Category: हिंदी कविता

  • हाइकु मंजूषा-पद्म मुख पंडा स्वार्थी

    हाइकु मंजूषा-पद्म मुख पंडा स्वार्थी

    हाइकु मंजूषा

    हाइकु

    1
    चल रही है
    चुनावी हलचल
    प्रजा से छल

    2

    भरोसा टूटा
    किसे करें भरोसा
    सबने लूटा

    3

    शासन तंत्र
    बदलेगी जनता
    हक बनता

    4

    धन लोलूप
    नेता हो गए सब
    अब विद्रूप

    5

    मंडरा रहा
    भविष्य का खतरा
    चुनौती भरा

    6

    खल चरित्र
    जीवन रंगमंच
    न रहे मित्र

    7

    प्यासी वसुधा
    जो शान्त करती है
    सबकी क्षुधा

    8

    नदी बनाओ
    जल संरक्षण का
    वादा निभाओ

    9

    गरीब लोग
    निहारते गगन
    नोट बरसे

    10

    आर्थिक मंदी
    किसकी विफलता
    दुःखी जनता.

    11

    विरासत में

    जो हासिल है हमें
    उच्च संस्कार

    12

    यह गरिमा
    रखें संभालकर
    बनें उदार!

    13

    आज जरूरी
    प्रेम पुनर्स्थापना
    उमड़े प्यार!

    14

    हंसी ख़ुशी से
    जीने का तो सबको
    है अधिकार!

    15

    बिक रहे हैं
    देश के धरोहर
    खबरदार!

    16

    मैं हूं देहाती
    छल छद्म रचना
    है नहीं आती

    17

    देहात चलें
    लोगों से करें हम
    मन की बात

    18

    होने वाले हैं
    पंचायत चुनाव
    न हो तनाव

    19

    प्रतिनिधित्व
    रुपयों की कमाई
    साफ़ व्यक्तित्व

    20

    किस तरह
    पटरी पर आए
    बाज़ार दर

    21

    जनता चाहे
    सुखद अहसास
    पूर्ण विकास

    22

    बन्धु भावना
    पुनः हो स्थापित तो
    देश हित में

    23

    हे प्रभाकर
    तिमिर विनाशक
    रहो प्रखर

    25

    गगन पर
    छाए हुए बादल
    छू दिवाकर

    26

    नभ के तारे
    बिखेरते सुगन्ध
    कितने प्यारे

    27

    पूर्णिमा रात
    कितनी मो द म यी
    निशा की बात

    28

    प्रेमी युगल
    आनन्द सराबोर
    हसीन पल

    29

    आ गई सर्दी
    बदला है मौसम
    खुश कर दी

    30

    प्रिय वचन
    सुनकर प्रसन्न
    सबका मन

    पद्म मुख पंडा स्वार्थी

  • जीवन के झंझावातों में श्रमिक बन जाते है

    जीवन के झंझावातों में श्रमिक बन जाते है

    बाल श्रम निषेध दिवस

    जीवन के झंझावातों में श्रमिक बन जाते है

    नन्ही नन्ही कोमल काया
    निज स्वेद बहाते हैं।
    जीवन के झंझावातों में,
    श्रमिक  बन जाते है।
    हाथ खिलौने वाले  देखो,
    ईंटों को झेल रहे।
    नसीब नहीं किताबें इनको
    मिट्टी से खेल रहे
    कठिन मेहनत करते है तब
    दो रोटी पाते है।
    जीवन के—–
    गरीबी अशिक्षा के चलते,
    जीवन दूभर होता
    तपा ईंट भठ्ठे में जीवन
    बचपन कुंदन होता
    सपने सारे दृग जल होते
    यौवन मुरझाते है।
    जीवन के—–
    ज्वाल भूख की धधक रही है
    घर घर  हाँडी खाली
    भूख भूख आवाज लगाती,
    उदर बना है सवाली
    मजबूरी की दास्ताँ  कहती
    बाल श्रमिक मुस्काते हैं।
    सुधा शर्मा
    राजिम, छत्तीसगढ़
    31-5-2019

    कविता बहार से जुड़ने के लिये धन्यवाद

  • राह निहारूं माई- सन्त राम सलाम

    राह निहारूं माई- सन्त राम सलाम

    यहाँ मान पर हिंदी कविता लिखी गयी है .माँ वह है जो हमें जन्म देने के साथ ही हमारा लालन-पालन भी करती हैं। माँ के इस रिश्तें को दुनियां में सबसे ज्यादा सम्मान दिया जाता है।

    राह निहारूं माई- सन्त राम सलाम

    राह निहारूं माई – सन्त राम सलाम


    सांझ सबेरे तेरी,,,,,,,,
    राह निहारूं माई,,,,,,,,,
    मुझे छोड़-छोड़ मां तू, कहां चली जाती है।

    पलना कठोर भारी,,,,,,,
    लगता बड़ा जोर है,,,,,,,,,,,
    रोज-रोज आते ही मुझे, बांहों में ऊठाती है।

    भूख लगती जोर से,,,,,,
    तब दूध तू पिलाती है,,,,,,,,,,
    मुन्ना राजा चुप हो जा, लोरी जो सुनाती है।

    चंदा मामा दूध के,,,,,,,,
    कटोरा ले कर आएगा,,,,,,,,,,
    मेरे मम्मी रात-रात ,कहानी को बताती है।

    मेरा मुन्ना राजा बेटा,,,,,,,,
    दुलार बहुत जताती है,,,,,,,,,,
    थोड़ी सी गुस्सैल ,थोड़ी-थोडी मुस्कराती है।

    निन्दिया आंखों में मेरे,,,,,,,
    जब आके बस जाती हैं,,,,,,,,,
    जागी-जागी बैठी-बैठी ,रात तू पहाती है।

    माई तेरी आंचल प्यारी,,,,,,,,
    धरती से बहुत भारी है,,,,,,,,,,,,
    नौ माहीने कोख में रखे ,पल-पल गुजारी है।

    सांझ सबेरे तेरी,,,,,,,,,,
    राह निहारूं माई,,,,,,,,,,
    मुझे छोड़-छोड़ मां तू ,कहां चली जाती है।

    सन्त राम सलाम
    भैंसबोड़ (बालोद), छत्तीसगढ़।

  • जन-जन करोड़ों की मधुर मुसकान चाचा नेहरू /सुनील श्रीवास्तव ‘श्री’

    जन-जन करोड़ों की मधुर मुसकान चाचा नेहरू /सुनील श्रीवास्तव ‘श्री’

    भारत के पहले प्रधान मंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू को बच्चे प्यार से ‘चाचा नेहरू’ भी कहते हैं। जवाहरलाल नेहरू का मानना ​​था कि बच्चे किसी भी समाज की मूल नींव होते हैं, इसलिए उनका पालन-पोषण उपयुक्त वातावरण में किया जाना चाहिए और पंडित जवाहरलाल नेहरू की जयंती के उपलक्ष्य में हर साल 14 नवंबर को बाल दिवस मनाया जाता है।

    जन-जन करोड़ों की मधुर मुसकान चाचा नेहरू /सुनील श्रीवास्तव 'श्री'

    जन-जन करोड़ों की मधुर मुसकान चाचा नेहरू /सुनील श्रीवास्तव ‘श्री’

    बच्चों के चाचा नेहरू इन्सान ही तो थे

    जन-जन करोड़ों की मधुर मुसकान भी तो थे

    गांधी-टोपी और कोट पहचान थी उनकी

    महके हुए गुलाब-सी मुसकान थी उनकी

    भारतीय जनतंत्र के प्रथम प्रधान भी तो थे । जन-जन …

    दौलत की चकाचौंध से कोसों रहे वो दूर

    जन-जन समाज जोड़ने से हो गए मशहूर

    गांधी के दाएँ हाथ की कमान भी तो थे । जन-जन ….

    शांति के पुकारी औ’ बच्चों के प्यारे थे

    लाखों देशवासियों की आँखों के तारे थे

    गुटनिरपेक्षता व पंचशील की वे जान भी तो थे । जन-जन …

    मोतीलाल के लाल सचमुच थे कमाल

    लेखन के क्षेत्र में भी कर दिया धमाल

    ‘डिस्कवरी ऑफ इंडिया’ की शान भी तो थे । जन-जन ….

    आजादी की लड़ाई में न इनका जवाब था

    शोलों की धधक में भी हिमानी मिजाज था

    गाँधी की अहिंसा की पहचान भी तो थे । जन-जन …

    जनता को रोजी-रोटी औ’ शिक्षा दिला सके

    ये और बात है कि हम तिब्बत ना पा सके

    ये देश-दुनिया की उच्च मचान भी तो थे । जन-जन …

    हँसमुख स्वरूप उनका क्या भुला सकेंगे हम ?

    अफसोस भी तो है उन्हें न पा सकेंगे हम

    भगवान् की इच्छा के निगेबहान भी तो थे । जन-जन …

  • आँख खुलने लगी / नीलम

    आँख खुलने लगी / नीलम

    आँख खुलने लगी/ नीलम

    chandani raat

    आँख खुलने लगी/ नीलम

    रात के पिछले पहर में
    शीत की ठंडी लहर में
    कोहरे की चादर ओढ़े
    सो रहे थे चाँद-तारे

    धीरे -धीरे धरा सरकती
    जा पहुँची प्राची के द्वारे
    थरथराती ठंड से सिकुड़ती
    थपथपा खुलवा रही थी द्वार

    उषा ने धीमें से झांका झिरी से
    फिर हौले से खोले द्वार
    पहचान पृथा को थोड़ा सा
    किया स्वागत उजास

    फिर हौले से रवि की चादर
    हल्के हल्के सरकाने लगी
    किरणों के कर-पग धुलवाने लगी
    आँखे मलते-मलते फिर
    सूरज बाहर निकल पड़ा
    चाँद-सितारों को भेज
    धरती को ताप देने लगा

    जरा जरा सी उष्मा पाकर
    अंगड़ाई ले प्रकृति जागने लगी
    हर तरफ सोई धरा की
    *आँख खुलने* लगी

    फैलने लगा प्रातः का उजियारा
    नवजीवन का ले संदेश
    नहीं स्थिर है सब की गति अशेष

    रात जितनी भी अंधेरी
    सर्द -जर्द से जकड़ी
    पर उजाले की किरण
    उसमें ही है छिपी कहीं

    वैसे ही मन कितना ही सुप्त रहे
    वक्त आने पर फिर उसकी भी आँख खुले।

            डा.नीलम.अजमेर