Author: कविता बहार

  • संघर्ष अद्वितीय पहचान

    संघर्ष अद्वितीय पहचान

    कविता संग्रह
    कविता संग्रह

    संघर्ष में है गुरुत्वाकर्षण,
    जिसमें है चुनौतियों का आकर्षण,
    अनगिनत है ऐसी विभूतियाँ,
    जिन्होंने संघर्ष कर छूई नई ऊँचाईयां।


    किन किन के नाम गिनाऊँ मैं,
    कितना संघर्षमय जीवन है कैसे बतलाऊं मैं।
    देखकर उनका जीवन दर्शन, सदैव अनुकरण करने होता मन।
    संघर्ष कर जीवन बन जाए सोना,
    चमक उसने कभी न खोना,।


    जिसने किया संघर्ष,
    उसका हुआ उत्कर्ष ।
    सदियों से यह रीत चली आई,
    संघर्ष ने ही पहचान दिलाई।


    माला पहल ‘मुंबई’

  • हृदय के ताप हरे-सत्यम प्रकाश ‘ऋतुपर्ण’

    हृदय के ताप हरे -सत्यम प्रकाश ‘ऋतुपर्ण’

    कविता संग्रह
    कविता संग्रह

    सब मिटे हृदय के ताप हरे!

    यह विषमय विस्मय पाप हरे!

    सब वेद – वाङ्गमय , तंत्र – मंत्र,
    जादू- टोने होने न होने से क्या?
    अमोल क्षणिक-माणिक,मुद्रा,मोती
    पाने से अथवा खोने से क्या?

    जब जीता है संताप हरे,

    सब मिटे हृदय के ताप हरे!

    जो इस लोक को जीते हैं उनका
    नर्क – स्वर्ग मरीचिका भूतल है।
    है लंगर डाले पोत ठहरा हुआ दृढ़,
    तर्कहीन न सतही जल है।

    यह निरा नहीं प्रलाप हरे,

    सब मिटे हृदय के ताप हरे!

    नहीं तरूंगा वैतरणी में
    उस पार रहो तुम;इसी पार रहूँ मैं!
    बल दो इतना कि पथ के सारे
    आतप-अंधड़ शत-शत बार सहूँ मैं।

    रहे कर्मयोग – प्रताप हरे,

    सब मिटे हृदय के ताप हरे!

    -सत्यम प्रकाश ‘ऋतुपर्ण’

  • सर्व शक्ति का रूप है नारी /रचयिता:-डी कुमार–अजस्र

    सर्व शक्ति का रूप है नारी /रचयिता:-डी कुमार–अजस्र

    (स्त्री संघर्ष की अनन्त गाथा…)

    सर्वशक्ति का रूप है नारी

    कविता संग्रह
    कविता संग्रह

    काली तू ,दुर्गा लक्ष्मी भी तू ,शक्ति की रूपा तू पूजित है नारी ।1।

    विद्या-वर पाने की चाह में ये जग ,बन गया धंवला का भी पुजारी ।2 ।

    सती रूप में पूजी जाये फिर ,अबला क्यों समझे इसे संसारी ।3।

    सृष्टि का हित अर्पण यों चित्त में नारी ने लिया जो बीज सुधारी ।4।

    नारी ही ले गई नारी (डॉक्टर)के गेह तब, नारी ने नारी पे विपदा यों डारी ।5।

    नारी ही नारी की कोख में आई, पीड़ा यह देखो है कितनी भारी ।6।

    नारी ही नारी से अब यों कहे है ,मेरी ही कोख तू क्योंकर पधारी ।7।

    पग न धरा धरती पर पहले ही, नारी को लगी ये कैसी बीमारी ।8।

    कोख से ही उस लोक को भेजन को, कर तो रही ये दुनियां तयारी ।9।

    कोख में सुनती है मन ही मन धुनती है ,जाऊँ न जाऊँ यह संशय भारी ।10।

    दिन दिन कर यों मास गुजर गए ,आखिर तो होनी थी यह महि भारी ।11।

    छायी मायूसी ,पड़ी थी उदासी, नारी की गोद में रोए अब नारी ।12।

    नारी के आवन की फैली खबर जब ,आस पड़ोस में दुःख की फैलारी ।13।

    आस बंधाये बस लल्ला की ,बन जाओ आज तो धीरनधारी ।14।

    पिटती घसीटती हुई बड़ी तब, मन ही मन सोचे विपदा में नारी ।15।

    नारी ही नारी से रोकर ये पूछे ,आई जन्म ले जग में क्यों नारी ।16।

    नारी भी आखिर करे भी तो क्या ,नारी की दुश्मन हुई आज नारी ।17।

    किससे कहे किसको माने अपना ,जननी लगे जननी से भी न्यारी ।18।

    बांध रक्षा का सूत्र भाई के लेती है नारी रिश्तों से उधारी ।19।

    बाबुल भी देता बस यों आशीष ,प्रीत निभावन,इस जग को तारी।20।

    आस बंधाये खुद ही को मन ही मन ,आएगी कब ही तो मेरी भी बारी ।21।

    पढ़ी लिखी जस तस करके तब ,नारी सुधारने की की जो तयारी ।22।

    लुच्चे के रूप में जब कभी नर ने ,नारी किशोरी पर आँख जो डारी ।23।

    लाज बचावन हित नारी के आ गए, बीच सभा में वो ही चक्रधारी ।24।

    प्रेमी बने, गोपियाँ भी नचाई ,मीरा के देखो वो कृष्णमुरारी ।25।

    ईश भी शक्ति को जान न पाया ,कैसे बचाये नारी से ही नारी ।26।

    राह में पर्वत सागर खड़े कर ,जाल बिछा दिए नारी को नारी ।27।

    पथ में झुकी न ,राह रुकी न, बढ़ती रही भल बिपदा थी भारी ।28।

    किए प्रयास दिन हो भल रात ,आनी ही थी तो सफलता सारी ।29।

    भेजा विधाता ने सोच समझ उसे ,तोड़न को इस जग की खुमारी ।30।

    ऐंठा था बल बैठा था नर, नारी के बिन था वो बिन आधारी ।31।

    आई नारी सम्भला घर निकेतन ,जोड़ी बना दी उसी के नुसारी ।32।

    चहका घर आँगन बजे ढोल और घन आस पड़ोस खुसुर पुसुरारी ।33।

    गुजरी चांदनी चार दिनन की ,नारी को हत हुई फिर नारी भारी।34।

    पद गरिमा का , मान प्रणाम का ,जननी की देखो ये कारगुजारी।35।

    पल पल यों गुजरे देते ताने ,जैसे कि घर बैठा हो दुश्मन भारी ।36।

    करे षड्यंत्र जीतन को यों जंग, दण्ड और भेद (साम, दाम,दण्ड, भेद)बस बचा उधारी ।37।

    सहती भी रहती ,मुख से न कुछ कहती, बाबुल की पग लगती अब भारी ।38।

    पी का भी तो पपीहा ना बोले ‘श्रवण’ को भी तो बाण (बातों या तानों के)है मारी ।39।

    वचन थे सात ,लिये भी थे संग संग ,लेकिन निबाहन को थी बस नारी ।40।

    दिन दिन गुजरे इसी ऊहापोह में ,कर्मकांड अनवरत रहे जारी ।41।

    पहुँची खबर बाबुल के घर भी तब, किया प्रयास गृहस्थ सुधारी ।42।

    विपदा बढ़ी देखी जब बाबुल ने तो, राह दिखाई उसे तब सारी ।43।

    लोपा ,गार्गी (भारत के इतिहास की विदुषी महिलाएँ)बन कर ही तू ,जग जीतन की कर सकती तयारी ।44।

    झांसी की रानी और रजिया ने, जीता था जग, अब तेरी है बारी ।45।

    नारी को नारी से ही लड़ना है फिर क्यों न जीतेगी आखिर को नारी ।46।

    नर तो तब भी संग था नारी के नर तो अब भी संग ही है नारी ।47।

    उठ जाग ,सम्भल ,हथियारन से काट, कुप्रथाओं की है बेड़ी सारी ।48।

    बढ़ आगे थाम इंदिरा (प्रियदर्शिनी/नुई)कल्पना को, सुनीता (अंतरिक्ष यात्री )जोहे है बाट तिहारी ।49।

    जीत तेरी भी आखिर है पक्की ,ठान लिया जो कर ली तयारी ।50।

    खुद को खुद ही से लड़ना है री ,क्योंकर न जीतेगी तू तो प्यारी ।51।

    मन से मिटा द्वेष नारी के प्रति ,लगा ले हिय तू नारी को नारी ।52।

    बन इस जगरथ का दूसरा पहिया शक्तिरूपा तू ही तो है नारी ।53।

    नारी ही नारी से यदि ना बढ़ेगी सृष्टि बढ़ेगी ये कैसे अगाड़ी ।54।

    नारी को नारी ,दे यदि सम्बल, शक्ति महिला (महिला सशक्तिकरण)की हो जाये भारी।55।

    नर भी जो पूरक है नारी का ,उस ही ईश्वर का है अवतारी ।56।

    शक्ति के मग बल भक्ति के जग में ,वह क्यों रहे तेरे ही पिछारी ।57।

    याद हमेशा अर्धांग (अर्धनारीश्वर शिव)को रखना, मंजिल आएगी पास तुम्हारी ।58।

    बाग तू है बागबान है वो ,इस जग में देखो सब दिश हरयाली ।59।

    घर परिवार महकेगा तेरा भी जब ,खुश्बू उड़ेगी सब दिशरारी ।60।

    ✍✍ *डी कुमार–अजस्र(दुर्गेश मेघवाल, बून्दी/राज)*

  • मोची पर कविता – आशीष कुमार

    मोची पर कविता- आशीष कुमार

    सड़क किनारे चौराहे पर
    बैठा हुआ है बोरी पर

    बगल में रखा औजार बक्सा
    लोग पुकारे मोची कह कर

    रोजी रोटी चलती उसकी
    चप्पल-जूतों की मरम्मती पर

    सफेद बाल घनी मूछें
    लुंज-पुंज सी धनुषाकार काया

    फटी धोती फटा जामा
    फटेहाल गमछा पुराना

    शिकन पड़ गई माथे पर
    ध्यान मग्न मगर फटे जूते पर

    सिलाई करे युक्ति लगा कर
    चमकाए जूते रगड़ रगड़ कर

    जीवन बीता धूल फांकते
    बिछाकर बोरी यूं ही सड़क पर

    समय बीता धूल झाड़ते
    ब्रश लगाते गैरों के जूतों पर

    सिल न सका फटी जेब अपनी
    बचपन से पूरी जवानी गँवा कर

    आशीष कुमार

  • बूढी दिल्ली पर कविता

    बूढी दिल्ली पर कविता

    कविता संग्रह
    कविता संग्रह

    दिल्ली तेरे आंख पे काला चश्मा।
    दिल्ली तेरे दिल में काली काली करतूते।
    दिल्ली इंसानों का खून चोसने वाली बिल्ली।
    दिल्ली तेरे जिस्म में बलात्कार की बीमारी।

    दिल्ली तेरे सर के सफ़ेद बालो में काला तिल।
    दिल्ली तेरे सांसो में घुलता प्रदुषण का जहर।
    दिल्ली तेरा इतिहास लाल खून से सना
    दिल्ली हिंसा नफरतो का मैदाने ए जंग।

    दिल्ली ऐबक मुग़ल बादशाओ की कब्रगाह।
    दिल्ली तेरी छाती पर लिखी अंग्रेजों के जुल्म की दास्ताँ।
    दिल्ली तेरा दिल पत्थर जैसा लालकिला
    दिल्ली तेरे छुपे झोले में क्या?

    चोर लूटेरे ठग अपराधी नेताओ का मजमा
    रईसों के ठाट बाट गरीबो की झोपडी
    शराब की सजती दुकाने और मस्ती के बाज़ार
    जामा मस्जिद निजामुद्दीन ओलिया के मजार।

    हुमायु का मकबरा लाल किला क़ुतुब मीनार की शान।
    खाने की वही छोले भठूरे परांठे तंदूरी चिकन की दूकान
    अरी चल हट बूढी दिल्ली वक्त और निज़ाम बदल गया अब
    तू हो गयी बूढी अब ज्यादा मेकउप न चढ़ा ||

    दिल्ली बूढी दिल्ली …..

    रचयिता : कमल कुमार ” आजाद “
    ३०४ ग्रीन गार्डन कॉलोनी बिलासपुर
    छत्तीसगढ़