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  • एक कदम चल -डी कुमार अजस्र(अमात्रिक काव्य)

    एक कदम चल -डी कुमार अजस्र(अमात्रिक काव्य)

    kavita

    चल, एक कदम, एक कदम, एक कदम चल।
    जम-जम कर , रख कदम , कर अब पहल।
    रतन बन चम-चम , चमक कर उजल ।
    नकल अब तजन कर , कर सब असल ।
    रत जब करम पथ, पथ सब नवल ।
    थक कर शयन , सब फल गए गल ।
    चल, एक कदम,एक कदम,एक कदम चल ।
    जम-जम कर रख कदम , कर अब पहल ।

    कण-कण खनन , जब कर-कर खरल ।
    कर-कर गहन जतन , तब बन सफल ।
    नयन भर सपन , कर फतह महल ।
    श्रमकण* बरसत , तब उपजत फसल ।
    *(*श्रमकण—पसीना)*
    चल, एक कदम,एक कदम,एक कदम चल ।
    जम-जम कर रख कदम , कर अब पहल ।

    भर-भर जब जल बहत जय जय तब कल*।
    *(*कल—झरना)*
    जलद घन बरसन , नदयन भर पल ।
    अचरज सब कर सकत , नजरन बदल ।
    नजर भर दरशन , यह सब जग मचल ।
    चल, एक कदम,एक कदम,एक कदम चल ।
    जम-जम कर रख कदम , कर अब पहल ।

    श्रमकण चमकत, तब भगवन सरल ।
    जतन जब करतन , करतल* सब फल।
    *(*करतल–हाथ)*
    अमर पद पकड़न , हजम कर गरल*।
    *(*गरल–जहर)*
    दम पर करम *(कर्म)* , अब करम *(भाग्य)* बदल ।
    चल, एक कदम,एक कदम,एक कदम चल ।
    जम-जम कर रख कदम , कर अब पहल ।

    ✍✍ *डी कुमार–अजस्र(दुर्गेश मेघवाल,बून्दी/राज.)*

  • चींटी और तितली

    चींटी और तितली

    चींटी और तितली

    कीचड़ में सनी चींटी,
    दाना खाती बैठी चींटी।
    इतने में आयी तितली रानी,
    बोली कितना गंदा पीती हो पानी,
    मुझको देखो कितनी प्यारी!
    रंग-बिरंगी और दुलारी,
    फूलों का रस पीती हूँ,
    जीवन में रंग भर देती हूँ ।

    चींटी और तितली
    बाल कविता


    चींटी बोली बहन दुलारी,
    घृणा करो न इतनी सारी,
    न बनो तुम बडबोली
    बोलो मीठी मीठी बोली,
    आया इक दिन बडा तूफान,
    तितली पड़ी जमीन पर बेहोश समान,
    चींटी ने देखा उसे बेहाल,
    बाहर निकाला पूछा सवाल,
    किया घमंड था तुमने रानी,
    तुमने की कैसी ये नादानी?
    देखो न किसी का रूप रंग और जवानी,
    जीवन में जो साथ निभाये वही है सच्चा ज्ञानी।
    औरों की मदद का रखो ध्यान,
    पा लोगे तुम सबका सम्मान।

    माला पहल ‘मुंबई’

  • क्या भला रह जायेगा

    क्या भला रह जायेगा

    hindi gajal
    hindi gazal || हिंदी ग़ज़ल

    वो परिंदा, ये परिंदा, सब छला रह जायेगा
    क्या बचा था,क्या बचा है,क्या भला रह जायेगा | १ |

    एक दिन सारे ईमानों धर्म को भी बेचकर,
    आदमी अंदर से केवल खोखला रह जायेगा । २।

    आज का कोमल कमल जो खिल रहा है झील में,
    कौन जाने कल को केवल अधखिला रह जायेगा।३।

    वक्त के शायद किसी नाजुक गली या मोड़ पर,
    हर कोई बस जिंदगी में एकला रह जायेगा।४।

    स्मारकें बनकर कोई जो दिख रही ऊँची महल,
    बाद में स्मृति चिन्ह वो भी धुंधला रह जायेगा ॥५॥

    मानवों के हाथ की केवल कमाई कर्म है
    अंत ईश्वर हाथ सारा फ़ैसला रह जायेगा।६।

  • उठो जगो बंधु-जागरण कविता

    उठो जगो बंधु-जागरण कविता

    kavita

    उठो जगो बंधु अभी न सोओ,
    तजो सभी स्वप्न यथार्थ टोओ।
    भरो पगों में अभिलाष दूना,
    मिले सु-संयोग कभी न खोना | १ |

    फिरे कदाचित् न व्यतीत वेला,
    चलो दिखाओ कुछ नव्य खेला।
    सहस्त्र बाधा बहु बिघ्न आवें,
    तथापि पंथी भय ना दिखावें। २।

    उठो कि आओ भव डोल दो रे,
    चलो कि आओ महि तोल दो रे !
    उड़ो – उड़ो छू चल चाँद तारे,
    रहो सदा ही गतिमान प्यारे | ३ |

    रुके न होते सब काम प्यारे,
    रुके भला हो कब नाम प्यारे ?
    यहाँ सभी हैं गतिमान प्यारे,
    सहेज रक्खो पहचान प्यारे |४|

  • राक्षस दहन पर कविता

    राक्षस दहन पर कविता

    किसी भी राष्ट्र के सर्वतोमुखी विकास के लिए विद्या और शक्ति दोनों देवियों की आराधना और उपासना आवश्यक है। जिस प्रकार विद्या की देवी सरस्वती है, उसी प्रकार शक्ति की देवी दुर्गा है। विजया दशमी दुर्गा देवी की आराधना का पर्व है, जो शक्ति और साहस प्रदान करती है। यह पर्व आश्विन मास के शुक्ल पक्ष की दशमी को मनाया जाता है। विजया दशमी का पर्व दस दिनों तक (प्रति पदा से दशमी तक) धूमधाम से मनाया जाता है। इसमें कई प्रकार की पूजा होती है। नवरात्र पूजा, दुर्गा पूजा, शस्त्र पूजा सभी शक्ति की प्रतीक दुर्गा माता की आराधना और उपासना है। अतीत में इस देवी ने दुष्ट दानवों का वध करके सामान्य जन और धरती को अधर्मियों से मुक्त किया था।

    kavita

    हाँ मैं रावण हूँ, मैं ही हूँ रावण।
    मेरा अस्तित्व है चिर पुरातन।
    हूं मैं प्रगल्भ,प्रकाण्ड,
    मेरी गूँज से हिले पूरा ब्रह्मांण्ड।
    मेरा मन निर्मल ,मुझ में है अपार बल,
    चारित्रसंपन्नता में मैं उज्जवल ।
    मुझको दहन कर पाते राख,
    पर क्या सोचा कितनी पवित्र है मेरी साख।
    गृह,भवनों में छिड़कते तुम,
    दिव्य बनाते मुझको तुम।
    पर नहीं राक्षस मैं मानव जैसा,
    कैसे समझाऊँ मैं था कैसा?
    देख मन में होता हाहाकार ,
    शीघ्र करो तुम इनका संहार।
    इनको फूँको तुम रावण नाम से,
    मुक्त करो इस धरा को राक्षसों के काम से ।
    हर अबला नारी हारी,
    राक्षसों के कुकर्म की मारी
    मारों,फूँको, दहन करो तुम,
    राक्षस जाति को नष्ट करो तुम,
    मेरा दहन कर मत गर्व करो तुम,
    दहन करो राक्षसों का तब दंभ भरो तुम।
    माला पहल ‘मुंबई’