यहां बारिश पर कविता हिन्दी में दिए जा रहे हैं आप इनको पढ़के आनंद लें।
बारिश पर कविता हिन्दी में
बारिश का मौसम
सर सर सरसराता समीर
चम चम चमकती चपला
थम थम कर टपकती बूँदें
अनेक सौगात लाती बहारें
प्रेम का, खुशियों का
बारिश के मौसम का।
घनश्याम घिरे नभ घन में
हरित धरा राधे की आँचल
घनघोर बरसता पानी मध्य में
लगता ज्यों खीर सागर बीच में
बड़ी अड़चने हैं मिलन का
बारिश के मौसम का।
रिमझिम – रिमझिम लगी फुहार
आई सावन की रसभरी बहार।
थम – थमकर बहती बयार
सावन की मनोहारी दृश्य से
टूटा ध्यान योगी का
बारिश के मौसम का।
मूसलाधार जल वृष्टि के बाद
प्रकृति के रूप सँवर निखरे
ताल सरोवर पूरे, उछले
पथ कीचड़ से लथपथ सने
मुश्किलें भारी कहीं जाने का
बारिश के मौसम का।
मघा नक्षत्र की तीखी बौछार
तन पर पड़ते हैं झर – झर
स्पर्श की मधुर अहसास पल- पल
मजा ही कुछ और होता है
सावन में भीगने का
बारिश के मौसम का।
धसे धरा पर बीज जो
सीना चिर बाहर निकले
तिनके बिखरे हैं यहाँ – वहाँ
हरी चूनर ओढ़ा सारा जहां
सर्वत्र नज़ारा है हरियाली का
बारिश के मौसम का।
जब लगती दिन – रात की झड़ी
थमती नहीं हरदम बरसती
बाहर निकलना रुक जाता है
घर के चबूतरे में बैठ तब
आनंद लिया करते है वर्षा का
बारिश के मौसम का।
सुकमोती चौहान रुचि
बिछिया, बसना , महासमुंद
बारिश पर मुक्तक (सरसी छन्द)
सुखद सुहाने ऋतु पावस में, पुलकित है हर गात,
नदियाँ कलकल ताल लबालब, रिमझिम है बरसात,
खिली हरित परिधान धरा, कौतुक करे समीर,
मोहित हो धरती पर दिनकर, रंग बिखेरे सात।
गीता द्विवेदी
आओ प्रकृति की ओर
आओ चलें हम प्रकृति की ओर,
हमें कुछ कहती है, करती है शोर ।
नित नित करो प्रकृति की सेवा,
प्रकृति देती है, जीवों को मेवा ।।
स्वस्थ जीवन शुद्ध हवा के लिए,
दो वृक्ष लगाओ प्रकृति के लिए ।
प्रकृति मां है मां कह कर बुलाओ,
अपना फर्ज निभाकर दिखलाओ ।।
रखो पर्यावरण को शुद्ध सदा,
बीमारियाँ नहीं मिलेगी यदा कदा ।
सांसों में होगा चंदन का वास,
पर्यावरण को तुम बना दो खास ।।
पेड़ लगाओ जीवन बचाओ,
हरियाली मन को मोह लेगी ।
हरी-भरी होगी तेरी जीवन शैली,
धरती माता न होगी फिर मैली ।।
वर्षा देगी हमें, बूँदों की बौछार,
खुशहाली होगी, होगा सुखद संसार ।
हंसती हुई फसलें, मन को हर्षाएँगी,
जगत के कण-कण, फिर मुस्कुरायेंगे ।।
न होगा तपती धूप का प्रकोप,
पेड़-पौधे मदमस्त हो झूमें नाचेंगे ।
ताल तलैया मांदर बजायेंगी ,
मिलकर मीन दादुर तान छेड़ेंगे ।।
अनुपम होगी यह पृथ्वी मेरी,
दिखेगी जैसी है वो रमा की सहेली ।।
उजड़े मन में होगी बागों की बहार,
खिल जायेगी आशाओं की कली ।।
सुख समृद्धि अन्न धन से भरी धरा,
रत्न से सुशोभित होती देखो जरा ।
नीर-छीर का सागर से गहरा नाता,
हरियाली जीव-जन्तु को है भाता ।।
जब भी बारिश हँसते हुए आयेगी,
देख खुशी खेतों में अंकुर फुटेंगे ।
मन में होंगे उमंगों के तराने,
ग्रीष्म में तरु मधुमास को लायेंगे ।।
कुहूक-कुहूक गुंजेगी मीठी बोली,
कोयल के संग-संग मैं तो दोहराऊंगी ।
आओ सुनो ननकी मिश्री की बात,
प्रकृति से प्रकृति के साथ जुड़ जाऊंगी ।।
ननकी पात्रे ‘मिश्री’
[बेमेतरा, छत्तीसगढ़]
बरसा आगे छत्तीसगढ़ी गीत
गरजे बादर घनघोर,होगे करिया अंधियार…बादर छा गे–
बिजुरी चमके अकास,बुझ गे भुंइया के प्यास…बरसा आगे—।।–।।
नाचें रुख राई बन…..कूदें गर्रा घाटा…सूखा मर गे
देवी देवंता आशीष..गिरे सूपा के धार…तरिया भर गे–।।–।।
पीपर होंगे मतवार…भीजे डोली औ खार…पिंयरा परगे–
कोयली कुहू कुहू…भवरा भूँउ..भूँउ….भुंइया तरगे—।।–।।
खेते नांगर बईला…किसान होंगे हरवार… बीजा बिछ गे—
ठंडा जीवरा परान…ठीना.फसल फरवार… आशा हो गे….।।–।।
नाचे मन के मंजूर..होही धान भरपूर…आषाढ़ बार गे….
सावन भादों के आस..तर गे धरती पियास…बरसा आ गे…।।–।।
डॉ0 दिलीप गुप्ता
प्रथम फुहार पर कविता
आया शुभ आषाढ़, बदलने लगे नजारे |
भीषण गर्मी बाद, लगे घिरने घन प्यारे ||
देखे प्रथम फुहार, रसिक अपना मन हारे |
सौंधी सरस सुगंध, मुग्ध हैं कविवर सारे ||
सूचक है ग्रीष्मांत का, सुखद प्रथम बरसात यह |
चंचल चितवन चाप को, मिला महा सौगात यह ||
टपकी पहली बूँद, गाल पर मेरे ऐसे |
अति अपूर्व अहसास, अमृत जलकण हो जैसे ||
थिरक रहा मन मोर, हुआ अतिशय मतवाला |
कृष्ण रचाये संग, रास लीला बृजबाला ||
धरती लगती तृप्त है , गिरे झमाझम मेह है |
शांत चराचर जग सभी, बरसा भू पर नेह है ||
हरा भरा खुशहाल, मातु धरती का आँचल |
उगे घास चहुँ ओर, गरजते घन घन बादल |
हरियाली चहुँ ओर, हरित धरती की चूनर |
प्रकृति करे श्रृंगार, लगा पत्तों की झूमर |
धरती माँ के कोख में, फसल अकुंरित हो रहे |
गर्भवती धरती हुई, सब आनंदित हो रहे ||
– सुकमोती चौहान रुचि
पावस पर कविता
पावस पनघट आज छलक रहा है।
झर रहा नीर बूँद – बूँद,
प्रिय स्मृति से मन भींग रहा है।
मैं विरहिणी प्रिय-प्रवासी,
घन पावस तम-पूरित रात।
झूम-झूम घन बरस रहे हैं,
अलस – अनिद्रित सिहरता गात।
किसे बताऊं विरह-वेदना,
सुख निद्रा से जग रंग रहा है।
झर रहा नीर बूँद – बूँद,
प्रिय स्मृति से मन भींग रहा है।
झरती बूंदें, तपता तन है,
विरह- विगलित व्यथित मन है।
चपला चंचला घन गर्जन है,
स्मृति-रंजित उर स्पंदन है।
किसे दिखाऊँ विकल चेतना,
चेतन विश्व तो ऊंघ रहा है।
झर रहा नीर बूँद – बूँद,
प्रिय स्मृति से मन भींग रहा है।
साधना मिश्रा, रायगढ़-छत्तीसगढ़
बादलो ने ली अंगड़ाई
बादलो ने ली अंगड़ाई,
खिलखलाई यह धरा भी!
हर्षित हुए भू देव सारे,
कसमसाई अप्सरा भी!
कृषक खेत हल जोत सुधारे,
बैल संग हल से यारी !
गर्म जेठ का महिना तपता,
विकल जीव जीवन भारी!
सरवर नदियाँ बाँध रिक्त जल,
बचा न अब नीर जरा भी!
बादलों ने ली अंगड़ाई,
खिलखिलाई यह धरा भी!
घन श्याम वर्णी हो रहा नभ,
चहकने खग भी लगे हैं!
झूमती पुरवाई आ गई,
स्वेद कण तन से भगे हैं!
झकझोर झूमे पेड़ द्रुमदल,
चहचहाई है बया भी!
बादलों ने ली अंगड़ाई,
खिलखिलाई यह धरा भी!
जल नेह झर झर बादलों का,
बूँद बन कर के टपकता!
वह आ गया चातक पपीहा,
स्वाति जल को है लपकता!
जल नेह से तर भीग चुनरी,
रंग आएगा हरा भी!
बादलों ने ली अंगड़ाई,
खिलखिलाई यह धरा भी!
बाबू लाल शर्मा
रिमझिम रिमझिम गिरता पानी
रिमझिम रिमझिम गिरता पानी
छमछम नाचे गुड़िया रानी
चमक रही है चमचम बिजली
छिप गईं है प्यारी तितली
घनघोर घटा बादल में छाई
सबके मन में खुशियाँ लाई
नाच रहे हैं वन में मोर
चातक पपीहा करते शोर
चारों तरफ हरियाली छाई
सब किसान के मन को भाई।
अदित्य मिश्रा
आया बरसात
उमस भरी गर्मी को करने दूर,
लेकर सुहावनी हवाऐं भरपूर।
भर गया जल जो स्थान था खाली,
सुखे मरूस्थल में भी छा गई हरियाली।
भीग गए हर गली डगर – पात,
मन को लुभाने, आया बरसात।
कोयल कुहके पपीहा बोला,
मोर नृत्य का राज खोला।
काली घटा बदरा मंडरा गई,
देख बावरी हवा भी शरमा गई।
दामिनी करने लगी धरा से बात,
मन को लुभाने, आया बरसात।
कीट – पतंग और झींगुर की आवाज,
आनंदित है प्राणी वर्षा का हुआ आगाज।
सर्प – बिच्छू शुरू किए जीवन शैली,
धरा के छिद्र से चींटियों की रैली।
मेंढक की धुन से हो वर्षा की सौगात,
मन को लुभाने, आया बरसात।
भीगे धरा का एसा है वृतांत,
साथ में है जीव कोई नहीं एकांत।
सुखे हरे पत्तों में आयी मुस्कान,
लेकर हल खेत चले किसान।
करे स्वागत वर्षा का मानव जात,
मन को लुभाने, आया बरसात।
मछलियों की लगा जमघट,
पक्षी – मानव करें धर – कपट।
बच्चों की अनोखी कहानी,
नाच उठे देख वर्षा का पानी।
होती है सुन्दर मनभावन रात,
मन को लुभाने, आया बरसात।
कावड़ियों का ओंकारा,
रथ – यात्रा का जयकारा।
कुदरत का अनोखा रूप,
कभी वर्षा कभी धूप।
सोंचे मन बह जाऊँ हवा के साथ,
मन को लुभाने, आया बरसात।
–– अकिल खान
बरस मेघ खुशहाली आए
बरसे जब बरसात रुहानी,
धरा बने यह सरस सुहानी।
दादुर, चातक, मोर, पपीहे,
फसल खेत हरियाली गाए,
बरस मेघ, खुशहाली आए।।
धरती तपती नदियाँ सूखी,
सरवर,ताल पोखरी रूखी।
वन्य जीव,पंछी हैं व्याकुल,
तुम बिन कैसे थाल सजाए,
बरस मेघ, खुशहाली आए।।
कृषक ताकता पशु धन हारे,
भूख तुम्हे अब भूख पुकारे,
घर भी गिरवी, कर्जा बाकी,
अब ये खेत नहीं बिक जाए,
बरस मेघ, खुशहाली आए।।
बिटिया की करनी है शादी,
मृत्यु भोज हित बैठी दादी।
घर के खर्च खेत के हर्जे,
भूखा भू सुत ,फाँसी खाए,
बरस मेघ, खुशहाली आए।।
कुएँ बीत कर बोर रीत अब,
भूल पर्व पर रीत गीत सब।
सुत के ब्याह बात कब कोई,
गुरबत घर लक्ष्मी कब आए,
बरस मेघ, खुशहाली आए।।
राज रूठता, और राम भी,
जल,वर्षा बिन रुके काम भी।
गौ,किसान,दुर्दिन वश जीवन,
बरसे तो भाग्य बदल जाए,
बरस मेघ, खुशहाली आए।।
सागर में जल नित बढ़ता है,
भूमि नीर प्रतिदिन घटता है।
सम वर्षा का सूत्र बनाले ,
सब की मिट बदहाली जाए,
बरस मेघ, खुशहाली आए।।
कहीं बाढ़ से नदी उफनती,
कहीं धरा बिन पानी तपती।
कहीं डूबते जल मे धन जन,
बूंद- बूंद जग को भरमाए,
बरस मेघ ,खुशहाली आए।।
हम भी निज कर्तव्य निभाएं,
तुम भी आओ, हम भी आएं,
मिलजुल कर हम पेड़़ लगाएं,
नीर संतुलन तब हो जाए,
बरस मेघ , खुशहाली आए।।
पानी सद उपयोग करे हम,
जलस्रोतो का मान करे तो।
धरा,प्रकृति,जल,तरु संरक्षण,
सारे साज– सँवर तब जाए,
बरस, मेघ खुशहाली आए।।
बाबू लाल शर्मा,बौहरा
आया है बरसात
आया है बरसात का मौसम,
धोने सब पर जमीं जो धूल।
चाहे ऊंचे बाग वृक्ष हों ,
या हों छोटे नन्हें फूल।
चमक रही अट्टालिकाएं,
परत चढ़ी है मैल की ।
बर्षा जल से धूल घुल जाय,
अब तो पपड़ी शैल की।
मन मंदिर भी धूमिल है,
शमाँ भरा है धूंध से।
देव भी अब चाह रहे हैं,
पपड़ी टूटे जल बून्द से।
मानवता भी लंबी चादर,
ओढे है मोटी मैल की।
दिव्यज्ञान बारिश हो तो,
परत कटे अब तैल की।
छाया वाले तरु भी देखो,
हो गए हैं बड़े कटीले।
ममता रूपी बून्द मिलेगा,
छाया देंगे बड़े सजीले।
प्रदूषण की मैल जमीं है,
मानव नेत्र महान पर।
इस बर्षा सब धूल घुल जाए,
जमीं जो देश जहाँन पर।
आशोक शर्मा,कुशीनगर,उ.प्र.
उमड़ घुमड़ घन घिर सावन के
उमड़ घुमड़ घन घिर सावन के,
नभ से जल बरसाएँ।
तपन हुई शीतल बसुधा की,
सब के मन हरषाएँ ।।
श्याम घटाअम्बर पर छाएँ,
छवि लगती अति प्यारी।
मघा मेघ अमृत बरसाएँ,
मिटे प्रदूषण भारी ।।
धुले गरल कृत्रिम जीवन का,
प्रेम प्रकृति का पाएँ।
उमड़ घुमड़ घन घिर सावन के,
नभ से जल…..(1)
हे घनश्याम मिटा दो तृष्णा,
धरती और गगन की।
बरसाओ घनघोर मेघ जल,
देखो खुशी छगन की।।
करदो पूर्ण मनोरथ जलधर,
चातक प्यास बुझाएँ ।
उमड़ घुमड़ घन घिर सावन के,
नभ से जल……. (2)
मन्द पवन झकझोरे लेती,
चलती है इठलाती।
शीत ताप वर्षा रितु पाकर,
प्रकृति चली मदमाती।।
सावन में घनश्याम पधारो,
गीत खुशी के गाएँ।
उमड़ घुमड़ घन घिर सावन के,
नभ से जल…. (3)
रमेश शर्मा
रिमझिम वर्षा बूँद का संग्रह करो अपार
पानी बरसे नित्य ही,
आये दिन बरसात।
जल से प्लावित है धरा,
लगे फसल मत घात।।
बादल आज घुमड़ रहे,
करे ध्वनित अति शोर।
बर्फ गिरे बरसात में,
देख चकित हैं मोर।।
वर्षा जल से तरु हरित,
रूप शोभायमान।
हरे भरे चहुँ ओर से,
दिव्य दिखे खलिहान।।
नित्य कृषक कर प्रार्थना,
ईष्ट विनय करजोर।
देख बरसते मेघ को,
होता भाव विभोर।।
रिमझिम वर्षा बूँद का,
संग्रह करो अपार।
कहे रमा ये सर्वदा,
बुझे प्यास संसार।।
मनोरमा चन्द्रा
समझ ले वर्षारानी
१३ मात्रिक मुक्तक
. (वर्षा का मानवीकरण)
बरस अब वर्षा रानी,
बुलाऊँ घन दीवानी।
हृदय की देखो पीड़ा,
मान मन प्रीत रुहानी।
हितैषी विरह निभानी,
स्वप्न निभा महारानी।
टाल मत प्रेम पत्रिका,
याद कर प्रीत पुरानी।
प्राण दे वर्षा रानी।
त्राण दे बिरखारानी।
सूखता हृदय हमारा,
देह से नेह निभानी।
तुम्ही जानी पहचानी,
वही तो बिरखा रानी।
पपीहा तुम्हे बुलाता,
बनो मत यूं अनजानी।
हार कान्हा से मानी,
सुनो हे मन दीवानी।
स्वर्ग में तुम रहती हाँ,
तो हम भी रेगिस्तानी।
सुनो हम राजस्थानी,
जानते आन निभानी।
समझते चातक जैसे,
निकालें रज से पानी।
भले करले मनमानी,
खूब करले नादानी।
हारना हमें न आता,
हमारी यही निशानी।
मान तो मान सयानी,
यादकर पुरा कहानी।
काल दुकाल सहे पर,
हमें तो प्रीत निभानी।
तुम्हे वे रीत निभानी,
हठी तुम जिद्दी रानी।
रीत राणा की पलने,
घास की रोटी खानी।
जुबाने हठ मरदानी,
जानते तेग चलानी।
जानते कथा पुरातन,
चाह अब नई रचानी।
यहाँ इतिहास गुमानी।
याद करता रिपु नानी।
हमारी रीत शहादत,
लुटाएँ सदा जवानी।
सतत देते कुर्बानी,
हठी हे वर्षा रानी।
श्वेद से नदी बहाकर,
रखें माँ चूनर धानी,
प्रेम की ऋतु पहचानी,
लगे यह ग्रीष्म सुहानी।
याद बाते सब करलो,
करो मत यूँ शैतानी।
निभे कब बे ईमानी,
चले ईमान कहानी।
आन ये शान निभाते,
समझते पीर भुलानी।
बात की धार बनानी,
रेत इतिहास बखानी।
तुम्ही से होड़ा- होड़ी,
मेघ प्रिय सदा लगानी।
व्यर्थ रानी अनहोनी,
खेजड़ी यों भी रहनी।
हठी,जीते कब हमसे,
साँगरी हमको खानी।
हमें, जानी पहचानी,
तेरी छलछंद कहानी।
तुम्ही यूँ मानो सुधरो,
बचा आँखों में पानी।
जँचे तो आ मस्तानी,
बरसना चाहत पानी।
भले भग जा पुरवैया,
पड़ी सब जगती मानी।
याद कर प्रीत पुरानी,
झुके तो बिरखारानी।
सुनो हम मरुधर वाले,
रहे तो रह अनजानी।
मान हम रेगिस्तानी,
बरसनी वर्षा रानी।
मल्हारी मेघ चढ़े हैं।
समझ ले वर्षा रानी।
बाबूलाल शर्मा
धरती का सीना भिगोती है बारिश
धरती का सीना भिगोती है बारिश।
फूलों की मोती पिरोती है बारिश।
अमृत बन प्यास बुझाती है बारिश ।
कभी सैलाब लाके डुबोती है बारिश।
मन मोर को भी लुभाती है बारिश ।
नीड़ में छुपे पंछी को डराती है बारिश ।
अन्न उगाकर जिंदगी संवारती है बारिश।
कभी काली प्रतिमा से चिल्लाती है बारिश।
रिमझिम छम छम गूंजती है बारिश ।
कल कल झर झर कर झूमती है बारिश ।
बाग के गुलशन उजाड़ती है बारिश।
सिमटी हुई कली खिलाती है बारिश ।
गंदगी भरे जग को नहलाती है बारिश।
मच्छर मक्खी से महामारी फैलाती है बारिश ।
कभी दोस्त कभी दुश्मन होती है बारिश ।
प्रकृति से हाथापाई करती है बारिश।
मनीभाई नवरत्न