Tag: Hindi Poem on Magh Basant Panchami

  • ऋतुराज बसंत- शची श्रीवास्तव

    ऋतुराज बसंत- शची श्रीवास्तव


    पग धरे धीर मंथर गति से
    ये प्रकृति सुंदरी मदमाती,
    ऋतुराज में नवयौवन पाकर
    लावण्य रूप पर इतराती।

    ज्यों कोई नवोढ़ा धरे कदम
    दहलीज पर नए यौवन की,
    यूं धीरे धीरे तेज़ होती है
    धूप नए बसंत ऋतु की।

    पीली सरसों करती श्रृंगार
    प्रकृति का यूं बसंत ऋतु में,
    अल्हड़ सी ज्यूं कोई बाला
    सज धज बैठी अपनी रौ में।

    अमराई से महक उठी हैं
    तरुण आम की मंजरियां,
    कैसे कूके मीठी कोयल
    बिखराती संगीत लहरियां।

    भौरे ने छेड़ा मधुर गीत
    सुना जब आया है मधुमास,
    पुहुप सब रहे झूम हो मस्त
    छेड़ प्रेम का अमिट रास।

    प्रेयसी मगन मन में बसंत
    छाए मधु रस ज्यों रग रग पर,
    अभिसार की चाह जगाए रुत
    ऐसे में करो न गमन प्रियवर।।

    ऋतुराज बसंत- शची श्रीवास्तव

  • लौट आओ बसंत

    लौट आओ बसंत


    न खिले फूल न मंडराई तितलियाँ
    न बौराए आम न मंडराए भौंरे
    न दिखे सरसों पर पीले फूल
    आख़िर बसंत आया कब..?

    पूछने पर कहते हैं–
    आकर चला गया बसंत !
    मेरे मन में रह जाते हैं कुछ सवाल
    कब आया और कब चला गया बसंत ?
    कितने दिन तक रहा बसंत ?
    दिखने में कैसा था वह बसंत ?

    कोई उल्लास में दिखे नहीं
    कोई उमंग में झूमे नहीं
    न प्रेम पगी रातें हुई
    न कोई बहकी बहकी बातें हुई

    मस्ती और मादकता सब भूल गए
    न जाने कितने होश वाले और समझदार हो गए

    अरे छोड़ो भी इतनी समझदारी ठीक नहीं
    कहीं सूख न जाए हमारी संवेदनाओं की धरती

    प्रेम से मिले हम खिले हम महके हम
    मुरझाए से जीवन में फिर से बसंत उतारे हम ।

    नरेंद्र कुमार कुलमित्र
    9755852479

  • मात शारदे नमन लिखा दे-बाबू लाल शर्मा”बौहरा”

    मात शारदे नमन लिखा दे-बाबू लाल शर्मा”बौहरा”

    (लावणी छंद)
    वीणा पाणी, ज्ञान प्रदायिनी,
    ब्रह्म तनया माँ शारदे।
    सतपथ जन प्रिय सत्साहित,हित
    कलम मेरी माँ तार दे।

    मात शारदे नमन् लिखादे,
    धरती, फिर नभ मानों को।
    जीवनदाता प्राण विधाता,
    मात पिता भगवानों को।

    मात शारदे नमन लिखा दे,
    सैनिक और किसानों को।
    तेरे वरद पुत्र,माँ शारद,
    गुरु, कविजन, विद्वानों को।

    मात शारदे नमन लिखा दे,
    भू पर मरने वालों को।
    अपना सर्व समर्पण कर के,
    देश बचाने वालों को।

    मात शारदे नमन लिखा दे,
    संसद अरु संविधान को।
    मातृ भूमि की बलिवेदी पर,
    अब तक हुए बलिदान को।

    मात् शारदे नमन् लिखा दे,
    जन मन मान कल्याण को।
    भारत माँ के सत्य उपासक,
    श्रम के पूज्य इंसान को।

    मात शारदे नमन लि खादे,
    माँ भारती के गान को।
    मैं तो प्रथम नमामि कहूँगा,
    माँ शारदे वरदान को।
    ———-
    बाबू लाल शर्मा”बौहरा”

  • विरह पर दोहे -बाबू लाल शर्मा

    विरह पर दोहे

    सूरज उत्तर पथ चले,शीत कोप हो अंत।
    पात पके पीले पड़े, आया मान बसंत।।

    फसल सुनहरी हो रही, उपजे कीट अनंत।
    नव पल्लव सौगात से,स्वागत प्रीत बसंत।।

    बाट निहारे नित्य ही, अब तो आवै कंत।
    कोयल सी कूजे निशा,ज्यों ऋतुराज बसंत।।

    वस्त्र हीन तरुवर खड़े,जैसे तपसी संत।
    कामदेव सर बींधते,मन मदमस्त बसंत।।

    मौसम ले अंगड़ाइयाँ,दामिनि गूँजि दिगंत।
    मेघा तो बरसे कहीं, विरहा सोच बसंत।।

    नव कलियाँ खिलने लगे,आवे भ्रमर तुरंत।
    विरहन मन बेचैन है, आओ पिया बसंत।।

    सिया सलौने गात है, मारे चोंच जयंत।
    राम बनो रक्षा करो,प्रीतम काल बसंत।।

    प्रीतम पाती प्रेमरस, अक्षर जोड़ अजंत।
    विरहा लिखती लेखनी,आओ कंत बसंत।।

    प्रेम पत्रिका लिख रही, पढ़ लेना श्रीमंत।
    भाव समझ आना पिया,चाहूँ मेल बसंत।।

    जैसी उपजे सो लिखी, प्रत्यय संधि सुबन्त।
    पिया मिलन की आस में,भटके भाव बसंत।।

    परदेशी पंछी यहाँ, करे केलि हेमंत।
    मन मेरा भी बावरा, चाहे मिलन बसंत।।

    कुरजाँ ,सारस, देखती, कोयल पीव रटन्त।
    मन मेरा बिलखे पिया, चुभते तीर बसन्त।।

    बौराए वन बाग है, अमराई जीवंत।
    सूनी सेज निहारती ,बैरिन रात बसंत।।

    मादकता चहूँ ओर है, कैसे बनू सुमंत।
    पिया बिना बेचैन मन, कैसे कटे बसंत।।

    काम देव बिन सैन्य ही, करे करोड़ो हंत।
    फिर भी मन माने नहीं, स्वागत करे बसंत।।

    मैना कोयल बावरे, मोर हुए सामंत।
    तितली भँवरे मद भरे, गाते राग बसंत।।

    कविमन लिखता बावरा,शारद सुमिर पदंत।
    प्राकृत में जो देखते,लिखती कलम बसन्त।।

    शारद सुत कविता गढ़े, लिखते गीत गढंत।
    मन विचलित ठहरे नहीं, रमता फाग बसंत।।

    गरल सने सर काम के,व्यापे संत असंत।
    दोहे लिख ऋतु राज के,कैसे बचूँ बसंत।।

    कामदेव का राज है, भले बुद्धि गजदंत।
    पलकों में पिय छवि बसे,नैन न चैन बसंत।।

    ऋतु राजा की शान में,मदन भटकते पंत।
    फाग राग ढप चंग से, सजते गीत बसंत।।

    मन मृग तृष्णा रोकती,अक्षर लगा हलन्त्।
    आँसू रोकूँ नयन के, आजा पिया बसंत।।

    चाहूँ प्रीतम कुशलता,अर्ज करूँ भगवंत।
    भादौ से दर्शन नहीं, अब तो मिले बसंत।।

    ईश्वर से अरदास है, प्रीतम हो यशवंत।
    नित उठ मैं पूजा करूँ, देखूँ बाट बसंत।।

    फागुन में साजन मिले,खुशियाँ हो अत्यंत।
    होली मने गुलाल से, गाऊँ फाग बसंत।।

    मैं परछाई आपकी,आप पिया कुलवंत।
    विरहा मन माने नहीं, करता याद बसंत।।

    शकुन्तला को याद कर,याद करूँ दुष्यंत।
    भूल कहीं जाना नहीं, उमड़े प्रेम बसंत।।

    रामायण गीता पढ़ी,और पढ़े सद् ग्रन्थ।
    ढाई अक्षर प्रेम के, मिलते माह बसंत।।

    प्रीतम हो परदेश में, आवे कौन सुपंथ।
    पथ पूजन कर आरती,मै तैयार बसंत।।

    नारी के सम्मान के, मुद्दे उठे ज्वलंत।
    कंत बिना क्या मान हो,दे संदेश बसंत।।

    प्रीतम चाहूँ प्रीत मै, सात जनम पर्यन्त।
    नेह सने दोहे लिखूँ ,साजन चाह बसंत।।

    बाबू लाल शर्मा, “बौहरा”
    सिकंदरा,दौसा,राजस्थान

  • बसंत पंचमी पर कविता

    बसंत पंचमी पर कविता

    मदमस्त    चमन

    अलमस्त  पवन

    मिल रहे  हैं देखो,

    पाकर  सूनापन।

    उड़ता है सौरभ,

    बिखरता पराग।

    रंग बिरंगा सजे

    मनहर ये बाग।

    लोभी ये मधुकर

    फूलों पे है नजर

    गीला कर चाहता

    निज शुष्क अधर।

    सजती है धरती

    निर्मल है आकाश।

    पंछी का कलरव,

    अब बसंत पास।