मेरी जीवन यात्रा
मेरी ये यात्रा
मुट्ठी बंद शून्य से
अशून्य की ओर।
जैसे ही नैन खुले,
चाहिए खिलौने।
और एक चमकता भोर।
पाने की तलाश।
जिसकी बुझे ना प्यास।
ये कुछ पाना ही बंधन है ।
पर जो मिल रहा
मन कैसे कह दे
सब धोखा है, उलझन है।
ये जो घोंसला तिनकों का
मेरी आंखो के सामने।
जिसमें आराम है सुरक्षा है।
ठंड में गरम
और गर्म में शीतल ।
लगता बहुत अच्छा है।
मेहनत से जुटा
जो कुछ भी
लगती हमारी उपलब्धि ।
पर जो बांट न सके
उसका क्या वजन
वो मात्र एक रत्ती।
ये क्या अर्जन?
ये क्या धन ?
धिक ऐसा जीवन
सब व्यर्थ गया।
जो सौंप ना पाऊं मूल्य
भावी जन को
तो समझो सब अनर्थ गया।
समय और स्वेद से
जुटाए गये दो सिक्के।
फेंके नहीं जाते आसानी से।
घोंसला बना जो सुंदर
पसीना है जिसमें
बना तो नहीं महज बानी से।
मुझे आभास था
मैं खुश हूं।
पर मेरा ज्ञान थोथा और उथला।
जब जब डाल हिले
आक्रांत होता भय से
टिक ना पायेगा मेरा घोंसला।
क्या यही जीवन का स्वाद
मैंने जी भर खाया
कराहता पेट फूलन से।
समझा था स्वयं को
मिश्री का दाना
क्यों तरसता रह गया घुलन से।
अच्छा होता
उड़ जाता घोंसला
बताता क्या होता जीवन?
भूलभुलैया से मुक्त होता
उड़ता बेबसी तोड़ के
पा तो जाता मुक्त गगन।
मैं टिकने के चक्कर में
नापना ही भूल गया
अपना ये सफर।
निरर्थक बातों में
जश्न ही मनाता
इसीलिए दूर ही रह गया शिखर।
अब मेरी यात्रा
अशून्य से शून्य की ओर
फिर मुड़ चला है।
जैसे शाम की बेला में
पंछी थक हार के
वृक्ष को आ चला है।
मनीभाई नवरत्न