी जग की पालनहारना।
    नारी का साहस अदम्य,
    नारी का न मान गिराना।
    जिस समाज में पूजा नारी का,
    वह समाज है स्वर्ग समाना।

    शब्दार्थ=
    श्रमणा=शबरी का नाम है, मान=इज्जत
    घोसा, देवयानी ये वेदों की रचना करने में सहायक
    साम्राज्ञी=शासन करने वाली रानी

    श्रीमती पदमा साहू शिक्षिका
    खैरागढ़ छत्तीसगढ़

    मृत्यु

    जन्म लिए जिस घड़ी रेे मानव,
    मृत्यु तय हो गई उस दिन!
    तन एक वसन बदलते रहे अनेक,
    मृत्यु आया काया भी बदलेगी उस दिन!
    माया के जाल में मस्त रहे सदा,
    मृत्यु ने दस्तक दी चौक गए उस दिन!
    राजा,रंक,योगी ध्यानी कोई ना बच पाता,
    काल के गाल में समाते हैं जिस दिन!

    जनाजे से सिकन्दर जग को बताया,
    खाली हाथ जाना है मृत्यु आए जिस दिन!
    नश्वर काया संवारे आभूषणों से,
    जीवन का अंतिम गहना मृत्यु है
    मौत आई तब समझे उस दिन!
    जब थमने लगे सांसे सब कर्म नजर आए,
    तब चीर निद्रा में सोए मृत्यु है उस दिन!

    मृत्यु है जीवन का अंतिम पड़ाव,
    आरती थाल सजा रखना मृत्यु आए जिस दिन!
    अर्थी को परिजन उठाते कंधे बदल-बदल कर,
    जीवन यात्रा का अंत है शमशान में उस दिन!
    कर्म ऐसे कर ले रे मानव जग में,
    मृत्यु भी प्रणाम करे हमे लेने आए जिस दिन!

    पदमा साहू शिक्षिका
    खैरागढ़ जिला राजनांदगांव छत्तीसगढ़

    वीर के इंतज़ार में नयन

    करुण संदेशा ना देना मुझे,
    बैठी हूँ तुम्हारी लगाए आस ।
    गिन रही हूँ हर वक्त साँसे ,
    पथ में बिछाए सुमन मनुहार।
    आ जाना तुम कर रही हूँ इंतजार।। रण बाँकुरा हो तुम मेरे वीर ,
    शत्रु को पीठ दिखा मत आना ।
    मातृभूमि की रक्षा कर्तव्य निभा,
    पहन आना विजयश्री का हार।
    आ जाना तुम कर रही हूँ इंतजार।। अनुराग भरा उल्लास लाना,
    लाना ना होठों पर विषाद।
    सोलह श्रृंगार साथ लाना मेरे,
    अपने हाथों करना मेरा श्रृंगार।
    आ जाना तुम कर रही हूँ इंतजार।। ज्वाला बुझने न देना देश राग का,
    भटकने ना देना तुम मन विराग।
    स्पंदित ह्रदय में दबा लेना पीड़ा,
    पर दफन ना होने देना अंगार।
    आ जाना तुम कर रही हूँ इंतजार।। पथिक बन बैठे राह निहारूंँगी,
    विजय थाल सजाए अपने आँगन
    अश्रु न बहाऊँगी करुण नयनों से,
    जी लूंगी मधुमास की स्मृति हार।
    आ जाना तुम कर रही हूँ इंतजार।। 

    पदमा साहू  पर्वणी……

    गंगाजल

    राजा सगर के साठ हजार पुत्रों को,
    दिया ऋषि ने क्रुद्ध हो भयंकर श्राप।
    श्रापित सगर पुत्र सारे मृत हो गए पर,
    आत्मा मुक्त न हुई,विचरते बन भूत-पिशाच।

    राजा भागीरथी सगर के वंशज,
    किया प्रण पूर्वजों को मुक्ति दिलाने।
    कठोर तप वर्षों तक किया,
    भागीरथी गंगा को पृथ्वी पर लाने।

    प्रसन्न हो प्रभु ने दिया वरदान,
    गंगा कोभागीरथी भक्ति से धरा पर लाने।
    शिव शंकर जटा पर धारण किए,
    तीव्र वेग मंदाकिनी को धरा पर बढ़ाने।

    गंगा धरा पर उतर आई बनके गंगाजल,
    मुक्त हुए श्रापित आत्मा स्पर्श करते पावन गंगाजल।
    गंगादेवी है पापनाशिनी सुखदात्री,
    तन मन शुद्ध होते स्पर्श करते गंगाजल ।

    अभिषेक, पूजन और शुद्धीकरण,
    होता उपयोग पवित्र गंगाजल।
    मोक्ष प्रदायिनी जीवनदायिनी,
    पाताल की भागीरथी, धरा पर गंगाजल।

    पापियों को पाप से है तारती,
    मरणासन्न,मृत्युशैया पर गंगाजल।
    न जा सको गंगा तीरथ धाम तो,
    मात पिता चरणामृत बन जाते गंगाजल।

    श्रीमती पदमा साहू खैरागढ़ जिला राजनांदगांव छत्तीसगढ़

    मुझे बहुत याद आती है मेरी बचपना

    मां के पीछे दौड़ कर आंचल में छिपना,
    पच्चीस पैसे के लिए मां को मनाना,
    नड्डा,पिपरमेंट उंगलियों में फंसा कर खाना,
    दादा की डांट दादी की दुलारना,
    मुझे बहुत याद आती है मेरी बचपना।

    चाचा-चाची का जोर से पुकारना,
    लालटेन और दीए की रोशनी में पढ़ना,
    अंतरदेसी कार्ड पर मां बाबू को खत लिखना ,
    गर्मी में इमली का लाटा बना कर खाना,
    मुझे बहुत याद आती है मेरी बचपना।

    सहेलियों के साथ दल में स्कूल पहुंचना,
    बस्ते में लाखडी, बोईर, चना का पकड़ना
    भामरा मैम को बटकर, बीही, मुनगा देना,
    सहेलियों संग गंगाइमली,कसहीका तोड़ना,
    बहुत याद आती है मुझे मेरी बचपना।

    मुर्रा के लिए शीला बिनने होड़ लगाना,
    खेत में चना चटपटी बनाकर खाना,
    कार्तिक माह भर रात्रि में स्नान करना,
    सहेलियों को घर-घर जाकर उठाना,
    बहुत याद आती है मुझे मेरी बचपना।

    सहेलियों संग लुकाछीपी गिल्ली डंडा खेलना,
    रविवार को तालाब में ढेस सिंघाड़ा निकालना,
    पदमा, प्रतिमा,दिलेश,रामेश्वरी सुषमाना,
    हर शिवरात्रि पैदल कवही मेला जाना,
    बहुत याद आती है मुझे मेरी बचपना ।

    श्रीमती पदमा साहू
    खैरागढ़ जिला राजनांदगांव छत्तीसगढ़।

    आखिर कब तक तय करेगी दुनिया कोरोना की दूरी

    जब से शुरू हुई कोरोना की बीमारी,
    मानव जीवन पर आफत आन पड़ी भारी।
    लोगो में बढ़ गया भय और आपसी दूरी,
    हाय, हेलो छोड़ प्राचीन संस्कृति वापस अा गई हमारी।
    आखिर कब तक……….

    इंसानों ने पंछी को पिंजरे में बनाया कैदी,
    पंछी उड़ रहे हैं, इंसान को कैदी बनते न हुई देरी।
    एक दूसरे से दूर फोन पे हो रही बाते पूरी,
    अपनों से मिलने में कोरोना बन गई है मजबूरी।
    आखिर कब तक……….

    चारो ओर हाहाकार मचा, बनाए रखना है सामाजिक दूरी,
    गरीब के पांव में पड़ गए छाले, पेट में भूखमरी।
    अपनों से मिलने की चाह मेंपैदल तय कर रहे मिलो दूरी,
    राजा प्रजा से क्षमा मांग रहा, सुरक्षा की ये कैसी मजबूरी।
    आखिर कब तक………

    सलाम है जन सेवा में लगे, डॉ, नर्स, पुलिस, फ़ौजी की बहादुरी,
    अपनो की परवाह किए बिना, पीड़ितो की सेवा करने छोड़ देते है नींद अधूरी।
    मरीजों की कतार बढ़ने लगे, ट्रेन भी बन गए अस्पताल की धुरी।
    मानव है हम विचार करो, आने मत दो संकट अब बुरी।
    आखिर कब तक………….

    रुखा सूखा खा गुजार लोकुछ दिन पड़ोसी रिश्तेदारों से कर लो दूरी,
    एक दिन यही दूरी, अपनो से बिछड़ने की कम कर देगी दूरी।
    हम भारतवासी दुश्मनों को मिटाने संस्कृति शिष्टाचार निभाते हैं पूरी,
    हैं आस्था देवी शक्ति वेदशास्त्रं पर, अम्बे करेगी खात्मा बनके संयम कोरोना आसुरी।
    आखिर कब तक……

    पदमा साहू शिक्षिका
    खैरागढ़ जिला राजनांदगांव छत्तीसगढ़।

    कलयुग के राम

    गुरु, मात पिता मान बढ़ाने,
    नित शीश झुकाओ।
    आज्ञाकारी धर्म वीर बन,
    राम सा छवि बनाओ।
    बच्चों कुल का मान बढ़ाने,
    *कलयुग के राम बन जाओ।*

    भगिनी- भौजाई का मान बढ़ाने,
    नित सम्मान दिलाओ।
    अनुज का प्रेरणा बन,
    राम सा छवि बनाओ।
    रिश्ते नातों का लाज बचाने,
    *कलयुग के राम बन जाओ।*

    देश,समाज सेवा करने,
    आगे कदम बढ़ाओ।
    देश हित रक्षक बन,
    राम सा छवि बनाओ।
    बच्चों, भव पार लगाने,
    *कलयुग के राम बन जाओ*।

    अंधविश्वास, कुरीतियां मिटाने,
    धर्म रक्षक बन जाओ।
    मानवता का पाठ पढ़ा,
    राम सा छवि बनाओ।
    बच्चों सभ्य संस्कृति को बचाने,
    कलयुग के राम बन जाओ।

    पदमा साहू शिक्षिका
    खैरागढ़ जिला राजनांदगांव छत्तीसगढ़

    मेरे कबीर

    मेरे कबीर,
    काशी लहरतारा ताल बीच अवतरित होने कबीर!

    जेठ सुदी बरसाइत जलज माही पौढ़न किए!!
    नीरू नीमा को सांसारिक मात-पिता बना!
    जुलाहा घर कबीर अपना चरण पग धर दिए!!
    एक दिन स्वामी रामानंदजी ब्रह्म मुहूर्त गंगाघाट पधारे!
    चरण लगते स्वामी के कबीर रोने लग गए!!
    यह देख स्वामी जी रटने लगे राम नाम बार- बार!
    शब्द राम सुन स्वामी जी को गुरु अपना बना लिए!!

    कबीर तेजस्वी,अंतर्ज्ञान सागर उर में भरे!
    कलयुग में सब जग रमने कबीर नाम धराए !!
    मात- पिता के घर रहते जीवन निर्वाह कर!
    दो चादर रोज बुन कर परमार्थ दान दिए!!
    अद्भुत ज्ञान कबीर का समझे कौन इसे?
    कमाल कमाली जीवनदान दे अपना शिष्य बना लिए !!
    मसि, कागद, लेखनी कबीर नहीं थामें!
    स्थितप्रज्ञ ज्ञान कबीर अपने मुख से जना दिए!!

    धर्म दर्शन, मत-मतांतर का था गहरा ज्ञान!
    अंधविश्वास उखाड़ फेंकने जन-जन ज्ञान फैला दिए !!
    सामाजिक कुरुति पाखंडवाद को मिटाने!
    भाईचारा कायम रखने जन में ज्ञान ज्योत जला दिए!!
    सत्ता में चूर मदमस्त सिकंदर को!
    दिव्य ज्ञान प्रकाश दिखा राह में ला दिए!!
    साखी, शबद, रमैनी, उलटवासी तुम्हारी !
    अटपट ज्ञान से भरे गागर झटपट कोई न समझ पाएं!!

    मुड़ जड़बुद्धि चेताने घट-घट चोट मार तुम!
    भवबंधन मिटाने अलख ज्ञान जन में भर दिए!!
    अपना ज्ञान भंडार बांटने शिष्य की पहचान में!
    काशी से बांधवगढ़ धर्मदास आमीन घर आए !!
    करोड़ों धनसंपदा ठुकरा अपना भाग्य जगा!
    धर्मदास गुरू पहचान तुम्हारे शिष्य हो लिए!!
    ज्ञान की गंगा उधेड़ धर्मदास पर कबीर!
    जग को परमपद तत्वज्ञान दे दिए!!

    मगहर प्राण तजे गधा होई काशी तजे मुक्ति मिले!
    यह मतिभ्रम मिटाने काशी से मगहर जा ज्ञान फटकार लगाए!!
    क्या काशी, क्या मगहर, क्या उसर जमीन?
    ह्रदय में राम तो छूटे प्राण कहीं यह भ्रम दूर कर दिए !!
    झूठी काया झूठी माया नश्वर जग छोड़ कबीर!
    सुमन में जन्म ले अंत समय सुमन में ही हो लिए !!

    श्रीमती पदमा साहू खैरागढ़
    जिला राजनांदगांव छत्तीसगढ़

    मैं कौन हूं?

    मैं कौन हूं, कहाँ से आयी?
    किस कारण जन्म हुआ मेरा विचारती हूं।
    ईश्वर के हाथों बंधी कठपुतली मैं,
    सृजनकार की अमूल्य कृति हूं।
    जिसने मुझे जन्म दिया जग में,
    उसे बारंबार प्रणाम करती हूं।
    गर्भवास में कौल किया प्रभु से,
    नित स्मरण उसे मैं करती हूं।

    रेलमरेला इस संसार में,
    अपनी पहचान ढूंढती हूं।
    मेरी सांसों की डोरी प्रभु के हाथों,
    प्रभु खेवनहार मैं भवसागर की कस्ती हूं।
    क्या है मेरे जीवन का लक्ष्य,
    पाने उसे सतत संघर्ष करती हूं।
    जाने कब सांसों की डोरी टूट जाए,
    सत्कर्म करने नित पग धरती हूं।

    स्वार्थ भरे इस माया जग में,
    स्वयं में मैं कौन तलाशती हूं।
    पंचतत्व की बनी यह कोठरिया,
    भ्रमवश इसे मैं संवारती हूं।
    पूरे ना होते अरमान कभी ,
    नीरस मन को मैं समझाती हूं।
    परमार्थ कुछ काज करने ,
    खुद को खुदा में तलाशती हूं।

    मिला मुझे मेरा उद्देश्य ,
    मैं नश्वर काया को धिक्कारती हूं।
    प्रभु कठिन राह में देना साथ मेरा,
    दुख में भी सुख तलाशती हूं।
    जिसे अपना माना वह भ्रम मेरा,
    नश्वर जग में प्रभु तुम्हें तलाशती हूं।
    ईश्वर के हाथों बनी कठपुतली मैं,
    धरा रंगमंच पर प्रभु हाथों नाचती हूं।

    श्रीमती पदमा साहू खैरागढ़
    जिला राजनांदगांव छत्तीसगढ़

    माँ

    मां तुम धरा की अमूल्य धरोहर,

    तुम होअद्भुत,अतुल्य जीवन निर्मात्री।

    नौ माह कोख में रक्त से सींचती,

    मां तुम हो बच्चों की जन्मदात्री।

    मां तुम बच्चों की होती प्रथम गुरु,

    जीवन रूपी पाठशाला की विधादात्री।

    मां तुम धरा की अमूल्य धरोहर,,,,

    मां के चरणों में निहित स्वर्ग,तीर्थ धाम सभी,

    मां तुम हो करुणा, ममता की मूरत क्षमादात्री।

    मां तुम तमस में आशा की किरण,

    तुम हो संतान रक्षक, दुष्ट दलन कालरात्रि।

    मां तुम धरा की अमूल्य धरोहर,,,,

    शरद, ग्रीष्म, वर्षा को आंचल में समेटे,

    मां तुम हो त्याग की देवी छांया दात्री।

    मां तुम स्वयंअपनी क्षुधा भूलकर,

    बच्चों की हो क्षुधातृप्त कराने वाली अन्नदात्री।

    मां तुम धरा की अमूल्य धरोहर,,,

    मां तेरे गोरस का कर्ज हम पर,

    जन्म जन्मांतर हो हम क्षमाप्रार्थी।

    मां की गोद और आंचल पाने,

    भगवान भी बन जाते हैं शरणार्थी।

    मां तुम धरा की अमूल्य धरोहर,,,,

    श्रीमती पदमा साहू शिक्षिका

    खैरागढ़ जिला राजनांदगांव छत्तीसगढ़

    श्रीमती पदमा साहू की 10 कवितायेँ
  • कुंवर नारायण की लोकप्रिय कवितायेँ

    कुंवर नारायण की लोकप्रिय कवितायेँ

    यहाँ पर कुंवर नारायण की लोकप्रिय कवितायेँ दिए जा रहे हैं जो भी आपको अच्छी लगे उसे आप कमेंट कर हमें जरुर बताएं

    कुंवर नारायण की लोकप्रिय कवितायेँ

    बीमार नहीं है वह / कुंवर नारायण

    बीमार नहीं है वह
    कभी-कभी बीमार-सा पड़ जाता है
    उनकी ख़ुशी के लिए
    जो सचमुच बीमार रहते हैं।

    किसी दिन मर भी सकता है वह
    उनकी खुशी के लिए
    जो मरे-मरे से रहते हैं।

    कवियों का कोई ठिकाना नहीं
    न जाने कितनी बार वे
    अपनी कविताओं में जीते और मरते हैं।

    उनके कभी न मरने के भी उदाहरण हैं
    उनकी ख़ुशी के लिए
    जो कभी नहीं मरते हैं।

    नीली सतह पर / कुंवर नारायण

    सुख की अनंग पुनरावृत्तियों में,
    जीवन की मोहक परिस्थितियों में,
    कहाँ वे सन्तोष
    जिन्हें आत्मा द्वारा चाहा जाता है ?

    शीघ्र थक जाती देह की तृप्ति में,
    शीघ्र जग पड़ती व्यथा की सुप्ति में,
    कहाँ वे परितोष
    जिन्हें सपनों में पाया जाता है ?

    आत्मा व्योम की ओर उठती रही,
    देह पंगु मिट्टी की ओर गिरती रही,
    कहाँ वह सामर्थ्य
    जिसे दैवी शरीरों में गाया जाता है ?

    पर मैं जानता हूँ कि
    किसी अन्देशे के भयानक किनारे पर बैठा जो मैं
    आकाश की निस्सीम नीली सतह पर तैरती
    इस असंख्य सीपियों को देख रहा हूँ
    डूब जाने को तत्पर
    ये सभी किसी जुए की फेंकी हुई कौड़ियाँ हैं
    जो अभी-अभी बटोर ली जाएँगी :
    फिर भी किसी अन्देशे से आशान्वित
    ये एक असम्भव बूँद के लिए खुली हैं,
    और हमारे पास उन अनन्त ज्योति-संकेतों को भेजती हैं
    जिनसे आकाश नहीं
    धरती की ग़रीब मिट्टी को सजाया जाता है ।

    एक अजीब दिन / कुंवर नारायण

    आज सारे दिन बाहर घूमता रहा

    और कोई दुर्घटना नहीं हुई।

    आज सारे दिन लोगों से मिलता रहा

    और कहीं अपमानित नहीं हुआ।

    आज सारे दिन सच बोलता रहा

    और किसी ने बुरा न माना।

    आज सबका यकीन किया

    और कहीं धोखा नहीं खाया।

    और सबसे बड़ा चमत्कार तो यह

    कि घर लौटकर मैंने किसी और को नहीं

    अपने ही को लौटा हुआ पाया।

    आँकड़ों की बीमारी / कुंवर नारायण

    एक बार मुझे आँकड़ों की उल्टियाँ होने लगीं
    गिनते गिनते जब संख्या
    करोड़ों को पार करने लगी
    मैं बेहोश हो गया

    होश आया तो मैं अस्पताल में था
    खून चढ़ाया जा रहा था
    आँक्सीजन दी जा रही थी
    कि मैं चिल्लाया
    डाक्टर मुझे बुरी तरह हँसी आ रही
    यह हँसानेवाली गैस है शायद
    प्राण बचानेवाली नहीं
    तुम मुझे हँसने पर मजबूर नहीं कर सकते
    इस देश में हर एक को अफ़सोस के साथ जीने का
    पैदाइशी हक़ है वरना
    कोई माने नहीं रखते हमारी आज़ादी और प्रजातंत्र

    बोलिए नहीं – नर्स ने कहा – बेहद कमज़ोर हैं आप
    बड़ी मुश्किल से क़ाबू में आया है रक्तचाप

    डाक्टर ने समझाया – आँकड़ों का वाइरस
    बुरी तरह फैल रहा आजकल
    सीधे दिमाग़ पर असर करता
    भाग्यवान हैं आप कि बच गए
    कुछ भी हो सकता था आपको –

    सन्निपात कि आप बोलते ही चले जाते
    या पक्षाघात कि हमेशा कि लिए बन्द हो जाता
    आपका बोलना
    मस्तिष्क की कोई भी नस फट सकती थी
    इतनी बड़ी संख्या के दबाव से
    हम सब एक नाज़ुक दौर से गुज़र रहे
    तादाद के मामले में उत्तेजना घातक हो सकती है
    आँकड़ों पर कई दवा काम नहीं करती
    शान्ति से काम लें
    अगर बच गए आप तो करोड़ों में एक होंगे …..

    अचानक मुझे लगा
    ख़तरों से सावधान कराते की संकेत-चिह्न में
    बदल गई थी डाक्टर की सूरत
    और मैं आँकड़ों का काटा
    चीख़ता चला जा रहा था
    कि हम आँकड़े नहीं आदमी हैं

    एक हरा जंगल / कुंवर नारायण

    एक हरा जंगल धमनियों में जलता है।
    तुम्हारे आँचल में आग…
    चाहता हूँ झपटकर अलग कर दूँ तुम्हें
    उन तमाम संदर्भों से जिनमें तुम बेचैन हो
    और राख हो जाने से पहले ही
    उस सारे दृश्य को बचाकर
    किसी दूसरी दुनिया के अपने आविष्कार में शामिल कर लूँ

    लपटें एक नए तट की शीतल सदाशयता को छूकर लौट जाएँ।

    कमरे में धूप / कुंवर नारायण

     हवा और दरवाज़ों में बहस होती रही,
    दीवारें सुनती रहीं।
    धूप चुपचाप एक कुरसी पर बैठी
    किरणों के ऊन का स्वेटर बुनती रही।

    सहसा किसी बात पर बिगड़ कर
    हवा ने दरवाज़े को तड़ से
    एक थप्पड़ जड़ दिया !

    खिड़कियाँ गरज उठीं,
    अख़बार उठ कर खड़ा हो गया,
    किताबें मुँह बाये देखती रहीं,
    पानी से भरी सुराही फर्श पर टूट पड़ी,
    मेज़ के हाथ से क़लम छूट पड़ी।

    धूप उठी और बिना कुछ कहे
    कमरे से बाहर चली गई।

    शाम को लौटी तो देखा
    एक कुहराम के बाद घर में ख़ामोशी थी।
    अँगड़ाई लेकर पलँग पर पड़ गई,
    पड़े-पड़े कुछ सोचती रही,
    सोचते-सोचते न जाने कब सो गई,
    आँख खुली तो देखा सुबह हो गई।

    कविता की ज़रूरत / कुंवर नारायण

    बहुत कुछ दे सकती है कविता
    क्यों कि बहुत कुछ हो सकती है कविता
    ज़िन्दगी में

    अगर हम जगह दें उसे
    जैसे फलों को जगह देते हैं पेड़
    जैसे तारों को जगह देती है रात

    हम बचाये रख सकते हैं उसके लिए
    अपने अन्दर कहीं
    ऐसा एक कोना
    जहाँ ज़मीन और आसमान
    जहाँ आदमी और भगवान के बीच दूरी
    कम से कम हो ।

    वैसे कोई चाहे तो जी सकता है
    एक नितान्त कवितारहित ज़िन्दगी
    कर सकता है
    कवितारहित प्रेम

    आदमी का चेहरा / कुंवर नारायण

    “कुली !” पुकारते ही

    कोई मेरे अंदर चौंका ।

    एक आदमी आकर खड़ा हो गया मेरे पास

    सामान सिर पर लादे

    मेरे स्वाभिमान से दस क़दम आगे

    बढ़ने लगा वह

    जो कितनी ही यात्राओं में

    ढ़ो चुका था मेरा सामान

    मैंने उसके चेहरे से उसे

    कभी नहीं पहचाना

    केवल उस नंबर से जाना

    जो उसकी लाल कमीज़ पर टँका होता

    आज जब अपना सामान ख़ुद उठाया

    एक आदमी का चेहरा याद आया

    कोलम्बस का जहाज / कुंवर नारायण


    बार-बार लौटता है
    कोलम्बस का जहाज
    खोज कर एक नई दुनिया,
    नई-नई माल-मंडियाँ,
    हवा में झूमते मस्तूल
    लहराती झंडियाँ।

    बाज़ारों में दूर ही से
    कुछ चमकता तो है −
    हो सकता है सोना
    हो सकती है पालिश
    हो सकता है हीरा
    हो सकता है काँच…
    ज़रूरी है पक्की जाँच।

    ज़रूरी है सावधानी
    पृथ्वी पर लौटा है अभी-अभी
    अंतरिक्ष यान
    खोज कर एक ऐसी दुनिया
    जिसमें न जीवन है − न हवा − न पानी −

    नई किताबें / कुंवर नारायण

    नई नई किताबें पहले तो
    दूर से देखती हैं
    मुझे शरमाती हुईं

    फिर संकोच छोड़ कर
    बैठ जाती हैं फैल कर
    मेरे सामने मेरी पढ़ने की मेज़ पर

    उनसे पहला परिचय…स्पर्श
    हाथ मिलाने जैसी रोमांचक
    एक शुरुआत…

    धीरे धीरे खुलती हैं वे
    पृष्ठ दर पृष्ठ
    घनिष्ठतर निकटता
    कुछ से मित्रता
    कुछ से गहरी मित्रता
    कुछ अनायास ही छू लेतीं मेरे मन को
    कुछ मेरे चिंतन की अंग बन जातीं
    कुछ पूरे परिवार की पसंद
    ज़्यादातर ऐसी जिनसे कुछ न कुछ मिल जाता

    फिर भी
    अपने लिए हमेशा खोजता रहता हूँ
    किताबों की इतनी बड़ी दुनिया में
    एक जीवन-संगिनी
    थोडी अल्हड़-चुलबुली-सुंदर
    आत्मीय किताब
    जिसके सामने मैं भी खुल सकूँ
    एक किताब की तरह पन्ना पन्ना
    और वह मुझे भी
    प्यार से मन लगा कर पढ़े…

  • भारतेंदु हरिश्चंद्र की लोकप्रिय कवितायेँ

    यहाँ पर भारतेंदु हरिश्चंद्र की लोकप्रिय कवितायेँ के पढेंगे . आपको जो भी कविता अच्छी लगे कमेंट करके जरुर बताएं

    कवि परिचय

    भारतेन्दु हरिश्चन्द्र (9 सितंबर 1850-6 जनवरी 1885) आधुनिक हिंदी साहित्य के पितामह कहे जाते हैं। वे हिन्दी में आधुनिकता के पहले रचनाकार थे। इनका मूल नाम ‘हरिश्चन्द्र’ था, ‘भारतेन्दु’ उनकी उपाधि थी। उनका कार्यकाल युग की सन्धि पर खड़ा है। उन्होंने रीतिकाल की विकृत सामन्ती संस्कृति की पोषक वृत्तियों को छोड़कर स्वस्थ परम्परा की भूमि अपनाई और नवीनता के बीज बोये।

    हिन्दी साहित्य में आधुनिक काल का प्रारम्भ भारतेन्दु हरिश्चन्द्र से माना जाता है। भारतीय नवजागरण के अग्रदूत के रूप में प्रसिद्ध भारतेन्दु जी ने देश की गरीबी, पराधीनता, शासकों के अमानवीय शोषण का चित्रण को ही अपने साहित्य का लक्ष्य बनाया। हिन्दी को राष्ट्र-भाषा के रूप में प्रतिष्ठित करने की दिशा में उन्होंने अपनी प्रतिभा का उपयोग किया। ब्रिटिश राज की शोषक प्रकृति का चित्रण करने वाले उनके लेखन के लिए उन्हें युग चारण माना जाता है।

    भारतेंदु हरिश्चंद्र की लोकप्रिय कवितायेँ
    भारतेंदु हरिश्चंद्र की लोकप्रिय कवितायेँ

    भारतेंदु हरिश्चंद्र की लोकप्रिय कवितायेँ

    गंगा-वर्णन/भारतेंदु हरिश्चंद्र

    नव उज्ज्वल जलधार हार हीरक सी सोहति।
    बिच-बिच छहरति बूंद मध्य मुक्ता मनि पोहति॥

    लोल लहर लहि पवन एक पै इक इम आवत ।
    जिमि नर-गन मन बिबिध मनोरथ करत मिटावत॥

    सुभग स्वर्ग-सोपान सरिस सबके मन भावत।
    दरसन मज्जन पान त्रिविध भय दूर मिटावत॥

    श्रीहरि-पद-नख-चंद्रकांत-मनि-द्रवित सुधारस।
    ब्रह्म कमण्डल मण्डन भव खण्डन सुर सरबस॥

    शिवसिर-मालति-माल भगीरथ नृपति-पुण्य-फल।
    एरावत-गत गिरिपति-हिम-नग-कण्ठहार कल॥

    सगर-सुवन सठ सहस परस जल मात्र उधारन।
    अगनित धारा रूप धारि सागर संचारन॥

    यमुना-वर्णन/भारतेंदु हरिश्चंद्र

    तरनि तनूजा तट तमाल तरुवर बहु छाये।
    झुके कूल सों जल-परसन हित मनहु सुहाये॥
    किधौं मुकुर मैं लखत उझकि सब निज-निज सोभा।
    कै प्रनवत जल जानि परम पावन फल लोभा॥
    मनु आतप वारन तीर कौं, सिमिटि सबै छाये रहत।
    कै हरि सेवा हित नै रहे, निरखि नैन मन सुख लहत॥१॥

    तिन पै जेहि छिन चन्द जोति रक निसि आवति ।
    जल मै मिलिकै नभ अवनी लौं तानि तनावति॥
    होत मुकुरमय सबै तबै उज्जल इक ओभा ।
    तन मन नैन जुदात देखि सुन्दर सो सोभा ॥
    सो को कबि जो छबि कहि , सकै ता जमुन नीर की ।
    मिलि अवनि और अम्बर रहत ,छबि इक – सी नभ तीर की ॥२॥

    परत चन्र्द प्रतिबिम्ब कहूँ जल मधि चमकायो ।
    लोल लहर लहि नचत कबहुँ सोइ मन भायो॥
    मनु हरि दरसन हेत चन्र्द जल बसत सुहायो ।
    कै तरंग कर मुकुर लिये सोभित छबि छायो ॥
    कै रास रमन मैं हरि मुकुट आभा जल दिखरात है ।
    कै जल उर हरि मूरति बसति ता प्रतिबिम्ब लखात है ॥३ ॥

    कबहुँ होत सत चन्द कबहुँ प्रगटत दुरि भाजत ।
    पवन गवन बस बिम्ब रूप जल मैं बहु साजत ।।
    मनु ससि भरि अनुराग जामुन जल लोटत डोलै ।
    कै तरंग की डोर हिंडोरनि करत कलोलैं ।।
    कै बालगुड़ी नभ में उड़ी, सोहत इत उत धावती ।
    कई अवगाहत डोलात कोऊ ब्रजरमनी जल आवती ।।४।।

    मनु जुग पच्छ प्रतच्छ होत मिटी जात जामुन जल ।
    कै तारागन ठगन लुकत प्रगटत ससि अबिकल ।।
    कै कालिन्दी नीर तरंग जितौ उपजावत ।
    तितनो ही धरि रूप मिलन हित तासों धावत ।।
    कै बहुत रजत चकई चालत कै फुहार जल उच्छरत ।
    कै निसिपति मल्ल अनेक बिधि उठि बैठत कसरत करत ।।५।।

    कूजत कहुँ कलहंस कहूँ मज्जत पारावत ।
    कहुँ काराणडव उडत कहूँ जल कुक्कुट धावत ।।
    चक्रवाक कहुँ बसत कहूँ बक ध्यान लगावत ।
    सुक पिक जल कहुँ पियत कहूँ भ्रम्रावलि गावत ।।
    तट पर नाचत मोर बहु रोर बिधित पच्छी करत ।
    जल पान न्हान करि सुख भरे तट सोभा सब धरत ।।६।।

    बन्दर सभा/भारतेंदु हरिश्चंद्र

    आना राजा बन्दर का बीच सभा के,
    सभा में दोस्तो बन्दर की आमद आमद है।
    गधे औ फूलों के अफसर जी आमद आमद है।
    मरे जो घोड़े तो गदहा य बादशाह बना।
    उसी मसीह के पैकर की आमद आमद है।
    व मोटा तन व थुँदला थुँदला मू व कुच्ची आँख
    व मोटे ओठ मुछन्दर की आमद आमद है ।।
    हैं खर्च खर्च तो आमद नहीं खर-मुहरे की
    उसी बिचारे नए खर की आमद आमद है ।।1।।

    बोले जवानी राजा बन्दर के बीच अहवाल अपने के,
    पाजी हूँ मं कौम का बन्दर मेरा नाम।
    बिन फुजूल कूदे फिरे मुझे नहीं आराम ।।
    सुनो रे मेरे देव रे दिल को नहीं करार।
    जल्दी मेरे वास्ते सभा करो तैयार ।।
    लाओ जहाँ को मेरे जल्दी जाकर ह्याँ।
    सिर मूड़ैं गारत करैं मुजरा करैं यहाँ ।।2।।

    आना शुतुरमुर्ग परी का बीच सभा में,
    आज महफिल में शुतुरमुर्ग परी आती है।
    गोया गहमिल से व लैली उतरी आती है ।।
    तेल और पानी से पट्टी है सँवारी सिर पर।
    मुँह पै मांझा दिये लल्लादो जरी आती है ।।
    झूठे पट्ठे की है मुबाफ पड़ी चोटी में।
    देखते ही जिसे आंखों में तरी आती है ।।
    पान भी खाया है मिस्सी भी जमाई हैगी।
    हाथ में पायँचा लेकर निखरी आती है ।।
    मार सकते हैं परिन्दे भी नहीं पर जिस तक।
    चिड़िया-वाले के यहाँ अब व परी आती है ।।
    जाते ही लूट लूँ क्या चीज खसोटूँ क्या शै।
    बस इसी फिक्र में यह सोच भरी आती है ।।3।।

    गजल जवानी शुतुरमुर्ग परी हसन हाल अपने के,
    गाती हूँ मैं औ नाच सदा काम है मेरा।
    ऐ लोगो शुतुरमुर्ग परी नाम है मेरा ।।
    फन्दे से मेरे कोई निकले नहीं पाता।
    इस गुलशने आलम में बिछा दाम है मेरा ।।
    दो चार टके ही पै कभी रात गँवा दूँ।
    कारूँ का खजाना कभी इनआम है मेरा ।।
    पहले जो मिले कोई तो जी उसका लुभाना।
    बस कार यही तो सहरो शाम है मेरा ।।
    शुरफा व रुजला एक हैं दरबार में मेरे।
    कुछ सास नहीं फैज तो इक आम है मेरा ।।
    बन जाएँ जुगत् तब तौ उन्हें मूड़ हा लेना।
    खली हों तो कर देना धता काम है मेरा ।।
    जर मजहबो मिल्लत मेरा बन्दी हूँ मैं जर की।
    जर ही मेरा अल्लाह है जर राम है मेरा ।।4।।

    (छन्द जबानी शुतुरमुर्ग परी)

    राजा बन्दर देस मैं रहें इलाही शाद।
    जो मुझ सी नाचीज को किया सभा में याद ।।
    किया सभा में याद मुझे राजा ने आज।
    दौलत माल खजाने की मैं हूँ मुँहताज ।।
    रूपया मिलना चाहिये तख्त न मुझको ताज।
    जग में बात उस्ताद की बनी रहे महराज ।।5।।

    ठुमरी जबानी शुतुरमुर्ग परी के,
    आई हूँ मैं सभा में छोड़ के घर।
    लेना है मुझे इनआम में जर ।।
    दुनिया में है जो कुछ सब जर है।
    बिन जर के आदमी बन्दर है ।।
    बन्दर जर हो तो इन्दर है।
    जर ही के लिये कसबो हुनर है ।।6।।

    गजल शुतुरमुर्ग परी की बहार के मौसिम में,
    आमद से बसंतों के है गुलजार बसंती।
    है फर्श बसंती दरो-दीवार बसंती ।।
    आँखों में हिमाकत का कँवल जब से खिला है।
    आते हैं नजर कूचओ बाजार बसंती ।।
    अफयूँ मदक चरस के व चंडू के बदौलत।
    यारों के सदा रहते हैं रुखसार बसंती ।।
    दे जाम मये गुल के मये जाफरान के।
    दो चार गुलाबी हां तो दो चार बसंती ।।
    तहवील जो खाली हो तो कुछ कर्ज मँगा लो।
    जोड़ा हो परी जान का तैयार बसंती ।।7।।

    होली जबानी शुतुरमुर्ग परी के,
    पा लागों कर जोरी भली कीनी तुम होरी।
    फाग खेलि बहुरंग उड़ायो ओर धूर भरि झोरी ।।
    धूँधर करो भली हिलि मिलि कै अधाधुंध मचोरी।
    न सूझत कहु चहुँ ओरी।
    बने दीवारी के बबुआ पर लाइ भली विधि होरी।
    लगी सलोनो हाथ चरहु अब दसमी चैन करो री ।।
    सबै तेहवार भयो री ।।8।।

    दशरथ विलाप/भारतेंदु हरिश्चंद्र

    कहाँ हौ ऐ हमारे राम प्यारे ।
    किधर तुम छोड़कर मुझको सिधारे ।।

    बुढ़ापे में ये दु:ख भी देखना था।
    इसी के देखने को मैं बचा था ।।

    छिपाई है कहाँ सुन्दर वो मूरत ।
    दिखा दो साँवली-सी मुझको सूरत ।।

    छिपे हो कौन-से परदे में बेटा ।
    निकल आवो कि अब मरता हु बुड्ढा ।।

    बुढ़ापे पर दया जो मेरे करते ।
    तो बन की ओर क्यों तुम पर धरते ।।

    किधर वह बन है जिसमें राम प्यारा ।
    अजुध्या छोड़कर सूना सिधारा ।।

    गई संग में जनक की जो लली है
    इसी में मुझको और बेकली है ।।

    कहेंगे क्या जनक यह हाल सुनकर ।
    कहाँ सीता कहाँ वह बन भयंकर ।।

    गया लछमन भी उसके साथ-ही-साथ ।
    तड़पता रह गया मैं मलते ही हाथ ।।

    मेरी आँखों की पुतली कहाँ है ।
    बुढ़ापे की मेरी लकड़ी कहाँ है ।।

    कहाँ ढूँढ़ौं मुझे कोई बता दो ।
    मेरे बच्चो को बस मुझसे मिला दो ।।

    लगी है आग छाती में हमारे।
    बुझाओ कोई उनका हाल कह के ।।

    मुझे सूना दिखाता है ज़माना ।
    कहीं भी अब नहीं मेरा ठिकाना ।।

    अँधेरा हो गया घर हाय मेरा ।
    हुआ क्या मेरे हाथों का खिलौना ।।

    मेरा धन लूटकर के कौन भागा ।
    भरे घर को मेरे किसने उजाड़ा ।।

    हमारा बोलता तोता कहाँ है ।
    अरे वह राम-सा बेटा कहाँ है ।।

    कमर टूटी, न बस अब उठ सकेंगे ।
    अरे बिन राम के रो-रो मरेंगे ।।

    कोई कुछ हाल तो आकर के कहता ।
    है किस बन में मेरा प्यारा कलेजा ।।

    हवा और धूप में कुम्हका के थककर ।
    कहीं साये में बैठे होंगे रघुवर ।।

    जो डरती देखकर मट्टी का चीता ।
    वो वन-वन फिर रही है आज सीता ।।

    कभी उतरी न सेजों से जमीं पर ।
    वो फिरती है पियोदे आज दर-दर ।।

    न निकली जान अब तक बेहया हूँ ।
    भला मैं राम-बिन क्यों जी रहा हूँ ।।

    मेरा है वज्र का लोगो कलेजा ।
    कि इस दु:ख पर नहीं अब भी य फटता ।।

    मेरे जीने का दिन बस हाय बीता ।
    कहाँ हैं राम लछमन और सीता ।।

    कहीं मुखड़ा तो दिखला जायँ प्यारे ।
    न रह जाये हविस जी में हमारे ।।

    कहाँ हो राम मेरे राम-ए-राम ।
    मेरे प्यारे मेरे बच्चे मेरे श्याम ।।

    मेरे जीवन मेरे सरबस मेरे प्रान ।
    हुए क्या हाय मेरे राम भगवान ।।

    कहाँ हो राम हा प्रानों के प्यारे ।
    यह कह दशरथ जी सुरपुर सिधारे ।।

    बसंत होली/भारतेंदु हरिश्चंद्र

    जोर भयो तन काम को आयो प्रकट बसंत ।
    बाढ़यो तन में अति बिरह भो सब सुख को अंत ।।1।।

    चैन मिटायो नारि को मैन सैन निज साज ।
    याद परी सुख देन की रैन कठिन भई आज ।।2।।

    परम सुहावन से भए सबै बिरिछ बन बाग ।
    तृबिध पवन लहरत चलत दहकावत उर आग ।।3।।

    कोहल अरु पपिहा गगन रटि रटि खायो प्रान ।
    सोवन निसि नहिं देत है तलपत होत बिहान ।।4।।

    है न सरन तृभुवन कहूँ कहु बिरहिन कित जाय ।
    साथी दुख को जगत में कोऊ नहीं लखाय ।।5।।

    रखे पथिक तुम कित विलम बेग आइ सुख देहु ।
    हम तुम-बिन ब्याकुल भई धाइ भुवन भरि लेहु ।।6।।

    मारत मैन मरोरि कै दाहत हैं रितुराज ।
    रहि न सकत बिन मिलौ कित गहरत बिन काज ।।7।।

    गमन कियो मोहि छोड़ि कै प्रान-पियारे हाय ।
    दरकत छतिया नाह बिन कीजै कौन उपाय ।।8।।

    हा पिय प्यारे प्रानपति प्राननाथ पिय हाय ।
    मूरति मोहन मैन के दूर बसे कित जाय ।।9।।

    रहत सदा रोवत परी फिर फिर लेत उसास ।
    खरी जरी बिनु नाथ के मरी दरस के प्यास ।।10।।

    चूमि चूमि धीरज धरत तुव भूषन अरु चित्र ।
    तिनहीं को गर लाइकै सोइ रहत निज मित्र ।।11।।

    यार तुम्हारे बिनु कुसुम भए बिष-बुझे बान ।
    चौदिसि टेसू फूलि कै दाहत हैं मम प्रान ।।12।।

    परी सेज सफरी सरिस करवट लै पछतात ।
    टप टप टपकत नैन जल मुरि मुरि पछरा खात ।।13।।

    निसि कारी साँपिन भई डसत उलटि फिरि जात ।
    पटकि पटकि पाटी करन रोइ रोइ अकुलात ।।14।।

    टरै न छाती सौं दुसह दुख नहिं आयौ कंत ।
    गमन कियो केहि देस कों बीती हाय बसंत ।।15।।

    वारों तन मन आपुनों दुहुँ कर लेहुँ बलाय ।
    रति-रंजन ‘हरिचंद’ पिय जो मोहि देहु मिलाय ।।16।।

    उर्दू का स्यापा/भारतेंदु हरिश्चंद्र

    है है उर्दू हाय हाय । कहाँ सिधारी हाय हाय ।
    मेरी प्यारी हाय हाय । मुंशी मुल्ला हाय हाय ।
    बल्ला बिल्ला हाय हाय । रोये पीटें हाय हाय ।
    टाँग घसीटैं हाय हाय । सब छिन सोचैं हाय हाय ।
    डाढ़ी नोचैं हाय हाय । दुनिया उल्टी हाय हाय ।
    रोजी बिल्टी हाय हाय । सब मुखतारी हाय हाय ।
    किसने मारी हाय हाय । खबर नवीसी हाय हाय ।
    दाँत पीसी हाय हाय । एडिटर पोसी हाय हाय ।
    बात फरोशी हाय हाय । वह लस्सानी हाय हाय ।
    चरब-जुबानी हाय हाय । शोख बयानि हाय हाय ।
    फिर नहीं आनी हाय हाय ।

    अब और प्रेम के फंद परे/भारतेंदु हरिश्चंद्र

    अब और प्रेम के फंद परे
    हमें पूछत- कौन, कहाँ तू रहै ।
    अहै मेरेह भाग की बात अहो तुम
    सों न कछु ‘हरिचन्द’ कहै ।
    यह कौन सी रीति अहै हरिजू तेहि
    भारत हौ तुमको जो चहै ।
    चह भूलि गयो जो कही तुमने हम
    तेरे अहै तू हमारी अहै ।
    होली/भारतेंदु हरिश्चंद्र
    कैसी होरी खिलाई।
    आग तन-मन में लगाई॥

    पानी की बूँदी से पिंड प्रकट कियो सुंदर रूप बनाई।
    पेट अधम के कारन मोहन घर-घर नाच नचाई॥
    तबौ नहिं हबस बुझाई।

    भूँजी भाँग नहीं घर भीतर, का पहिनी का खाई।
    टिकस पिया मोरी लाज का रखल्यो, ऐसे बनो न कसाई॥
    तुम्हें कैसर दोहाई।

    कर जोरत हौं बिनती करत हूँ छाँड़ो टिकस कन्हाई।
    आन लगी ऐसे फाग के ऊपर भूखन जान गँवाई॥
    तुन्हें कछु लाज न आई।

    चूरन का लटका/भारतेंदु हरिश्चंद्र

    चूरन अलमबेद का भारी, जिसको खाते कृष्ण मुरारी।।
    मेरा पाचक है पचलोना, जिसको खाता श्याम सलोना।।
    चूरन बना मसालेदार, जिसमें खट्टे की बहार।।
    मेरा चूरन जो कोई खाए, मुझको छोड़ कहीं नहि जाए।।
    हिंदू चूरन इसका नाम, विलायत पूरन इसका काम।।
    चूरन जब से हिंद में आया, इसका धन-बल सभी घटाया।।
    चूरन ऐसा हट्टा-कट्टा, कीन्हा दाँत सभी का खट्टा।।
    चूरन चला डाल की मंडी, इसको खाएँगी सब रंडी।।
    चूरन अमले सब जो खावैं, दूनी रिश्वत तुरत पचावैं।।
    चूरन नाटकवाले खाते, उसकी नकल पचाकर लाते।।
    चूरन सभी महाजन खाते, जिससे जमा हजम कर जाते।।
    चूरन खाते लाला लोग, जिनको अकिल अजीरन रोग।।
    चूरन खाएँ एडिटर जात, जिनके पेट पचै नहीं बात।।
    चूरन साहेब लोग जो खाता, सारा हिंद हजम कर जाता।।
    चूरन पुलिसवाले खाते, सब कानून हजम कर जाते।।

    चने का लटका/भारतेंदु हरिश्चंद्र

    चना जोर गरम।
    चना बनावैं घासी राम। जिनकी झोली में दूकान।।
    चना चुरमुर-चुरमुर बोलै। बाबू खाने को मुँह खोलै।।
    चना खावैं तोकी मैना। बोलैं अच्छा बना चबैना।।
    चना खाएँ गफूरन, मुन्ना। बोलैं और नहिं कुछ सुन्ना।।
    चना खाते सब बंगाली। जिनकी धोती ढीली-ढाली।।
    चना खाते मियाँ जुलाहे। दाढ़ी हिलती गाहे-बगाहे।।
    चना हाकिम सब खा जाते। सब पर दूना टैक्स लगाते।।
    चना जोर गरम।।

    हरी हुई सब भूमि/भारतेंदु हरिश्चंद्र

    बरषा सिर पर आ गई हरी हुई सब भूमि
    बागों में झूले पड़े, रहे भ्रमण-गण झूमि
    करके याद कुटुंब की फिरे विदेशी लोग
    बिछड़े प्रीतमवालियों के सिर पर छाया सोग
    खोल-खोल छाता चले लोग सड़क के बीच
    कीचड़ में जूते फँसे जैसे अघ में नीच.

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