Category: हिंदी कविता

  • मुसाफिर हैं हम जीवन पथ के

    मुसाफिर हैं हम जीवन पथ के

    मुसाफिर हैं हम जीवन पथ के

    मुसाफिर हैं हम जीवन पथ के
    राहें सबकी अलग-अलग
    धूप-छांव पथ के साथी हैं
    मंज़िल की है सबको ललक।

    राही हैं संघर्ष शील सब
    दामन में प्यार हो चाहे कसक
    पीड़ा के शोलों में है कोई
    कोई पा जाता खुशियों का फलक।

    मुसाफिर हूँ मैं उस डगर की
    काँटों पर जो नित रोज चला
    मधुऋतु हो या निदाघ, पावस
    कुसुम सदा काँटों में खिला।

    संघर्ष ही मुसाफिर की जीवन तान
    अंतर्मन बेचैन हो चाहे
    जिजीविषा प्रचंड बलवान।
    अनुकूल समय की आशा ही
    पथिक के कंटक पथ की शान।

    जीवन पथ के अनजान मुसाफिर
    झंझा से नित टकराते हैं
    नैया बिन पतवार हो गर तो
    भंवर में भी राह बनाते हैं।

      गर्त हैं अनजानी राहों में कई
    चुनौतियों के भी शिखर खड़े हैं
    मुसाफिर असमंजस में होता है
    तमन्नाओं के भी महल बड़े हैं।

    जीवन पथ संग्राम सा भीषण
    उल्फत नहीं उदासी है
    मृगतृष्णा का मंजर मरु में
    मुसाफिर की रूह भी प्यासी  है।

    सुख दुख में समभावी बनकर
    राही को मंज़िल मिलती है
    अदम्य साहस है नींव विजय की
    अमावस्या भी धवल बनती है।

    मुसाफ़िर हूँ मैं अजब अलबेली
    हिम्मत शूलों पर चलने की
    पथरीले पथ पर लक्ष्य है कुसुम का
    नैराश्य त्राण को हरने की।

    कुसुम लता पुंडोरा

  • स्वालंबन पर कविता

    स्वालंबन पर कविता

    स्वालंबन पर कविता

    स्वालंबन है जीवन अवलंबन
    बिन स्वावलंब जीवन है बंधन
    स्वावलंबन ही है आत्मनिर्भरता
    बिन इसके जीवन दीप न जलता।

    स्वालंबन जग में पहचान कराता
    शिक्षा का सदुपयोग सिखाता
    निराशा में भी आशा भरता
    ऊसर में भी प्रसून खिलाता।

    अपना दीपक स्वयं बनो
    स्वालंबन ही है सिखलाता
    जीने का दृष्टिकोण बदलना
    स्वालंबी है कर दिखलाता।

    स्वालंबन है आत्म अवलंबन
    आत्म अवलंबन जब आता है
    तो आत्मसम्मान जाग जाता है
    आत्मावलंबी स्वयं ही सारे अभाव मिटाता है
    नहीं ताकता मुँह किसी का
    सम्मान की रोटी खाता है।

    स्वालंबन की भूख ही जीवन सफल बनाती है
    परालंबन का यह कलंक मिटाती  है
    स्वालंबन से सुख न मिले तो क्या
    स्वात्मा खुशी से तो इठलाती है।

    परावलंबी की आत्मा स्वप्न में भी न सुख पाती है
    स्वालंबन भले बुरे का भेद मिटाती है
    आत्मसम्मान जगता है जब
    आत्मा हर्षित हो जाती है।

    स्वालंबन का पथ ही सत्य संकल्प है
    आत्मसम्मान से जीने का न कोई विकल्प है
    स्वालंबन पर न्योछावर कुबेर का खजाना है
    स्वालंबन को सबने जीवन रेखा माना है।

    स्वालंबन के आनंद का न कोई अंत है
    स्वालंबन का सुख दिग दिगंत है
    अपना हाथ जगन्नाथ हो कुसुम तो
    पतझड़ भी लगता वसंत है।

    कुसुम लता पुंडोरा

  • नई उम्मीदें पर कविता

    नई उम्मीदें पर कविता

    नई उम्मीदें पर कविता

    मन में आशा के दीप जला
    जीवन पथ पर बढ़ना है,
    उम्मीदें ही जीवन की पूंजी
    नया आसमान हमें पाना है।

    नई उम्मीदें पर कविता

    नई उम्मीदें संजीवनी जीवन की
    सकारात्मक सोच जगाती हैं
    पथ प्रदर्शक है मनुज की
    हौंसले बुलंद बनाती है।

    बिन उम्मीद मंजिल नहीं दिखती
    राही पथभ्रष्ट हो जाता है
    उम्मीदों का यदि दामन छोड़ा
    नैराश्य भाव ही पाता है।

    पथरीला हो पथ कितना भी
    उम्मीद का दीप नित जलता रहे
    बिन पाथेय भी संभव पथ हो
    पथिक का साहस बना रहे।

    नई उम्मीदें ही जीवन परिभाषा
    उम्मीदें ही जीवन ज्योति है
    उम्मीदों से विजय संभव है
    उम्मीदें ही नया आसमान संजोती है।

    मन का गहन तम हटाकर
    निराशा के दीप बुझाएँ
    करो खुद को बुलंद इतना
    उम्मीदों के नव दीप जलाएँ।

    उम्मीदें जीवन में स्फूर्ति लाती
    कर्मण्येवाधिकारस्ते का भाव जगाती
    मा फलेषुकदाचन: से
    पराजित को भी जयी बनाती।

    विघ्न, बाधाएँ, आँधी,झंझावात
    राहों में मिल ही जाते हैं
    उम्मीदें मन में गर अडिग हों
    गंतव्य हासिल हो जाते हैं।

    निराशा का रंचमात्र भी
    चित्त में न उदगार रहे
    सुख दुख जीवन के दो पहिए
    उम्मीदों का नभ आबाद रहे।

    उम्मीदें ही सफलता का संबल
    जीवन चक्र चलता ही रहे
    नया आसमान मिल ही जाएगा
    राही का आत्मबल बना रहे।

    कुसुम लता पुंडोरा

  • मुसाफिर ज़िंदगी का

    मुसाफिर ज़िंदगी का

    मुसाफिर ज़िंदगी का

    दु:ख; दमन को भ्रमण करूँ दुनिया            
    अरे ! सृष्टि में यह दर-दर है।
    चलता हूं बनकर मुसाफिर
    कण्टकों से मार्ग भर।                     

    कण्टकों से सीखा जीना
    दर्द दे जीना सिखाया।

    जीकर मरता? मरकर जीता?
    जीता ही; या मरता ही?

    मदिरापान कर मर जाऊं मैं;
    मदिरा पीकर जी उठता।

    मदिरा का मैं पान करूं या
    पान करे मदिरा मेरा?
    कंगाल करे मदिरा मुझको या
    मदिरालय कंगाल करूँ मैं?

    तीव्र गति यह चलती दुनिया
    या स्वयं मैं पंगु हूं?                              
    दुनिया के ‘तम’ में जीता हूं                       
    या तम मुझमें ही जीता?

    भ्रांत दुनिया या पथिक ही
    भ्रांत हूं मैं इस जग में?

    चले बयार मन्थर-मन्थर;         
    विष लिए? सौरभ लिए?
    कवि हृदय कहता है ‘सौरभ’
    मैं तो कहता विष धरे।
    रूप जो विकराल हों
    वृक्ष इसके शत्रु हों;
    वृक्ष को ऐसे झकझोरे
    जब तक अंतिम श्वांस न ले।

    ईश्वर तेरा दास हूं मैं
    हुक्म तू दे मैं जान भी दूं।
    दानव हों या संन्यासी
    तुझको ही पूजे दुनिया।

    जीवन जीता दर्द में ये दुनिया
    मर जाऊंगा हँस देगी।

    -कीर्ति जायसवाल
    प्रयागराज

  • नयी सुबह पर कविता

    नयी सुबह पर कविता

    नयी सुबह पर कविता

    जिम्मेदारीयों को
    कंधो पर बिठाकर
    कुछ कुछ जरूरतें पूरी करता
    ख्वाहिशो को
    आलमारी में बंद करके
    गम छुपाकर
    चेहरे पर एक खामोश हंसी
    लाता ..
    सच मे नही है कोई शिकन
    मेरे माथे पर..
    क्योंकि
    बे-हिसाब उम्मीदो से
    भरे है जेब मेरे..
    और 
    अनगिनत ख़्वाब भी
    देखे थे पहले कभी..
    ओह !
    यह क्या ?
    दिन निकल गया 
    ये सब सोचते सोचते
    अंधेरे ने फैला दिया
    अपना साम्राज्य फिर से
    सच में रात हो गयी
    अब कमरे के
    किसी कोने मैं बैठकर
    सो जाऊँगा मैं..
    और
    इंतजार रहेगा
    फिर से एक
    नयी सुबह का
    शायद कुछ
    बदल जाये 
    इस उम्मीद के साथ ।

    कवि राहुल सेठ “राही”