धुंधला भोर कुंहरा चहुं ओर कुछ तो जला जाने क्या हुई बला क्या हुआ रात? कोई बताये बात। ख़ामोश गांव ठिठुरे हाथ पांव ढुंढे अलाव। अब भाये ना छांव शीत प्रकोप रात में गहराता कोई ना बच पाता।
✒️ मनीभाई’नवरत्न’, बसना, महासमुंद
चोका:-कौन है चित्रकार ?
खुली आंखों से मैं खड़ा निहारता विविध चित्र। कौन है चित्रकार ? कल्पनाशील ये धरा,नदी,वन विविधाकाय किसकी अनुकृति अंतर लिए अंचभित करता हर दिवस रहस्यमयी वह अदृश्य सत्ता कला, विज्ञान पूर्ण मात्र संयोग कैसे यह संभव? जिज्ञासा केंद्र मानव के मन में विस्मय भरा प्रकृति सत्ता पर कृत्रिमता से उठे हुये खतरे। चाल नये पैंतरे।
✍मनीभाई”नवरत्न” [30/05, 11:12 p.m.]
चोका:-मैं जमीन हूँ
मैं जमीन हूँ मात्र भूखंड नहीं जो है दिखता। मुझमें पलते हैं वन ,खदान मरूस्थल,मैदान ताल, सरिता खेत व खलिहान अन्न भंडार बसी जीव संसार अमृत जल मुझसे ही बहार अमूल्य निधि हूँ अचल संपत्ति इंसानों की मैं। कागज टुकड़ों में कैद करके जताते अधिकार लड़ते भाई होती जिनमें प्यार मांँ से प्यारी तू जीने का है आधार आज तैनात देश कगार वीर बचाने सदा अस्मिता रात दिन चिर काल से साम्राज्यवाद जड़ें जमीन हेतु पनपती रहती खून की धार अविरल प्रवाह बहती रही उसे चिंता नहीं है क्या हो घटित? इंसानों की वजूद। हमें ही चिंता दो बीघा जमीन की नींद पूरी हो जहाँ सदा दिन की ऋणी हैं जमीन की। ✍मनीभाई”नवरत्न”
चोका:-मेरा चांद
जगता रहा मेरा चांद ना आया छत है सुना ये दिल घबराया आंखें तांकती एक दूजा चांद को वह कहती कैसा तेरा चांद वो वादा मुकरे सारी रात जगाए विरह पल बेकरारी बढ़ाएं थोड़ी सी कहीं आहट जो है आती लबों पर मेरे मुस्कुराहट छाती देखूं पलट एक महज भ्रम चाहत मेरी क्या हो गई है कम ! आंखों में फिर गम का मेघ छाया वो हकीकत या है केवल माया। ये सोच के ही एक बूंद टपकी गाल से बाहें अश्रुधार छलकी नम करती मेरे सिरहाने को एक अकेले हम गम खाने को घना अंधेरा मन है भारी भारी । तोड़ ख्वाबों की क्यारी।। ✍मनीभाई”नवरत्न”
चोका:- हमशक्ल
दूर वो कौन ? हमशक्ल सा मेरा एक बालक जो दिखता मुझसा हर आदतें हरकतें व बातें मुझपे जाती फिर अकस्मात से सूरत छाती। वो जाना पहचाना पिया सांवली जिसे छोड़ दिया था मैंने अकेला ताकि बसा सकूँ मैं ख्वाबों की मेला। बेवफा बना कर प्रेम आघात। खेलें जी भर प्रेयसी के जज्बात। बन कपटी चला था रिश्ता तोड़ देखा ना फिर राह अपना मोड़ आज आया हूँ फिर बरसों बाद हार कर मैं टूटे ख्वाबों को लाद। जानना चाहा कौन है उसकी मां? हाय ये वही लुटी जिसकी समां दो नैन मिले बिखरे प्रेमियों के एक रोष से दूजा लज्जा ग्रसित सब्र का बांध फिर टूटता जाता दोनों अधीर पछतावे की झड़ी अश्रु नेत्र से आज झरते रहे ये दर्द तुम कैसे सहते रहे लाज बचा ली प्रेम का ,धन्य नारी। सच्ची है तेरी यारी।।
✍मनीभाई”नवरत्न”
चोका -बन प्रकाश
टिमटिमाता दूर से मैं प्रकाश मूक मौन सा फिर भी हूँ बताता अभी नहीं है अंधेरे का साम्राज्य पूरी तरह… ये लौ, मेरा होना उम्मीद रख मरते दम तक जलना मुझे। कोई फूंक तो मारे चिंगारी बन सर्वनाश करूँगा; अखिल धरा मैं ही राज करूँगा। फिर सोचता क्या फर्क रह जाये? तम सा होके जो सब भय खाये। अतः समेटा अंतर्निहित आग। मैं ईश तेरा। बन के आश दीया जलता सदा। मुझको बसा लेना। हो मत जाना अंधेरे का गुलाम। बन स्वयं प्रकाश ।
✍मनीभाई”नवरत्न”
चोका: अब दर्द ही सिला
ढुंढता रहा बीच शहर छाया, वृक्षों की साया। कहीं भी नहीं मिला कैसी दुविधा? यहाँ सुख सुविधा शांति न लाया मन पुष्प ना खिला ये जीवन में जन-गण-मन में कहर ढाया होगी विनाश लीला सब जानता, पर कब मानता जो सरमाया वो है अंबर नीला पानी तलाश उलझी हुई सांस जलती काया प्रकृति नैन गीला जीना दुश्वार खड़ी होती दीवार आग लगाया धर्म से क्या हो गिला? अब जो भी हो हमें जीना पड़ेगा सीना पड़ेगा जो जखम है खिला। अब दर्द ही सिला । ✍मनीभाई”नवरत्न”
चोका:काव्य गढ़ता गया
लिखता गया मन के आवेगों को अपना दर्द कम करता गया। मैं नाकाम हूँ जीवन के पथ में शब्दों से चित्र बस खींचता गया। उभरते हैं मेरे हृदय तल प्रेम व पीड़ा जिन्हें सुनाता गया। कभी खुद की कभी अपनों की मैं किस्सा में हिस्सा एक बनता गया। आज खुश हूँ कल गम से भरा हर दशा में मैं महकता गया। मेरी प्रकृति है अब ये नियति कष्ट सह के घाव भरता गया। यही जिन्दगी अहसासों से भरी धीरे धीरे ये कड़ी जुड़ता गया। काव्य गढ़ता गया। ✍मनीभाई”नवरत्न”
चोका- संग मेरे रहना
सीख गये हैं तुझे प्यार करके सब लोगों से अब प्यार करना जान गये हैं बयां हाल ए दिल नहीं मुश्किल ऐतबार करना उलझा था मैं जबसे तुझे मिला जान गया हूँ अब तो सुलझना। लगी है आग इश्क की दोनों ओर पता है मुझे तेरा भी संवरना। छैन छबीली तेरी आंखें नशीली झुका दे नैन मर जाऊँ वरना। मेरी ख्वाहिश तू ही ख्वाब है मेरा। आजमा मुझे दिल का ये कहना। संग मेरे रहना। ✍मनीभाई”नवरत्न”
चोका -कहाँ मेरा पिंजर ?
उड़े विहंग~ नाप रहे ऊंचाई। धरा से नभ जुदा व तनहाई। तलाश जारी सही ठौर ठिकाना। मन है भारी भूल चुके तराना। जिद में पंछी आशिया बनाने की। ठौर ना कहीं आतंक, जमाने की। कटते वृक्ष चिंता अब खग को फटते वक्ष होश नहीं जग को करते प्रश्न- अब जाना किधर? रहूंगी खुश अब झुका के सर कहाँ मेरा पिंजर ?
✍मनीभाई”नवरत्न”
चोका-मैं एक पत्ता
उड़ता गया कभी ना पूछ पाया तुम मेरे क्या? बस बहता गया हर दिशा में हर मनोदशा में साथ निभाता कभी धूल, पत्थर पंक से सना बेपरवाह बना फंसता गया हां !मैं हंसता गया जीवन मेरा अब तू ही अस्तित्व मैं एक पत्ता सूखा,निर्जीव, त्यक्ता साथ जो तेरा मैं नहीं बेसहारा हवा के झोंके ख़ुश्बू से नहला दे। जी भर बहला दे। ✍मनीभाई”नवरत्न”
चोका:- लाचार दूब
हर सुबह आसमान से गिरे मोती के दाने चमकीले, सजीले दूब के पत्ते समेट ले बूंदों को अपना जान बिखेरती मुस्कान हो जाती हरा पर सूर्य पहरा बड़ी दुरुस्त कौन बचा उससे टेढ़ी नज़र छीने ज़मीदार बन दूब लाचार दुबला कृशकाय कृषक भांति नियति जानकर गँवा देता है सपनों की मोतियाँ सब भूल के प्रतीक्षा करे फिर नयी सुबह लेकर यही आस कब बुझेगी प्यास? ✍मनीभाई”नवरत्न” २७मई २०१८
चोंका -फूल व भौंरा
बसंत पर फूल पे आया भौरा बुझाने प्यास। मधुर गुंजन से भौरा रिझाता चूसता लाल दल पीकर रस भौंरे है मतलबी क्षुधा को मिटा बनते अजनबी फूल को भूल छोड़ दी धूल जान उसे अकेला। शोषको की तरह मद से चूर । तन मन कालिमा किन्तु फिर भी निशान नही छोड़ा ठहराव की । भोग्या ही समझता नहीं चाहता फूल फलने लगे। उसकी चाह लुटता रहे मजे जब वो चाहे । फुल से वो खेलेगा कली को छेड़ अंतस को पीड़ा दे मुरझा देता फिर फूल सी स्त्री प्रतीक्षारत पुनः आगमन की उषा से संध्या भौरे का बेवफाई सहती रही कहती बसंत से हे ऋतुराज! तू भेजा हरजाई विरह पीड़ा जैसे काटती कीड़ा प्रेम परीक्षा दे गयी अब शिक्षा मिट जाना है पंखुड़ी धरा गिरी फूल का प्रेम सौ फीसदी है खरा फल डाल का कोई अनाथ नहीं वो एक गाथा भौरे की अत्याचार फूल की सच्चा प्यार .
चोका- नारी
हर युद्ध का जो कारण बनता लोभ, लालच काम ,मोह स्त्री हेतु पतनोन्मुख इतिहास गवाह स्त्री के सम्मुख धाराशायी हो जाता बड़ा साम्राज्य शक्ति का अवतार नारी सबला। स्त्री चीर हरण से कौरव नाश महाभारत काल रावण अंत सीता हरण कर स्त्री अपमान हर युग का अंत। आज का दौर नारी सब पे भारी गर ठान ले दिशा मोड़े जग का सहनशील प्रेम त्याग की देवी धैर्य की धागा बांधकर रखती देवों का वास तेरे आस पास है। हे नारी तू खास है।
✍मनीभाई”नवरत्न”
चोका:- हरित ग्राम
हरित ग्राम… हरी दीवार पर पेड़ का चित्र। छाया कहीं भी नहीं दूर दूर तक। नयनाभिराम है महज भ्रम। आंखों में झोंक लिये धुल के कण। तात्कालिक लाभ ने किया है अंधा स्वार्थपरता खेलती अस्तित्व से यह जान के बनते अनजान पैसों के लिये बेच दिया ईमान वृक्षारोपण कागज पर धरा असल धरा बंजर पड़ रही सारी योजना अपूर्ण सड़ रही ठेके का काम चंद हस्ताक्षरों से दे दिया नाम हरियाली योजना वृक्षों की कमी संकट है गहरा । पीढ़ियों को खतरा।
दबा के दुखती नस को लाया जलज़ला अभी -अभी च़रागे दिल जला गया वो हमनवा अभी – अभी दुआ करो कि बुझ न पाये आग ये जुनून की मुझे दिखा मुकाम वो चला गया अभी – अभी न जी रहे न मर रहे मिला ये इश्क़ में सिला ये दिल जो बन गया है तेरा महकमा अभी- अभी चले न साथ हमसफर भी अब यहाँ यकीन कर बढ़ा जहां में बेवफा का काफिला अभी – अभी चला मिटाने बेसबब ही हस्तियाँ तू गैर की कि खुद भी रेत के महल में है खड़ा अभी – अभी खामोश है हवा नजारे चाँद गुमसुदा लगे कि गुजरा है यहाँ से कोई दिलजला अभी – अभी उड़ा परिंदा उड़ता ही रहा जी भर गगन में “रुचि” कि तोड़ आया पिंजरे का दायरा अभी – अभी
मिले न सभी को रोटी , नहीं कपड़ा मकान । भूखे ही सबै सोवत , नेता करै न भान ।। १।।
नेता कर जनहित वदन , लालच देवत जात । झुठा वादे करत जात , मान नहीं निज बात ।।२ ।।
हो स्वदेश का विकास , रखते हैं यह आस । सपने हो सबै पूरन , कोय होए न निराश ।।३ ।।
कठिन पथ पर चलकर ही , बनाते सरल राह । मिलेगी मंजिल उनको , जिनके मन में चाह ।।४ ।।
करता मेहनत किसान , खेत की मस्त शान । लहलाती फसलें देख , आती उसमें जान ।।५ ।।
नहीं पाता वह राहत , जब काम होय खास । करै वह तभी आराम , जब फसल होय खास ।।६ ।।
मिले सभी को आवास , योजना यही पास । भूखा प्यासा न सोए , पूरन होये आस ।।७ ।।
सजाए मधुरिम स्वप्न , पूरन होये आज । अधूरा न रहे स्वप्न , पुरन होय सब काज ।। ८ ।।
कुटिल वचन सबसे बुरा , जले करै सब राख । सज्जन वचन जल समान , बरसती अमिय धार ।। ९ ।।
पानी जैसा बुलबुला , ये मानव की जात । मिलते ही छुप जाएगा , ज्यों आया प्र भात ।। १० ।।
रेखा मल्हान ‘ कृष्णा ‘ २३/११/२१
रेखा मल्हान के बारे में
जन्म तिथि : 21 अगस्त 1973 माता : श्रीमती सावित्री देवी पिता : श्री जगत सिंह आर्य शिक्षा : स्नातक संस्कृत दिल्ली विश्वविद्यालय एम०ए० (हिन्दी ) बी०एड० प्रकाशन : राष्ट्रीय पुस्तक हिन्दुस्तानी भाषा भारती ( अप्रैल -जून 2021) में आलेख प्रकाशित हिन्दी में रोजगार के अवसर सम्प्रति : अध्यापन एवं स्वतंत्र लेखन स्थायी पता : मकान न० 87 , सेक्टर 19 , द्वारका नई दिल्ली – 110075 ( हेल्थ सेंटर अम्बरहाई के सामने) पत्राचार का पता : H. No 87 , Opposite Health Center , Sector 19 , Dwarka New Delhi 110075 ईमेल : [email protected] सम्पर्क सूत्र : 8700480256
यहाँ पर सुभद्राकुमारी चौहान की 10 लोकप्रिय रचनाएँ दी गयी हैं
सुभद्राकुमारी चौहान की 10 लोकप्रिय रचनाएँ
अनोखा दान / सुभद्राकुमारी चौहान
अपने बिखरे भावों का मैं गूँथ अटपटा सा यह हार। चली चढ़ाने उन चरणों पर, अपने हिय का संचित प्यार॥
डर था कहीं उपस्थिति मेरी, उनकी कुछ घड़ियाँ बहुमूल्य नष्ट न कर दे, फिर क्या होगा मेरे इन भावों का मूल्य?
संकोचों में डूबी मैं जब पहुँची उनके आँगन में कहीं उपेक्षा करें न मेरी, अकुलाई सी थी मन में।
किंतु अरे यह क्या, इतना आदर, इतनी करुणा, सम्मान? प्रथम दृष्टि में ही दे डाला तुमने मुझे अहो मतिमान!
मैं अपने झीने आँचल में इस अपार करुणा का भार कैसे भला सँभाल सकूँगी उनका वह स्नेह अपार।
लख महानता उनकी पल-पल देख रही हूँ अपनी ओर मेरे लिए बहुत थी केवल उनकी तो करुणा की कोर।
आराधना / सुभद्राकुमारी चौहान
जब मैं आँगन में पहुँची, पूजा का थाल सजाए। शिवजी की तरह दिखे वे, बैठे थे ध्यान लगाए॥
जिन चरणों के पूजन को यह हृदय विकल हो जाता। मैं समझ न पाई, वह भी है किसका ध्यान लगाता?
मैं सन्मुख ही जा बैठी, कुछ चिंतित सी घबराई। यह किसके आराधक हैं, मन में व्याकुलता छाई॥
मैं इन्हें पूजती निशि-दिन, ये किसका ध्यान लगाते? हे विधि! कैसी छलना है, हैं कैसे दृश्य दिखाते??
टूटी समाधि इतने ही में, नेत्र उन्होंने खोले। लख मुझे सामने हँस कर मीठे स्वर में वे बोले॥
फल गई साधना मेरी, तुम आईं आज यहाँ पर। उनकी मंजुल-छाया में भ्रम रहता भला कहाँ पर॥
अपनी भूलों पर मन यह जाने कितना पछताया। संकोच सहित चरणों पर, जो कुछ था वही चढ़ाया॥
झांसी की रानी / सुभद्राकुमारी चौहान
सिंहासन हिल उठे राजवंशों ने भृकुटी तानी थी, बूढ़े भारत में भी आई फिर से नयी जवानी थी, गुमी हुई आज़ादी की कीमत सबने पहचानी थी, दूर फिरंगी को करने की सबने मन में ठानी थी।
चमक उठी सन सत्तावन में, वह तलवार पुरानी थी, बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥
कानपूर के नाना की, मुँहबोली बहन छबीली थी, लक्ष्मीबाई नाम, पिता की वह संतान अकेली थी, नाना के सँग पढ़ती थी वह, नाना के सँग खेली थी, बरछी, ढाल, कृपाण, कटारी उसकी यही सहेली थी।
वीर शिवाजी की गाथायें उसको याद ज़बानी थी, बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥
लक्ष्मी थी या दुर्गा थी वह स्वयं वीरता की अवतार, देख मराठे पुलकित होते उसकी तलवारों के वार, नकली युद्ध-व्यूह की रचना और खेलना खूब शिकार, सैन्य घेरना, दुर्ग तोड़ना ये थे उसके प्रिय खिलवाड़।
महाराष्ट्र-कुल-देवी उसकी भी आराध्य भवानी थी, बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥
हुई वीरता की वैभव के साथ सगाई झाँसी में, ब्याह हुआ रानी बन आई लक्ष्मीबाई झाँसी में, राजमहल में बजी बधाई खुशियाँ छाई झाँसी में, सुघट बुंदेलों की विरुदावलि-सी वह आयी थी झांसी में।
चित्रा ने अर्जुन को पाया, शिव को मिली भवानी थी, बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥
उदित हुआ सौभाग्य, मुदित महलों में उजियाली छाई, किंतु कालगति चुपके-चुपके काली घटा घेर लाई, तीर चलाने वाले कर में उसे चूड़ियाँ कब भाई, रानी विधवा हुई, हाय! विधि को भी नहीं दया आई।
निसंतान मरे राजाजी रानी शोक-समानी थी, बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥
बुझा दीप झाँसी का तब डलहौज़ी मन में हरषाया, राज्य हड़प करने का उसने यह अच्छा अवसर पाया, फ़ौरन फौजें भेज दुर्ग पर अपना झंडा फहराया, लावारिस का वारिस बनकर ब्रिटिश राज्य झाँसी आया।
अश्रुपूर्ण रानी ने देखा झाँसी हुई बिरानी थी, बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥
अनुनय विनय नहीं सुनती है, विकट शासकों की माया, व्यापारी बन दया चाहता था जब यह भारत आया, डलहौज़ी ने पैर पसारे, अब तो पलट गई काया, राजाओं नव्वाबों को भी उसने पैरों ठुकराया।
रानी दासी बनी, बनी यह दासी अब महरानी थी, बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥
छिनी राजधानी दिल्ली की, लखनऊ छीना बातों-बात, कैद पेशवा था बिठूर में, हुआ नागपुर का भी घात, उदैपुर, तंजौर, सतारा,कर्नाटक की कौन बिसात? जब कि सिंध, पंजाब ब्रह्म पर अभी हुआ था वज्र-निपात।
बंगाले, मद्रास आदि की भी तो वही कहानी थी, बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥
रानी रोयीं रनिवासों में, बेगम ग़म से थीं बेज़ार, उनके गहने कपड़े बिकते थे कलकत्ते के बाज़ार, सरे आम नीलाम छापते थे अंग्रेज़ों के अखबार, ‘नागपुर के ज़ेवर ले लो लखनऊ के लो नौलख हार’।
यों परदे की इज़्ज़त परदेशी के हाथ बिकानी थी, बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥
कुटियों में भी विषम वेदना, महलों में आहत अपमान, वीर सैनिकों के मन में था अपने पुरखों का अभिमान, नाना धुंधूपंत पेशवा जुटा रहा था सब सामान, बहिन छबीली ने रण-चण्डी का कर दिया प्रकट आहवान।
हुआ यज्ञ प्रारम्भ उन्हें तो सोई ज्योति जगानी थी, बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥
महलों ने दी आग, झोंपड़ी ने ज्वाला सुलगाई थी, यह स्वतंत्रता की चिनगारी अंतरतम से आई थी, झाँसी चेती, दिल्ली चेती, लखनऊ लपटें छाई थी, मेरठ, कानपुर,पटना ने भारी धूम मचाई थी,
जबलपुर, कोल्हापुर में भी कुछ हलचल उकसानी थी, बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥
इस स्वतंत्रता महायज्ञ में कई वीरवर आए काम, नाना धुंधूपंत, ताँतिया, चतुर अज़ीमुल्ला सरनाम, अहमदशाह मौलवी, ठाकुर कुँवरसिंह सैनिक अभिराम, भारत के इतिहास गगन में अमर रहेंगे जिनके नाम।
लेकिन आज जुर्म कहलाती उनकी जो कुरबानी थी, बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥
इनकी गाथा छोड़, चले हम झाँसी के मैदानों में, जहाँ खड़ी है लक्ष्मीबाई मर्द बनी मर्दानों में, लेफ्टिनेंट वाकर आ पहुँचा, आगे बढ़ा जवानों में, रानी ने तलवार खींच ली, हुया द्वंद असमानों में।
ज़ख्मी होकर वाकर भागा, उसे अजब हैरानी थी, बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥
रानी बढ़ी कालपी आई, कर सौ मील निरंतर पार, घोड़ा थक कर गिरा भूमि पर गया स्वर्ग तत्काल सिधार, यमुना तट पर अंग्रेज़ों ने फिर खाई रानी से हार, विजयी रानी आगे चल दी, किया ग्वालियर पर अधिकार।
अंग्रेज़ों के मित्र सिंधिया ने छोड़ी राजधानी थी, बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥
विजय मिली, पर अंग्रेज़ों की फिर सेना घिर आई थी, अबके जनरल स्मिथ सम्मुख था, उसने मुहँ की खाई थी, काना और मंदरा सखियाँ रानी के संग आई थी, युद्ध श्रेत्र में उन दोनों ने भारी मार मचाई थी।
पर पीछे ह्यूरोज़ आ गया, हाय! घिरी अब रानी थी, बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥
तो भी रानी मार काट कर चलती बनी सैन्य के पार, किन्तु सामने नाला आया, था वह संकट विषम अपार, घोड़ा अड़ा, नया घोड़ा था, इतने में आ गये सवार, रानी एक, शत्रु बहुतेरे, होने लगे वार-पर-वार।
घायल होकर गिरी सिंहनी उसे वीर गति पानी थी, बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥
रानी गई सिधार चिता अब उसकी दिव्य सवारी थी, मिला तेज से तेज, तेज की वह सच्ची अधिकारी थी, अभी उम्र कुल तेइस की थी, मनुज नहीं अवतारी थी, हमको जीवित करने आयी बन स्वतंत्रता-नारी थी,
दिखा गई पथ, सिखा गई हमको जो सीख सिखानी थी, बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥
जाओ रानी याद रखेंगे ये कृतज्ञ भारतवासी, यह तेरा बलिदान जगावेगा स्वतंत्रता अविनासी, होवे चुप इतिहास, लगे सच्चाई को चाहे फाँसी, हो मदमाती विजय, मिटा दे गोलों से चाहे झाँसी।
तेरा स्मारक तू ही होगी, तू खुद अमिट निशानी थी, बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥
जलियाँवाला बाग में बसंत / सुभद्राकुमारी चौहान
यहाँ कोकिला नहीं, काग हैं, शोर मचाते, काले काले कीट, भ्रमर का भ्रम उपजाते।
कलियाँ भी अधखिली, मिली हैं कंटक-कुल से, वे पौधे, व पुष्प शुष्क हैं अथवा झुलसे।
परिमल-हीन पराग दाग सा बना पड़ा है, हा! यह प्यारा बाग खून से सना पड़ा है।
ओ, प्रिय ऋतुराज! किन्तु धीरे से आना, यह है शोक-स्थान यहाँ मत शोर मचाना।
वायु चले, पर मंद चाल से उसे चलाना, दुःख की आहें संग उड़ा कर मत ले जाना।
कोकिल गावें, किन्तु राग रोने का गावें, भ्रमर करें गुंजार कष्ट की कथा सुनावें।
लाना संग में पुष्प, न हों वे अधिक सजीले, तो सुगंध भी मंद, ओस से कुछ कुछ गीले।
किन्तु न तुम उपहार भाव आ कर दिखलाना, स्मृति में पूजा हेतु यहाँ थोड़े बिखराना।
कोमल बालक मरे यहाँ गोली खा कर, कलियाँ उनके लिये गिराना थोड़ी ला कर।
आशाओं से भरे हृदय भी छिन्न हुए हैं, अपने प्रिय परिवार देश से भिन्न हुए हैं।
कुछ कलियाँ अधखिली यहाँ इसलिए चढ़ाना, कर के उनकी याद अश्रु के ओस बहाना।
तड़प तड़प कर वृद्ध मरे हैं गोली खा कर, शुष्क पुष्प कुछ वहाँ गिरा देना तुम जा कर।
यह सब करना, किन्तु यहाँ मत शोर मचाना, यह है शोक-स्थान बहुत धीरे से आना।
मेरा नया बचपन / सुभद्राकुमारी चौहान
बार-बार आती है मुझको मधुर याद बचपन तेरी। गया ले गया तू जीवन की सबसे मस्त खुशी मेरी॥
चिंता-रहित खेलना-खाना वह फिरना निर्भय स्वच्छंद। कैसे भूला जा सकता है बचपन का अतुलित आनंद?
ऊँच-नीच का ज्ञान नहीं था छुआछूत किसने जानी? बनी हुई थी वहाँ झोंपड़ी और चीथड़ों में रानी॥
किये दूध के कुल्ले मैंने चूस अँगूठा सुधा पिया। किलकारी किल्लोल मचाकर सूना घर आबाद किया॥
रोना और मचल जाना भी क्या आनंद दिखाते थे। बड़े-बड़े मोती-से आँसू जयमाला पहनाते थे॥
मैं रोई, माँ काम छोड़कर आईं, मुझको उठा लिया। झाड़-पोंछ कर चूम-चूम कर गीले गालों को सुखा दिया॥
दादा ने चंदा दिखलाया नेत्र नीर-युत दमक उठे। धुली हुई मुस्कान देख कर सबके चेहरे चमक उठे॥
वह सुख का साम्राज्य छोड़कर मैं मतवाली बड़ी हुई। लुटी हुई, कुछ ठगी हुई-सी दौड़ द्वार पर खड़ी हुई॥
लाजभरी आँखें थीं मेरी मन में उमँग रँगीली थी। तान रसीली थी कानों में चंचल छैल छबीली थी॥
दिल में एक चुभन-सी थी यह दुनिया अलबेली थी। मन में एक पहेली थी मैं सब के बीच अकेली थी॥
मिला, खोजती थी जिसको हे बचपन! ठगा दिया तूने। अरे! जवानी के फंदे में मुझको फँसा दिया तूने॥
सब गलियाँ उसकी भी देखीं उसकी खुशियाँ न्यारी हैं। प्यारी, प्रीतम की रँग-रलियों की स्मृतियाँ भी प्यारी हैं॥
माना मैंने युवा-काल का जीवन खूब निराला है। आकांक्षा, पुरुषार्थ, ज्ञान का उदय मोहनेवाला है॥
किंतु यहाँ झंझट है भारी युद्ध-क्षेत्र संसार बना। चिंता के चक्कर में पड़कर जीवन भी है भार बना॥
आ जा बचपन! एक बार फिर दे दे अपनी निर्मल शांति। व्याकुल व्यथा मिटानेवाली वह अपनी प्राकृत विश्रांति॥
वह भोली-सी मधुर सरलता वह प्यारा जीवन निष्पाप। क्या आकर फिर मिटा सकेगा तू मेरे मन का संताप?
मैं बचपन को बुला रही थी बोल उठी बिटिया मेरी। नंदन वन-सी फूल उठी यह छोटी-सी कुटिया मेरी॥
‘माँ ओ’ कहकर बुला रही थी मिट्टी खाकर आयी थी। कुछ मुँह में कुछ लिये हाथ में मुझे खिलाने लायी थी॥
पुलक रहे थे अंग, दृगों में कौतूहल था छलक रहा। मुँह पर थी आह्लाद-लालिमा विजय-गर्व था झलक रहा॥
मैंने पूछा ‘यह क्या लायी?’ बोल उठी वह ‘माँ, काओ’। हुआ प्रफुल्लित हृदय खुशी से मैंने कहा – ‘तुम्हीं खाओ’॥
पाया मैंने बचपन फिर से बचपन बेटी बन आया। उसकी मंजुल मूर्ति देखकर मुझ में नवजीवन आया॥
मैं भी उसके साथ खेलती खाती हूँ, तुतलाती हूँ। मिलकर उसके साथ स्वयं मैं भी बच्ची बन जाती हूँ॥
जिसे खोजती थी बरसों से अब जाकर उसको पाया। भाग गया था मुझे छोड़कर वह बचपन फिर से आया॥
मेरा जीवन / सुभद्राकुमारी चौहान
मैंने हँसना सीखा है मैं नहीं जानती रोना; बरसा करता पल-पल पर मेरे जीवन में सोना।
मैं अब तक जान न पाई कैसी होती है पीडा; हँस-हँस जीवन में कैसे करती है चिंता क्रिडा।
जग है असार सुनती हूँ, मुझको सुख-सार दिखाता; मेरी आँखों के आगे सुख का सागर लहराता।
उत्साह, उमंग निरंतर रहते मेरे जीवन में, उल्लास विजय का हँसता मेरे मतवाले मन में।
आशा आलोकित करती मेरे जीवन को प्रतिक्षण हैं स्वर्ण-सूत्र से वलयित मेरी असफलता के घन।
सुख-भरे सुनले बादल रहते हैं मुझको घेरे; विश्वास, प्रेम, साहस हैं जीवन के साथी मेरे।
वीरों का कैसा हो वसंत / सुभद्राकुमारी चौहान
आ रही हिमालय से पुकार है उदधि गरजता बार बार प्राची पश्चिम भू नभ अपार; सब पूछ रहें हैं दिग-दिगन्त वीरों का कैसा हो वसंत
फूली सरसों ने दिया रंग मधु लेकर आ पहुंचा अनंग वधु वसुधा पुलकित अंग अंग; है वीर देश में किन्तु कंत वीरों का कैसा हो वसंत
भर रही कोकिला इधर तान मारू बाजे पर उधर गान है रंग और रण का विधान; मिलने को आए आदि अंत वीरों का कैसा हो वसंत
गलबाहें हों या कृपाण चलचितवन हो या धनुषबाण हो रसविलास या दलितत्राण; अब यही समस्या है दुरंत वीरों का कैसा हो वसंत
कह दे अतीत अब मौन त्याग लंके तुझमें क्यों लगी आग ऐ कुरुक्षेत्र अब जाग जाग; बतला अपने अनुभव अनंत वीरों का कैसा हो वसंत
हल्दीघाटी के शिला खण्ड ऐ दुर्ग सिंहगढ़ के प्रचंड राणा ताना का कर घमंड; दो जगा आज स्मृतियां ज्वलंत वीरों का कैसा हो वसंत
भूषण अथवा कवि चंद नहीं बिजली भर दे वह छन्द नहीं है कलम बंधी स्वच्छंद नहीं; फिर हमें बताए कौन हन्त वीरों का कैसा हो वसंत
यह कदम्ब का पेड़ / सुभद्राकुमारी चौहान
यह कदंब का पेड़ अगर माँ होता यमुना तीरे। मैं भी उस पर बैठ कन्हैया बनता धीरे-धीरे॥
ले देतीं यदि मुझे बांसुरी तुम दो पैसे वाली। किसी तरह नीची हो जाती यह कदंब की डाली॥
तुम्हें नहीं कुछ कहता पर मैं चुपके-चुपके आता। उस नीची डाली से अम्मा ऊँचे पर चढ़ जाता॥
वहीं बैठ फिर बड़े मजे से मैं बांसुरी बजाता। अम्मा-अम्मा कह वंशी के स्वर में तुम्हे बुलाता॥
सुन मेरी बंसी को माँ तुम इतनी खुश हो जाती। मुझे देखने काम छोड़ कर तुम बाहर तक आती॥
तुमको आता देख बांसुरी रख मैं चुप हो जाता। पत्तों में छिपकर धीरे से फिर बांसुरी बजाता॥
गुस्सा होकर मुझे डांटती, कहती “नीचे आजा”। पर जब मैं ना उतरता, हंसकर कहती “मुन्ना राजा”॥
“नीचे उतरो मेरे भैया तुम्हें मिठाई दूंगी। नए खिलौने, माखन-मिसरी, दूध मलाई दूंगी”॥
बहुत बुलाने पर भी माँ जब नहीं उतर कर आता। माँ, तब माँ का हृदय तुम्हारा बहुत विकल हो जाता॥
तुम आँचल फैला कर अम्मां वहीं पेड़ के नीचे। ईश्वर से कुछ विनती करतीं बैठी आँखें मीचे॥
तुम्हें ध्यान में लगी देख मैं धीरे-धीरे आता। और तुम्हारे फैले आँचल के नीचे छिप जाता॥
तुम घबरा कर आँख खोलतीं, पर माँ खुश हो जाती। जब अपने मुन्ना राजा को गोदी में ही पातीं॥
इसी तरह कुछ खेला करते हम-तुम धीरे-धीरे। यह कदंब का पेड़ अगर माँ होता यमुना तीरे॥
हे काले-काले बादल / सुभद्राकुमारी चौहान
हे काले-काले बादल, ठहरो, तुम बरस न जाना। मेरी दुखिया आँखों से, देखो मत होड़ लगाना॥ तुम अभी-अभी आये हो, यह पल-पल बरस रही हैं। तुम चपला के सँग खुश हो, यह व्याकुल तरस रही हैं॥ तुम गरज-गरज कर अपनी, मादकता क्यों भरते हो? इस विधुर हृदय को मेरे, नाहक पीड़ित करते हो॥ मैं उन्हें खोजती फिरती, पागल-सी व्याकुल होती। गिर जाते इन आँखों से, जाने कितने ही मोती॥
सभा का खेल / सुभद्राकुमारी चौहान
सभा सभा का खेल आज हम खेलेंगे जीजी आओ, मैं गाधी जी, छोटे नेहरू तुम सरोजिनी बन जाओ।
मेरा तो सब काम लंगोटी गमछे से चल जाएगा, छोटे भी खद्दर का कुर्ता पेटी से ले आएगा।
लेकिन जीजी तुम्हें चाहिए एक बहुत बढ़िया सारी, वह तुम माँ से ही ले लेना आज सभा होगी भारी।
मोहन लल्ली पुलिस बनेंगे हम भाषण करने वाले, वे लाठियाँ चलाने वाले हम घायल मरने वाले।
छोटे बोला देखो भैया मैं तो मार न खाऊँगा, मुझको मारा अगर किसी ने मैं भी मार लगाऊँगा!
कहा बड़े ने-छोटे जब तुम नेहरू जी बन जाओगे, गांधी जी की बात मानकर क्या तुम मार न खाओगे?
खेल खेल में छोटे भैया होगी झूठमूठ की मार, चोट न आएगी नेहरू जी अब तुम हो जाओ तैयार।
हुई सभा प्रारम्भ, कहा गांधी ने चरखा चलवाओ, नेहरू जी भी बोले भाई खद्दर पहनो पहनाओ।
उठकर फिर देवी सरोजिनी धीरे से बोलीं, बहनो! हिन्दू मुस्लिम मेल बढ़ाओ सभी शुद्ध खद्दर पहनो।
छोड़ो सभी विदेशी चीजें लो देशी सूई तागा, इतने में लौटे काका जी नेहरू सीट छोड़ भागा।
काका आए, काका आए चलो सिनेमा जाएँगे, घोरी दीक्षित को देखेंगे केक-मिठाई खाएँगे!
जीजी, चलो, सभा फिर होगी अभी सिनेमा है जाना, आओ, खेल बहुत अच्छा है फिर सरोजिनी बन जाना।
चलो चलें, अब जरा देर को घोरी दीक्षित बन जाएँ, उछलें-कूदें शोर मचावें मोटर गाड़ी दौड़ावें!