Category: दिन विशेष कविता

  • भोजन पर दोहे का संकलन

    भोजन पर दोहे का संकलन

    15 जून 2022 को साहित रा सिंणगार साहित्य ग्रुप के संरक्षक बाबूलाल शर्मा ‘विज्ञ’ और संचालक व समीक्षक गोपाल सौम्य सरल द्वारा ” भोजन ” विषय पर दोहा छंद कविता आमंत्रित किया गया जिसमें से भोजन पर बेहतरीन दोहे चयनित किया गया। जो कि इस प्रकार हैं-

    भोजन पर दोहे का संकलन

    मदन सिंह शेखावत के दोहे

    सादा भोजन कर सदा, करे परहेज तेल।
    पेट रहे आराम तो , होता सुखमय मेल।।

    तेल नमक शक्कर सदा,करना न्यून प्रयोग।
    रहे बिमारी दूर सब , सुखद बने संयोग।।

    भोजन में खिचड़ी रखे, खाकर हो आनंद।
    अच्छा रहता है उदर , होता परमानंद।।

    भोजन करना अल्प है , हो शरीर अनुसार।
    दीर्घ आयु होगा मनुज , पाता है आधार।।

    खट्टा मीठ्ठा जस मिले , समझे प्रभो प्रसाद।
    रुच रुच कर खाना सभी,मिट जाये अवसाद।।

    मदन सिंह शेखावत ढोढसर

    राधा तिवारी ‘राधेगोपाल’ के दोहे

    भोजन सब करते रहो, दूर रहेंगे रोग।
    भोजन से ताकत मिले, कहते हैं कुछ लोग।।

    भोजन निर्धन को मिला, नहीं कभी भरपेट ।
    उसके बच्चे ताकते, सदा पड़ोसी गेट।।

    भोजन के तो सामने, फीके सब पकवान।
    भोजन के तो साथ में, मत करना जलपान।।

    भजन करें कैसे यहाँ, बिन भोजन के मीत।
    भरे पेट तब हो भजन, यह है जग की रीत।।

    हल्का भोजन ही रखे, हमको यहाँ निरोग।
    तेलिय भोजन का नहीं, करना अब उपयोग।।

    रोटी चावल लीजिए, भोजन में मनमीत।
    फल सब्जी अरु दाल से, करलो ‘राधे’ प्रीत।।

    राधा तिवारी ‘राधेगोपाल’
    अंग्रेजी एलटी अध्यापिका
    खटीमा, उधम सिंह नगर
    (उत्तराखंड)

    बृजमोहन गौड़ के दोहे

    जीने को खाना सखे, खाने को मत जीव l
    देर रात भोजन नहीं,तगड़ी जीवन नीव ll

    कम खाना अच्छा सदा,काया रहे निरोग l
    कर लो कुछ व्यायाम भी,और प्रात में योग ll

    पाचक और सुपथ्य कर,मांसाहारी त्याग l
    खान-पान को ही बने,खेत बगीचे बाग ll

    @ बृजमोहन गौड़

    अनिल कसेर “उजाला” के दोहे

    भोजन से जीवन चले, रहता स्वथ्य शरीर।
    सादा भोजन जो करें, भागे तन से पीर।

    भोजन हल्का ही करें, दूर रहे सब रोग।
    समय रहत भोजन करें, और करें जी योग।

    कोई भूखा मत रहे, करो अन्न का दान।
    जो उपजाता अन्न है, दे उनको सम्मान।

    अनिल कसेर “उजाला”

    केवरा यदु मीरा के दोहे

    सदा करेला खाइये, दूर रहे फिर रोग।
    शुगर रोग होवे नहीं,कहते डाक्टर लोग।।

    सादा भोजन जो करे,रहते सदा निरोग।
    भोजन बिन कब कर सके, योगासन या योग।।

    भोजन के ही बाद में, कहते पीजे नीर।
    घंटे भर के बाद पी,तन से भागे पीर।।

    भोजन संग सलाद हो,ककड़ी मूली मान।
    हरी सब्जियाँ लीजिए,देख परख पहचान।।

    भाजी में गुण है बहुत,पालक बथुआ साग।
    मिले विटामिन सी सुनो, रोग जाय फिर भाग।।

    केवरा यदु मीरा

    गोपाल सौम्य सरल के दोहे

    काया अपनी यंत्र है, चाहे यह आहार।
    भोज कीजिए पथ्य तुम, सुबह शाम दो बार।।

    भोजन से तन मन चले, ऊर्जा मिले अपार।
    खान-पान दो खंभ है, हरदम करो विचार।।

    तन को भोजन चाहिए, मन को भले विचार।
    खान-पान अच्छा करो, रहते दूर विकार।।

    बैठ पालथी मारके, रख आसन लो भोज।
    शांत चित्त के खान से, सँवरे मुख पाथोज।।

    ग्रास चबाकर खाइए, बने तरल हर बार।
    रस भोजन का तन लगे, आये बहुत निखार।।

    नमक मिर्च अरु तेल सब, खाओ कर परहेज।
    तेज लिये से रोग हो, मुख हो फिर निस्तेज।।

    दूध दही लो भोज में, ऋतु फल भरें समीच।
    कर अति का परहेज सब, उदय अस्त रवि बीच।।

    खट्टा मीठा चटपटा, सभी बढ़ाएं भोग।
    उचित करो उपयोग सब, काया रहे निरोग।।

    सुबह करो रसपान तुम, ऋतु फल उत्तम जान।
    दूध पीजिए रात को, जाये उतर थकान।।

    सात दिवस में एक दिन, रखो सभी उपवास।
    सुधरे पाचन तंत्र जब, बीते हर दिन खास।।

    नींद जरूरी भोज है, तन चाहे विश्राम।
    स्वस्थ रहे फिर मन बड़ा, अच्छे होते काम।।

    भोज प्रसादी ईश की, देती सबको जान।
    रूखी सूखी जो मिले, लो प्रभु करुणा मान।।

    शब्दार्थ-
    पाथोज- कमल
    समीच- जल निधि/ यहाँ ‘रस युक्त’

    गोपाल ‘सौम्य सरल’

    पुष्पा शर्मा कुसुम के दोहे

    आवश्यक तन के लिए,भोजन उचित प्रबंध।
    पोषण सह बल भी बढ़े, जीवन का अनुबंध।।

    सात्विक भोजन कीजिए, बने स्वास्थ्य सम्मान।
    तजिए राजस तामसी, है रोगों की खान।।

    भोजन माता हाथ का,रहे अमिय रसपूर।
    मिले तृप्ति शीतल हृदय,ममता से भरपूर।।

    भूख स्नेह कारण बने, भोजन करना साथ।
    हो अभाव जो स्नेह का,नहीं बढ़ायें हाथ।।

    अन्न, वस्त्र, जल दान से, मिलता है परितोष।
    भूखे को भोजन दिये, मन पाता संतोष।।

    पुष्पा शर्मा ‘कुसुम’

    डॉ एन के सेठी के दोहे

    सात्विकभोजन कीजिए,मन हो सदा प्रसन्न।
    चित्त सदा ऐसा रहे, जैसा खाओ अन्न।।

    भोजन मन से ही करें, बढ़े भोज का स्वाद।
    तन मन दोनों स्वस्थ हों, रहे नहीं अवसाद।।

    चबा चबा कर खाइए, भोजन का ले स्वाद।
    तभी भोज तन को लगे, होय नहीं बर्बाद।।

    भोजन उतना लीजिए, जिससे भरता पेट।
    झूठा अन्न न छोड़िए, यह ईश्वर की भेंट।।

    भोजन की निंदा कभी,करे न मुख से बोल।
    षडरस काआनंद ले,हो प्रसन्न दिल खोल।।

    © डॉ एन के सेठी

    डॉ मंजुला हर्ष श्रीवास्तव मंजुल के दोहे

    भोजन तब रुचिकर लगे,बने प्रेम से रोज।
    भावों की मधु चाशनी, नित्य नवल हो खोज।।

    मैदा शक्कर अरु नमक , सेवन दे नुकसान।
    गुड़ आटा फल सब्जियाँ, खा कर हों बलवान।।

    सर्वोत्तम भोजन वही,माँ का जिसमें प्यार।
    कभी न मन से छूटता ,अद्भुत स्वाद दुलार।।

    चटनी की चटकार से ,बढ़े भोज का स्वाद।
    आम आँवला जाम हर, चटनी रहती याद।।

    मूँग चना अरु मोठ को ,रखिये रोज भिगाँय।
    करें अंकुरित साथ गुड़ , प्रात:खा बल पाँय।।

    डॉ मंजुला हर्ष श्रीवास्तव मंजुल

  • मनीभाई नवरत्न की हिंदी कवितायें

    मनीभाई नवरत्न की हिंदी कवितायें

    मनीभाई नवरत्न के कविता

    मौत

    मौत क्या है ?
    जलती लौ का बुझ जाना।
    या राख हो मिट्टी में मिलना ।

    बड़ी भयानक है ना मौत ?
    यह सोच ही रूह कांप उठती,
    कि सभी को न्योता मिलेगा
    मौत का ,एक दिन ।

    मौत से इतना डर क्यों ?
    क्या कोई इसे जानता ?
    एकदम करीब से …..

    मौत तो नियति है
    जिसे एक दिन घटना है।
    मौत तो मंजिल है
    जहाँ सबको पहुँचना है।
    मौत रात की गहरी नींद है
    शुकुन भरा गहरी शांति है ।
    जिंदगी तो थकाऊ है, बोझिल है।
    मायावी है, लालची है।
    जो कभी वफा नहीं कर सकती।

    सच मानो तो,
    जिन्दगी एक भ्रम है।
    हमारा अस्तित्व तो मौत है।
    मौत वो दोस्त की तरह है
    जो हर पल इंतजार में है हमारे।
    सच्चे आशिक की तरह।
    मिल जायेगी बेवक्त कहीं भी।
    किसी गली-चौबारे, सड़क-चौराहे।
    हम ही छलते उसे,
    छुपते छुपाते बच निकलते
    जिन्दगी की आंचल साये।

    जिंदगी खूबसूरत तो है..
    पर सबकी चाहत ने
    इसे घमंडी बना दिया है ।
    बात-बात में नखरीली
    साथ छोड़ने की बात करती है।
    जिंदगी सराय की औरत है ।
    और मौत धर्मपत्नी भांति ,
    हर वक्त इंतजार में है
    हमारे घर आने का।
    जिंदगी ख्वाहिश दिखा
    हमें उंगलियों से नचाये।
    मौत प्यार से थपकी दे ,
    हमें मीठी नींद सुलाये ।

    ऐसा नहीं है कि मौत
    हमें ढूंढ नहीं पाएगी ।
    जब उठेगी रूह में सिहरन
    और कलप उठेगा तन मन।
    वह वेदना सुन दौड़ आयेगी
    सखी के रूप में ।
    जिन्दगी के दीवाने हैं कई,
    इधर हमने मुख मोड़ा ।
    उधर उसने हाथ छोड़ा।
    ये जिंदगी थ्रिलर बुक तो है,
    जो कई अध्याय में बँटी है
    अंतिम पन्ना है मौत का।
    इसे समझने के लिए ,
    हम उसी तरह उतावले और बेचैन हैं
    जैसे कि रहस्योद्घाटन होने का ।

    मौत तो हमदर्द है
    उससे दूर जाने की सोचना
    सबसे दुख का कारण है।
    यही बुद्धा कह गए हैं ।
    पकड़ ले जाते हैं यम दूत
    हम पीछे पीछे अनमने ढंग से
    ऐसे जाते जैसे गुनहगार कोई।
    उम्र कैद की सजा मिली हो
    मानो जिंदगी के छेड़छाड़ में।
    पर बुद्ध ने जाना अपना धाम।
    ले लिया महापरिनिर्वाण।
    स्वागत हुआ होगा जरूर,
    मृत्युलोक में भी।
    धन्य हो गई होगी वहां की धरा।
    यकीनन बुद्धा अमर हो गए
    दोनों जहान में।

    ✍मनीभाई”नवरत्न”

    जान से प्यारा तिरंगा है

    जान से प्यारा तिरंगा है
    जग में न्यारा तिरंगा है ।
    मौत से खेलेंगे इसके लिए
    दिल ने पुकारा तिरंगा है।

    अब ना झुकने देगें,
    कदम ना रूकने देंगे
    आजादी का दीया ,
    हम ना बुझने देंगे।
    आंधी से लड़ने के लिए
    तूफान तिरंगा है।

    जोश जगी है
    जो धड़कन में
    वो जोश कम ना हो।
    जो तकलीफें
    हमने सही है
    वो रोष कम ना हो।
    अब मिला है मौका
    दुनिया को दें चौका
    कुछ तो करने के लिए
    अरमान तिरंगा है।

    अब तक हम
    जिसमें पिछड़े
    गौर जरा कर लो।
    हार नहीं मानो
    तुम प्यारे
    रफ़्तार जरा भर लो।
    कल किसने हैं देखा
    खुद से किस्मत की रेखा।
    सबको एक करे जो
    वो भगवान तिरंगा है।

    मनीभाई नवरत्न

    संयुक्त राष्ट्र दिवस १

    मानवाधिकार
    जब जग ने जाना
    राष्ट्र संयुक्त।


    वैश्विक ताप
    संकट में है राष्ट्र
    सुधरो आप।


    विश्व की शांति
    धरा हो सुरक्षित
    आतंक मिटा।


    अस्त्र की होड़
    विकास या विनाश
    अंधी ये दौड़।


    भारत आया
    रंग भेद खिलाफ
    संसार जागा।


    चुनौती देता
    पर्यावरण रक्षा
    हे राष्ट्र!जुड़ो।

    मनीभाई नवरत्न छत्तीसगढ़

    आजादी की दूसरी लड़ाई

    जब तक रहेंगे देश में गद्दार ।
    होती रहेगी प्रजा पर अत्याचार ।
    करते रहेंगे छुपके भ्रष्टाचार ।
    मां बेटी के संग बलात्कार ।
    फिर कैसे होगा सपने साकार?
    जब चुप रहेगी हमारी सरकार।
    उठाएगा कौन इसे मिटाने की बीड़ा?
    किसकी दिल पर हो रही ज्यादा पीड़ा?
    सब साध रहे हैं अपना स्वार्थ ।
    गिने चुने ही आते हैं करने को परमार्थ ।
    हक से  मांगेगा कौन अपना अधिकार?
    जब चुप रहेगी हमारी सरकार ।
    खतरे में पड़ गई है देश की सुरक्षा।
    आतंकित हो गया है बूढ़ा और बच्चा ।
    इस दशा में करें क्या सरकार की बड़ाई?
    लड़नी होगी फिर से आजादी की दूसरी लड़ाई।
    अब भला जवान क्यों करेगा इंतजार ?
    है जब चुप रहेगी हमारी सरकार।

     मनीभाई ‘नवरत्न’, छत्तीसगढ़

    ये भी मनुस्मृति की देन है

    तथाकथित उच्च वर्ग 
    जवाब मांग रहा है निम्न वर्ग से –
    “रे अछूत!
    तुझे लज्जा नहीं आती 
    आरक्षण के दम पर इतरा रहा है ,
    हमारे हक का ख रहा है 
    तेरी औकात क्या ?
    तेरी योग्यता क्या ?
    भूल गया अपना वर्चस्व ।
    लांघ दी तूने ,
    मनुस्मृति की लक्ष्मण रेखाएं ।
    संविधान कवच ने 
    तुझे उच्छृंखल कर दिया है।
    पैरों की दासी !
    अपने पैर में खड़ा होने की 
    कोशिश मत कर,
    हिम्मत है तो द्वन्द्व कर ।
    आरक्षण का बाना हटाके
    मुझसे शास्त्रार्थ कर।”
    व्यंग्य बाणों से जख्मी 
    तथाकथित दलित ने प्रत्युत्तर दिया –
    “हे उच्चकुलीन श्रेष्ठ !
    तू ब्रह्मा के मुख से पैदा हुआ है
    तेरे श्रीमुख से कुटिल बातें 
    शोभा नहीं देती ।
    तूने कहा कि जातियां जन्मजात है 
    हमने मान लिया।
    फिर कहा प्रत्येक जाति के वर्ग है 
    हमें स्वीकार लिया।
    जनसेवा करके 
    अपना सौभाग्य माना 
    नवनिर्माण कर ,
    जग का श्रृंगार किया
    अति प्राचीन ,
    भारतीय संस्कृति को आधार दिया।
    तूने सामाजिक नियमों में बांधा
    जी भर शोषण किया ।
    कभी धर्म ,कभी ईश्वर का भ्रम 
    फैला कर भयभीत किया ।
    नियम तूने लचीला रखें ,
    जब अपनी स्वार्थ पूरी करनी थी 
    हमने जब सीमाएं तोड़ी
    तो नर्क का दंड विधान किया 
    खुशकिस्मत हैं 
    जो बाबा ने संविधान बनाया 
    दलित अपने विकास के लिए 
    एक अवसर को पाया ।
    कष्ट तुम्हें इस बात की है कि 
    हमने ज्ञानामृत चखा
    वर्षों से छीना गया 
    अधिकार को परखा ।
    आज तुम्हें तकलीफ क्यों ?
    हम क्यों सेवाक्षेत्र में आरक्षित हैं 
    तो सुन कुलश्रेष्ठ !
    सेवाक्षेत्र शूद्र के लिए हो,
    ये भी मनुस्मृति की देन है।”

     मनीभाई ‘नवरत्न’, छत्तीसगढ़

    ये प्लास्टिक अमर है

    ये प्लास्टिक अमर है
    धरा के लिये जहर है।
    बन रहा है अब खतरा
    प्रकृति पर ये कहर है।

    करता है जल प्रदुषित
    जल रसायन उत्सर्जित
    होता है बड़ा जहरीला
    अब उत्पादन हो वर्जित

    जब पेट्रोलियम खपता है 
    तब जाकर यह बनता है।
    कभी नहीं यह सड़ता है
    भूमि को बंजर करता है ।

    शाम, रात अब हर सुबह
    घिरा हुआ यह  हर जगह 
    ब्रश से लेकर बॉटल तक
    सबमें प्रयोग होता है यह

    सच जानो ये गुलामी है
    स्वास्थ्य के लिये खामी है
    आनेवाली पीढियाँ हेतु
    हम सबकी बदनामी है ।

    कचरा करें क्यों मजबूरी?
    ये पुनर्चक्रण हुआ जरूरी
    सफाई से अब नाता जोड़ें
    आगे बढ़ अब मिटाके दूरी।
    ✍मनीभाई”नवरत्न”

    हिंदी बनी घर की दासी-मनीभाई ‘नवरत्न’

    अंग्रेजी दिवस, फ्रेंच दिवस
    या फिर मनाते चीनी दिवस
    न देखा ,न सुना, न जाना
    सिवाय हिन्दी के हिंदुस्तान में ।
    हिंदी बनी घर की दासी ।
    क्या फिक्र है हमें जरा सी?
    कोमल हृदय मन मस्तिष्क में ,
    चला रहे हैं हथौड़ा अंग्रेजियत के
    जन्म से ही रिश्ते के शब्दों में
    खो दिया मां- बाबूजी का प्यार।
    अभिवादन में आशीष और दुलार।
    नर्सरीे से ही क्लिष्ट भाषा से
    जोड़ रहे हैं अबोध के
    भविष्य की गाथा ।
    मातृभाषा की अवहेलना कर
    अपनाते तरह-तरह के हथकंडे ।
    न्यूज़ पेपर , इंटरव्यू , नावेल,
    राइम से मूवी तक वक्त बिताते।
    सहज मुख टेढ़ा करते ,
    कैसी झूठी शान दिखाते।
    बन चुके हैं भाषाई खच्चर
    हालत धोबी के कुत्ते सी
    क्या ऐसे दिलाएंगे हिंदी को सम्मान?
    जहां पल-पल अस्मिता लुटती
    मिटती ,बिगड़ती हिन्दी की तस्वीर।
    इसके बावजूद क्या सामर्थ्य है
    विश्वभाषा बनने की?

     मनीभाई ‘नवरत्न’, छत्तीसगढ़

    परिवार की महत्व पर मनीभाई की कविता

    जीना नहीं आसान, इस दुनिया में निराधार। 
    यह जान के ईश्वर ने बना दिया परिवार ।।

    गम आधे हो जाएं ,खुशियां बढ़ते रहे अपार ।
    यह जान के ईश्वर ने ,बना दिया परिवार ।।

    दुनिया में जब आता है मानव ।
    होता है केवल नन्हीं सी जान ।
    मां बाप का साथ मिलता उसे
    और परिवार के संग पहचान ।
    सीखता है भाषाबोली और सीखें संस्कार ।
    यह जान के ईश्वर ने बना दिया परिवार । ।

    परिवार में मिलता है अपनापन ।
    वरना बिन इसके खाली जीवन ।
    माता-पिता प्रभु तो,भाई-बहन साथी।
    पत्नी तो ,होती जैसे दीये संग बाती।
    परिवार संग बँटे, आपस में प्यार ही प्यार।
    यह जान के ईश्वर ने बना दिया परिवार।।

    परिवार देती है हमें सुरक्षा ।
    परिवार से जुड़ा रहूं ये इच्छा ।
    प्यार, पैसा और मिला संसार ।
    पर परिवार बिन सब है बेकार।
    परिवार साथ रहे तो , हर वक्त हो त्यौहार।
    यह जान के ईश्वर ने बना दिया परिवार । ।

    (रचयिता :- मनी भाई भौंरादादर, बसना महासमुंद  )

    जाग रे कृषक ( किसानों के लिए कविता)

    जाग रे! कृषक, तू है पोषक ,नहीं तेरा मिशाल रे।
    अपनी कृषि पद्धति की हर नीति हुई बदहाल रे।

    गाय-बैल अपने सखा  जैसे।
    हम संग मिलके काम करते।
    गोबर खाद की गुण  निराली
    पोषक तत्वों की खान रहते ।
    खेत में रसायन मिलाके हमने
    किया किसान मित्र ‘केंचुआ’ का हलाल रे ।।
    जाग रे !कृषक ….

    धरती मां में सौ गुण समाए ।
    हर पौधे के बीज को उगाए ।
    पौधों भी कृतज्ञता से पत्ते को
    गिराके भूमि उपजाऊ बनाए ।
    समझ ना पाया तू प्रकृति चक्र
    किया आग से धरा को तुमने लाल रे ।।
    जाग रे! कृषक ….

    भीषण पावक से अपनी धरा
    खो देती है अपनी भू  उर्वरा।
    मर जाते हैं फिर कीट पतंगा
    खाद्य श्रृंखला चोटिल गहरा ।
    खेत सफाई की चाह में तुमने
    भू जलाके बंजर बनाके खुद से की सवाल रे।।
    जाग रे! कृषक. . . .

     मनीभाई ‘नवरत्न’, छत्तीसगढ़

    माना तू विश्व की ऊँची चोटी है
    नहीं आसान तुझे जीत पाना ।
    जब भी,
    तुझे,
    किसी ने,
    चढ़कर हराना चाहा,
    अपने दंभ से।
    तब तूने गुरूर तोड़े उनके ,
    बर्फीली आँधी,
    और, खाईयों से।
    ना जाने कितने ही लाश,
    दफना दिया अपने गोद में ।
    पर ये जिद्दी मानव,
    कब मानता है अपनी हार,
    विजय-पताका लहराने को
    जूझता है तुझसे बार-बार ।।
    थे ऐसे ही, दो जांबाज ,
    दिखाये जिसने जमाने को,
    साहस,धैर्य और विश्वास गाथा।
    और जोड़ दिये अपने नाम
    हिमशिखरों से वर्षों का नाता।
    आसान नहीं था
    तेनजिंग और एडमंड का सफर।
    एक दूजे का हाथ थामे
    हर बाधायें पार की,
    मगर,
    बता दिया जग को,
    कुछ भी नहीं नामुमकिन ।
    मौत को मात देगा तू
    जब हो मन में यकीन ।
    जीवन में उनके ज़ज्बा को
    याद करो पल छिन ।
    29 मई है खास ,
    माउंट एवरेस्ट विजय दिन।।

    (रचयिता :- मनी भाई भौंरादादर बसना )

    नाम हो भारत का जग में

    इस खेल खेल में 
    धुलता है मन का मैल
    जीने का तरीका है ये,
    तू खेलभावना से खेल।
    खेल महज मनोरंजन नहीं 
    एक जरिया है ,सद्भावना की।
    जग में मित्रता की ,
    आपसी सहयोग नाता की ।।
    खेल से स्वस्थ तन मन रहे ,
    भावनाओं में रहे संतुलन।
    जब तक मानव जीवन रहे ,
    खेलने का बना रहे प्रचलन ।
    जब जब देश खेलता है ,
    देश की बढ़ती एकता है ।
    जो भी डटकर खेलता है ,
    इतिहास में नाम करता है ।
    आज जरूरत बन पड़ी है,
    हमको फिर से खेल की,
    बच्चों को गैजेट से पहले,
    बात करें हम खेल की।
    देश की आबादी बढ़ रही 
    पर नहीं बढ़ती हैं तमगे।
    चलो मिशन बनाएं खेल में 

    नाम हो भारत का जग में।

    मनीभाई ‘नवरत्न’, छत्तीसगढ़

    रक्षाबंधन त्यौहार

    आई है बिटिया ,आई है बहना अपने घर आंगन।
    भाई के कलाई में बांधने को, प्यार से रक्षाबंधन।
    गूंजने लगी खुशियाँ,  चहुंदिक् अति मनभावन ।
    रिमझिम ठण्डी फुहारों में भिगाेती अंतिम सावन।

    बहना आरती थाल लिये, देती भाई को बधाईयां।
    माथे तिलक लगा ,रक्षासूत्र से सजाती कलाईयां।
    भाई भी उपहारस्वरूप,हाथ बढ़ा के दे यह वचन।
    मेरे रहते कष्ट ना होगी,  तेरे सपने पूरे करूँ बहन।।

    भाई-बहन के पवित्र प्यार का, है रक्षाबंधन त्यौहार।
    रंग बिरंगी राखियों से,  सजने लगा है सारा संसार।।
    वस्तुतः सबकी धरती माँ , सब प्राणी है भाई बहना।
    आओ एक दूजे की रक्षा कर, बने धरा की गहना।।

     मनीभाई ‘नवरत्न’, छत्तीसगढ़

    सीखें प्रेम त्याग जिम्मेदारी

    सुबह जल्दी उठती है
    इसी बहाने कि
    मुझे आराम मिले
    और आराम मिलती है
    हमेशा की तरह रात को
    सुबह का नाश्ता
    दोपहर का लंच से
    होते हुए रात का डिनर
    अपना ख्याल ,
    बेबी की परवरिश से लेकर
    परिवार वालों का फिक्र ।
    कौन सी चीजें कहां है
    किसको कब करना है
    किसको क्या कहना है
    सब है पता लेकिन कहती नहीं
    ना जाने क्यों रखती है बोझ
    अपने दिल पर ।
    अपनी जिंदगी को सिमटा दी है
    किचन में बेडरुम में और घर में
    कुछ मांगे हैं उनकी पर
    प्यार के आगे सब फीके ।
    हम भी इनसे प्रेम त्याग
    जिम्मेदारी की परिभाषा सीखें।

     मनीभाई ‘नवरत्न’, छत्तीसगढ़

    सत्य ही ईश्वर है

    जैसा करोगे वैसा सोचोगे ।
    जैसा बोलोगे वैसा सुनोगे।
    जैसा करोगे वैसे ही बन जाओगे।
    सच को देखो 
    सच को बोलो 
    सच को करो ।
    क्योंकि सत्य ही ईश्वर है ।
    सबसे बड़ा कोई नहीं सच की कर लो पूजा।
    सच है तो दुनिया है सच के समान नहीं दूजा।
    लेकिन सच को तूने छोड़ दिया।
    झूठ से नाता जोड़ लिया ।
    आखिर क्यों जरा मन में टटोलो ।
    क्योंकि खुद पर ही तेरी नजर है।
    झूठ से तेरा कई दिन बीता ।
    फिर भी तू ना जीता ।
    सच का दो घड़ी साथ दे दे तू,
    जान जाएगा सच क्या है देता?
    सच और झूठ की भेद को जानो,
    मानोगे कि सच ही हमसफ़र है।
    सच को देखो….

     मनीभाई ‘नवरत्न’,छत्तीसगढ़

    देश मेरे तू है सबसे पहले

    यहां सब करते काम खुद के लिए ।
    लड़ते रहते हैं अपने वजूद के लिए ।
    पर मेरा हर करम हो देश के लिए ।
    देश मेरे देश मेरे तू है सबसे पहले ।

    मैं तुझ पर मर जाऊं मैं तुझ पर मिट जाऊं।
    पर कभी ना अपना सर झुकाऊं ।
    नेक राह को ही सदा अपनाऊं।
    कुछ भी नहीं मंजूर अब तेरे बदले ।
    देश मेरे देश मेरे तू है सबसे पहले ।

    तू है अपनी जननी तू ही धरा और अंबर ।
    रहे तुझसे नाता अटूट और सुंदर।
    यश फैलाएं तेरी अब हम आगे बढ़ कर ।
    चाहे हर कोई पीछे रहले ।
    देश मेरे देश मेरे तू है सबसे पहले।।
    -मनीभाई ‘नवरत्न’

    हे ऊपर वाले

    हे ऊपर वाले !तू सबका मालिक।
    तेरी नज़रों से सब नीचे हैं ,तू दिखे सबकी करतूतें ।

    तुझसे ना कोई छुपा है तुमको ना धोखा है।
    आता सही समय पर तू ,तेरा अवतार अनोखा है।
    आजा अब तो तू या भेज दे अपना फरिश्ते ।

    यहां किसी को किसी से डर नहीं ,एक दूजे से आस नहीं ।
    घूमा करते हैं सब मन से नंगे एक दूजे से लाज नहीं।
    भूखों को यहां रोटी से आजमाते ।।

    तू जो चाहे सबको मिटा दे ये जहां और जिंदगी।
    सन्मार्ग पर  सबको लाना तेरा काम और खुशी भी।
    पर हम ना समझे, हम न जाने बात बात पर रौब जमाते।
    तू देखे सब की करतूतें।

    -मनीभाई ‘नवरत्न’

    भावों का उमड़ता सागर

    इंसानों में कुछ नहीं
    भावों का उमड़ता सागर है।
    कभी खुश हो जाए,
    जो छोटी सी बातों में
    तो कभी बतलाता ,
    गमों का टूटा पहाड़ है।
    कभी शांत चित्त से ,
    सब सह जाता ।
    तो कभी ,
    हिंसक शेर-सा दहाड़ है।।
    ये सब आदतन दिखाते
    चूंकि पूर्वज जिसके बंदर हैं।
    इंसानों में कुछ नहीं
    भावों का उमड़ता सागर है।
    समझना कठिन है
    जिनके स्वभावों को
    उन्हें समझाना,
    होता है दूना दूभर।
    नासमझ जग में
    जहां सब पर्दा में है
    वहां जीते हैं ये
    समझदार बनकर।
    मरने-मारने की बात करते हैं
    और कहते “सच्चा मेरा प्यार है।”
    इंसानों में कुछ नहीं
    भावों का उमड़ता सागर है।
    कुछ देर चला
    जो भी उनके
    संग सफर में,
    हमराही उसे जान लिया।
    साथ छोड़ कर
    अपनी राह हुए जो,
    उसे बेवफा
    खुदगर्ज मान लिया।
    जानते हुए कि
    हर किसी का अलग शहर है।
    इंसानों में कुछ नहीं
    भावों का उमड़ता सागर है।।

    ✒मनीभाई”नवरत्न”छत्तीसगढ़

    मेरे मन पंछी

    मेरे मन पंछी क्यों आकाश में उड़ना चाहे ?
    इस शोर बोर संसार से मुक्त होना चाहे ।
    यह रिश्तो में न बंध कर आजाद चाहे ।
    अशांति छोड़कर प्रकृति से लगाव चाहे ।

    जग दृष्टि से न बने महान ना अज्ञान ।
    बने स्वयं की जिंदगी की शान ।
    मेरे मन को क्या हुआ मैं ना जानू ।
    इस दुनिया से कुछ मिले मैं ना मानूं ।

    इस किचकिच रोजमर्रा से शांत चाहे ।
    इस भीड़ भाड़ से हटकर एकांत चाहे ।
    अपने दर्दों को जानने वाला इंसान चाहे।
    घाव भरने के लिए एक मेहमान चाहे।

    अज्ञान मिटाने के लिए गुरु ज्ञान चाहे ।
    इस बेजान शरीर पर  मौजान चाहे ।
    मेरे स्वभाव को देखकर यह संसार ना भाये।
    जो मेरे मन को चुभे  वह संसार गाये

    हे प्रभु! आप ऐसा कर जाओ ।
    आप मुझे यथास्थिति ढलाओ।
    मुझे सांसारिक जीवन में ध्यान लगाओ।
    इस संसार में मुझे बहलाओ ।

    क्या यह संभव ना हो कि युग बदले ?
    इस दुषित तन को धोकर फिर सज ले।
    जन में छुपी बुराई मैल को मल ले ।
    मेरा अकेला मन इस जनों में फिर  मिल ले।

    मनीभाई ‘नवरत्न’,छत्तीसगढ़, 

    वतन के हैं हम रखवाले

    वतन के हैं हम रखवाले वतन पर जान लुटा देंगे ।
    वतन को छीन सके ना कोई जो छीने उसे मिटा देंगे ।

    नहीं डर हमें है मौत का ।
    मन में देशप्रेम ओतप्रोत सा ।
    नहीं सह सकेंगे किसी जुल्म को
    जले स्वाभिमान अब ज्योत सा।
    कोई बढाए कदम मर्यादा से परे हम उसे वहीं गड़ा देंगे।

    यह ध्वज है हमारी शान
    इस मिट्टी में छिपी है हमारी मान।
    इन चेहरों में है अदम्य साहस ।
    इन लबों पर घुली सदैव राष्ट्रगान ।
    करे जो अपमानित हमें उन्हें शर्म से झुका देंगे।

    – मनीभाई ‘नवरत्न’

    मेरी प्यारी तितली

    उड़ मेरी प्यारी तितली इस फूल से उस फूल।
    देखो मेरी न्यारी तितली किसी को ना जाना भूल ।

    वरना टूट जाएगा कोई फूल मुरझा के।
    सब को खुश रखना यूं ही मुस्कुरा के।
    जो भी आए सामने करना उसे कबूल ।
    देखो मेरी प्यारी तितली किसी को ना जाना भूल।

    सबको होती तुम्हारी चाहत
    सबके लिए हो तुम एक जरूरत ।
    ध्यान से अपना पंखा चलाना चुभे ना कोई शूल।
    देखो मेरी न्यारी तितली किसी को न जाना भूल।

    उड़ उड़ कर बागों  की तुम रखवाली करना।
    फूलों की देखभाल कर तुम  माली बनना ।
    अपने रंगों के साथ फूलों के रंगों में घुल।
    देखो मेरी न्यारी तितली किसी को न जाना भूल

    मनीभाई ‘नवरत्न’, छत्तीसगढ़, 

    जाग रे मनुवा जाग रे

    जाग रे मनुवा जाग रे ,   खोल दे नैनन  पट को ।
    अंतर्मन में बसे प्रतिक्षण, काहे ढूढें घट घट को ।।
    मान रे मनुवा जान रे ,    छोड़ तू धर्म झंझट को।
    इंसानियत जगा ले तू ,कुछ ना जाए मरघट को।।
    चल बढ़ा कदम अपना,प्रकाश की तलाश कर।
    स्वविवेक से दीप जला,अज्ञानता का नाश कर।।
    बहरूपिया करे धंधा,नीलाम करता  ईमान को ।
    गुरु  उसे बनाकर तू,  साझा करता बदनाम को।
    अस्मिता खुद की भुला, भुला अपना अस्तित्व।
    जब से धर्मान्धाता में पड़ा,भुला तुमने दायित्व।
    ले सबक ,ना बहक ,अच्छा हो एकांत वास कर।
    परोपकार की भाव बसाये, नाम हर श्वास कर।।
    क्या सही  क्या गलत ?नहीं तुझे कुछ भी भान ।
    तेरे जैसे अंधभक्तों को, समझ ना आए विज्ञान ।
    होता तेरा तभी तो शोषण , जान तुझे अनजान ।
    इस भेड़चाल से कब मुक्त हो,मेरा भारत महान।।
    गर गिर गया है खाई में ,चल निकल प्रयास कर।
    बन चालक अपना , जीवन को ना वनवास कर।।

    (रचयिता:-मनीभाई, बसना, महासमुंद,छत्तीसगढ़)

    सर्व शिक्षा अभियान

    जीवनोपयोगी शिक्षा का हो ज्ञान।
    प्रारंभिक शिक्षा पर हो विशेष ध्यान ।
    लाया है यही सर्व शिक्षा अभियान ।।

    सब पढ़े सब बढ़े का है नारा ।
    लोक व्यापीकरण ऐसी शिक्षा की धारा ।
    बच्चों के चेहरे पर छा जाए मुस्कान ।
    लाया है यही सर्व शिक्षा अभियान ।।

    पर यह है चुनौतीपूर्ण काम।
    शिक्षक सहयोग से ही मिलेगा सफल अंजाम ।
    पड़ जाए जिसमें गांव की शान ।
    लाया है यही सर्व शिक्षा अभियान।।

    मनीभाई ‘नवरत्न’,छत्तीसगढ़

    आसमाँ की हुई जमीं से लड़ाई

    आसमाँ की हुई जमीं से लड़ाई ।
    जमीं आसमां के आगे घुटने अड़ाई ।

    दिखाई आसमान ने अभेध कटार ।
    कर दिए फिर बूंदों की बौछार ।
    सहन ना कर पाए जमी की ढाल ।
    उखड़ गए उसके तन की खाल।
    भीगी भीगी आंखों को उसने गड़ाई ।
    आसमां की हुई जमीन की लड़ाई।

    वनराज मृग के घर छुपने आए ।
    नागराज खग नीड़ अपनी जान बचाई।
    रब ने दिखाई जीवन की असली रुप।
    सच तो है जीवन में छाव कभी धूप ।
    सूरज निकला अपनी आग बढ़ाई ।
    आसमां की हुई जमीं से  लड़ाई ।

    नदियां आज बढ़कर बाढ़ लाए।
    झरने नाले भी अपनी दहाड़ सुनाएं ।
    पानी भाप बनकर बादल बनाएं ।
    घनघोर छाके पुराना रूप दिखाएं।
    जमीं सुग्रीव ने फिर की बालि आसमां की चढ़ाई ।
    आसमां की हुई जमीं से लड़ाई ।

    जमीं आसमां के आगे घुटने अड़ाई।

    अपना सच्चा साथी

    इस जिंदगी में
    खड़ा बनके जो सच्चा साथी
    जो कभी ना छोड़े अकेला।
    यूं तो दुनिया है मेला
    पर बिन इसके सब छूट जाने हैं ।
    कांच की गुड़िया सी टूट जाने हैं।
    ये जानते हुए भी
    हम क्यों इसे अपनाते नहीं?
    आजीवन हमसाया को
    सीने से लगाते नहीं?

    हमारे अनदेखी से,
    जो बुरा नहीं मानता ।
    बेशर्म की भांति
    मुंह उठाए खड़ा रहता है ।
    वह मेहनत सिखाना चाहता है ।
    बताता है कौन बुरा, कौन भला?
    जिसकी काया, परछाई से भी काली ।
    ये बेस्वाद, कुरूप, दर्दीला
    तड़पाता है जी भर के ।
    आईना दिखाता है हमें
    अस्तित्व बोध कराता है हमारा ।

    यूं तो हमारी चाहत नहीं है इस पर
    पर जब भी आता है
    हम बेमन होकर
    घुटने टेक कर प्रार्थना करते हैं
    दया की भीख मांगते हैं।
    चले जाने को हमारी जिंदगी से।
    पर जाने से पहले
    वो हमें आंसूओं के भार से
    मुक्त कराता है ।

    देर ही सही “दुख” को मैंने माना
    अपना सच्चा साथी ।
    ना जाने क्यों बेवफा “सुख” के पीछे
    भागते हम दिन रात
    जो हमें विलास में
    आलसी कर देना चाहता है ।
    प्रगति का अवरोधक “सुख”
    जो मोह से छोड़ी नहीं जाती ।
    मैं जबरन अपने को
    इसके बीच फंसाता हूं ।
    “सुख” मुझे हमेशा की तरह दगा दे जाता है
    और मिलता है आसरा दुख का मुझे।
    कोई भला असल प्रेम छोड़
    झूठे के पीछे होता है भला?
    खैर….
    मुझे काबिल बनाने के लिए
    खड़ा ही रहता है दुख।

    @मनीभाई नवरत्न

    कहती यही दीवाली

    सज्जन की जय हो गए और दगाबाजों को गाली है।
    दीप से दीप जला ले भाई कहती यही दीवाली है ।

    एक होकर दीपों ने, मिटाई रात की काली है ।
    हाथ से हाथ मिला ले भाई कहती यही दिवाली है।

    सजने लगा है घर हर जगह साफ दिखे हैं ।
    सजने लगा है अंबर धरा फिर भी इनके रंग फीके  है।
    जब से सजने लगी घरवाली है ।
    प्रीत से प्रीत जगा ले भाई कहती यही दिवाली है ।

    बँटने लगा है मिठाई कंजूस ने दी दावत है ।
    दीन भी पड़ोस के दीए से अपनी खुशी मनावत है।
    बड़ा अजब सा प्रकृति ने ऊँच नीच ढाली है ।
    हर मन से गम चुरा ले भाई कहती यही  दीवाली है ।

    दुकानों में भीड़ , चीजों में आए सस्ती है ।
    महीनों की तप से किसानों में छाई मस्ती है ।
    क्योंकि फसलों में आने वाली सोने की बाली है ।
    झुमके नाच गा ले भाई कहती यही  दिवाली है।

    मनीभाई ‘नवरत्न’,
    छत्तीसगढ़, 

    यहां हर कोई धंधे वाला है

    जमाना आ गया लोकलुभावन की ।
    बिके हर एक चीज मनभावन की ।
    एक अनार पर सौ बीमारों ने नजर डाला है ।
    क्योंकि यहां हर कोई धंधे वाला है ।

    मान जाए पर शान न जाए ।
    अपना बड़ा कलेजा सब पहचान जाए ।
    अपनी राग अलापता तू ढोल पीटने वाला है ।
    क्योंकि यहां हर कोई धंधे वाला है ।

    कोई बचपन बेचे कोई यौवन बेचता है ।
    वायदों पर जोर नहीं कोई वचन भेजता है।
    रिश्तो से बढ़कर यहां पैसो का बोलबाला है ।
    क्योंकि यहां हर कोई धंधे वाला है।

    न जाने कितने वाद

    जब भी जाने को होता दफ्तर ।
    मन में यही रहता डर।
    शायद लौट सकूँ अपने घर ।
    पहले ये बात सिपाही ही समझता ,
    जाता जब सीमा पर।
    अब मैं भी समझता हूँ -” एक आम इंसान ।”


    सीमा के अंदर रहते हुए भी ।
    वाकई आसान नहीं है जीना ।
    आतंकवाद ,नक्सलवाद,माओवाद
    और न जाने कितने वाद ?
    क्या हम आज भी आजाद हैं ?
    बिखरकर रह जाता हूँ मैं
    यही सोचते हुए ।
    टुट जाता है सब्र पर टिकाई गई बाँध ।


    बिलखती और बिछुड़ती जिन्दगी
    हम देख चुके, सुन चुके
    भूल चुके कि धरा वही, समाज वही ।
    क्या कल हमारी बारी है ?
    “हम रहे , ना रहे ” किसे है परवाह ?
    जवान को,विज्ञान को या भगवान को।


    मैं तो यही समझूँ कि
    जिसने बोया है वही काटेगा ।
    तभी तो मेरी नज़र सत्ताधारियों पर केंद्रित है ।

    बचपन की यादों पर कविता

    बचपन अंधा सा बीत गया,
    पर वो पल मैं जीत गया।
    बाकी जिंदगी तो चलता फिरता ढर्रा  है। 

    जिम्मेदारियों से भरी अपनी रोजमर्रा है ।

    खुशी का माहौल छीना ये शहर
    दिल पर हुक उठे जाने कैसा डर?
    बालुओं में जो बनते थे घर
    यादों से अश्रु आ जाते आंखों पर।

    गांव की उस मिट्टी से
    सौंधी सी महक आता ।
    सुख के क्षण ताजे  होकर
    मन अपना कही बहक जाता ।

    पर आज देख लो
    अपनों के बीच में पराया हूं।
    मेरे कानों में गूंजती वह बातें
    फिर भी अब मैं आदमी नया हूं

    एक सवाल है

    ये जीवन शतरंज की चाल है।
    जनाब! आपके क्या ख्याल है?

    जान परखकर आगे बढ़ना ।
    गिर-गिर के, जरा  संभलना।
    भूल-भुलैया ख्वाबों का ठौर
    ख्वाह चुरा ना ले कोई  और।

    यहां पग-पग में बिछी जाल है।
    हर कदम बना , एक सवाल है ।

    अजनबियों से रिश्ते बनते हैं ।
    दो कदम चलके बिखरते हैं ।
    ये रिश्ते महज होते हैं भ्रांति।
    लूट लेते हैं,  मन की शांति।

    रिश्तों की ज़िन्दगी कमाल है।
    ये रिश्ते नाते , एक सवाल है ।

    पल पल में  मिलता है मौका ।
    ये मौका ,हो सकता है धोखा ।
    जब भी इन्हें पाना, तू बेखबर ।
    हो जाना चौकन्ना , हर डगर ।

    मौका पाने को ही,मचे बवाल है।
    हर मौके में तो, एक सवाल है ।।
    ✍मनीभाई”नवरत्न”


    मनीभाई ‘नवरत्न’, छत्तीसगढ़

    मैं गलतियों पे गलती करता हूं

    मैं गलतियों पे गलती करता हूं ।
    फिर चुपके से , छुपके आहें भरता हूंँ।
    ये क्या हो जाता मुझे?
    समझ में ना आता मुझे?
    ना जाने मैं क्यों ? ऐसा करता हूँ

    पहले अनजान था, अपने गलतियों से ।

    सबक सीखा ये , मैंने सिर्फ तुमसे ।
    जब तुम उदास होती ,
    कुछ भी ना भाता मुझे ।
    तेरी बेरुखी बड़ा, तड़पाता है मुझे।
    मैं कैसे कह दूं कि तुमसे ,

    आजकल कितना डरता हूं ?

    ना जाने मैं क्यों ? ऐसा करता हूँ

    मेरी खामोशियों की जुबान समझो ,
    कहता है दिल मेरा, मुझे माफ कर दो!
    मेरे सांसो में तुम ही , बस तुम हो
    चाहो तो आजमा कर , जरा देख लो
    रहने दो मुझे पास तेरे ,

    तुमपे ही तो जीता मरता हूं ।

    ना जाने मैं क्यों ? ऐसा करता हूँ

    आज अकेले में

    वो बालू की सड़कें
    जिसमें चले ईंट की मोटर
    हमने खाये बर्फ गोले
    जिद्दी बन रो-धोकर
    सब ढूंढता हूँ मैं
    आज अकेले में।
    आज अकेले में।

    सूखे डंठलों को गढ़ाके
    पलाश के पत्ते ओढ़ाके
    गुड्डे गुड़िया की ब्याह रचाया
    दुनियादारी उन्हें सिखाया।
    सब याद करके हंसता हूँ मैं
    आज अकेले में।
    आज अकेले में।

    वो कागज के टुकड़े
    बनते रूपयों की बंडल।
    नलकूप की खुदाई करती
    बांस के पोले डंठल।
    वो पल पाने को मरता हूँ मैं
    आज अकेले में।
    आज अकेले में।

    मुझे बहुत काम है

    मुझे बहुत काम है
    आज एक मिनट
    फुर्सत की नहीं  ।

    क्या फाइल निपटाना है?
    या कोई ऑफिस मीटिंग है ?
    किसी सभा में जाना है ?
    या कोई फिल्म की शूटिंग है ?

    अरे नहीं मनी भाई  ;
    उन धुरंधरों में हम कहां ?
    पर फिर भी
    बहुत काम है मुझे  ।

    क्यारियों में पानी देना है ।
    फटी पेंट सीना है।
    बेबी के लिए पेंटिंग करना है।
    भतीजे की फरमाईश पतंग में है।
    गाय को चारा देना है।
    बैल को नहलाना है ।
    कमीनो में प्रेस दौड़ानी है ।
    बिजली की बोर्ड सुधारनी है ।
    रसोई गैस भरानी है ।
    बाजार से सब्जी लानी है।

    और भी बहुत कुछ ।
    हां मुझे बहुत काम है आज….

    मैं बादल हूं

    मैं बादल हूं
    तू मेरी सरिता है
    मैं शायर हूं
    तू मेरी कविता है।

    मेरा खुदा है तू
    सबसे जुदा है तू
    मेरा कुरान कलमा
    तू ही मेरी गीता है।

    तेरी सूरत है , मेरी आंखों में ।
    तेरी सौरभ है, इन सांसों में ।
    कैसे जी पाऊंगा बगैर तेरे
    तेरा नाम सदा,बसी लबों में ।

    तू मेरा सहारा है।
    तू मेरा गुजारा है।
    हारा है बहुत कुछ पर
    तुझको ही मैंने जीता है।

    तेरी एक झलक ,दीवानगी के लिए
    काफी है मुझे,इस जिंदगी के लिए।
    मिट जायेगा ,कोई भी बंदा
    कई खुबी है तुझमें, बंदगी के लिए।

    तू खिली कंवल है ।
    तू भोली निश्छल है।
    तू बहती रसधारा
    तू अमृत पावन पुनीता है।

    -मनीभाई नवरत्न

    इस देश के खातिर

    क्या काम करने में हो  शातिर ?
    किस काम के लिए हो माहिर ?
    कुछ काम कर ले आज फिर ,
    इस देश के खातिर ।।

    अपने ढंग से अपने रंग में अपना योगदान दो।
    देश बनता है हमारे कर्मों से यह बात जान लो।
    हम थमेंगे देश थमेगा यह बात है जग जाहिर ।
    कुछ काम कर ले आज फिर देश के खातिर ।।

    कहर  उठा है आतंकों का ।
    हमें तोड़ने की है तैयारी ।
    एक दूसरे का साथ छोड़ दे।
    यही साजिश है उनकी सारी ।
    शहादत के पन्नों में आज छप जाये अपनी तस्वीर।
    कुछ काम करने आज फिर इस देश के खातिर ।।

    फिर होने को है महाभारत।
    फिर से धर्म युद्ध चलेगा ।
    पांडव कौरव एकत्र हो रहे
    अब अंधी राज टलेगा ।
    कृष्ण की गीता बोल से चलेगा अर्जुन का तीर ।
    कुछ काम कर ले आज फिर इस देश के खातिर।।

    वह जीना भी क्या जीना

    वह जीना भी क्या जीना?
    जिस की दुनिया में कोई पहचान नहीं ।
    वह जीना भी क्या जीना ?
    जिस के दर्द को समझने वाला इंसान नहीं।
    वह जीना भी क्या जीना?
    जिसके मन में कभी भगवान नहीं ।
    वह जीना भी क्या जीना ?
    जिस के घर आए कोई मेहमान नहीं ।
    वह जीना भी क्या जीना ?
    जिस की महफिल में कोई सम्मान नहीं ।
    वह जीना भी क्या जीना?
    जिस के लबों में कोई मुस्कान नहीं ।
    वह जीना भी क्या जीना?
    जिस के दिल में कुछ अरमान नहीं ।
    वह जीना भी क्या जीना ?
    जिस के मुख में मीठी जुबान नहीं ।
    वह जीना भी क्या जीना ?
    जिसे अपनी मंजिल का ध्यान नहीं।

    बेटियों का करो सम्मान

    माँ की वो प्यारी, है पिता का गुमान
    मिश्री सी मीठी,   है जिसकी जुबान
    तितली सी चमके ,  सारे घर आंगन
    भौंरे सा गुंजित , करे   मधुर गान।
    हर घर की है जो ,  मान-अभिमान।
    उन बेटियों का, करो सब  सम्मान ।

    सुत से ज्यादा , सुता ने चोटें खाई
    नसीब उनका जाने किसने बनाई?
    माँ बाप के लाड़ प्यार के हकदार
    एक दिन हो जाती हैं उनसे पराई
    घर से विदा हो,आंखों से अश्रु भर
    उसके स्वप्नों का कौन रखे ध्यान?

    मनीभाई नवरत्न

    अबके बचपन

    नहीं चाहिए, कोई मंहगे खिलौने
    ना बाजे नगाड़े, ना ही ढोल ताशे
    अब मन ना लागे टेलीविजन में
    ना मोबाइल गेम्स ,ना जीवन में

    मुझे फिर सहारा दे धुल मिट्टी का
    फिर  बांधनी है थैलियाँ गिट्टी का
    मैं फिर चलाऊंगी सेल की  गाड़ी
    मैं फिर पहनूंगी , मां की साड़ी

    मुझे याद आने लगी है रेस टीप
    स्याह मुँह से निकालनी है नीभ
    कहाँ छुपी है वो लाठी का घोड़ा
    कहाँ गये गुड्डे गुड़ियों का जोड़ा

    टूट गयी क्या वो पेड़ों  की डाली
    कहाँ है बच्चा बैंक का नोट जाली
    सब कहाँ चले गये मुझेे छोड़ के
    क्यों रूठे वो मुझसे मुख मोड़के

    बीते बचपन में प्रकृति से मित्रता थी।
    और अबके बचपन में  कृत्रिमता है।
    कहो,अब का बचपन महज सपना है
    बच्चे का पहले के बचपन से नाता है।

    मनीभाई नवरत्न

    भविष्य में ये कौन है?

    भविष्य में ये कौन है?
    ■■■■■■■■■■■■■■■■■■■■

    भविष्य में ये कौन है?
    जो मुंह फाड़के
    मुझे भय दिखा रहा।
    चीखें आती है इससे
    रोंगटे खड़ी कर देने वाली।

    कल तक तो दिखता था
    स्वर्णिम प्रभात के किरणें,
    अब तो नीरव घनघोर
    काली प्रतिमायें
    अपने नेत्र लाल से
    लपलपा रही है जीभ।

    दिखाई पड़ रही है मुझे
    मास्क पहने मनुज,
    चूंकि शीतल स्वच्छ समीर
    बहती नहीं स्वच्छंद।
    टंकियों से डलवाते
    मुख में दो घूंट पानी।
    यंत्रवत जीवन भांति
    हो गई वाहन सी दशा।

    खंडहर टापू में एकत्र
    चीटियों सा जन सैलाब।
    चहुँ ओर बवंडर में फंसी
    मुंह तांकती किसी यान का
    जो ले चलें मंगल की ओर।

    भुख से तड़पते,
    रोग से कराहते
    बन बैठे हैं सब जान के प्यासे।
    अब पेड़ से इंतजार नहीं
    कब भोजन मिले फल का?
    टहनी पत्तियों में भी आती
    गजब का मिठास।

    मैं नींद में
    अपने मौत को पाता
    इससे पहले कुछ दार्शनिक
    जलाते दिखे मशाल।
    लगाते दिखे पेड़,
    करते नालियों की सफाई।
    उनके कर्म में नेकी
    और दिल में अच्छाई।

    आपसी दुश्मनी छोड़,
    शांतिपूर्ण सहभाव से
    वचन लिया
    कदम न रखने का
    अपने सीमा के बाहर।
    लोग जुड़ रहे हैं
    गाँव जुड़ रहा
    इस भांति से शहर से होते हुए
    हर प्रांत, हर देश जुड़ रहा।
    अब बदल रहा विश्व अपना भेष।
    सब एक हो रहे, नहीं देश-विदेश।

    🖊मनीभाई नवरत्न छत्तीसगढ़

    मैं जग का नकारा

    मैं जग का नकारा ,ढूंढूँ खुशियों का ठिकाना।
    अब कहां जाएगा यह तन
    आप क्या चाहेगा यह मन ?
    बड़ी भूल भुलैया है यह जीवन ।
    अभी सब कुछ था अभी  बना है आवारा ।।
    साथी बना है राहें खोले हुए हैं बांहें।
    चूम रही हो जैसे कदमों की आंहें।
    यही है अपना घर यहीं पर गुजारा।।
    जीवन का जीने में भला ,
    ऐसी रात नहीं जो ना ढला ।
    कमल भी तो पंक पे पला।
    कल छोटा था ठौर आज है जग सारा।।
    मैं जग का नकारा

    भविष्य में ये कौन है? 

    भविष्य में ये कौन है? 
    जो मुँह फाड़के 
    मुझे भय दिखा रहा। 
    चीखें आती है इससे
    रोंगटे खड़ी कर देने वाली। 

    कल तक तो दिखती थीं 
    स्वर्णिम प्रभात की किरणें, 
    अब तो नीरव घनघोर
    काली प्रतिमाएँ 
    अपने नेत्र लाल से
    लपलपा रही है जीभ। 

    दिखायी पड़ रहें हैं मुझे
    मास्क पहने मनुज, 
    चूँकि शीतल स्वच्छ समीर 
    बहती नहीं स्वच्छंद। 
    टंकियों से डलवाते
    मुख में दो घूँट पानी। 
    यंत्रवत जीवन भाँति
    हो गई वाहन सी दशा। 

    खंडहर टापू में एकत्र
    चीटियों सा जन सैलाब। 
    चहुँ ओर बवंडर में फंसी
    मुँह ताकती किसी यान का
    जो ले चले मंगल की ओर। 

    भुख से तड़पते, 
    रोग से कराहते
    बन बैठे हैं सब जान के प्यासे। 
    अब पेड़ से इंतजार नहीं 
    कब भोजन मिले फल का? 
    टहनी पत्तियों में भी आती
    गजब का मिठास। 

    मैं नींद में 
    अपने मौत को पाता
    इससे पहले कुछ दार्शनिक
    जलाते दिखे मशाल। 
    लगाते दिखे पेड़, 
    करते नालियों की सफ़ाई। 
    उनके कर्म में नेकी 
    और दिल में अच्छाई। 

    आपसी दुश्मनी छोड़, 
    शांतिपूर्ण सहभाव से
    वचन लिया 
    कदम न रखने का
    अपने सीमा के बाहर। 
    लोग जुड़ रहे हैं
    गाँव जुड़ रहा 
    इस भांति से शहर से होते हुए
    हर प्रांत, हर देश जुड़ रहा। 
    अब बदल रहा विश्व अपना भेष। 
    सब एक हो रहे, नही देश-विदेश। 

    मनीभाई नवरत्न छत्तीसगढ़

    अब वह खामोश है

    पिता की फटकार खाने वाला
    मां के लिए सर दर्द।
    नासमझ,लापरवाह ,आलसी
    किसी की एक नहीं सुनता।
    बचपन की दौड़ में 
    न जाने क्या क्या बुनता?
    ख्वाबों में।
    उलझा रहता अजीब कश्मकश में ।
    शायद सबसे अलग था ।
    घर से जब भी निकलता ,
    दिखाई पड़ती सबसे बड़ा घर,
    यह दुनिया।
    जहां असली आजादी थी ।
    जहां असीम सुखकारी संपदा हैं-
    ” खुली हवा,ताजा पानी, हरे-भरे वन ।””
    यह कोई चलचित्र से कम नहीं
    वह खोल देता रंगों की पिटारी
    और नाचने लगती कागज के मंच पर
    उसकी खींची हुई लकीरें
    देख कर ऐसा लगता मानो
    हम दुनिया से जुड़े ही कब थे ?
    पर जालिम समाज ;
    यही समझती
    आसमान से कोई पतंग कट रहा है ।
    देखो, बालक मंजिल से भटक रहा है ।
    बाँह खींचकर जोर देकर कहता –
    ” सुधर जा!  अभी भी वक्त है ।”
    शायद आज वो अपनी हरकतों से
    बाज़ आ गया है पर
    फर्क यही कि 
    अब वह खामोश है।

    ✍मनीभाई”नवरत्न”

    “तारे जमीं पर” फिल्म से प्रेरित कविता

    पिता की अहमियत

    एक अव्वल दर्जे का युवक
    नेक और होशियार ।
    नौकरी पाने की चाहत में
    देने पहुंचा साक्षात्कार ।।
    कंपनी डायरेक्टर ने पूछा
    युवक का अध्ययनकाल ।
    कैसे पढ़ाई में की ,
    उसने ढेर सारे कमाल ।।
    बिन छात्रवृत्ति के गुदड़ी के लाल ,
    कैसे हुआ शिक्षा से मालामाल?
    जानने को वह पूछा ,
    उसके पिता का हालचाल ।।
    युवक ने बताया
    वह है धोबी का बेटा ।
    पर पिता ने उसको ,
    अपने काम में नहीं समेटा।
    डायरेक्टर ने जानकर
    देना चाहा जिंदगी का सबक।
    पहले छुके आओ हाथ पिता का,
    तब मिलेगा नौकरी पे हक।
    घर पहुंचते ही हँसती आंखें
    झरझर बहने लगे।
    पुत्र के भविष्य खातिर
    पिता के रेगमाल हथेली
    संघर्ष गाथा कहने लगे ।।
    युवक को एहसास हुआ
    आज पहली बार।
    बिन व्यवहारिक ज्ञान के
    सैद्धांतिक है बेकार ।।
    ना बन पाता
    आज वह इतना काबिल ।
    पिता के संघर्ष बिन ,
    कुछ होता ना हासिल ।।
    डायरेक्टर ने पहले ही दिन
    भर दी भावी मैनेजर में काबिलियत।
    जानो तुम भी संघर्ष और
    त्यागमूर्ति पिता की अहमियत।।

     मनीभाई ‘नवरत्न’, छत्तीसगढ़

    मैं चुप बैठा हूं

    मैं चुप बैठा हूं दुनिया की यह साजिश है ।
    पर अब तो दिल में कुछ कर जाने की ख्वाहिश है।
    नजरिया बदला है नजारे बदले हैं
    बदल गए हम खुद भी ।
    सब कुछ पाना है अब ना खोना है ।
    भूल चुके थे अपना वजूद ही ।
    कितनी ही दबी हुई चाहतों की फरमाइश है ।
    हां अब तो दिल में कुछ कर जाने की ख्वाहिश है ।
    मिला था जो कुछ मुझे आज तक सब फिजूल था।
    अब मिल गया एक नई मंजिल
    जिस से अब तक दूर था
    बन रहा दिनों दिन निडर मैं, साथ मेरे अपना ईश है।
    हां अब तो दिल में कुछ कर जाने की ख्वाहिश है।
    मैं चुप बैठा रहूं दुनिया की है साजिश है।।

    बन पवनकुमार

    पवन वेग से चल तू, बन के पवनकुमार।
    रहे सदा अडिग अविचल,जीत ले हर बार॥

    माँ भारती गुहारती,अब मुझे सजना है।
    हर गाँव हर शहर को, स्वर्ग-सा रचना है।
    बन कर्मठ तु झटपट,ये पल यूँ ना गुजार।
    पवन वेग से चल तू, बन के पवनकुमार॥1।


    निर्मल पथ,निर्मल जल और निर्मल हो देश का कोना-कोना।
    हर जन में होती हुनर, उस हुनर को मौका दो ना।
    आज स्वतंत्र और लोकतंत्र है, हाथ में कर ये संसार।
    पवन वेग से चल तू, बन के पवनकुमार॥2।।


    जो चुनता है,जो बुनता है;देश का ही नाम रहे।
    देश ने दिया दाम तुझे, देश का ही काम रहे।
    स्वाभिमान प्रकट कर,मन में भर भाव उदार।
    पवन वेग से चल तू, बन के पवनकुमार॥3।।

    मनीभाई नवरत्न

    आजादी की दूसरी लड़ाई

    जब तक रहेंगे देश में गद्दार ।
    होती रहेगी प्रजा पर अत्याचार ।
    करते रहेंगे छुपके भ्रष्टाचार ।
    मां बेटी के संग बलात्कार ।
    फिर कैसे होगा सपने साकार?
    जब चुप रहेगी हमारी सरकार।
    उठाएगा कौन इसे मिटाने की बीड़ा?
    किसकी दिल पर हो रही ज्यादा पीड़ा?
    सब साध रहे हैं अपना स्वार्थ ।
    गिने चुने ही आते हैं करने को परमार्थ ।
    हक से  मांगेगा कौन अपना अधिकार?
    जब चुप रहेगी हमारी सरकार ।
    खतरे में पड़ गई है देश की सुरक्षा।
    आतंकित हो गया है बूढ़ा और बच्चा ।
    इस दशा में करें क्या सरकार की बड़ाई?
    लड़नी होगी फिर से आजादी की दूसरी लड़ाई।
    अब भला जवान क्यों करेगा इंतजार ?
    है जब चुप रहेगी हमारी सरकार।

     मनीभाई ‘नवरत्न’, छत्तीसगढ़

    प्रलयकाल

    सुना था ,
    प्रलयकाल के बारे में ,
    कि हुआ था जल प्लावन ।।

    आज जाने क्यों?
    सिहर उठा है मन,
    करवटें लेता है बार-बार,
    गहन रात्रि में , उनींदीपन में।
    टटोलते मेेेेेेरे हाथ
    अपने प्राणसम पिया को ।
    जैसे ही होता,
    उसके होने का आभास
    मानो पतवार मिली हो ।
    मझधार जीवन नैइयां में,
    यही आसरा, यही किनारा ।।

    फिर चौंकता ,
    कहाँ हैं मेरे शिशु!!
    और तसल्ली करता कि,
    सुरक्षित है मेरे संचित बीज।
    मध्य रात्रि में अचानक,
    क्यों महसूस करने लगा ,
    कि मैं ही हूं वो मनु
    जो गुजर रहा है पारावार से ।।

    हां ! यह वही दौर है ।
    स्वरूप में परिवर्तन बेशक,
    पर हालात हैं वहीं।
    बाहर कदम रखते ही ,
    सुनता हूँ
    डुब रहे हैं नाव औरों के।
    जिनके संकट की घड़ी में
    जहाँ हम असमर्थ हैं,
    मात्र मूकदर्शक है।।

    पर कुछ देवतुल्य
    लगे हैं दिनरात,
    जोखिम में डाले स्वयं को।
    जब वे लौटते अपनी नैइयां
    बजती है तालियाँ
    “सबसे छोटा.. पर बड़ा सम्मान”।
    पर कहीं कुछ नमकहराम
    देते हैं ताने,
    करते हैं बरसात पत्थर का
    हैरान करता ये दृश्य,
    इससे बढ़कर साक्ष्य नहीं,
    नीचता माटीपुतलों के
    साक्षात दर्शन स्वार्थपरता की।।

    धीरे से थमेगा
    ये उठी हुई लहरें।
    ग्रास निवाला ना पाकर
    काल का हो जाना है इंतकाल।
    चूंकि परिवर्तन का भी,
    होता है परिवर्तन।।

    कभी जो सन्नाटा छाये
    कुछ क्षणों के लिए
    समझना नहीं कि
    ये सूचक है शांति के।
    अक्सर तूफान से पहले,
    छा जाता है सूनापन।
    जब तक भोर की किरणें
    माथे नहीं गिरें
    और सुनाई न दें मुर्गे की बांग,
    यही समझना,
    टला नहीं है प्रलयकाल।।
    रचना तिथि : 21 अप्रैल 2020
    मनीभाई नवरत्न
    बसना, छत्तीसगढ़

    सख्त कार्यवाही हो

    अब बस भी करो वह चर्चे 
    जिसमें नेता की वाहवाही हो ।
    जो रक्षक भक्षक बन जाए,
    उस पर सख्त कार्यवाही हो ।।

    बेटी विकास की बातें ,
    देश में नारा बनके रह गया।
    इज्जत लूट ली दरिंदे ने 
    आंचल जलधारा लेके बह गया ।
    पकड़े गए हैं व्यभिचारी 
    पर कब उन पर सुनवाई हो ।
    जो रक्षक भक्षक बन जाए,
    उस पर सख्त कार्यवाही हो ।।

    जिस्मफरोशी का धंधा ,
    देश संस्कृति को ले डूबेगा ।
    फिर किसपे इतराओगे 
    जब जग में बदनामी चुभेगा।
    हाथ पे हाथ धरे  ना बैठो 
    कि आनेवाला कल दुखदाई हो।
    जो रक्षक भक्षक बन जाए, 
    उस पर सख्त कार्रवाई हो ।।

    छापे मारो देश का कोना,
    जहां ऐसे जुल्म पलते हैं ?
    क्या ऐसे गोरखधंधे भी,
    नेताओं के दम से चलते हैं ?
    नहीं तो फिर, क्यों ठंडा खून 
    जैसे राज़ की बात दबायी हो
    जो रक्षक भक्षक बन जाए, 
    उस पर सख्त कार्रवाई हो ।।

    ✍मनीभाई “नवरत्न”, छत्तीसगढ़

    चल लिख कवि ऐसी बानी

    चल लिख कवि ,  ऐसी बानी ।
    नहीं दूजा कोई, तुझसा सानी ।
    चल प्खर कर, अपनी कटार ।
    गर मरुस्थल में लाना है बहार।
    अब देश मांगता, तेरी कुर्बानी ।
    चल लिख कवि ,  ऐसी बानी ।
    ईश का गुणगान छोड़ , मत बन मसखरा ।
    जन को सच्चाई बता,मत बन अंधा बहरा।
    देश का है लाल तू,माटी की बचा ले लाज।
    दरबारी कवि नहीं,खोल दे पापी का राज़।
    मनोभाव भरे जिसने,कर उसपे मेहरबानी।
    चल लिख कवि ,ऐसी बानी ।
    जब बिक चुका मीडिया,कौड़ी के भाव में ।
    जिम्मेदारी बढ़ी है तेरी , आ जाओ ताव में ।
    छेड़ अभियान चल , जन जागृति पैदा कर।
    अन्याय आगे ईमान का,कभी ना सौदा कर।
    समाज को नेक राह दिखा,करके अगवानी।
    चल लिख कवि ,ऐसी बानी।

     मनीभाई ‘नवरत्न’, छत्तीसगढ़

    पैसा से बढ़कर कोई नहीं

    मुझको चाहिए था पैसा,
    पर मैंने मांगा ना तुमको पैसा ।
    तूने ही मुझको दी पैसा
    दोस्ती का फर्ज अदा किया ऐसा ।
    पैसा पैसा …
    मेरी कर्ज चुकाने की हैसियत नहीं थी।
    ना कोई  दौलत वसीयत नहीं थी ।
    मैं तुम्हारा आभारी हूं।
    मेरी पहले से ही यह जिल्लत ना थी ।
    पर टूटा मेरा आशियां का रेशा रेशा ।
    पैसा पैसा …
    पैसा देता है दोस्तों का काम।
    ऐसे दोस्तों को मेरा सलाम ।
    पर तुमने तो हर पैसे के ली दाम ।
    और बना दिया जीवन को हराम।
    तू ही रहा था मेरा सब कुछ ।
    तू ने दगा दिया कैसा ।
    पैसा पैसा ….
    ये यह सब खेल पैसे का है ।
    ये रिश्तो का मेल पैसे का है ।
    यह पैसा से बढ़कर कोई नहीं ।
    यह सारा झमेल पैसे का है ।
    यहां पैसों से तौलना बना है पेशा।
    पैसा पैसा. . .

     मनीभाई ‘नवरत्न’, छत्तीसगढ़

    करवा चौथ व्रत विशेष रचना

    एक चांद, मेरे चांद से , आज क्यों नाराज है ?
    जरूर आज उसका, मेरे चांद से कम साज है।
    शरमा के छुपा वो काला बादल का दुपट्टा ले,
    उसे मेरे चांद के आगे आने में हो रहा लाज है।

    ए चांद !तू फलक पर आ, आकर भले छुप जा ।
    मेरे चांद को तड़पाकर ,  छुप छुप कर  ना जा।
    उसका करवा  व्रत संकल्प पूरा होने दे तो  जरा
    फिर लूंगा तेरी खबर,  तड़पा रहा जो आज है ।
    एक चांद, मेरे चांद से……

    ( मनीभाई “नवरत्न”)

    चलते चलो

    चलते- चलते ,चलते चलो।
    रुकने का ना नाम लो।
    रस्में अपनी निभाते हुए ,
    कसमें को तुम जान लो ।
    चलते-चलते ,चलते चलो ….

    दूर नहीं ,तुम्हारी मंजिल है ।
    जब साफ तुम्हारा दिल है।
    मुट्ठी में रखो अपनी आरजू
    काबलियत ही तेरी काबिल है।
    चाहे तेज हो रोशनी नजरें टिकाए रखो ।
    चलते चलते चलते चलो ….

    राहों में आए मुश्किल घड़ियां
    तो जोश से सर उठाना ।
    हंसता है तुझे जमाना तो ,
    शर्म से ना सिर झुकाना ।
    अच्छे काम ना सही , जोकर बनकर हंसाते रहो ।
    चलते चलते चलते चलो….

    बाहर से चुस्ती रहे ,
    अंदर से मस्ती रहे ।
    तूफान हो सागर में तेरे,
    शांत तेरी कश्ती रहें।
    बरसे जितना भी घटाएं तुम पंछी उड़ते रहो।
    चलते चलते चलते चलो…..

    मनीभाई ‘नवरत्न’, 
    छत्तीसगढ़

    हाथ फैलाते पथ पर

    दर-दर दोपहर
    हाथ फैलाते पथ पर ।
    कहीं झिड़कियां,
    कहीं ठोकर।
    बेबस बेचारगी झलके
    सहज मुख पर।
    दो पैसे का जुगाड़ बिन,
    कैसे जायें घर पर?
    दर-दर दोपहर
    हाथ फैलाते पथ पर ।

    आज बनी है
    मन में बड़ी सवाली।
    जब तक बजती रहेगी
    गरीब की थाली।
    देश विकास के सारे उदिम
    महज  पोंगापंथी जाली।
    मांगते मांगते रोटी
    सूख रहे हैं अधर।
    दो पैसे का जुगाड़ बिन,
    कैसे जायें घर पर?
    दर-दर दोपहर
    हाथ फैलाते पथ पर ।।

    ये देश तुझे मांग रहा बलिदान

    ये देश तुझे ,मांग रहा बलिदान ।
    चीत्कार सुनके जाग जा इंसान ।
    भेद भाव बढ़ रहे जन जन में ।
    बँट गए हैं बन अमीर फकीर ।
    मां ना चाहेगी, बच्चों में ये ,
    जानो रे तुम ,मां की पीर ।
    भ्रष्टाचार का है बोल बाला
    और मजे लूट रहे बेईमान।।
    ये देश तुझे ,मांग रहा बलिदान ।
    चीत्कार सुनके जाग जा इंसान ।
    समझते हैं जो खुद को  सेवक
    असलियत में है स्वार्थ की खान ।
    अब स्वार्थ छोड़ परमार्थ पर प्यारे
    लगा जरा ध्यान ।
    एकजुट होकर फिर से पा ले 
    भारत मां का सम्मान।
    पाई नहीं हमने पूरी आजादी ,
    क्या पालन होता अपना संविधान।
    दिन भर नेताओं की सांत्वना बस 
    क्या बदलेंगे ये अपनी जुबान ।
    छुपी रहती विरोध व क्रांति में 
    प्रगति खुशहाली और अमन ।
    छोड़कर अपनी भेड़चाल तू 
    ढूंढ ले सच्चाई का दामन।
    दगाबाजों की सभा में ,
    सच को करें मतदान ।
    तभी बन सकता है 
    हमारा भारत महान।।

     मनीभाई ‘नवरत्न’,छत्तीसगढ़,

    गणेश वंदना गीत

    देवा मेरे देवा , गणपति देवा
    सेवा करें सेवा गणपति देवा.

    आकार में है बड़ा, विचार में जो बड़ा ।
    कामना पूरी ,कर दें उनकी …
    द्वार तेरे जो खड़ा। देवा मेरे देवा , गणपति देवा….

    तू गजनायक, विघ्न विनायक
    तेरे शरणागत हुए हैं प्रभु।
    तेरा सहारा है, तू ही हमारा है
    तेरा नित आह्वान करूँ।।
    जब भी कभी मुझे संकट आ पड़ा।
    देवा मेरे देवा , गणपति देवा……

    .मनीभाई नवरत्न

     नारी- मनीभाई नवरत्न

    हे नारी!
    तू क्यों शर्मशार है।
    समाज से भला क्यों गुहार है?

    मत मांग, इससे
    कोई दया की भीख ।
    वो सब बातें जिनमें
    पुरूष का वर्चस्व,
    उन सबको तू सीख।

    है तुझमें भी अदम्य क्षमता
    कम क्यों आंकती, तु खुद को।
    इतिहास साक्षी, तेरे कारनामों से ।
    मत समेट अपने वजूद को।
    चारदीवारी से बाहर आ ,
    खुद से मिलने के लिए ।

    तू कली !
    धूप से ना मुरझा
    तैयार हो खिलने के लिए ।
    कोई कब तक लड़ेगा ,
    तेरी हिस्से की लड़ाई ।
    आखिर कब तक चलेगी ,

    पीछे-पीछे बन परछाई ।
    तुझे अबला जान के ही
    तेरा अपमान हुआ है ।
    देर ही सही हर युग में,
    मगर तेरा सम्मान हुआ है ।

    चल एक हो
    अन्याय के खिलाफ ।
    तेरी बिखराव ही
    तेरी दुर्गति का कारण है ।
    मत कोस अपने भाग्य को
    ये जीवन संघर्ष का रण है।
    जब हर तरफ तू
    संबल नजर आयेगी ।
    ये धरा तेरे कर्मों से
    स्वर्ग बन उभर आयेगी ।

    ✍मनीभाई”नवरत्न”

    प्रेम की परिभाषा

    प्रेम वो धुरी है
    जिसके बिना
    जिंदगी अधुरी है।
    प्रेम जरूरी है
    छलछद्म,ईर्ष्या
    बहुत ही बुरी है।

    प्रेम संसार है
    सुख शांति का
    एक आधार है।
    प्रेम  शक्ति है
    ईश्वरीय दर्शन
    श्रद्धा भक्ति है।

    प्रेम अनुराग है
    मात्र चाह नहीं
    सच्चा त्याग है।
    प्रेम परीक्षा है
    मानव बनने की
    एक दीक्षा है।

    प्रेम प्रतीज्ञा है
    संकट क्षण में
    सच्ची प्रज्ञा है।
    प्रेम  सूक्ति है
    मोह माया से
    मोक्ष मुक्ति है।

    प्रेम परमात्मा है
    प्रतिशोध से दूर
    त्रुटि पर क्षमा है।
    प्रेम वो डोर है
    दोनों ही सिरा
    जन्नत ओर है।

    प्रेम एक रंग है
    ख़ुदी खोने की
    सरल  ढंग  है।
    प्रेम क्या है?
    दिल की तू सुन
    वहां सब बयां है।

    ✍मनीभाई”नवरत्न”

    कल दे देना किश्त में

    नहीं है कोई चिंता की बात,
    जनाब हम हैं,आपके साथ।
    आज खाली है आपके हाथ!
    भाई! कल दे देना किश्त में।

    क्या सुख सुविधा है पाना?
    किस में दिल का ठिकाना ?
    ले जाओ ना आप मनमाना,
    बांध करके जरा किश्त में ।

    क्यों रखते हो जी हिसाब?
    हमसे कर लो ना पुछताछ ।
    क्या स्कीम नहीं लाजवाब?
    थोड़ा थोड़ा कर किश्त में।

    लगा ना प्रस्ताव में लाभ।
    संग उपहार भी नायाब।
    मनमोहक सारे असबाब।
    ख्वाब पूरे करो किश्त में।

    फाइनेंसर की सुनकर दलील।
    बेकाबू होने लगा अपना दिल।
    रिकार्ड तोड़ ,बड़ा लिए बिल।
    कर लिये पूरे शौक किश्त में।

    अब चेहरा क्यों है उदास ?
    चीजें आलीशान है पास ।
    क्या करूं एसी की ठंड में
    अब नींद आए किश्त में।।

    हमने शीघ्रता की चाह में
    भटकते जीवन की राह में
    आय से ज्यादा व्यय हुआ
    अब नहीं चाहिए किश्त में।।

    ✍मनीभाई”नवरत्न”

    चलते फिरते सितारे

    ये चलते फिरते सितारे
    धरती पे हमारे।
    आंखों में है रोशनी
    बातों में है चाशनी
    तन कोमल फूलों सी
    खुशबू बिखेरेते सारे।।
    ये चलते फिरते सितारे…

    ना छल है
    ना छद्म व्यवहार
    बड़ी मोहक है
    इनकी संसार।
    हम ही सीखे हैं,
    खड़ा करना
    आपसे में दीवार।
    देख लेना एक दिन
    ला छोड़ेंगे इन्हें भी
    जहां होंगे बेसहारे।।
    ये चलते फिरते सितारे…

    किलकारियों संग
    हंसती खेलती
    ये प्रकृति सारी।
    हमने तो बस घाव दिए हैं
    दोहन, प्रदूषण, महामारी।
    स्वर्ग होता प्रकृति
    इन बच्चों के सहारे।
    ये चलते फिरते सितारे…

    ये रब के दूत
    ये  होंगे कपूत-सपूत
    आंखों से तौल रहे
    हमारी करतूत।
    फल भी देंगे हमको
    पाप पुण्य का
    जो भी कर गुजारे।
    ये चलते फिरते सितारे…

    ✍मनीभाई”नवरत्न”

    समता बिन मानवता

    यह सोच हैरान हूं
    कि इंसान है सबसे बेहतर ।
    हां मैं परेशान हूं,
    इंसान मानता खुद को श्रेष्ठतर।
    क्या सचमुच में महान हैं?
    या निज दशा से अनजान हैं।

    अन्य प्राणियों में नहीं है
    धर्म,जाति देश काल की भेदभाव।
    अन्य प्राणियों में कहां है ?
    रंग-रुप भाषाई अनुरूप बर्ताव ।
    यह इंसानों की उपज है
    अमीरी गरीबी की रेखा ।
    क्या सृष्टि में ऐसा
    कोई अजब प्राणी देखा ।

    निंदनीय है संपन्न वर्ग
    जिसके नजरों में भुखमरी,गरीबी है ।
    चिंतनीय है यह मुद्दा
    जिसके पलड़े में लाचारी, बदनसीबी है ।
    ये कैसा व्यवस्था बना
    गुलामी का भयंकर रूप है ।
    भाग्य में किसी का आजीवन छांव
    तो किसी दामन में तपती धूप है ।

    समता बिन मानवता ,
    मृग मरीचिका तुल्य है ।
    कहीं हो ना जाए
    जीवन संघर्ष
    आखिर सबके लिए जीवन बहुमूल्य है।
    ✍मनीभाई”नवरत्न”

    स्वतंत्र हो चलें

    हर जगह रूप है ,
    एक उसी का।
    जिसे लोग अल्लाह-ईश्वर कहते हैं।
    फिर क्यों लोगों ने…?
    हमको ये कहा
    अल्लाह मस्जिद में,
    ईश्वर मंदिर में रहते हैं।

    हमने समेट लिया खुद को
    अपनी अपनी खुदा को समेट कर
    गिरवी रख दी वजूद को
    अपना विवेक खो कर।

    आखिर हमें
    किस बात का डर?
    ये दूरियां हममें
    क्यों कर गई घर?
    मन में  समत्व भर
    अब तो स्वतंत्र हो चलें
    धर्म के नाम पर।

    ✍मनीभाई”नवरत्न”

    तो क्या कहने?

    होली के बाद
    समय के साथ
    रंग अबीर धुल जायेंगे.
    मन से मैल भी
    जो धो पाओगे
    तो क्या कहने.

    हाँ माना
    अपनों से लिपट जाओगे
    अपनी खुशी खातिर
    पर गैरों से लिपटोगे
    उनके खातिर
    तो क्या कहने.

    है सत्य
    श्वेत का वजूद
    अश्वेत चितकबरे से
    जब सब रंग
    जीवन में अपनाओगे
    तो क्या कहने…

    पर लगता है-
    वो क्या खेलेंगे होली ?
    जो तन के रंगों से,
    उबर ना पाये.
    जो न खेल पाओगे
    तो क्या कहने….

    मनीभाई नवरत्न छत्तीसगढ़

    आओ बुद्ध की शरण में चलें

    मानव चहुँ ओर से
    भरता है चीत्कार-दहाड़।
    गलत मार्ग अनुशरण करके
    खड़े किये दुख के पहाड़।


    ठोकर खाकर गिरता, उठता
    भूलों से वो कम ही सीखता ।
    अंधी आस्था आंखों के जाले
    यथार्थ की धरा कम ही दिखता।


    बुरे कर्मों से आचरण हुई अशुद्ध ।
    ऐसे में हाथ थामेगा एकमात्र “बुद्ध “
    आओ बुद्ध की शरण में चलें।
    बुद्ध के संग जीलें ,मर लें।


    हो जायेगा जीवन सार।
    गौतम बुद्ध की जय जयकार ।
    बुद्ध ने कहा कि सर्वव्यापी है दुख।
    जितना भागोगे वो मिलेगी सम्मुख।


    अष्टांगिक मार्ग को अपनाके ही ,
    जीवन में आये सफलता और सुख।
    धीरे धीरे हम भी चलो हो जायें प्रबुद्ध ।
    सम्यक् संकल्प हो तो  साथ देगा ” बुद्ध ” ।


    आओ बुद्ध की शरण में चलें ।
    बुद्ध के संग जीलें, मर लें ।
    हो जायेगा जीवन सार ।
    गौतम बुद्ध की जय जयकार ।


    यम, नियम ,आसन ,प्रणायाम
    प्रत्याहार ,धारणा ,ध्यान,समाधि ।
    जिनको जीवन में उतारके ही,
    मिटेगी सकल दुख और व्याधि।


    तज दें हिंसा, चोरी और होना क्रुद्ध ।
    बंधनमुक्त होकर संयम से बनें “बुद्ध”।
    आओ बुद्ध की शरण में चलें ।
    बुद्ध के संग जीलें, मर लें ।

    हो जायेगा जीवन सार ।
    गौतम बुद्ध की जय जयकार ।

    ( मनीभाई ‘नवरत्न’, छत्तीसगढ़ )

    मेरा दिन छोटा कैसे हो गया ?

    स्वर व रचना :- मनीभाई नवरत्न

    हाय ये वक्त!
    मुझे भगाया जा रहा है सरपट ।
    उसके हाथ में है लगाम
    कैसे छीनूं ,
    कोई बताये मुझे?
    जो कोई हो आज बेलगाम।।

    सेकेन्ड के हिसाब ने,
    इसे कीमती बना दिया है;
    तभी इतरा रहा है।
    चढ़ा दिया है मैंने ही इसे
    अपने सर पे।
    जैसे कोई बाप,
    परवरिश करता हो
    इकलौते पुत्र का
    अति प्रेमवश ।
    फिर टिकते नहीं हैं पैर उसके
    दिन भर कभी घर में।

    मैंने सपने देखे थे साथ इसके
    दो घड़ी ही सही
    पर आराम से
    कर सकूं बात
    बेसिर पैर, फिजूल के।
    खेल सकूं ताश- पत्ते- लूडो
    थकते तक अनवरत।
    कि देखना पड़े मुझे घड़ी ,
    और कह सकूँ कि
    अभी टाइम बहुत है
    चलो, थोड़ी सी झपकी मार लें।

    तब भी थे
    दिन में चौबीस घंटे
    और अब भी
    कांटों की गति का पता नहीं ।
    चूंकि नहीं की थी पड़ताल।
    वरना असलियत जानना
    आसान रहता
    कि मेरा दिन छोटा कैसे हो गया ?

    मैंने अपने सारे वक्त खोये
    ताकि थम सकूँ किसी पड़ाव।
    गुजार सकूं वक्त
    इसी “वक्त” के साथ।
    पर भला शहर जाने के बाद
    गांव का सरल आदमी
    शहरी रंग में
    सहज कैसे रह पायेगा ?

    वैसे भी आजकल
    शहर के साथ
    गांव भी भागा जा रहा है ।
    भागना हो गया,
    विकास का पर्याय ।

    विकास मेरे खेलों का ही,
    अवरुद्ध हो गया है।
    जब से खेल में
    होने लगी प्रतियोगिताएं
    और बन गया जब से
    खेलने वाला
    ” एक खिलाड़ी ” ।

    मुझे ज्ञात हो चला है
    गुल्ली डंडा, नदी पहाड़
    डंडा पचरंगा के खेल से
    मैं हो सकता था
    वक्त से बेलगाम ।
    पर किसे फुरसत है
    यह सोचने की ?

    ओह मैं कितना लिखता हूँ
    आज इसे कौन सुनेगा-पढ़ेगा?
    काल सबको भगा रहा है
    उस महाकाल के पास।
    वहां सब मिलेंगे
    तो सबके पास होगा वक्त।
    वहाँ सब खेलेंगे
    गुल्ली-डंडा, नदी-पहाड़
    डंडा-पचरंगा।
    तब सब पढेंगे सुनेंगे यह कविता
    अब बस यही उम्मीद बची है।

    • मनीभाई नवरत्न

    यहां हर कोई धंधे वाला है -मनीभाई नवरत्न

    जमाना आ गया लोकलुभावन की ।
    बिकता हर एक चीज मनभावन की ।
    मन बैचेन , सब चीजों को पाने के लिए
    दशा है सबकी, जैसे दशानन रावन की.
    एक अनार पर सौ बीमारों ने नजर डाला है ।
    तभी तो, यहां हर कोई धंधे वाला है ।

    मान जाए , पर तेरा शान ना जाये ।
    तेरा छोटा कलेजा , कोई पहचान ना जाये ।
    सबको सुनायेगा, खुद ना सुनेगा.
    ढोंगी तू, बड़ा भोगी , ये कभी निशान ना जाये.
    अपनी राग अलापता तू ढोल पीटने वाला है ।
    अरे हां भाई ! तू सबसे बड़ा धंधे वाला है ।

    कहीं बचपन बिके, कोई यौवन बेचता है ।
    वायदों पर जोर नहीं कोई वचन बेचता है।
    सामने से सब मीठे मीठे लगते हैं
    जरा परखो तो जानो, कितनी नीरसता है.
    रिश्तों से बढ़कर यहां पैसों का बोलबाला है ।
    यूँ ही नहीं कोई , यहां पर धंधे वाला है।

    जैसा पाया है यहाँ, वैसा ही खोयेगा.
    फिर यहाँ सब जगह, बेचैन होके खोजेगा.
    सब छूट जाना है जो भी तुझे मिला है.
    अंतिम क्षणों में फिर बच्चों सा रोयेगा.
    ऊपरवाला सबका बाप है, जिसका लेखा दुरूस्त है.
    हाँ वही सबसे बड़ा धंधे वाला है.
    मनीभाई नवरत्न

    मैं तुझमें हूँ तू मुझमें है- मनीभाई नवरत्न

    मैं तुझमें हूँ, तू मुझमें है.
    तू हर किसी का , तू सबमें हैं.
    मेरी सांसें चल रही है
    क्योंकि तू ही हर कहीं है.

    अब चोट दुखती नहीं, जब दर्द तू ही दे रहा है.
    तुमसे मिला सब यहाँ पे, फिर क्यों क्या गिला है.
    क्यों पुकारूँ तुम्हें मैं, जब देखूँ तू हर कहीं है.

    ना खोने का डर है, अब ना पाने की खुशी है.
    जो भी लगता मेरा है, सब झूठ है, बेहोशी है.
    क्यों ढूँढूं तुम्हें मैं, जब तू छिपा हर कहीं हैं.

    मनीभाई नवरत्न

    घरेलू महिला पर कविता – मनीभाई नवरत्न

    बंध गई है घर संसार में
    और उसे पता ही नहीं ।

    कभी ना हो ख्वाहिशें पूरी
    तो आरोप प्रत्यारोप कर
    रूठ जाती हैं महिलाएं ।

    सुबह उठती है
    आशीष लेती बड़ों का ।
    और शुरू करती है लड़ना ,
    कढ़ाई करछुल से ।

    अन्नपूर्णा नाम पाके,
    संतोषी है घरेलू महिला।

    समय गुजरता है,
    स्वजन आगे बढ़ जाते हैं।
    ये कपड़ा बांधती है ,
    बाल संवारती है ।
    झांकती मनोरंजन के लिए ,
    टीवी, मोबाइल,आइने को
    बार- बार लगातार।

    जिम्मेदारी की निर्वहन में
    खबर नहीं अस्तित्व का।

    परिवार बढ़ाती और बसाती
    दांव लगाती अपना सब कुछ ।
    पर प्रेम के निवेश सारे,
    धरे के धरे रह जाते ,
    उसके संकट में अक्सर।

    तब कहीं कोने में जाकर
    आंसू छिपाती है घरेलू महिला।

    जैसा ये बंधी है,
    आजीवन बंधन ही सीखी है
    तो बांधकर रखती
    अपनों को अपने पास।

    कभी काम का रोना रोके,
    तो कभी चीज़ों की मांग करके,
    मुंह फूलाके, मुंह बनाके ।

    घर में मान चाहती है
    चाबी गुच्छों में
    शान चाहती है घरेलू महिला।

    रिश्तों में उलझी
    स्वावलंबन के बजाय,
    शृंगार में आजादी ढूंढती है।

    स्वयं को अधीन में रखकर
    किसे मुक्ति मिला है भला?

    ऐसी बेबसी जिंदगी,
    समाज परवरिश
    और आलस से मिली विरासत तो है।

    जो इन्हें इतना कमजोर कर दिया है
    कि इन्हें समझना मुश्किल है।

    आखिर कब तक इनकी
    यही जिंदगी
    और छोटी सी दुनिया।

    • मनीभाई नवरत्न

    भारतीय संस्कृति पर कविता

    हे भारत ! तुझे आज तय करना है – मनीभाई नवरत्न की कविता

    हे भारत ! तुझे आज तय करना है ।
    बता किस दिशा में उड़ान भरना है ?
    पूरब दिशा में सूरज उगे,
    और पश्चिम में ढल जाता है ।
    तु ही बता!
    अब पश्चिमी ढलान में क्यूं उतरना है ?
    हे भारत ! तुझे आज तय करना है ।

    हमारी संस्कृति हमारा अस्तित्व,
    बसी है जिसमें सभ्यता का सौंदर्य,
    पाश्चात्य को तू मंजिल ना जान,
    स्वयं का इतना मत कर अपमान ।
    जरा बदल!
    अब तुझे आसमानी ताकत से लड़ना है.
    हे भारत ! तुझे आज तय करना है ।

    पवित्र संस्कारों की ओढ़नी बिन
    आभूषणों से श्रृंगार अधुरा है।
    ज्यों विचारों में सत्यता ना हो,
    तो हर नवीनता भी बुरा है।
    जरा सोच!
    आधुनिकता के फेर में , क्यों हमें गिरना है?
    हे भारत ! तुझे आज तय करना है ।

    सच का आसमान देखना है ,
    तो खुला मैदान जाना ही होता है ।
    परिवर्तन का रस चखना है,
    तो आवाज को क्रांति बनाना होता है.
    जरा जाग !
    अब भीड़ के नेतृत्व के लिए स्वयं पर भिड़ना है ।।
    हे भारत ! तुझे आज तय करना है ।
    हे भारत ! तुझे आज तय करना ही है ।

    -मनीभाई नवरत्न

    इंसान में बस कुछ नहीं

    इंसान में बस कुछ नहीं,
    भावों का उमड़ता सागर है।
    कभी छलक जाये आँसू बनके,
    कभी सूना रिक्त-सा गागर है।।

    कभी कुछ था,अभी कुछ है;
    गिरगिट-सा ये रंग बदले।
    कभी गंभीर होके, कभी हास्य भाव से
    अपनी बातों से ही मुकर ले।


    समझना नहीं आसान इनको,
    जग में जन्मा जाने क्या खाकर है?

    जिससे सब कुछ पाया,
    उसे देने की ढोंग रचता है।


    सौ पाप करके,एक पुण्य दिखाके
    सबसे वो छिपता रहता है।
    दरिद्रता दिखाये ऐसी कि,
    हाथ में चाबी, किया बंद लाॅकर है।

    जान लेता ये अगर
    तो झंझट ही नहीं था।
    ये सोचे हरदम ऐसे ,
    वो गलत और मैं सही था।


    यही साबित करते-करते
    रोज उगता-डुबता दिवाकर है। इंसान में बस कुछ नहीं,
    भावों का उमड़ता सागर है।
    कभी छलक जाये आँसू बनके,
    कभी सूना रिक्त-सा गागर है।।

    कतार पर कविता

    आज शहर से होते हुए,
    गुजर रहा था मैं ।
    कि सहसा देखा एक कतार ।


    भारत में ऐसी पहली बार ,
    बड़ी अनुशासन से ,
    बिना शोर किये,
    एक दूजे को इज्जत देते हुये।
    मैंने संतोष लिये मन में ,
    देखना चाहा उनकी मंजिल।
    जहाँ पर लगा था सबका दिल ।


    पहले तो सोचा,
    बैंक की कतार होगी ।
    मगर नोटबंधी का असर
    हो चली है बेअसर।
    सोचा होगा कोई
    नये बाबा का प्रवचन।
    पर यहाँ सुनाई नहीं देती
    कोई वादन या भजन।


    फिर खयाल आया
    बाहुबली-दो का रिलीज ,
    पर यहाँ तो ना कोई बैनर
    ना कोई लाउडस्पीकर ।
    कुछ दूर आगे बढ़ा
    और पाया अनोखा नजारा
    देशी दुकान में शराब की धारा ।


    ताज्जुब हुआ कि
    अब भीड़ में कोई होश नहीं गंवाता है ।
    कतार में रहकर भी कोई
    ना चिखता है,चिल्लाता है।
    आज अगर इस पर लिखूं
    कुछ विरोध के स्वर
    तो है मुझे डर।
    कि कहीं लोग मुझे
    कह ना दें होके मुखर ।
    “तेरे कमाई का भला कौन खाता है?
    चल हट !तेरे बाप का क्या जाता है?”

    (रचनाकार :-मनी भाई भौंरादादर बसना ) 

    क्या फर्क पड़ता है ?

    आज त्यौहार है।
    त्यौहार जो भी हो,
    क्या फर्क पड़ता है?
    इस त्यौहार में,
    भेड़ ने मालिक को आवाज दी।
    चिल्लाता रहा- “भें , भें!! “
    मालिक पास आया,
    दाना की जगह
    कुछ और था हाथ में,
    दूसरे ही पल में,
    भेड़ चिल्लाने की कोशिश में,
    अपना धड़ हिलाता रहा,
    पर निकलता क्यों नहीं-
    “भें, भें? “
    चिल्लाने के लिए चाहिए था सर।
    जो जमीन पर पड़ा था,
    कुछ दूर में,
    अपना मुँह फाड़े,
    अपने मालिक को निहारते।
    पर क्या फर्क पड़ता है?

    -Manibhai Navratna

    हाय यह क्या हो गया?

    हाय यह क्या हो गया?
    महाभारत हो गया ।
    हुआ कैसे?
    एकमात्र दुर्योधन से!
    किसका बेटा ?
    अंधे धृतराष्ट्र का!
    पट्टी लगाई आंखों में
    पतिव्रता गांधारी का।
    शायद कम गई दृष्टि इनकी,
    उद्दंडता जो दुर्योधन ने की ।


    असल कसूरवार कौन?
    जिसने दुर्योधन को गढ़ा।
    जीवन के महत्वपूर्ण घड़ियों में ,
    जो सारे बुरे सबक को पढ़ा ।
    दोषी वे सारे व्यवस्था हैं
    जो देखती हैं सब कुछ ,
    पर होती नहीं पीड़ा ,
    ना प्रतिक्रिया ,ना कुछ ।


    आज ही पल रहे हैं ,
    किशोरों में कुछ दुर्योधन ।
    जिन पर दृष्टि नहीं मां-बाप की,
    चुंकि लगाई गई आंखों में
    मोह की पट्टी ।
    लेकिन दुर्योधन सबक ले रहा
    अब भी सारे व्यवस्था से ।
    फिर से होगा महाभारत
    हम फिर बोलेंगे
    हाय यह क्या हो गया ?

    मनीभाई नवरत्न

    किस्तों की जिंदगी

    किस्तों की जिंदगी
    एक -एक किस्तों में बीत जाएगी।
    रिश्तो की दुनिया
    आखिर कब तक रिश्तो में बंध पाएगी।
    हम चलते हैं निहारते अपनी छाप।
    रेत के समंदर में जो नहीं रह पायेगी।।
    हम छुपाते हैं सबसे अपनी कमाई को
    बटुए का धन बटुए में ही रह जाएगी ।।
    हम कहते हैं अब तो मौज लेते हुए जीना ।
    नहीं पता मौजों के लिए ,क्या दुनिया में रह जाएगी?

  • बहुत छोटे बच्चों के लिए कविता कैसी हो?

    छोटे बच्चों के लिए कविता

    बहुत छोटे बच्चों के लिए कविता कैसी हो?

    बहुत छोटे बच्चों के लिए मनोरंजक कविता लिख लेना बड़े बच्चों के लिए कविता लिखने की अपेक्षा कहीं अधिक कठिन है। छोटे बच्चों का स्वभाव इतना चंचल और मनोभावनाएँ इतनी उलझी हुई होती हैं कि बड़े उन्हें प्रायः आसानी से समझ भी नहीं पाते। उन उलझी हुई भावनाओं में रमकर और अपने गंभीर स्वभाव में उनके स्वभाव की जैसी चंचलता भरकर, उनके राग-द्वेष को उनकी-सी अस्फुट भाषा में व्यक्त कर सकना सरल कार्य नहीं है।

    बड़े बच्चों की भावनाएँ अपेक्षाकृत अधिक स्पष्ट होती हैं। वह भावना और विचारों का तारतम्य भी कुछ-कुछ समझने लगते हैं। उनके मन इतने चंचल भी नहीं होते कि एक विषय पर पल भर से अधिक टिक न सकें। इसलिए उनकी भावनाओं को बहुत छोटी आयु के बच्चों की भावनाओं की अपेक्षा आसानी से आत्मसात करके उनकी भाषा में व्यक्त किया जा सकता है।

    बड़े बच्चों को सुसंस्कृत और शिक्षित बनाने की भावना से प्रेरित कविताएँ भी लिखी जा सकती हैं क्योंकि उनमें थोड़ी बहुत समझ का आना प्रारम्भ हो जाने से वह उनसे लाभ उठा सकते हैं। पर कविता का मुख्य उद्देश्य मनोरंजन ही होता है। और बड़े बच्चे भी उपदेशात्मक या ज्ञानवर्धन करने वाली कविताओं को उतना पसन्द नहीं करते जितना सरल मनोरंजन करने वाली कविताओं को।

    बड़ों को ही जब कविता या उपन्यास में भले से भले सिद्धान्त, ज्ञान और उपदेश की बातें उतनी अच्छी नहीं लगतीं जितनी रस और राग की बातें लगती हैं तो बहुत छोटे बच्चे भला किस प्रकार अपने स्वभाव और मन के प्रतिकूल कविता द्वारा उपदेश-ज्ञान की बातों को ग्रहण कर सकते हैं।

    हिन्दी में बच्चों के लिए लिखी गई कविताओं को देखने से ज्ञात होता है कि वह अधिकतर बड़े बच्चों के लिए लिखी गई कविताएँ हैं। जो बच्चे स्कूलों में साल दो साल पढ़कर एक-दो परीक्षाएँ पास कर चुके होते हैं, जिन्हें भाषा और व्याकरण का भी प्रारम्भिक ज्ञान होता है वही बच्चे उन कविताओं को पढ़ या सुनकर उनमें रस ले सकते हैं।


    आ गई पहाड़ी ॥
    छूट गई गाड़ी।
    लुढ़की पिछाड़ी ॥
    पड़ी एक झाड़ी ।
    फँस गई साड़ी ॥
    रुक गई गाड़ी।
    लाओ कुल्हाड़ी ॥
    काटेंगे झाड़ी ।

    मुन्नू मुन्नू छत पर आजा।
    बजने लगा द्वार पर बाजा ॥
    पीं पीं पीं ढम ढम ढम ढम।
    खिड़की पर से देखेंगे हम ||

    फुदक फुदक कर आतीं चिड़ियाँ ।
    चह चह चूँगाती चिड़ियाँ ॥
    फर फर पर फैलाती चिड़ियाँ ।
    फुर फुर फुर उड़ जातीं चिड़ियाँ ॥

  • आतंकवाद विरोधी दिवस पर कविता – एकता गुप्ता

    21 मई, 1991 को तमिलनाडु के श्रीपेरंबदूर में पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की हत्या कर दी गई थी। उनकी हत्या के बाद ही 21 मई को आतंकवाद विरोधी दिवस के तौर पर मनाने का फैसला किया गया। इस दिन हर सरकारी कार्यालयों, सरकारी उपक्रमों और अन्य सरकारी संस्थानों में आतंकवाद विरोधी शपथ दिलाई जाती है।

    कविता संग्रह
    कविता संग्रह

    आतंकवाद विरोधी दिवस पर कविता -मत फैलाओ आतंकवाद

    हर देश का खतरा है आतंकवाद
    बनकर जिहादी विद्रोही
    फैला रहे हैं अतिवाद ।
    अपना कर हिंसा का पाठ
    कर रहे अंधाधुंध अपराध ।
    मासूमों को कर रहे अनाथ
    करते रहते हिंसा
    डर से गुजरती रात।।


    हिंसा की धमकी देकर
    फैलाते धर्मनिरपेक्ष का जातिवाद
    हर देश का खतरा आतंकवाद
    कभी मजहब पर लड़ते
    कहीं पर भी हिंसा करते
    दिन-रात निर्मम हत्याएं करते
    कुकृत्यों में हाथ भी न कांपतें
    कहीं दुहाई राष्ट्रवाद की
    कहीं फैलाते अलगाववाद
    हर देश का खतरा है आतंकवाद ।।


    अपराधी कट्टरपंथी छोड़ो
    आतंकवाद से मुंह मोड़ो
    मत करो अब और अनैतिक कृत्य
    अपराध छोड़ मानवता से नाता जोड़ो
    मिल कर दें आतंकवाद को जवाब
    हर देश का खतरा है आतंकवाद ।।


    आतंकवाद विरोधी दिवस है आज
    आतंक छोड़ मानवता के करे काज
    देश की सुरक्षा को बढ़ायें हाथ
    एकता चाहती आप सबका साथ
    आतंक को मिटाकर
    करे स्थापित “सौहार्द राज “
    मिट जाए हर कोने से आतंकवाद ।

    एकता गुप्ता ‘ काव्या ‘
    उन्नाव उत्तर प्रदेश

  • राजस्थान दिवस कविता – बाताँ राजस्थान री

    राजस्थान दिवस कविता : प्रत्येक वर्ष 30 मार्च को हम राजस्थान की अमर गाथा का अपनी सुनहरी यादों में समरण कर इसे राजस्थान दिवस के रूप में मानते है।

    देश के लिए सर्वस्व न्योछावर करने की परम्परा आज भी राजस्थान में कायम है। 30 मार्च, 1949 को जोधपुर, जयपुर, जैसलमेर और बीकानेर रियासतों का विलय होकर वृहत्तर राजस्थान संघ बना था। इसी तिथि को राजस्थान की स्थापना का दिन माना जाता है।

    कविता संग्रह
    कविता संग्रह

    ढूढाड़ी-राजस्थानी भाषा में रचित १७ कुण्डलिया छंद यहाँ अर्पित हैं यह रचना जिसका शीर्षक है- बाताँ राजस्थान री…….



    धोरां री धरती अठै, चांदी सो असमान।
    पाग अंगरखा केशरी, वीराँ रो अरमान।
    वीराँ रो अरमान, ऊँट री शान सवारी।
    रेगिस्तान जहाज, ऊँट अब पशु सरकारी।
    कहै विज्ञ कविराय, पर्यटक आवै गोरां।
    देवां रै मन चाव, जनमताँ धरती धोरां।
    .


    खाटो सोगर सांगरी ,कैर काचरी साग।
    छाछ राबड़ी खीचड़ी, मरुधर मिनखाँ भाग।
    मरुधर मिनखाँ भाग, चूरमा सागै बाटी।
    दाळ खीर गुड़ खाँड, चाय चालै परिपाटी।
    कहै विज्ञ कविराय, नामची सँगमर भाटो।
    आन बान ईमान, मान रो इमरत खाटो।


    धरती धोराँ री अठै , रणवीराँ री खान।
    इतिहासी गाथा घणी , रजवाड़ी सम्मान।
    रजवाड़ी सम्मान, किला महलाँ री बाताँ।
    जौहर अर बलिदान, रेत रा टीबा गाता।
    कहे विज्ञ कविराय, सुनहळी रेत पसरती।
    आडावळ री आड़, ढोकताँ मगराँ धरती।
    .


    निपजै मक्का बाजरी, सरसों गेहूँ धान।
    भेड़ ऊँट गउ बाकरी, करषाँ रा अरमान।
    करषाँ रा अरमान, खेजड़ी ज्यूँ अमराई।
    सिर साँटै भी रूँख, बचाया इमरत बाई।
    कहै विज्ञ कविराय, माघ सी वाणी उपजै।
    मारवाड़ रा धीर, वीर मरुधर मैं निपजै।
    .


    मेवाड़ी अरमान री, मारवाड़ री आन।
    मरुधर माटी वीरताँ, कितराँ कराँ बखान।
    कितराँ कराँ बखान, धरा या सदा सपूती।
    रणवीराँ री धाक, बजी दिल्ली तक तूँती।
    कहे विज्ञ कविराय, बात पन्ना री जाड़ी।
    चेतक राणा मान, नमन मगराँ मेवाड़ी।


    देवा रा दर देवरा, लोक देवता थान।
    खनिज अजायब धारती, धरती राजस्थान।
    धरती राजस्थान, फिरंगी मान्यो लोहा।
    घटी मुगलिया शान, बिहारी सतसइ दोहा।
    कहै विज्ञ कविराय, कृष्ण मीरा री सेवा।
    मरुधर जनमै आय, लालसा करताँ देवा।


    मरुधर में नित नीपजै, मायड़ जाया पूत।
    बरदायी सा चंद कवि, पृथ्वीराज सपूत।
    पृथ्वीराज सपूत, हठी हम्मीर गजब का।
    दुर्गादास सुधीर, निभाये धर्म अजब का।
    कहे विज्ञ कविराय, ईश ही होवै हळथर।
    राणा सांगा वीर , जुझारू जावै मरुधर।


    हजरत री दरगाह मैं, छाई खूब सुवास।
    अजयमेरु गढ बीठळी, पुष्कर ब्रह्मा वास।
    पुष्कर ब्रह्मा वास, बैल नागौरी गायाँ।
    जैपर शहर गुलाब, गजब ढूँढा री माया।
    कहै विज्ञ कविराय, भरतपुर नामी हसरत।
    लोहागढ़ दे मात, फिरंगी मुगलइ हजरत।


    जिद्दी हाड़ौती बड़ी, वाँगड़ बाँसै मेह।
    बीकाणै जोधावणै , ढोळा मारू नेह।
    ढोळा मारू नेह, कथा चालै ब्रज ताँणी।
    मेवाती सरनाम, लटक आवै हरियाणी।
    कहे विज्ञ कविराय, संत भी पावै सिद्धी।
    आन बान की बात, मिनख हो जावै जिद्दी।
    . ?

    १०
    बप्पा रावळ री जमीं, चौहानी वै ठाट।
    राठौड़ी ऐंठाँ घणी, शेखावत, तँवराट।
    शेखावत, तँवराट, नरूका और कछावा।
    जाट राज परिवार, दिये दिल्ली तक धावा।
    गुर्जर मीणा वैश्य, ब्राहमन, माळी ठप्पा।
    सात समाजी नेह, निभाया दादा बप्पा।

    ११
    बागा, साफा पाग री, ऊँची राखण रीत।
    नेह प्रीत मनुहार मैं, भळी निभावण मीत।
    भळी निभावण मीत, मूँछ री बाँक गुमानी।
    सादा जीवन वेश, बोल बोलै मर्दानी।
    कहे विज्ञ कविराय, नमन संतन् रै पागाँ।
    अलबेळा नर नारि, मोर कोयळड़ी बागां।
    .

    १२
    किल्ला गर्व चितोड़ रा, कुंभळगढ़ सनमान।
    लोहा गढ़ जाळोर गढ़, तारागढ़ महरान।
    तारा गढ महरान, किला छै घणाइ ळूँठा।
    हवा महळ सा महळ, डीग रा महळ अनूठा।
    कहे विज्ञ कविराय, फूटरा गाँवा जिल्ला।
    मंदिर झीलाँ महळ, हवेळी माणस किल्ला।
    .

    १३
    आबू दिळवाड़ै चढै, ऊपर मंदिर चीळ।
    पचपदरै डिडवाणियै, खारी साँभर झीळ।
    खारी साँभर झीळ, उदयपुर झीळाँ नगरी।
    बैराठी अवशेष, सभ्यता काळी बँग री।
    कहे विज्ञ कविराय, करै दुश्मन नै काबू।
    रजपूती उत्पत्ति, चार पर्वत यग आबू।

    १४
    बात कहानी सभ्यता, देख नोह बागोर।
    पुष्कर संग अरावळी, दौसा गढ़ राजौर।
    दौसा गढ़ राजौर, ओसियाँ आभानेरी।
    पाटण, भाण्डारेज, विराठी कृष्णा चेरी।
    कहै विज्ञ कविराय, भानगढ़ रात रुहाणी।
    सरस्वती मरु रेत, सिन्धु री बात कहाणी।
    .

    १५
    कोटा मेळा लोहगढ़ , मेळा और अनेक।
    लक्खी रामा पीर सा, भिन्न जिलै सब एक।
    भिन्न जिलै सब एक, घणा चरवाहा जंगळ।
    हेला ख्याल सुगीत, प्रीत रा सुड्डा दंगळ।
    कहै विज्ञ कविराय, पुजै बालाजी घोटा।
    शिक्षा क्षेत्र अनूप, नामची पत्थर कोटा।

    १६
    नदियाँ बरसाती घणी, कम ही बरसै मेह।
    चम्बळ, माही सोम रो, बहवै सरस सनेह।
    बहवै सरस सनेह, घणैई बांध बणाया।
    टाँका नाड़ी खोद , बावड़ी कूप खुदाया।
    कहे विज्ञ कविराय, बीत गी जीवट सदियाँ।
    नहर बणै वरदान, जुड़ै जब सावट नदियाँ।

    १७
    बाताँ राजस्थान री, और लिखे इण हाल।
    जैड़ी उपजी सो लिखी, शर्मा बाबू लाल।
    शर्मा बाबू लाल, जिला दौसा मैं रहवै।
    सिकन्दरो छै गाँव, छंद कुण्डलिया कहवै।
    राजस्थानी मान, विदेशी पंछी आता।
    ढूँढाड़ी सम्मान, कथी मायड़ री बाताँ।

    ✍✍©
    बाबू लाल शर्मा विज्ञ
    बौहरा -भवन
    वरिष्ठ अध्यापक
    सिकंदरा, ३०३३२६
    दौसा,राजस्थान ९७८२९२४४७९