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  • सोहनलाल द्विवेदी की लोकप्रिय कवितायेँ

    सोहनलाल द्विवेदी की लोकप्रिय कवितायेँ
    hindi poet and their poetry

    जी होता चिड़िया बन जाऊँ / सोहनलाल द्विवेदी

    जी होता, चिड़िया बन जाऊँ!
    मैं नभ में उड़कर सुख पाऊँ!

    मैं फुदक-फुदककर डाली पर,
    डोलूँ तरु की हरियाली पर,
    फिर कुतर-कुतरकर फल खाऊँ!
    जी होता चिड़िया बन जाऊँ!

    कितना अच्छा इनका जीवन?
    आज़ाद सदा इनका तन-मन!
    मैं भी इन-सा गाना गाऊँ!
    जी होता, चिड़िया बन जाऊँ!

    जंगल-जंगल में उड़ विचरूँ,
    पर्वत घाटी की सैर करूँ,
    सब जग को देखूँ इठलाऊँ!
    जी होता चिड़िया बन जाऊँ!

    कितना स्वतंत्र इनका जीवन?
    इनको न कहीं कोई बंधन!
    मैं भी इनका जीवन पाऊँ!
    जी होता चिड़िया बन जाऊँ!

    हिमालय / सोहनलाल द्विवेदी

    युग युग से है अपने पथ पर
    देखो कैसा खड़ा हिमालय!
    डिगता कभी न अपने प्रण से
    रहता प्रण पर अड़ा हिमालय!

    जो जो भी बाधायें आईं
    उन सब से ही लड़ा हिमालय,
    इसीलिए तो दुनिया भर में
    हुआ सभी से बड़ा हिमालय!

    अगर न करता काम कभी कुछ
    रहता हरदम पड़ा हिमालय
    तो भारत के शीश चमकता
    नहीं मुकुट–सा जड़ा हिमालय!

    खड़ा हिमालय बता रहा है
    डरो न आँधी पानी में,
    खड़े रहो अपने पथ पर
    सब कठिनाई तूफानी में!

    डिगो न अपने प्रण से तो ––
    सब कुछ पा सकते हो प्यारे!
    तुम भी ऊँचे हो सकते हो
    छू सकते नभ के तारे!!

    अचल रहा जो अपने पथ पर
    लाख मुसीबत आने में,
    मिली सफलता जग में उसको
    जीने में मर जाने में!

    आया वसंत आया वसंत / सोहनलाल द्विवेदी

    आया वसंत आया वसंत
    छाई जग में शोभा अनंत।

    सरसों खेतों में उठी फूल
    बौरें आमों में उठीं झूल
    बेलों में फूले नये फूल

    पल में पतझड़ का हुआ अंत
    आया वसंत आया वसंत।

    लेकर सुगंध बह रहा पवन
    हरियाली छाई है बन बन,
    सुंदर लगता है घर आँगन

    है आज मधुर सब दिग दिगंत
    आया वसंत आया वसंत।

    भौरे गाते हैं नया गान,
    कोकिला छेड़ती कुहू तान
    हैं सब जीवों के सुखी प्राण,

    इस सुख का हो अब नही अंत
    घर-घर में छाये नित वसंत।

    बढे़ चलो, बढे़ चलो / सोहनलाल द्विवेदी

    न हाथ एक शस्त्र हो,
    न हाथ एक अस्त्र हो,
    न अन्न वीर वस्त्र हो,
    हटो नहीं, डरो नहीं, बढ़े चलो, बढ़े चलो ।

    रहे समक्ष हिम-शिखर,
    तुम्हारा प्रण उठे निखर,
    भले ही जाए जन बिखर,
    रुको नहीं, झुको नहीं, बढ़े चलो, बढ़े चलो ।

    घटा घिरी अटूट हो,
    अधर में कालकूट हो,
    वही सुधा का घूंट हो,
    जिये चलो, मरे चलो, बढ़े चलो, बढ़े चलो ।

    गगन उगलता आग हो,
    छिड़ा मरण का राग हो,
    लहू का अपने फाग हो,
    अड़ो वहीं, गड़ो वहीं, बढ़े चलो, बढ़े चलो ।

    चलो नई मिसाल हो,
    जलो नई मिसाल हो,
    बढो़ नया कमाल हो,
    झुको नही, रूको नही, बढ़े चलो, बढ़े चलो ।

    अशेष रक्त तोल दो,
    स्वतंत्रता का मोल दो,
    कड़ी युगों की खोल दो,
    डरो नही, मरो नहीं, बढ़े चलो, बढ़े चलो ।

    जय राष्ट्रीय निशान / सोहनलाल द्विवेदी

    जय राष्ट्रीय निशान!
    जय राष्ट्रीय निशान!!!
    लहर लहर तू मलय पवन में,
    फहर फहर तू नील गगन में,
    छहर छहर जग के आंगन में,
    सबसे उच्च महान!
    सबसे उच्च महान!
    जय राष्ट्रीय निशान!!
    जब तक एक रक्त कण तन में,

    डिगे न तिल भर अपने प्रण में,हाहाकार मचावें रण में,
    जननी की संतान
    जय राष्ट्रीय निशान!
    मस्तक पर शोभित हो रोली,
    बढे शुरवीरों की टोली,
    खेलें आज मरण की होली,
    बूढे और जवान
    बूढे और जवान!
    जय राष्ट्रीय निशान!
    मन में दीन-दुःखी की ममता,
    हममें हो मरने की क्षमता,
    मानव मानव में हो समता,
    धनी गरीब समान
    गूंजे नभ में तान
    जय राष्ट्रीय निशान!
    तेरा मेरा मेरुदंड हो कर में,
    स्वतन्त्रता के महासमर में,
    वज्र शक्ति बन व्यापे उस में,
    दे दें जीवन-प्राण!
    दे दें जीवन प्राण!
    जय राष्ट्रीय निशान!!

    युगावतार गांधी / सोहनलाल द्विवेदी

    चल पड़े जिधर दो डग मग में
    चल पड़े कोटि पग उसी ओर,
    पड़ गई जिधर भी एक दृष्टि
    गड़ गये कोटि दृग उसी ओर,
    जिसके शिर पर निज धरा हाथ
    उसके शिर-रक्षक कोटि हाथ,
    जिस पर निज मस्तक झुका दिया
    झुक गये उसी पर कोटि माथ;
    हे कोटिचरण, हे कोटिबाहु!
    हे कोटिरूप, हे कोटिनाम!
    तुम एकमूर्ति, प्रतिमूर्ति कोटि
    हे कोटिमूर्ति, तुमको प्रणाम!
    युग बढ़ा तुम्हारी हँसी देख
    युग हटा तुम्हारी भृकुटि देख,
    तुम अचल मेखला बन भू की
    खींचते काल पर अमिट रेख;
    तुम बोल उठे, युग बोल उठा,
    तुम मौन बने, युग मौन बना,
    कुछ कर्म तुम्हारे संचित कर
    युगकर्म जगा, युगधर्म तना;
    युग-परिवर्तक, युग-संस्थापक,
    युग-संचालक, हे युगाधार!
    युग-निर्माता, युग-मूर्ति! तुम्हें
    युग-युग तक युग का नमस्कार!
    तुम युग-युग की रूढ़ियाँ तोड़
    रचते रहते नित नई सृष्टि,
    उठती नवजीवन की नींवें
    ले नवचेतन की दिव्य-दृष्टि;
    धर्माडंबर के खँडहर पर
    कर पद-प्रहार, कर धराध्वस्त
    मानवता का पावन मंदिर
    निर्माण कर रहे सृजनव्यस्त!
    बढ़ते ही जाते दिग्विजयी!
    गढ़ते तुम अपना रामराज,
    आत्माहुति के मणिमाणिक से
    मढ़ते जननी का स्वर्णताज!
    तुम कालचक्र के रक्त सने
    दशनों को कर से पकड़ सुदृढ़,
    मानव को दानव के मुँह से
    ला रहे खींच बाहर बढ़ बढ़;
    पिसती कराहती जगती के
    प्राणों में भरते अभय दान,
    अधमरे देखते हैं तुमको,
    किसने आकर यह किया त्राण?
    दृढ़ चरण, सुदृढ़ करसंपुट से
    तुम कालचक्र की चाल रोक,
    नित महाकाल की छाती पर
    लिखते करुणा के पुण्य श्लोक!
    कँपता असत्य, कँपती मिथ्या,
    बर्बरता कँपती है थरथर!
    कँपते सिंहासन, राजमुकुट
    कँपते, खिसके आते भू पर,
    हैं अस्त्र-शस्त्र कुंठित लुंठित,
    सेनायें करती गृह-प्रयाण!
    रणभेरी तेरी बजती है,
    उड़ता है तेरा ध्वज निशान!
    हे युग-दृष्टा, हे युग-स्रष्टा,
    पढ़ते कैसा यह मोक्ष-मंत्र?
    इस राजतंत्र के खँडहर में
    उगता अभिनव भारत स्वतंत्र!

    जगमग जगमग / सोहनलाल द्विवेदी

    हर घर, हर दर, बाहर, भीतर,
    नीचे ऊपर, हर जगह सुघर,
    कैसी उजियाली है पग-पग?
    जगमग जगमग जगमग जगमग!

    छज्जों में, छत में, आले में,
    तुलसी के नन्हें थाले में,
    यह कौन रहा है दृग को ठग?
    जगमग जगमग जगमग जगमग!

    पर्वत में, नदियों, नहरों में,
    प्यारी प्यारी सी लहरों में,
    तैरते दीप कैसे भग-भग!
    जगमग जगमग जगमग जगमग!

    राजा के घर, कंगले के घर,
    हैं वही दीप सुंदर सुंदर!
    दीवाली की श्री है पग-पग,
    जगमग जगमग जगमग जगमग!

    नववर्ष / सोहनलाल द्विवेदी

    स्वागत! जीवन के नवल वर्ष
    आओ, नूतन-निर्माण लिये,
    इस महा जागरण के युग में
    जाग्रत जीवन अभिमान लिये;

    दीनों दुखियों का त्राण लिये
    मानवता का कल्याण लिये,
    स्वागत! नवयुग के नवल वर्ष!
    तुम आओ स्वर्ण-विहान लिये।

    संसार क्षितिज पर महाक्रान्ति
    की ज्वालाओं के गान लिये,
    मेरे भारत के लिये नई
    प्रेरणा नया उत्थान लिये;

    मुर्दा शरीर में नये प्राण
    प्राणों में नव अरमान लिये,
    स्वागत!स्वागत! मेरे आगत!
    तुम आओ स्वर्ण विहान लिये!

    युग-युग तक पिसते आये
    कृषकों को जीवन-दान लिये,
    कंकाल-मात्र रह गये शेष
    मजदूरों का नव त्राण लिये;

    श्रमिकों का नव संगठन लिये,
    पददलितों का उत्थान लिये;
    स्वागत!स्वागत! मेरे आगत!
    तुम आओ स्वर्ण विहान लिये!

    सत्ताधारी साम्राज्यवाद के
    मद का चिर-अवसान लिये,
    दुर्बल को अभयदान,
    भूखे को रोटी का सामान लिये;

    जीवन में नूतन क्रान्ति
    क्रान्ति में नये-नये बलिदान लिये,
    स्वागत! जीवन के नवल वर्ष
    आओ, तुम स्वर्ण विहान लिये!

    पूजा-गीत / सोहनलाल द्विवेदी

    वंदना के इन स्वरों में एक स्वर मेरा मिला लो।
    राग में जब मत्त झूलो
    तो कभी माँ को न भूलो,
    अर्चना के रत्नकण में एक कण मेरा मिला लो।
    जब हृदय का तार बोले,
    शृंखला के बंद खोले;
    हों जहाँ बलि शीश अगणित, एक शिर मेरा मिला लो।

    कोशिश करने वालों की हार नहीं होती / सोहनलाल द्विवेदी

    लहरों से डर कर नौका पार नहीं होती
    कोशिश करने वालों की हार नहीं होती

    नन्हीं चींटी जब दाना लेकर चलती है
    चढ़ती दीवारों पर, सौ बार फिसलती है
    मन का विश्वास रगों में साहस भरता है
    चढ़कर गिरना, गिरकर चढ़ना न अखरता है
    आख़िर उसकी मेहनत बेकार नहीं होती
    कोशिश करने वालों की हार नहीं होती

    डुबकियां सिंधु में गोताखोर लगाता है
    जा जाकर खाली हाथ लौटकर आता है
    मिलते नहीं सहज ही मोती गहरे पानी में
    बढ़ता दुगना उत्साह इसी हैरानी में
    मुट्ठी उसकी खाली हर बार नहीं होती
    कोशिश करने वालों की हार नहीं होती

    असफलता एक चुनौती है, स्वीकार करो
    क्या कमी रह गई, देखो और सुधार करो
    जब तक न सफल हो, नींद चैन को त्यागो तुम
    संघर्ष का मैदान छोड़ मत भागो तुम
    कुछ किये बिना ही जय जयकार नहीं होती
    कोशिश करने वालों की हार नहीं होती

  • हर तरफ है भ्रष्टाचार – आशीष कुमार

    हर तरफ है भ्रष्टाचार – आशीष कुमार

    लूट खसोट का है व्यवहार
    हर तरफ है भ्रष्टाचार
    समाज का हो गया बंटाधार
    हर तरफ है भ्रष्टाचार

    लंबी लंबी लगी कतार
    चढ़ावा यहां अब शिष्टाचार
    काम निकाले चाटुकार
    हर तरफ है भ्रष्टाचार

    मेधा हो गई है बेकार
    मजा ले रहे पैरोकार
    हो रहे सपने उनके साकार
    हर तरफ है भ्रष्टाचार.

    डूबी लुटिया जो हैं ईमानदार
    कुंठा के हो रहे शिकार
    नौकरी तरक्की सबसे बेजार
    हर तरफ है भ्रष्टाचार.

    बदल रहा आचार-विचार
    रिश्वत लगाती नैया पार
    काले धन का है कारोबार
    हर तरफ है भ्रष्टाचार.

    निष्ठा हो गई तार तार
    सब कुछ लेते हैं डकार
    व्यवस्था हो गई है लाचार
    हर तरफ है भ्रष्टाचार.

    न्याय की है सबको दरकार
    आंख मूंदे बैठी सरकार
    पट्टी खुले तो मिटे अंधकार
    हर तरफ है भ्रष्टाचार.

  • विनोद सिल्ला की व्यंग्य कवितायेँ

    यहाँ पर विनोद सिल्ला की व्यंग्य कवितायेँ प्रकाशित की गयी हैं आपको कौन सी अच्छी लगी कमेंट कर जरुर बताएँगे

    कविता संग्रह
    कविता संग्रह

    दो-दो भारत

    वंचितों  की  बस्तियां  इस  ओर  हैं,
    सम्पन्नों  की  बस्तियां  उस ओर  हैं,

    उधर महके  सम्पन्नता  में  छोर-छोर,
    इधर अभावग्रस्त  है  हर  कोर-कोर,

    उधर पकवानों की  महक  उठी  है,
    इधर पतीली उपेक्षित  सी  पड़ी  है,

    उधर पालतू कुत्ते भी गोश्त खाते हैं,
    इधर के बच्चे कुपोषित हो  जाते हैं,

    वो  नित  छोड़ते  हैं  झूठन थाली में,
    इधर  फाके  हो  जाते  हैं कंगाली में,

    उधर  अय्याशी  पे  खर्च हो जाता है,
    इधर  बालक  भूखा  ही सो जाता है,

    सिल्ला  इस  धरा  पे दो-दो भारत हैं,
    इधर  झुग्गियां  उधर ऊंची इमारत हैं,

    -विनोद सिल्ला©

    संवेदनहीन क्यों?

    पशु आपस में
    लङते हैं खूब
    पंछी भी आपस में
    भिङते हैं खूब
    कीट-पतंग भी
    करते हैं संघर्ष
    इनके गुण
    इनके स्वभाव
    इनकी आदत
    इनका खानपान
    इनकी प्रवृत्ति
    अलग-अलग हैं
    पर इनमें
    छूत-अछूत
    अगङे-पिछङे
    हिन्दू-मुस्लिम
    अमीर-गरीब
    छोटे-बङे
    श्वेत-अश्वेत
    का भेद नहीं
    मात्र इन्सान ही
    है संवेदनहीन
    क्यों????? -विनोद सिल्ला

    अल्लाहदीन का चिराग

    अल्लाहदीन का वही चिराग
    लग   जाए   जो   मेरे   हाथ
    इलाज करूंगा  एक मिनट मे
    आतंकवाद   हुआ  लाइलाज
    भ्रष्टाचार    पे    रोक     होगी
    हर   नागरिक  जाएगा   जाग
    कन्या भ्रुण  हत्या बंद  होगी
    सुनवा    दूंगा    ऐसा    राग
    महकेंगी  अमन  की  फसलें
    उपजे शान्ति की सब्जी साग
    नैतिक   मूल्य  स्थापित  होंगे
    पवित्र  होंगे   हंस  और  काग
    जाति पांति को खत्म करूंगा
    सब     हो     जांएगे   बेलाग
    हिंदू-मुस्लिम  न  होगा  कोई
    बुझ जाए साम्प्रदायिक आग
    यौन   शोषण   नही   होएगा
    महक    उठेगा   प्रेम   पराग
    सिल्ला   भाषावाद   मिटेगा
    व्यवस्थित होगा  हर  विभाग
    -विनोद सिल्ला

    छोटी मछली

    मैं  हूँ  एक  छोटी  सी  मछली।
    सपनों  के   सागर  में  मचली।।
    सोचा  था   सारा   सागर   मेरा,
    ले आजादी का सपना निकली।।
    बङे- बङे  मगरमच्छ  वहां  थे,
    था आजादी का सपना नकली।।
    बङी  मछली  छोटी  को  खाए,
    इनका  राग  इन्हीं  की  ढफली।।
    छोटी   का   न   होता    गुजारा,
    बङी   खाती  है  काजू  कतली।।
    सिल्ला’  इस  सोच  में  है  डूबा,
    भेद नहीं  क्या  असली  नकली।।
    -विनोद सिल्ला

    मैं हूँ साक्षी

    बन रहे हैं
    वक्त के
    नए-नए सांचे
    ढल रहा है इंसान
    इन नए-नए
    सांचों में
    गुजर रहा है इंसान
    परिवर्तन के दौर से
    बदल रही हैं
    पुरातन परम्पराएं
    आमजन की मान्यताएं
    सबकी आकांक्षाएं
    हो रहे हैं परिवर्तन
    सुखद व दुखद
    मैं हूँ साक्षी
    इन परिवर्तनों का -विनोद सिल्ला©

    शहीद हो गई

    वो सैनिक
    हो गया शहीद
    सीमा पर अपना
    कर्तव्य निभाते-निभाते
    सिर्फ वही
    शहीद नहीं हुआ
    शहीद हो गई
    सदा के लिए
    एक घर की खुशियाँ
    शहीद हो गया
    दूधमुंहे नवजातों के
    सिर का साया
    शहीद हो गई
    बूढ़े मां-बाप की
    बुढा़पे की लाठी
    शहीद हो गई
    उन राजनेताओं की
    शर्मो-लाज
    जो शहीद की
    अंतेष्ठी में भी
    साध रहे हैं वोट-बैंक -विनोद सिल्ला©

    चुनाव की तैयारी      

    बस्तियां
    जल रही थी
    जय श्री राम
    अल्लाह हू अकबर
    की आवाजें
    सुनाई दे रहे थी
    सभी राजनैतिक दल
    एक-दूसरे को
    दंगों के लिए
    दोषी ठहरा रहे थे
    ये सब
    निकट भविष्य के
    चुनाव की
    तैयारी चल रही थी

    -विनोद सिल्ला©

    धर्म की खिचड़ी        

    सुबह-सुबह
    पड़ती है कानों में
    गुरद्वारे से आती
    गुरबाणी की आवाज
    तभी हो जाती है शुरु
    मंदिर की आरती
    दूसरी ओर से
    आती हैं आवाजें
    अजानों की
    नहीं समझ पाता
    किस से
    मिल रही है
    क्या शिक्षा
    सब आवाजें मिलकर
    बना डालती हैं
    धर्म की खिचड़ी

    विनोद सिल्ला©

    हवा का रुख मोङने वाले

    हर लचकदार वस्तु
    अपने आपको
    हवा के रुख के साथ
    मोङ लेती है
    कुछ एक
    सख्त प्रवृति के
    जिन्हें अक्सर
    सूखे ठूँठ
    अकङे हुए ठूँठ
    कहा जाता है
    जो सीधे खङे रहते हैं
    अक्सर टूट जाते हैं
    पर झुकते नहीं
    उनका प्रयास
    हवा के रुख को
    मोङने का होता है
    और जो इस प्रयास में
    कामयाब हो जाते हैं
    उन्हें लोग
    कार्ल मार्क्स
    नैल्सन मण्डेला
    अम्बेडकर
    कहने लगते हैं
    -विनोद सिल्ला

    जीत गया चुनाव

    जीत कर चुनाव
    किए वादों की
    करते-करते वादाखिलाफी
    बीत गए साढे़ चार साल
    अब नेता जी को
    आए पसीने
    पृथ्वी देने लगी दिखाई
    छोटी-सी
    लगने लगा
    निर्वाचन क्षेत्र भयावह
    दरकता नजर आया
    जनसमर्थन का किला
    तो खोल दिए
    उस तहखाने के मुंह
    जिसमें रखी थी
    काली कमाई की
    काली दौलत
    कुछ टिकट के बदले
    हाईकमान को दे दी
    कुछ को मीडिया कर्मी
    चाट गए
    कुछ को बूथ कैप्चर
    आपस में बांट गए
    और नेता जी
    फिर से चुनाव जीत गए।
    ••••••••√••••••••
    -विनोद सिल्ला©

    शूरवीर

    शूरवीर वह नहीं
    जो करके नरसंहार
    जीत ले कलिंग-युद्ध
    जो बहा दे
    लहू का दरिया
    जो मचा दे चहूंओर
    त्राही-त्राही
    जो कर दे अनाथ
    अबोध बच्चों को
    जो कर दे विधवा
    नवयुवतियों को
    जो छीन ले
    बुढ़ापे की लाठी
    वृद्ध माता-पिता से
    निसंदेह वह
    शूरवीर है जो
    फैला दे अमन संदेश
    पूरी दुनिया में
    बुद्ध बनकर
    जो दे शिक्षा
    मानव-मानव
    एक समान होने की


    -विनोद सिल्ला

    द्रौणों की फौज

    यहाँ द्रौणों  की  फौज  हो  गई।
    अर्जुनों की  भी  मौज  हो  गई।।

    एकलव्य  को नहीं मिला  प्रवेश,
    डोनेशन  वाले  ही  बने   विशेष,
    शिक्षा नीलाम यहाँ रोज हो गई।।

    घर बैठे टैक्नीकल कोर्स  करिए,
    पर नोन अटैंडिंग के पैसे  भरिए,
    प्रतिभा क्यों यहाँ बोझ  हो  गई।।

    फेल  नहीं  करना  है  यहाँ  कोई,
    लम्बी  तान  के   व्यवस्था   सोई,
    भ्रष्ट  तरीकों  की  खोज  हो गई।।

    शिक्षा भी आज व्यापार  बन  गई,
    पूंजीपति का  अधिकार  बन  गई,
    बस जेब भरने की सोच  हो  गई।।


    सिल्ला’ भी  इसकी एक  इकाई है,
    न  राहत  कहीं  भी नजर आई  है,
    सारी  व्यवस्था  विनोद   हो   गई।।


    -विनोद सिल्ला©

    गवाही शंबुक रीषि की

    गवाही शंबुक रीषि की
    कटी गर्दन
    एकलव्य का
    कटा अंगूठा
    टूटे व जीर्ण-शीर्ण
    बौद्ध स्तूप
    खंडित बुद्ध की प्रतिमाएं
    धवस्त तक्षशिला व नालंदा
    तहस-नहस
    बौद्ध साहित्य
    धूमिल बौद्ध इतिहास
    दे रहा है गवाही
    कितना असहिष्णु
    कितना भयावह
    था अतीत

    -विनोद सिल्ला©

    जंगली कौन      

    कितना भाग्यशाली था
    आदिमानव
    तब न कोई अगड़ा था
    न कोई पिछड़ा था
    हिन्दू-मुसलमान का
    न कोई झगड़ा था
    छूत-अछूत का
    न कोई मसला था
    अभावग्रस्त जीवन चाहे
    लाख मजबूर था
    पर धरने-प्रदर्शनों से
    कोसों दूर था
    कन्या भ्रूण-हत्या का
    पाप नहीं था
    किसी ईश्वर-अल्लाह का
    जाप नहीं था
    न भेदभावकारी
    वर्णव्यवस्था थी
    मानव जीवन की वो
    मूल अवस्था थी
    मूल मानव को ।
    जंगली कहने वालो
    जंगली कौन है
    पता लगा लो। -विनोद सिल्ला

    खोई हुई आजादी

    मैं ढूंढ रहा हूँ
    अपनी खोई आजादी
    मजहबी नारों के बीच
    न्याधीश के दिए निर्णयों में
    संविधान के संशोधनों में
    लालकिले की
    प्रचीर से दिए
    प्रधानमंत्री के भाषणों में
    चुनाव पूर्व
    राजनेताओं द्वारा
    किए वादों में
    लेकिन नित के
    ऑनर कीलिंग के समाचार
    अनियन्त्रित-हिंसक
    दंगाई भीड
    उजड़ती झुग्गी-बस्तियाँ
    यौन पीड़िता की चीखें
    दे रही हैं
    सशक्त गवाही
    कहीं भी
    आजादी न होने की


    -विनोद सिल्ला©

    कमाल के समीक्षक

    एक मेरा मित्र
    बात-बात पर
    कोसता है, संविधान को
    ठहराता है, इसे कॉपी-पेस्ट।
    एक दिन मैंने
    पूछ ही लिया,
    कितनी बार पढ़ा है, संविधान।
    उसने कहा
    एक बार भी नहीं।
    कभी देखा है? दूर से
    भारतीय संविधान
    उसका जवाब था
    कभी नहीं देखा।
    न कभी पढ़ा,
    न कभी देखा,
    फिर भी, कर डाली
    संविधान की समीक्षा।
    कमाल के समीक्षक हैं।

    -विनोद सिल्ला©

  • सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’ की प्रसिद्ध कवितायेँ

    यहाँ पर सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’ की प्रसिद्ध कवितायेँ के बारे में बताया गया है , आपको कौन सी अच्छी लगी कमेंट कर जरुर बताएं

    कविता संग्रह
    कविता संग्रह

    खँडहर के प्रति / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”


    खँड़हर! खड़े हो तुम आज भी?
    अदभुत अज्ञात उस पुरातन के मलिन साज!
    विस्मृति की नींद से जगाते हो क्यों हमें–
    करुणाकर, करुणामय गीत सदा गाते हुए?

    पवन-संचरण के साथ ही
    परिमल-पराग-सम अतीत की विभूति-रज-
    आशीर्वाद पुरुष-पुरातन का
    भेजते सब देशों में;
    क्या है उद्देश तव?
    बन्धन-विहीन भव!
    ढीले करते हो भव-बन्धन नर-नारियों के?
    अथवा,
    हो मलते कलेजा पड़े, जरा-जीर्ण,
    निर्निमेष नयनों से
    बाट जोहते हो तुम मृत्यु की
    अपनी संतानों से बूँद भर पानी को तरसते हुए?

    किम्बा, हे यशोराशि!
    कहते हो आँसू बहाते हुए–
    “आर्त भारत! जनक हूँ मैं
    जैमिनि-पतंजलि-व्यास ऋषियों का;
    मेरी ही गोद पर शैशव-विनोद कर
    तेरा है बढ़ाया मान
    राम-कॄष्ण-भीमार्जुन-भीष्म-नरदेवों ने।
    तुमने मुख फेर लिया,
    सुख की तृष्णा से अपनाया है गरल,
    हो बसे नव छाया में,
    नव स्वप्न ले जगे,
    भूले वे मुक्त प्राण, साम-गान, सुधा-पान।”
    बरसो आसीस, हे पुरुष-पुराण,
    तव चरणों में प्रणाम है।

    मित्र के प्रति / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”


    (1)

    कहते हो, ‘‘नीरस यह
    बन्द करो गान-
    कहाँ छन्द, कहाँ भाव,
    कहाँ यहाँ प्राण ?
    था सर प्राचीन सरस,
    सारस-हँसों से हँस;
    वारिज-वारिज में बस
    रहा विवश प्यार;
    जल-तरंग ध्वनि; कलकल
    बजा तट-मृदंग सदल;
    पैंगें भर पवन कुशल
    गाती मल्लार।’’

    (2)

    सत्य, बन्धु सत्य; वहाँ
    नहीं अर्र-बर्र;
    नहीं वहाँ भेक, वहाँ
    नहीं टर्र-टर्र।
    एक यहीं आठ पहर
    बही पवन हहर-हहर,
    तपा तपन, ठहर-ठहर
    सजल कण उड़े;
    गये सूख भरे ताल,
    हुए रूख हरे शाल,
    हाय रे, मयूर-व्याल
    पूँछ से जुड़े!

    (3)

    देखे कुछ इसी समय
    दृश्य और-और
    इसी ज्वाल से लहरे
    हरे ठौर-ठौर ?
    नूतन पल्लव-दल, कलि,
    मँडलाते व्याकुल अलि
    तनु-तन पर जाते बलि
    बार-बार हार;
    बही जो सुवास मन्द
    मधुर भार-भरण-छन्द
    मिली नहीं तुम्हें, बन्द
    रहे, बन्धु, द्वार?

    (4)

    इसी समय झुकी आम्र-
    शाखा फल-भार
    मिली नहीं क्या जब यह
    देखा संसार?
    उसके भीतर जो स्तव,
    सुना नहीं कोई रव?
    हाय दैव, दव-ही-दव
    बन्धु को मिला!
    कुहरित भी पञ्चम स्वर,
    रहे बन्द कर्ण-कुहर,
    मन पर प्राचीन मुहर,
    हृदय पर शिला!

    (5)

    सोचो तो, क्या थी वह
    भावना पवित्र,
    बँधा जहाँ भेद भूल
    मित्र से अमित्र।
    तुम्हीं एक रहे मोड़
    मुख, प्रिय, प्रिय मित्र छोड़;
    कहो, कहो, कहाँ होड़
    जहाँ जोड़, प्यार?
    इसी रूप में रह स्थिर,
    इसी भाव में घिर-घिर,
    करोगे अपार तिमिर-
    सागर को पार?

    (6)

    बही बन्धु, वायु प्रबल
    जो, न बँध सकी;
    देखते थके तुम, बहती
    न वह न थकी।
    समझो वह प्रथम वर्ष,
    रुका नहीं मुक्त हर्ष,
    यौवन दुर्धर्ष कर्ष-
    मर्ष से लड़ा;
    ऊपर मध्याह्न तपन
    तपा किया, सन्-सन्-सन्
    हिला-झुका तरु अगणन
    बही वह हवा।

    (7)

    उड़ा दी गयी जो, वह भी
    गयी उड़ा,
    जली हुई आग कहो,
    कब गयी जुड़ा?
    जो थे प्राचीन पत्र
    जीर्ण-शीर्ण नहीं छत्र,
    झड़े हुए यत्र-तत्र
    पड़े हुए थे,
    उन्हीं से अपार प्यार
    बँधा हुआ था असार,
    मिला दुःख निराधार
    तुम्हें इसलिए।

    (8)

    बही तोड़ बन्धन
    छन्दों का निरुपाय,
    वही किया की फिर-फिर
    हवा ‘हाय-हाय’।
    कमरे में, मध्य याम,
    करते तब तुम विराम,
    रचते अथवा ललाम
    गतालोक लोक,
    वह भ्रम मरुपथ पर की
    यहाँ-वहाँ व्यस्त फिरी,
    जला शोक-चिह्न, दिया
    रँग विटप अशोक।

    (9)

    करती विश्राम, कहीं
    नहीं मिला स्थान,
    अन्ध-प्रगति बन्ध किया
    सिन्धु को प्रयाण;
    उठा उच्च ऊर्मि-भंग-
    सहसा शत-शत तरंग,
    क्षुब्ध, लुब्ध, नील-अंग-
    अवगाहन-स्नान,
    किया वहाँ भी दुर्दम
    देख तरी विघ्न विषम,
    उलट दिया अर्थागम
    बनकर तूफान।

    (10)

    हुई आज शान्त, प्राप्त
    कर प्रशान्त-वक्ष;
    नहीं त्रास, अतः मित्र,
    नहीं ‘रक्ष, ‘रक्ष’।
    उड़े हुए थे जो कण,
    उतरे पा शुभ वर्षण,
    शुक्ति के हृदय से बन
    मुक्ता झलके;
    लखो, दिया है पहना
    किसने यह हार बना
    भारति-उर में अपना,
    देख दृग थके!

    प्रेम के प्रति / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”

    चिर-समाधि में अचिर-प्रकृति जब,
    तुम अनादि तब केवल तम;
    अपने ही सुख-इंगित से फिर
    हुए तरंगित सृष्टि विषम।
    तत्वों में त्वक बदल बदल कर
    वारि, वाष्प ज्यों, फिर बादल,
    विद्युत की माया उर में, तुम
    उतरे जग में मिथ्या-फल।

    वसन वासनाओं के रँग-रँग
    पहन सृष्टि ने ललचाया,
    बाँध बाहुओं में रूपों ने
    समझा-अब पाया-पाया;
    किन्तु हाय, वह हुई लीन जब
    क्षीण बुद्धि-भ्रम में काया,
    समझे दोनों, था न कभी वह
    प्रेम, प्रेम की थी छाया।

    प्रेम, सदा ही तुम असूत्र हो
    उर-उर के हीरों के हार,
    गूँथे हुए प्राणियों को भी
    गुँथे न कभी, सदा ही सार।

    भारती वन्दना / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”

    भारति, जय, विजय करे
    कनक-शस्य-कमल धरे!

    लंका पदतल-शतदल
    गर्जितोर्मि सागर-जल
    धोता शुचि चरण-युगल
    स्तव कर बहु अर्थ भरे!

    तरु-तण वन-लता-वसन
    अंचल में खचित सुमन
    गंगा ज्योतिर्जल-कण
    धवल-धार हार लगे!

    मुकुट शुभ्र हिम-तुषार
    प्राण प्रणव ओंकार
    ध्वनित दिशाएँ उदार
    शतमुख-शतरव-मुखरे!

    सखि, वसन्त आया / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”

    सखि वसन्त आया ।
    भरा हर्ष वन के मन,
    नवोत्कर्ष छाया ।
    किसलय-वसना नव-वय-लतिका
    मिली मधुर प्रिय-उर तरु-पतिका,
    मधुप-वृन्द बन्दी–
    पिक-स्वर नभ सरसाया ।

    लता-मुकुल-हार-गंध-भार भर,
    बही पवन बंद मंद मंदतर,
    जागी नयनों में वन-
    यौवन की माया ।
    आवृत सरसी-उर-सरसिज उठे,
    केशर के केश कली के छुटे,
    स्वर्ण-शस्य-अंचल
    पृथ्वी का लहराया ।

    अस्ताचल रवि / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”

    अस्ताचल रवि, जल छलछल-छवि,
    स्तब्ध विश्वकवि, जीवन उन्मन;
    मंद पवन बहती सुधि रह-रह
    परिमल की कह कथा पुरातन ।

    दूर नदी पर नौका सुन्दर
    दीखी मृदुतर बहती ज्यों स्वर,
    वहाँ स्नेह की प्रतनु देह की
    बिना गेह की बैठी नूतन ।

    ऊपर शोभित मेघ-छत्र सित,
    नीचे अमित नील जल दोलित;
    ध्यान-नयन मन-चिंत्य-प्राण-धन;
    किया शेष रवि ने कर अर्पण ।

    भारति, जय, विजय करे ! / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”

    भारति, जय, विजयकरे !
    कनक-शस्य-कमलधरे !

    लंका पदतल शतदल
    गर्जितोर्मि सागर-जल,
    धोता-शुचि चरण युगल
    स्तव कर बहु-अर्थ-भरे ।

    तरु-तृण-वन-लता वसन,
    अंचल में खचित सुमन,
    गंगा ज्योतिर्जल-कण
    धवल धार हार गले ।

    मुकुट शुभ्र हिम-तुषार
    प्राण प्रणव ओंकार,
    ध्वनित दिशाएँ उदार,
    शतमुख-शतरव-मुखरे !

    वर दे वीणावादिनी वर दे ! / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”

    वर दे, वीणावादिनि वर दे!
    प्रिय स्वतंत्र-रव अमृत-मंत्र नव
    भारत में भर दे!

    काट अंध-उर के बंधन-स्तर
    बहा जननि, ज्योतिर्मय निर्झर;
    कलुष-भेद-तम हर प्रकाश भर
    जगमग जग कर दे!

    नव गति, नव लय, ताल-छंद नव
    नवल कंठ, नव जलद-मन्द्ररव;
    नव नभ के नव विहग-वृंद को
    नव पर, नव स्वर दे!

    वर दे, वीणावादिनि वर दे।

    कुकुरमुत्ता (कविता) / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”

    एक थे नव्वाब,
    फ़ारस से मंगाए थे गुलाब।
    बड़ी बाड़ी में लगाए
    देशी पौधे भी उगाए
    रखे माली, कई नौकर
    गजनवी का बाग मनहर
    लग रहा था।
    एक सपना जग रहा था
    सांस पर तहजबी की,
    गोद पर तरतीब की।
    क्यारियां सुन्दर बनी
    चमन में फैली घनी।
    फूलों के पौधे वहाँ
    लग रहे थे खुशनुमा।
    बेला, गुलशब्बो, चमेली, कामिनी,
    जूही, नरगिस, रातरानी, कमलिनी,
    चम्पा, गुलमेंहदी, गुलखैरू, गुलअब्बास,
    गेंदा, गुलदाऊदी, निवाड़, गन्धराज,
    और किरने फ़ूल, फ़व्वारे कई,
    रंग अनेकों-सुर्ख, धनी, चम्पई,
    आसमानी, सब्ज, फ़िरोज सफ़ेद,
    जर्द, बादामी, बसन्त, सभी भेद।
    फ़लों के भी पेड़ थे,
    आम, लीची, सन्तरे और फ़ालसे।
    चटकती कलियां, निकलती मृदुल गन्ध,
    लगे लगकर हवा चलती मन्द-मन्द,
    चहकती बुलबुल, मचलती टहनियां,
    बाग चिड़ियों का बना था आशियाँ।
    साफ़ राह, सरा दानों ओर,
    दूर तक फैले हुए कुल छोर,
    बीच में आरामगाह
    दे रही थी बड़प्पन की थाह।
    कहीं झरने, कहीं छोटी-सी पहाड़ी,
    कही सुथरा चमन, नकली कहीं झाड़ी।
    आया मौसिम, खिला फ़ारस का गुलाब,
    बाग पर उसका पड़ा था रोब-ओ-दाब;
    वहीं गन्दे में उगा देता हुआ बुत्ता
    पहाड़ी से उठे-सर ऐंठकर बोला कुकुरमुत्ता-
    “अब, सुन बे, गुलाब,
    भूल मत जो पायी खुशबु, रंग-ओ-आब,
    खून चूसा खाद का तूने अशिष्ट,
    डाल पर इतरा रहा है केपीटलिस्ट!
    कितनों को तूने बनाया है गुलाम,
    माली कर रक्खा, सहाया जाड़ा-घाम,
    हाथ जिसके तू लगा,
    पैर सर रखकर वो पीछे को भागा
    औरत की जानिब मैदान यह छोड़कर,
    तबेले को टट्टू जैसे तोड़कर,
    शाहों, राजों, अमीरों का रहा प्यारा
    तभी साधारणों से तू रहा न्यारा।
    वरना क्या तेरी हस्ती है, पोच तू
    कांटो ही से भरा है यह सोच तू
    कली जो चटकी अभी
    सूखकर कांटा हुई होती कभी।
    रोज पड़ता रहा पानी,
    तू हरामी खानदानी।
    चाहिए तुझको सदा मेहरून्निसा
    जो निकाले इत्र, रू, ऐसी दिशा
    बहाकर ले चले लोगो को, नही कोई किनारा
    जहाँ अपना नहीं कोई भी सहारा
    ख्वाब में डूबा चमकता हो सितारा
    पेट में डंड पेले हों चूहे, जबां पर लफ़्ज प्यारा।
    देख मुझको, मैं बढ़ा
    डेढ़ बालिश्त और ऊंचे पर चढ़ा
    और अपने से उगा मैं
    बिना दाने का चुगा मैं
    कलम मेरा नही लगता
    मेरा जीवन आप जगता
    तू है नकली, मै हूँ मौलिक
    तू है बकरा, मै हूँ कौलिक
    तू रंगा और मैं धुला
    पानी मैं, तू बुलबुला
    तूने दुनिया को बिगाड़ा
    मैंने गिरते से उभाड़ा
    तूने रोटी छीन ली जनखा बनाकर
    एक की दी तीन मैने गुन सुनाकर।

    काम मुझ ही से सधा है
    शेर भी मुझसे गधा है
    चीन में मेरी नकल, छाता बना
    छत्र भारत का वही, कैसा तना
    सब जगह तू देख ले
    आज का फिर रूप पैराशूट ले।
    विष्णु का मैं ही सुदर्शनचक्र हूँ।
    काम दुनिया मे पड़ा ज्यों, वक्र हूँ।
    उलट दे, मैं ही जसोदा की मथानी
    और लम्बी कहानी-
    सामने लाकर मुझे बेंड़ा
    देख कैंडा
    तीर से खींचा धनुष मैं राम का।
    काम का-
    पड़ा कन्धे पर हूँ हल बलराम का।
    सुबह का सूरज हूँ मैं ही
    चांद मैं ही शाम का।
    कलजुगी मैं ढाल
    नाव का मैं तला नीचे और ऊपर पाल।
    मैं ही डांड़ी से लगा पल्ला
    सारी दुनिया तोलती गल्ला
    मुझसे मूछें, मुझसे कल्ला
    मेरे उल्लू, मेरे लल्ला
    कहे रूपया या अधन्ना
    हो बनारस या न्यवन्ना
    रूप मेरा, मै चमकता
    गोला मेरा ही बमकता।
    लगाता हूँ पार मैं ही
    डुबाता मझधार मैं ही।
    डब्बे का मैं ही नमूना
    पान मैं ही, मैं ही चूना

    मैं कुकुरमुत्ता हूँ,
    पर बेन्जाइन (Bengoin) वैसे
    बने दर्शनशास्त्र जैसे।
    ओमफ़लस (Omphalos) और ब्रहमावर्त
    वैसे ही दुनिया के गोले और पर्त
    जैसे सिकुड़न और साड़ी,
    ज्यों सफ़ाई और माड़ी।
    कास्मोपालिटन और मेट्रोपालिटन
    जैसे फ़्रायड और लीटन।
    फ़ेलसी और फ़लसफ़ा
    जरूरत और हो रफ़ा।
    सरसता में फ़्राड
    केपिटल में जैसे लेनिनग्राड।
    सच समझ जैसे रकीब
    लेखकों में लण्ठ जैसे खुशनसीब

    मैं डबल जब, बना डमरू
    इकबगल, तब बना वीणा।
    मन्द्र होकर कभी निकला
    कभी बनकर ध्वनि छीणा।
    मैं पुरूष और मैं ही अबला।
    मै मृदंग और मैं ही तबला।
    चुन्ने खां के हाथ का मैं ही सितार
    दिगम्बर का तानपूरा, हसीना का सुरबहार।
    मैं ही लायर, लिरिक मुझसे ही बने
    संस्कृत, फ़ारसी, अरबी, ग्रीक, लैटिन के जने
    मन्त्र, गज़लें, गीत, मुझसे ही हुए शैदा
    जीते है, फिर मरते है, फिर होते है पैदा।
    वायलिन मुझसे बजा
    बेन्जो मुझसे सजा।
    घण्टा, घण्टी, ढोल, डफ़, घड़ियाल,
    शंख, तुरही, मजीरे, करताल,
    करनेट, क्लेरीअनेट, ड्रम, फ़्लूट, गीटर,
    बजानेवाले हसन खां, बुद्धू, पीटर,
    मानते हैं सब मुझे ये बायें से,
    जानते हैं दाये से।

    ताताधिन्ना चलती है जितनी तरह
    देख, सब में लगी है मेरी गिरह
    नाच में यह मेरा ही जीवन खुला
    पैरों से मैं ही तुला।
    कत्थक हो या कथकली या बालडान्स,
    क्लियोपेट्रा, कमल-भौंरा, कोई रोमान्स
    बहेलिया हो, मोर हो, मणिपुरी, गरबा,
    पैर, माझा, हाथ, गरदन, भौंहें मटका
    नाच अफ़्रीकन हो या यूरोपीयन,
    सब में मेरी ही गढ़न।
    किसी भी तरह का हावभाव,
    मेरा ही रहता है सबमें ताव।
    मैने बदलें पैंतरे,
    जहां भी शासक लड़े।
    पर हैं प्रोलेटेरियन झगड़े जहां,
    मियां-बीबी के, क्या कहना है वहां।
    नाचता है सूदखोर जहां कहीं ब्याज डुचता,
    नाच मेरा क्लाईमेक्स को पहुचंता।

    नहीं मेरे हाड़, कांटे, काठ का
    नहीं मेरा बदन आठोगांठ का।
    रस-ही-रस मैं हो रहा
    सफ़ेदी का जहन्नम रोकर रहा।
    दुनिया में सबने मुझी से रस चुराया,
    रस में मैं डूबा-उतराया।
    मुझी में गोते लगाये वाल्मीकि-व्यास ने
    मुझी से पोथे निकाले भास-कालिदास ने।
    टुकुर-टुकुर देखा किये मेरे ही किनारे खड़े
    हाफ़िज-रवीन्द्र जैसे विश्वकवि बड़े-बड़े।
    कहीं का रोड़ा, कही का पत्थर
    टी.एस. एलीयट ने जैसे दे मारा
    पढ़नेवाले ने भी जिगर पर रखकर
    हाथ, कहां,’लिख दिया जहां सारा’।
    ज्यादा देखने को आंख दबाकर
    शाम को किसी ने जैसे देखा तारा।
    जैसे प्रोग्रेसीव का कलम लेते ही
    रोका नहीं रूकता जोश का पारा
    यहीं से यह कुल हुआ
    जैसे अम्मा से बुआ।
    मेरी सूरत के नमूने पीरामेड
    मेरा चेला था यूक्लीड।
    रामेश्वर, मीनाछी, भुवनेश्वर,
    जगन्नाथ, जितने मन्दिर सुन्दर
    मैं ही सबका जनक
    जेवर जैसे कनक।
    हो कुतुबमीनार,
    ताज, आगरा या फ़ोर्ट चुनार,
    विक्टोरिया मेमोरियल, कलकत्ता,
    मस्जिद, बगदाद, जुम्मा, अलबत्ता
    सेन्ट पीटर्स गिरजा हो या घण्टाघर,
    गुम्बदों में, गढ़न में मेरी मुहर।
    एरियन हो, पर्शियन या गाथिक आर्च
    पड़ती है मेरी ही टार्च।
    पहले के हो, बीच के हो या आज के
    चेहरे से पिद्दी के हों या बाज के।
    चीन के फ़ारस के या जापान के
    अमरिका के, रूस के, इटली के, इंगलिस्तान के।
    ईंट के, पत्थर के हों या लकड़ी के
    कहीं की भी मकड़ी के।
    बुने जाले जैसे मकां कुल मेरे
    छत्ते के हैं घेरे।

    सर सभी का फ़ांसनेवाला हूं ट्रेप
    टर्की टोपी, दुपलिया या किश्ती-केप।
    और जितने, लगा जिनमें स्ट्रा या मेट,
    देख, मेरी नक्ल है अंगरेजी हेट।
    घूमता हूं सर चढ़ा,
    तू नहीं, मैं ही बड़ा।”

    (२)
    बाग के बाहर पड़े थे झोपड़े
    दूर से जो देख रहे थे अधगड़े।
    जगह गन्दी, रूका, सड़ता हुआ पानी
    मोरियों मे; जिन्दगी की लन्तरानी-
    बिलबिलाते किड़े, बिखरी हड्डियां
    सेलरों की, परों की थी गड्डियां
    कहीं मुर्गी, कही अण्डे,
    धूप खाते हुए कण्डे।
    हवा बदबू से मिली
    हर तरह की बासीली पड़ी गयी।
    रहते थे नव्वाब के खादिम
    अफ़्रिका के आदमी आदिम-
    खानसामां, बावर्ची और चोबदार;
    सिपाही, साईस, भिश्ती, घुड़सवार,
    तामजानवाले कुछ देशी कहार,
    नाई, धोबी, तेली, तम्बोली, कुम्हार,
    फ़ीलवान, ऊंटवान, गाड़ीवान
    एक खासा हिन्दु-मुस्लिम खानदान।
    एक ही रस्सी से किस्मत की बंधा
    काटता था जिन्दगी गिरता-सधा।
    बच्चे, बुड्ढे, औरते और नौजवान
    रह्ते थे उस बस्ती में, कुछ बागबान
    पेट के मारे वहां पर आ बसे
    साथ उनके रहे, रोये और हंसे।

    एक मालिन
    बीबी मोना माली की थी बंगालिन;
    लड़की उसकी, नाम गोली
    वह नव्वाबजादी की थी हमजोली।
    नाम था नव्वाबजादी का बहार
    नजरों में सारा जहां फ़र्माबरदार।
    सारंगी जैसी चढ़ी
    पोएट्री में बोलती थी
    प्रोज में बिल्कुल अड़ी।
    गोली की मां बंगालिन, बहुत शिष्ट
    पोयट्री की स्पेशलिस्ट।
    बातों जैसे मजती थी
    सारंगी वह बजती थी।
    सुनकर राग, सरगम तान
    खिलती थी बहार की जान।
    गोली की मां सोचती थी-
    गुर मिला,
    बिना पकड़े खिचे कान
    देखादेखी बोली में
    मां की अदा सीखी नन्हीं गोली ने।
    इसलिए बहार वहां बारहोमास
    डटी रही गोली की मां के
    कभी गोली के पास।
    सुबहो-शाम दोनों वक्त जाती थी
    खुशामद से तनतनाई आती थी।
    गोली डांडी पर पासंगवाली कौड़ी
    स्टीमबोट की डोंगी, फ़िरती दौड़ी।
    पर कहेंगे-
    ‘साथ-ही-साथ वहां दोनो रहती थीं
    अपनी-अपनी कहती थी।
    दोनों के दिल मिले थे
    तारे खुले-खिले थे।
    हाथ पकड़े घूमती थीं
    खिलखिलाती झूमती थीं।
    इक पर इक करती थीं चोट
    हंसकर होतीं लोटपोट।
    सात का दोनों का सिन
    खुशी से कटते थे दिन।
    महल में भी गोली जाया करती थी
    जैसे यहां बहार आया करती थी।

    एक दिन हंसकर बहार यह बोली-
    “चलो, बाग घूम आयें हम, गोली।”
    दोनों चली, जैसे धूप, और छांह
    गोली के गले पड़ी बहार की बांह।
    साथ टेरियर और एक नौकरानी।
    सामने कुछ औरतें भरती थीं पानी
    सिटपिटायी जैसे अड़गड़े मे देखा मर्द को
    बाबू ने देखा हो उठती गर्दन को।
    निकल जाने पर बहार के, बोली
    पहली दूसरी से, “देखो, वह गोली
    मोना बंगाली की लड़की ।
    भैंस भड़्की,
    ऎसी उसकी मां की सूरत
    मगर है नव्वाब की आंखों मे मूरत।
    रोज जाती है महल को, जगे भाग
    आखं का जब उतरा पानी, लगे आग,
    रोज ढोया आ रहा है माल-असबाब
    बन रहे हैं गहने-जेवर
    पकता है कलिया-कबाब।”
    झटके से सिर-आंख पर फ़िर लिये घड़े
    चली ठनकाती कड़े।
    बाग में आयी बहार
    चम्पे की लम्बी कतार
    देखती बढ़्ती गयी
    फ़ूल पर अड़ती गयी।
    मौलसिरी की छांह में
    कुछ देर बैठ बेन्च पर
    फ़िर निगाह डाली एक रेन्ज पर
    देखा फ़िर कुछ उड़ रही थी तितलियां
    डालों पर, कितनी चहकती थीं चिड़ियां।
    भौरें गूंजते, हुए मतवाले-से
    उड़ गया इक मकड़ी के फ़ंसकर बड़े-से जाले से।
    फ़िर निगाह उठायी आसमान की ओर
    देखती रही कि कितनी दूर तक छोर
    देखा, उठ रही थी धूप-
    पड़ती फ़ुनगियों पर, चमचमाया रूप।
    पेड़ जैसे शाह इक-से-इक बड़े
    ताज पहने, है खड़े।
    आया माली, हाथ गुलदस्ते लिये
    गुलबहार को दिये।
    गोली को इक गुलदस्ता
    सूंघकर हंसकर बहार ने दिया।
    जरा बैठकर उठी, तिरछी गली
    होती कुन्ज को चली!
    देखी फ़ारांसीसी लिली
    और गुलबकावली।
    फ़िर गुलाबजामुन का बाग छोड़ा
    तूतो के पेड़ो से बायें मुंह मोड़ा।
    एक बगल की झाड़ी
    बढ़ी जिधर थी बड़ी गुलाबबाड़ी।
    देखा, खिल रहे थे बड़े-बड़े फ़ूल
    लहराया जी का सागर अकूल।
    दुम हिलाता भागा टेरियर कुत्ता
    जैसे दौड़ी गोली चिल्लाती हुई ‘कुकुरमुत्ता’।
    सकपकायी, बहार देखने लगी
    जैसे कुकुरमुत्ते के प्रेम से भरी गोली दगी।
    भूल गयी, उसका था गुलाब पर जो कुछ भी प्यार
    सिर्फ़ वह गोली को देखती रही निगाह की धार।
    टूटी गोली जैसे बिल्ली देखकर अपना शिकार
    तोड़कर कुकुरमुत्तों को होती थी उनके निसार।
    बहुत उगे थे तब तक
    उसने कुल अपने आंचल में
    तोड़कर रखे अब तक।
    घूमी प्यार से
    मुसकराती देखकर बोली बहार से-
    “देखो जी भरकर गुलाब
    हम खायंगे कुकुरमुत्ते का कबाब।”
    कुकुरमुत्ते की कहानी
    सुनी उससे जीभ में बहार की आया पानी।
    पूछा “क्या इसका कबाब
    होगा ऎसा भी लजीज?
    जितनी भाजियां दुनिया में
    इसके सामने नाचीज?”
    गोली बोली-”जैसी खुशबू
    इसका वैसा ही स्वाद,
    खाते खाते हर एक को
    आ जाती है बिहिश्त की याद
    सच समझ लो, इसका कलिया
    तेल का भूना कबाब,
    भाजियों में वैसा
    जैसा आदमियों मे नव्वाब”

    “नहीं ऎसा कहते री मालिन की
    छोकड़ी बंगालिन की!”
    डांटा नौकरानी ने-
    चढ़ी-आंख कानी ने।
    लेकिन यह, कुछ एक घूंट लार के
    जा चुके थे पेट में तब तक बहार के।
    “नहीं नही, अगर इसको कुछ कहा”
    पलटकर बहार ने उसे डांटा-
    “कुकुरमुत्ते का कबाब खाना है,
    इसके साथ यहां जाना है।”
    “बता, गोली” पूछा उसने,
    “कुकुरमुत्ते का कबाब
    वैसी खुशबु देता है
    जैसी कि देता है गुलाब!”
    गोली ने बनाया मुंह
    बाये घूमकर फ़िर एक छोटी-सी निकाली “उंह!”
    कहा,”बकरा हो या दुम्बा
    मुर्ग या कोई परिन्दा
    इसके सामने सब छू:
    सबसे बढ़कर इसकी खुशबु।
    भरता है गुलाब पानी
    इसके आगे मरती है इन सबकी नानी।”
    चाव से गोली चली
    बहार उसके पीछे हो ली,
    उसके पीछे टेरियर, फ़िर नौकरानी
    पोंछती जो आंख कानी।
    चली गोली आगे जैसे डिक्टेटर
    बहार उसके पीछे जैसे भुक्खड़ फ़ालोवर।
    उसके पीछे दुम हिलाता टेरियर-
    आधुनिक पोयेट (Poet)
    पीछे बांदी बचत की सोचती
    केपीटलिस्ट क्वेट।
    झोपड़ी में जल्दी चलकर गोली आयी
    जोर से ‘मां’ चिल्लायी।
    मां ने दरवाजा खोला,
    आंखो से सबको तोला।
    भीतर आ डलिये मे रक्खे
    मोली ने वे कुकुरमुत्ते।
    देखकर मां खिल गयी।
    निधि जैसे मिल गयी।
    कहा गोली ने, “अम्मा,
    कलिया-कबाब जल्द बना।
    पकाना मसालेदार
    अच्छा, खायेंगी बहार।
    पतली-पतली चपातियां
    उनके लिए सेख लेना।”
    जला ज्यों ही उधर चूल्हा,
    खेलने लगीं दोनों दुल्हन-दूल्हा।
    कोठरी में अलग चलकर
    बांदी की कानी को छलकर।
    टेरियर था बराती
    आज का गोली का साथ।
    हो गयी शादी कि फ़िर दूल्हन-बहार से।
    दूल्हा-गोली बातें करने लगी प्यार से।
    इस तरह कुछ वक्त बीता, खाना तैयार
    हो गया, खाने चलीं गोली और बहार।
    कैसे कहें भाव जो मां की आंखो से बरसे
    थाली लगायी बड़े समादर से।
    खाते ही बहार ने यह फ़रमाया,
    “ऎसा खाना आज तक नही खाया”
    शौक से लेकर सवाद
    खाती रहीं दोनो
    कुकुरमुत्ते का कलिया-कबाब।
    बांदी को भी थोड़ा-सा
    गोली की मां ने कबाब परोसा।
    अच्छा लगा, थोड़ा-सा कलिया भी
    बाद को ला दिया,
    हाथ धुलाकर देकर पान उसको बिदा किया।

    कुकुरमुत्ते की कहानी
    सुनी जब बहार से
    नव्वाब के मुंह आया पानी।
    बांदी से की पूछताछ,
    उनको हो गया विश्वास।
    माली को बुला भेजा,
    कहा,”कुकुरमुत्ता चलकर ले आ तू ताजा-ताजा।”
    माली ने कहा,”हुजूर,
    कुकुरमुत्ता अब नहीं रहा है, अर्ज हो मन्जूर,
    रहे है अब सिर्फ़ गुलाब।”
    गुस्सा आया, कांपने लगे नव्वाब।
    बोले;”चल, गुलाब जहां थे, उगा,
    सबके साथ हम भी चाहते है अब कुकुरमुत्ता।”
    बोला माली,”फ़रमाएं मआफ़ खता,
    कुकुरमुत्ता अब उगाया नहीं उगता।”


    बादल राग / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”

    झूम-झूम मृदु गरज-गरज घन घोर।
    राग अमर! अम्बर में भर निज रोर!

    झर झर झर निर्झर-गिरि-सर में,
    घर, मरु, तरु-मर्मर, सागर में,
    सरित-तड़ित-गति-चकित पवन में,
    मन में, विजन-गहन-कानन में,
    आनन-आनन में, रव घोर-कठोर-
    राग अमर! अम्बर में भर निज रोर!

    अरे वर्ष के हर्ष!
    बरस तू बरस-बरस रसधार!
    पार ले चल तू मुझको,
    बहा, दिखा मुझको भी निज
    गर्जन-भैरव-संसार!

    उथल-पुथल कर हृदय-
    मचा हलचल-
    चल रे चल-
    मेरे पागल बादल!

    धँसता दलदल
    हँसता है नद खल्-खल्
    बहता, कहता कुलकुल कलकल कलकल।

    देख-देख नाचता हृदय
    बहने को महा विकल-बेकल,
    इस मरोर से- इसी शोर से-
    सघन घोर गुरु गहन रोर से
    मुझे गगन का दिखा सघन वह छोर!
    राग अमर! अम्बर में भर निज रोर!
    सिन्धु के अश्रु!
    धारा के खिन्न दिवस के दाह!
    विदाई के अनिमेष नयन!
    मौन उर में चिह्नित कर चाह
    छोड़ अपना परिचित संसार-

    सुरभि का कारागार,
    चले जाते हो सेवा-पथ पर,
    तरु के सुमन!
    सफल करके
    मरीचिमाली का चारु चयन!
    स्वर्ग के अभिलाषी हे वीर,
    सव्यसाची-से तुम अध्ययन-अधीर
    अपना मुक्त विहार,

    छाया में दुःख के अन्तःपुर का उद्घाचित द्वार
    छोड़ बन्धुओ के उत्सुक नयनों का सच्चा प्यार,
    जाते हो तुम अपने पथ पर,
    स्मृति के गृह में रखकर
    अपनी सुधि के सज्जित तार।

    पूर्ण-मनोरथ! आए-
    तुम आए;
    रथ का घर्घर नाद
    तुम्हारे आने का संवाद!
    ऐ त्रिलोक जित्! इन्द्र धनुर्धर!
    सुरबालाओं के सुख स्वागत।
    विजय! विश्व में नवजीवन भर,
    उतरो अपने रथ से भारत!
    उस अरण्य में बैठी प्रिया अधीर,
    कितने पूजित दिन अब तक हैं व्यर्थ,
    मौन कुटीर।

    आज भेंट होगी-
    हाँ, होगी निस्संदेह
    आज सदा-सुख-छाया होगा कानन-गेह
    आज अनिश्चित पूरा होगा श्रमिक प्रवास,
    आज मिटेगी व्याकुल श्यामा के अधरों की प्यास।
    सिन्धु के अश्रु!
    धरा के खिन्न दिवस के दाह!
    बिदाई के अनिमेष नयन!
    मौन उर में चिन्हित कर चाह
    छोड़ अपना परिचित संसार–
    सुरभि के कारागार,
    चले जाते हो सेवा पथ पर,
    तरु के सुमन!
    सफल करके
    मरीचिमाली का चारु चयन।
    स्वर्ग के अभिलाषी हे वीर,
    सव्यसाची-से तुम अध्ययन-अधीर
    अपना मुक्त विहार,
    छाया में दुख के
    अंतःपुर का उद्घाटित द्वार
    छोड़ बन्धुओं के उत्सुक नयनों का सच्चा प्यार,
    जाते हो तुम अपने रथ पर,
    स्मृति के गृह में रखकर
    अपनी सुधि के सज्जित तार।
    पूर्ण मनोरथ! आये–
    तुम आये;
    रथ का घर्घर-नाद
    तुम्हारे आने का सम्वाद।
    ऐ त्रिलोक-जित! इन्द्र-धनुर्धर!
    सुर बालाओं के सुख-स्वागत!
    विजय विश्व में नव जीवन भर,
    उतरो अपने रथ से भारत!
    उस अरण्य में बैठी प्रिया अधीर,
    कितने पूजित दिन अब तक हैं व्यर्थ,
    मौन कुटीर।
    आज भेंट होगी–
    हाँ, होगी निस्सन्देह,
    आज सदा सुख-छाया होगा कानन-गेह
    आज अनिश्चित पूरा होगा श्रमित प्रवास,
    आज मिटेगी व्याकुल श्यामा के अधरों की प्यास।

    उमड़ सृष्टि के अन्तहीन अम्बर से,
    घर से क्रीड़ारत बालक-से,
    ऐ अनन्त के चंचल शिशु सुकुमार!
    स्तब्ध गगन को करते हो तुम पार!
    अन्धकार– घन अन्धकार ही
    क्रीड़ा का आगार।
    चौंक चमक छिप जाती विद्युत
    तडिद्दाम अभिराम,
    तुम्हारे कुंचित केशों में
    अधीर विक्षुब्ध ताल पर
    एक इमन का-सा अति मुग्ध विराम।
    वर्ण रश्मियों-से कितने ही
    छा जाते हैं मुख पर–
    जग के अंतस्थल से उमड़
    नयन पलकों पर छाये सुख पर;
    रंग अपार
    किरण तूलिकाओं से अंकित
    इन्द्रधनुष के सप्तक, तार; —
    व्योम और जगती के राग उदार
    मध्यदेश में, गुडाकेश!
    गाते हो वारम्वार।
    मुक्त! तुम्हारे मुक्त कण्ठ में
    स्वरारोह, अवरोह, विघात,
    मधुर मन्द्र, उठ पुनः पुनः ध्वनि
    छा लेती है गगन, श्याम कानन,
    सुरभित उद्यान,
    झर-झर-रव भूधर का मधुर प्रपात।
    वधिर विश्व के कानों में
    भरते हो अपना राग,
    मुक्त शिशु पुनः पुनः एक ही राग अनुराग।

    निरंजन बने नयन अंजन!
    कभी चपल गति, अस्थिर मति,
    जल-कलकल तरल प्रवाह,
    वह उत्थान-पतन-हत अविरत
    संसृति-गत उत्साह,
    कभी दुख -दाह
    कभी जलनिधि-जल विपुल अथाह–
    कभी क्रीड़ारत सात प्रभंजन–
    बने नयन-अंजन!
    कभी किरण-कर पकड़-पकड़कर
    चढ़ते हो तुम मुक्त गगन पर,
    झलमल ज्योति अयुत-कर-किंकर,
    सीस झुकाते तुम्हे तिमिरहर–
    अहे कार्य से गत कारण पर!
    निराकार, हैं तीनों मिले भुवन–
    बने नयन-अंजन!
    आज श्याम-घन श्याम छवि
    मुक्त-कण्ठ है तुम्हे देख कवि,
    अहो कुसुम-कोमल कठोर-पवि!
    शत-सहस्र-नक्षत्र-चन्द्र रवि संस्तुत
    नयन मनोरंजन!
    बने नयन अंजन!

    तिरती है समीर-सागर पर
    अस्थिर सुख पर दुःख की छाया-
    जग के दग्ध हृदय पर
    निर्दय विप्लव की प्लावित माया-
    यह तेरी रण-तरी
    भरी आकांक्षाओं से,
    घन, भेरी-गर्जन से सजग सुप्त अंकुर
    उर में पृथ्वी के, आशाओं से
    नवजीवन की, ऊँचा कर सिर,
    ताक रहे है, ऐ विप्लव के बादल!
    फिर-फिर!
    बार-बार गर्जन
    वर्षण है मूसलधार,
    हृदय थाम लेता संसार,
    सुन-सुन घोर वज्र हुँकार।
    अशनि-पात से शायित उन्नत शत-शत वीर,
    क्षत-विक्षत हत अचल-शरीर,
    गगन-स्पर्शी स्पर्द्धा-धीर।
    हँसते है छोटे पौधे लघुभार-
    शस्य अपार,
    हिल-हिल
    खिल-खिल,
    हाथ मिलाते,
    तुझे बुलाते,
    विप्लव-रव से छोटे ही है शोभा पाते।
    अट्टालिका नही है रे
    आतंक-भवन,
    सदा पंक पर ही होता
    जल-विप्लव प्लावन,
    क्षुद्र प्रफुल्ल जलज से
    सदा छलकता नीर,
    रोग-शोक में भी हँसता है
    शैशव का सुकुमार शरीर।
    रुद्ध कोष, है क्षुब्ध तोष,
    अंगना-अंग से लिपटे भी
    आतंक-अंक पर काँप रहे हैं
    धनी, वज्र-गर्जन से, बादल!
    त्रस्त नयन-मुख ढाँप रहे है।
    जीर्ण बाहु, है शीर्ण शरीर
    तुझे बुलाता कृषक अधीर,
    ऐ विप्लव के वीर!
    चूस लिया है उसका सार,
    हाड़ मात्र ही है आधार,
    ऐ जीवन के पारावार!

    सन्ध्या-सुन्दरी / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”

    दिवसावसान का समय –
    मेघमय आसमान से उतर रही है
    वह संध्या-सुन्दरी, परी सी,
    धीरे, धीरे, धीरे,
    तिमिरांचल में चंचलता का नहीं कहीं आभास,
    मधुर-मधुर हैं दोनों उसके अधर,
    किंतु ज़रा गंभीर, नहीं है उसमें हास-विलास।
    हँसता है तो केवल तारा एक –
    गुँथा हुआ उन घुँघराले काले-काले बालों से,
    हृदय राज्य की रानी का वह करता है अभिषेक।
    अलसता की-सी लता,
    किंतु कोमलता की वह कली,
    सखी-नीरवता के कंधे पर डाले बाँह,
    छाँह सी अम्बर-पथ से चली।
    नहीं बजती उसके हाथ में कोई वीणा,
    नहीं होता कोई अनुराग-राग-आलाप,
    नूपुरों में भी रुन-झुन रुन-झुन नहीं,
    सिर्फ़ एक अव्यक्त शब्द-सा ‘चुप चुप चुप’
    है गूँज रहा सब कहीं –

    व्योम मंडल में, जगतीतल में –
    सोती शान्त सरोवर पर उस अमल कमलिनी-दल में –
    सौंदर्य-गर्विता-सरिता के अति विस्तृत वक्षस्थल में –
    धीर-वीर गम्भीर शिखर पर हिमगिरि-अटल-अचल में –
    उत्ताल तरंगाघात-प्रलय घनगर्जन-जलधि-प्रबल में –
    क्षिति में जल में नभ में अनिल-अनल में –
    सिर्फ़ एक अव्यक्त शब्द-सा ‘चुप चुप चुप’
    है गूँज रहा सब कहीं –

    और क्या है? कुछ नहीं।
    मदिरा की वह नदी बहाती आती,
    थके हुए जीवों को वह सस्नेह,
    प्याला एक पिलाती।
    सुलाती उन्हें अंक पर अपने,
    दिखलाती फिर विस्मृति के वह अगणित मीठे सपने।
    अर्द्धरात्री की निश्चलता में हो जाती जब लीन,
    कवि का बढ़ जाता अनुराग,
    विरहाकुल कमनीय कंठ से,
    आप निकल पड़ता तब एक विहाग!

    जुही की कली / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”

    विजन-वन-वल्लरी पर
    सोती थी सुहाग-भरी–स्नेह-स्वप्न-मग्न–
    अमल-कोमल-तनु तरुणी–जुही की कली,
    दृग बन्द किये, शिथिल–पत्रांक में,
    वासन्ती निशा थी;
    विरह-विधुर-प्रिया-संग छोड़
    किसी दूर देश में था पवन
    जिसे कहते हैं मलयानिल।
    आयी याद बिछुड़न से मिलन की वह मधुर बात,
    आयी याद चाँदनी की धुली हुई आधी रात,
    आयी याद कान्ता की कमनीय गात,
    फिर क्या? पवन
    उपवन-सर-सरित गहन -गिरि-कानन
    कुञ्ज-लता-पुञ्जों को पार कर
    पहुँचा जहाँ उसने की केलि
    कली खिली साथ।
    सोती थी,
    जाने कहो कैसे प्रिय-आगमन वह?
    नायक ने चूमे कपोल,
    डोल उठी वल्लरी की लड़ी जैसे हिंडोल।
    इस पर भी जागी नहीं,
    चूक-क्षमा माँगी नहीं,
    निद्रालस बंकिम विशाल नेत्र मूँदे रही–
    किंवा मतवाली थी यौवन की मदिरा पिये,
    कौन कहे?
    निर्दय उस नायक ने
    निपट निठुराई की
    कि झोंकों की झड़ियों से
    सुन्दर सुकुमार देह सारी झकझोर डाली,
    मसल दिये गोरे कपोल गोल;
    चौंक पड़ी युवती–
    चकित चितवन निज चारों ओर फेर,
    हेर प्यारे को सेज-पास,
    नम्र मुख हँसी-खिली,
    खेल रंग, प्यारे संग

  • श्रीधर पाठक की 10 लोकप्रिय कवितायेँ

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    श्रीधर पाठक की 10 लोकप्रिय कवितायेँ
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    हिंद-महिमा / श्रीधर पाठक

    जय, जयति–जयति प्राचीन हिंद
    जय नगर, ग्राम अभिराम हिंद
    जय, जयति-जयति सुख-धाम हिंद
    जय, सरसिज-मधुकर निकट हिंद
    जय जयति हिमालय-शिखर-हिंद
    जय जयति विंध्य-कन्दरा हिंद
    जय मलयज-मेरु-मंदरा हिंद
    जय शैल-सुता सुरसरी हिंद
    जय यमुना-गोदावरी हिंद
    जय जयति सदा स्वाधीन हिंद
    जय, जयति–जयति प्राचीन हिंद

    भारत-श्री / श्रीधर पाठक

    जय जय जगमगित जोति, भारत भुवि श्री उदोति
    कोटि चंद मंद होत, जग-उजासिनी
    निरखत उपजत विनोद, उमगत आनँद-पयोद
    सज्जन-गन-मन-कमोद-वन-विकासिनी
    विद्याऽमृत मयूख, पीवत छकि जात भूख
    उलहत उर ज्ञान-रूख, सुख-प्रकासिनी
    करि करि भारत विहार, अद्भुत रंग रूपि धारि
    संपदा-अधार, अब युरूप-वासिनी
    स्फूर्जित नख-कांति-रेख, चरन-अरुनिमा विसेख
    झलकनि पलकनि निमेख, भानु-भासिनी
    अंचल चंचलित रंग, झलमल-झलमलित अंग
    सुखमा तरलित तरंग, चारु-हासिनी
    मंजुल-मनि-बंध-चोल, मौक्तिक लर हार लोल
    लटकत लोलक अमोल, काम-शासिनी
    उन्नत अति उरज-ऊप, बिलखत लखि विविध भूप
    रति-अवनति-कर-अनूप-रूप-रासिनी
    नंदन-नंदन-विलास, बरसत आनंद-रासि
    यूरप-त्रय-ताप-नासि-हिय-हुलासिनी
    भारत सहि चिर वियोग, आरत गत-राग-भोग
    श्रीधर सुधि भेजि तासु सोग-नासिनी

    भारत-गगन / श्रीधर पाठक

    (1)
    निरखहु रैनि भारत-गगन
    दूरि दिवि द्युति पूरि राजत, भूरि भ्राजत-भगन
    (2)
    नखत-अवलि-प्रकाश पुरवत, दिव्य-सुरपुर-मगन
    सुमन खिलि मंदार महकत अमर-भौनन-अँगन
    निरखहु रैनि भारत-गगन
    (3)
    मिलन प्रिय अभिसारि सुर-तिय चलत चंचल पगन
    छिटकि छूटत तार किंकिनि, टूटि नूपुर-नगन
    निरखहु रैनि भारत-गगन
    (4)
    नेह-रत गंधर्व निरतत, उमग भरि अँग अँगन
    तहाँ हरि-पद-प्रेम पागी, लगी श्रीधर लगन
    निरखहु रैनि भारत-गगन

    सुंदर भारत / श्रीधर पाठक

    (1)
    भारत हमारा कैसा सुंदर सुहा रहा है
    शुचि भाल पै हिमाचल, चरणों पै सिंधु-अंचल
    उर पर विशाल-सरिता-सित-हीर-हार-चंचल
    मणि-बद्धनील-नभ का विस्तीर्ण-पट अचंचल
    सारा सुदृश्य-वैभव मन को लुभा रहा है
    भारत हमारा कैसा सुंदर सुहा रहा है
    (2)
    उपवन-सघन-वनाली, सुखमा-सदन, सुख़ाली
    प्रावृट के सांद्र धन की शोभा निपट निराली
    कमनीय-दर्शनीया कृषि-कर्म की प्रणाली
    सुर-लोक की छटा को पृथिवी पे ला रहा है
    भारत हमारा कैसा सुंदर सुहा रहा है
    (3)
    सुर-लोक है यहीं पर, सुख-ओक है यहीं पर
    स्वाभाविकी सुजनता गत-शोक है यहीं पर
    शुचिता, स्वधर्म-जीवन, बेरोक है यहीं पर
    भव-मोक्ष का यहीं पर अनुभव भी आ रहा है
    भारत हमारा कैसा सुंदर सुहा रहा है
    (4)
    हे वंदनीय भारत, अभिनंदनीय भारत
    हे न्याय-बंधु, निर्भय, निबंधनीय भारत
    मम प्रेम-पाणि-पल्लव-अवलंबनीय भारत
    मेरा ममत्व सारा तुझमें समा रहा है
    भारत हमारा कैसा सुंदर सुहा रहा है

    देश-गीत / श्रीधर पाठक

    1.
    जय जय प्यारा, जग से न्यारा
    शोभित सारा, देश हमारा,
    जगत-मुकुट, जगदीश दुलारा
    जग-सौभाग्य, सुदेश।
    जय जय प्यारा भारत देश।
    2.
    प्यारा देश, जय देशेश,
    अजय अशेष, सदय विशेष,
    जहाँ न संभव अघ का लेश,
    संभव केवल पुण्य-प्रवेश।
    जय जय प्यारा भारत-देश।
    3.
    स्वर्गिक शीश-फूल पृथिवी का,
    प्रेम-मूल, प्रिय लोकत्रयी का,
    सुललित प्रकृति-नटी का टीका,
    ज्यों निशि का राकेश।
    जय जय प्यारा भारत-देश।
    4.
    जय जय शुभ्र हिमाचल-शृंगा,
    कल-रव-निरत कलोलिनि गंगा,
    भानु-प्रताप-समत्कृत अंगा,
    तेज-पुंज तप-वेश।
    जय जय प्यारा भारत-देश।
    5.
    जग में कोटि-कोटि जुग जीवै,
    जीवन-सुलभ अमी-रस पीवै,
    सुखद वितान सुकृत का सीवै,
    रहै स्वतंत्र हमेश।
    जय जय प्यारा भारत-देश।

    बलि-बलि जाऊँ / श्रीधर पाठक

    1.
    भारत पै सैयाँ मैं बलि-बलि जाऊँ
    बलि-बलि जाऊँ हियरा लगाऊँ
    हरवा बनाऊँ घरवा सजाऊँ
    मेरे जियरवा का, तन का, जिगरवा का
    मन का, मँदिरवा का प्यारा बसैया
    मैं बलि-बलि जाऊँ
    भारत पै सैयाँ मैं बलि-बलि जाऊँ
    2.
    भोली-भोली बतियाँ, साँवली सुरतिया
    काली-काली ज़ुल्फ़ोंवाली मोहनी मुरतिया
    मेरे नगरवा का, मेरे डगरवा का
    मेरे अँगनवा का, क्वारा कन्हैया
    मैं बलि-बलि जाऊँ
    भारत पै सैयाँ मैं बलि-बलि जाऊँ

    बिल्ली के बच्चे / श्रीधर पाठक

    बिल्ली के ये दोनों बच्चे, कैसे प्यारे हैं,
    गोदी में गुदगुदे मुलमुले लगें हमारे हैं।
    भूरे-भूरे बाल मुलायम पंजे हैं पैने,
    मगर किसी को नहीं खौसते, दो बैठा रैने।
    पूँछ कड़ी है, मूँछ खड़ी है, आँखें चमकीली,
    पतले-पतले होंठ लाल हैं, पुतली है पीली।
    माँ इनकी कहाँ गई, ये उसके बड़े दुलारे हैं,
    म्याऊँ-म्याऊँ करते इनके गले बहुत दूखे,
    लाओ थोड़ा दूध पिला दें, हैं दोनों भूखे।
    जिसने हमको तुमको माँ का जनम दिलाया है,
    उसी बनाने वाले ने इनको भी बनाया है।
    इस्से इनको कभी न मारो बल्कि करो तुम प्यार,
    नहीं तो नाखुश हो जावेगा तुमसे वह करतार।

    उठो भई उठो / श्रीधर पाठक

    हुआ सवेरा जागो भैया,
    खड़ी पुकारे प्यारी मैया।
    हुआ उजाला छिप गए तारे,
    उठो मेरे नयनों के तारे।
    चिड़िया फुर-फुर फिरती डोलें,
    चोंच खोलकर चों-चों बोलें।
    मीठे बोल सुनावे मैना,
    छोड़ो नींद, खोल दो नैना।
    गंगाराम भगत यह तोता,
    जाग पड़ा है, अब नहीं सोता।
    राम-राम रट लगा रहा है,
    सोते जग को जगा रहा है।
    धूप आ गई, उठ तो प्यारे,
    उठ-उठ मेरे राजदुलारे!
    झटपट उठकर मुँह धुलवा लो,
    आँखों में काजल डलवा लो।
    कंघी से सिर को कढ़वा लो,
    औ’ उजली धोती बँधवा लो।
    सब बालक मिल साथ बैठकर,
    दूध पियो खाने का खा लो।
    हुआ सवेरा जागो भैया,
    प्यारी माता लेय बलैया।

    गुड्डी लोरी / श्रीधर पाठक

    सो जा, मेरी गोद में ऐ प्यारी गुड़िया,
    सो जा, गाऊँ गीत मैं वैसा ही बढ़िया।
    जैसा गाती है हवा, जब बच्ची चिड़िया।
    जैसा गाती है हवा, जब बच्ची चिड़िया,
    जाँय पेड़ की गोद में सोने की बिरियाँ।
    क्योंकि हवा भी तान से गाना है गाती,
    मीठे सुर से साँझ को धुन मंद सुनाती।
    और उस सुंदर देश का, संदेश बताती,
    जहाँ सब बच्चे-बच्चियाँ सोते में जाती।

    कुक्कुटी / श्रीधर पाठक

    कुक्कुट इस पक्षी का नाम,
    जिसके माथे मुकुट ललाम।
    निकट कुक्कुटी इसकी नार,
    जिस पर इसका प्रेम अपार।
    इनका था कुटुम परिवार,
    किंतु कुक्कुटी पर सब भार।
    कुक्कुट जी कुछ करें न काम,
    चाहें बस अपना आराम।
    चिंता सिर्फ इसकी को एक,
    घर के धंधे करें अनेक।
    नित्य कई एक अंडे देय,
    रक्षित रक्खे उनको सेय।
    जब अंडे बच्चे बन जाएँ,
    पानी पीवें खाना खाएँ।
    तब उनके हित परम प्रसन्न,
    ढूंढे मृदु भोजन कण अन्न।
    ज्यों ज्यों बच्चा बढ़ता जाय,
    स्वच्छंदता सिखावे माय।
    माँ जब उसे सिखा सब देय,
    बच्चा सभी, आप कर लेय।