Author: कविता बहार

  • नारी की व्यथा पर कविता

    महिला (स्त्रीऔरत या नारीमानव के मादा स्वरूप को कहते हैं, जो स्त्रीलिंग है। महिला शब्द मुख्यत: वयस्क स्त्रियों के लिए इस्तेमाल किया जाता है। किन्तु कई संदर्भो में यह शब्द संपूर्ण स्त्री वर्ग को दर्शाने के लिए भी प्रयोग मे लाया जाता है, जैसे: नारी-अधिकार। 


    नारी की व्यथा पर कविता

    women impowerment
    स्त्री या महिला पर हिंदी कविता

    बरसों पहले आजाद हुआ देश
    पर अब भी बेटी आजाद नहीं
    हर बार शिकार हो रही बेटियां
    है यह एक बार की बात नहीं ।

    जिस बेटी से पाया जन्म मनुज
    उसी का तन छल्ली कर देता है
    मात्र हवस बुझाने की खातिर
    मासूम कलियों को नोच देता है

    इंसानियत मर चुकी है अब तो
    इंसानो में शैतान का वास होता है
    उस हवसी दरिंदे को क्या मालूम
    परिवार उसका कितना रोता है।

    तन मन की बढ़ती हुई भूख ने
    बच्चो को बना डाला निवाला है
    बेटियों को मनहूस कहने वालों
    तुमने ही हवसी कुत्तो को पाला है

    बेटियों पर लाखो बंदिशें लगाकर
    समाज ने उसेअबला बना डाला है
    खुला छोड़ लाडले बेटो को देखो
    इंसानियत पर तमाचा मारा है।

    आज तो बेटी किसी और की थी
    कल तुम्हारी भी तो हो सकती है
    कुचल डालो हवसी दरिंदों को
    बेटी और दुख नहीं सह सकती है

    क्रान्ति, सीतापुर , सरगुजा छग

  • आर आर साहू के दोहे

    आर आर साहू के दोहे

    ईश प्रेम के रूप हैं,ईश सनातन सत्य।
    अखिल चराचर विश्व ही,उनका लगे अपत्य ।।

    कवि को कब से सालती,आई है पर पीर।
    हम निष्ठुर,पाषाण से,फूट पड़ा पर नीर।।

    क्रूर काल के कृत्य की,क्रीड़ा कठिन कराल।
    मानव का उच्छ्वास है,या फुँफकारे व्याल।।

    लेश मात्र करुणा कभी,जाती छाती चीर।
    अब वो छाती मर गई,मत रो दास कबीर।।

    आशाएँ मृतप्राय हैं,रक्त स्नात विश्वास।।
    समय,पीठ पर ढो रहा,युग की जिंदा लाश।।

    —– रेखराम साहू —

  • त्याग और विश्वास जहाँ हो सच्चा प्रेम वही है- डॉ एन के सेठी

    सच्चा प्रेम वही

    प्रेम करो निस्वार्थ भाव से
    स्वार्थ प्रेम नही है।
    त्याग और विश्वास जहाँ हो
    सच्चा प्रेम वही है।।


    बिना प्रेम के ये जीवन ही
    लगता सूना सूना ।
    प्रेम होय यदि जीवन में तो
    विश्वास बढे दूना।।


    ईश्वर की स्वाभाविक कृति है
    प्रेम कृत्रिम नही है।
    प्रेम में होती उन्मुक्तता
    स्वच्छन्दता नही है।।


    प्रेम बस देना जानता है
    नाम नहीं लेने का।
    आकंठ डूब जाता जिसमे,
    नाम नही खोने का।।


    इंसानियत की नई राहे ,
    प्रेम ही दिखाता है।
    अहंभाव से ऊपर उठना
    प्रेम ही सिखाता है।।


    जुबां खामोश हो जाती है,
    नजर से बयां होता।
    प्रेम इक पावन अहसास है
    मन से मन का होता।।


    प्रेम सुवासित करता मन को,
    जीवन सफल बनाता।
    सृष्टि के कण कण में सुशोभित
    होकर ये महकाता।।


    सहज और निर्विकार प्रेम
    प्रेरित ये करता है।
    लौकिक नही अलौकिक है ये
    देने से बढ़ता है।।


    जड़ व चेतन सब जगह व्याप्त
    नही प्रेम की भाषा।
    तोड़े नही जोड़ता है ये
    देता यही दिलासा।।


    प्रेम का पात्र वह होता है
    जिसकी ना अभिलाषा।
    बदले में माँगे ना कुछ भी
    ना हो कोई आशा।।

    डॉ एन के सेठी

  • दर्द कागज़ पर बिखरता चला गया

    दर्द कागज़ पर बिखरता चला गया

    दर्द कागज़ पर बिखरता चला गया
    रिश्तों की तपिश से झुलसता चला गया
    अपनों और बेगानों में उलझता चला गया
    दर्द कागज़ पर बिखरता चला गया

    कुछ अपने भी ऐसे थे जो बेगाने हो गए थे
    सामने फूल और पीछे खंजर लिए खड़े थे
    मै उनमें खुद को ढूंढता चला गया
    दर्द कागज़ पर बिखरता चला गया

    बहुत सुखद अहसासों से
    भरी थी नाव रिश्तों की
    कुछ रिश्तों ने नाव में सुराख कर दिया
    मै उन सुराखों को भरने के लिए
    पिसता चला गया
    दर्द कागज़ पर बिखरता चला गया

    बहुत बेशकीमती और अमूल्य होते हैं रिश्ते
    पति पत्नी से जब माँ पिता में ढलते हैं रिश्ते
    एक नन्हा फरिश्ता उसे जोड़ता चला गया
    दर्द कागज़ पर बिखरता चला गया

    अनछुये और मनचले होते हैं कुछ रिश्ते
    दिल की गहराई में समाये
    और बेनाम होते हैं कुछ रिश्ते
    उस वक्त का रिश्ता भी गुजरता चला गया
    दर्द कागज़ पर बिखरता चला गया

    वक़्त और अपनेपन की
    गर्माहट दीजिये रिश्तों को
    स्वार्थ और चापलूसी से
    ना तौलिये रिश्तों को
    दिल से दिल का रिश्ता यूँ ही जुड़ता जायेगा
    यही बात मै लोगों को बताता चला गया
    दर्द कागज़ पर बिखरता चला गया
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    वर्षा जैन “प्रखर”
    दुर्ग (छत्तीसगढ़)
  • आधुनिक शिक्षा पर कविता

    आधुनिक शिक्षा पर कविता
                               

     सिसक-सिसक कर रोती है बचपन ! 
     आधुनिक शिक्षा की बोझ ढोती है बचपन!! 
            

    पढ़ाई की इस अंधाधुंध दौर में ,
    बचपन ना खिलखिलाता अब भोर में 
    सुबह से लेकर शाम तक, 
     पढ़ते-पढ़ते जाते हैं थक , 
     खिलने से पहले मुरझा जाती है चमन ! 

    सिसक-सिसक कर रोती है बचपन , 
    आधुनिक शिक्षा की बोझ ढोती है बचपन!! 

     सब मिलकर करे बचपन सरकार , 
     मिले बचपन को मूलभूत-अधिकार, 
    ना वंचित हो कोई शिक्षा से, 
     कोई बचपन कटे ना भिक्षा से , 
    है हर घर का बस यही चमन ! 

     सिसक-सिसक कर रोती है बचपन , 
    आधुनिक शिक्षा की बोझ ढोती है बचपन! ! 

    बाल-श्रमिक ना बंधुआ मिले , 
    मीठी मुस्कान से बचपन खिले , 
      फुटपाथ पर ना शाम ढले , 
     नंगे पांव ना बचपन चले , 
    पेट की आग में ना भीगे नयन ! 

    सिसक-सिसक कर रोती है बचपन , 
     आधुनिक शिक्षा की बोझ ढोती है बचपन!! 

    बचपन को ना छीने हम,  
      अपनी चाहत की ऊंचाई में , 
    आधुनिकता के चक्कर में ही , 
    शिक्षा और संस्कार गई है खाई में , 
     बोझ कम कर दो बालपन की , 
    फिर चहकने लगेगी गुलशन ! 

      सिसक-सिसक कर रोती है बचपन , 
     आधुनिक शिक्षा की बोझ ढोती है बचपन ! ! 

                 दूजराम साहू
             निवास -भरदाकला
               तहसील -खैरागढ़
            जिला -राजनांदगांव (छ.ग.)
    कविता बहार से जुड़ने के लिये धन्यवाद