ईश्वर की दी हुई धरोहर हम जला रहे हैं लगा के आग पर्यावरण दूषित कर रहे हैं काटे जा रहे हैं पेड़ जंगलों के, सुखा के इन्सान खुश हो रहा है आते – जाते मौसम बिगाड़ रहा है
हरी- भरी भूमि में निरंतर रसायन मिला रहा है अपने ही उपजाऊ भूमि को बंजर कर रहा है धरती को आग लगा रहा है जीवन बुझा रहा है।
हवाओं का रुख न रहा, मेघ, बरखा सब बदल रहा फसलों को अब कीट पतंगे चुनते हैं, उसपर रेशा- रेशा बुनते हैं अब खो गए सब वन सारे, जब धरती पे फूटे अँगारे अब चारों तरफ है गर्मी, रिमझिम कहाँ है बूँदों में?
धरती करे पुकार मानव से मुझे न छेड़ो तुम इंसान बढ़ता जाता ताप हमारा क्यों काटते पेड़ हमारा पेड़ काट रहा तू इंसान जलती धरती सूखे नलकूप सूरज भी आग बरसाए बादल भी न पानी लाये मत उजाड़ो मेरा संसार धरती का बस यही पुकार मै रूठी तो जग रूठेंगा मेरे सब्र का बांध टूटेगा भूकंप बाढ़ क़ो सहना पड़ेगा सुंदर बाग बगीचे मेरे हे मानव सब काम आएंगे मेरे साथ अन्याय करोगे सह न पाओगे बिपदा तुम बड़े बड़े महलो क़ो बनाकर न डालो तुम मुझपर भार पेड़ो क़ो तुम नष्ट करके तुम उजाड़े मेरा संसार l