Category: हिंदी कविता

  • चंदा मामा दूर हैं

    चंदा मामा दूर हैं

    चंदा मामा दूर हैं ,
      पर हम तो मजबूर है।
      कैसे आए पास में,
      हम लगे हैं यह ही प्रयास में

    हम जब भी आगे बढ़ते हैं,
    तुम आगे बढ़ जाते हो।
    रुककर देखें जब भी तुमको,
    तुम ऊपर चढ़ जाते हो।
    कभी तुम दिखते तुन्नक से,
    कभी तुम दिखते भरपूर हो।
    घटती-बढ़ती कलाओं में,
    अपने में रहते चूर हो।
    चंदा मामा दूर हैं ,
    पर हम तो मजबूर है।

    घेरे रहते हरदम तुमको,
    सैकड़ों तारे बनकर सिपाही। 
    हम तो अकेले रहे यहाँ पर,
    साथ नहीं मिलता कोई राही।
    तेरी लीला अजब निराली,
    तेरा अजब ही नूर है।
    हम तो यहाँ बहुत है छोटे,
    तुम.मील हजारों दूर है।
    चंदा मामा दूर है,
    पर हम तो मजबूर है।


    शिवशंकर के सिर पर रहते,
    कोई नहीं तुम्हें कुछ कहते।
    छोटे हो या बड़े यहाँ पर,
    राह ताकते यहाँ सब रहते।
    सबके प्यारे ,न्यारे मामा,
    तुम जग में मशहूर है।
    विनती  हम सभी की,
    पास आना तुम जरूर है।
    चंदा मामा दूर है,
    पर हम तो मजबूर है।
    कैसे आए पास में, हम लगे हैं यह ही प्रयास में।

    महेन्द्र कुमार गुदवारे बैतूल

  • मौत पर कविता

    मौत पर कविता

    जिस दिन पैदा हुआ
    उसी दिन
    लिख दिया गया था
    तेरे माथे पर मेरा नाम ।
    दिन, तिथि ,जगह सब तय था
    उसी दिन।
    हर कदम बढ़ रहा था तेरा
    मेरी तरफ।
    पल पल ,हर पल ।।
    तेरी निश्छल हँसी
    तेरा प्यारा बचपन देखकर
    तरस आता था मगर
    सत्य से दूर
    तू भागता ही गया
    ज्यों ज्यों तू करीब आ रहा था मेरे
    तेरी निश्छल हँसी को जकड़ता जा रहा था दर्प
    भूलता जा रहा था तू मुझे
    और मैं अटल सत्य।
    देख !देख!
    मैं करीब !बहुत करीब !
    आ गले लगा मुझे !
    समा मेरी आगोश में
    मेरी पकड़ में तुझे आना ही है
    अटल सत्य ।
    मैं अंत जिंदगी का ।
    मैं अंधकार हूँ ।
    मैं जहाँ से नहीं निकलती कोई गली ।
    कोई चौराहा  नहीं।
    न वहाँ कोई डर।
    बस वहाँ है समर्पण ।
    सब मुझे ।
    मैं वही मौत  हूँ।
    जहाँ से कुछ भी नहीं तेरे लिए
    फिर एक दिव्य प्रकाश
    और यह विस्तृत आकाश
    मैं वही सत्य हूँ।

    सुनील_गुप्ता केसला रोड सीतापुर

    सरगुजा छत्तीसगढ

  • तुमने पत्थर जो मारा

    तुमने पत्थर जो मारा

    चलो तुमने पत्थर जो मारा वो ठीक था।
    पर लहर जो क्षरण करती उसका क्या?

    पीर छूपाये फिरता है खलल बनकर तू,
    विराने में आह्ह गुनगुनाये उसका क्या?

    बेकार…कहना था तो नज़र ताने क्यों?
    गौर मुझ पे टकटकी लगाए उसका क्या?

    मेरी इज्जत…,मेरी आबरू क्या कम है?
    तो जो खुलकर बोली लगाए उसका क्या?

    मै कई बार रोया हूँ अख़बारों में,छपकर,
    मुझसा होके मुझपे सांप सा लेट गया,
    प्याले दूध परोसना था तुझे भूखों को,
    उन्हें उँगलियों पे नचाये उसका क्या?

    बड़ी वेदना देखी कोठे पर मैनें,शाम,
    भूखमरी मिटाने बिकती रोज अाबरू।
    अरे अपने को इंशा कहने वाले इंसान,
    भेडियों सा खाल चढ़ाये उसका क्या?

    बेनकाब होने के डर से,
    चेहरा जलाकर निकलती है वो।
    तूने ही तेजाब छलकाए थे,
    उसके रस्के कमर पे उसका क्या?

    चलो  तुमने पत्थर जो मारा वो ठीक था।
    पर लहर जो क्षरण करती उसका क्या?         

    *✍पुखराज “प्रॉज”*

  • वतन को नमन करता हूँ

    वतन को नमन करता हूँ

    भारत माँ की चरण धूलि,
    चंदन माथे धरता हूँ ।
    सपूत हूँ नाम वतन के ,
    जीवन अर्पण करता हूँ ।


    बहता शोणित यूँ रगों में,
    जलते अंगारों सा
    सिंधु प्रलय सा उठती लहरें,
    उर में ललकारों का
    सिंहनाद हूँकारें भरकर,
    शत्रुओं से नित लड़ता हूँ।


    माँ की कोख निहाल होती
    माटी का कर्ज चुकाता हूँ
    अस्मिता की रक्षा खातिर
    प्राणोत्सर्जन कर जाता हूँ
    मातृभूमि के परवाने बन,
    ज्वाल चिता पर जलता हूँ


    इस माटी की गंध में लिपटे
    जाने कितने कितने नाम
    राणा शिवा सावरकर जैसे
    है वतन के ये अभिमान
    राज गुरू चंद्रशेखर बन
    हँसकर फांसी चढ़ता हूँ


    बेड़ियों में जकड़ी माता
    जब जब अश्रु बहाती है
    सिसक उठती हैं सदियाँ
    बूँद बूँद कीमत चुकाती है
    बन राम कृष्ण अवतरित होता
    पीड़ा जगत की हरता हूँ


    युगों- युगों से चलती आई
    भारत की अमर कहानी
    जब -जब संकट आया भू पर
    बेटों ने दी है सदा कुर्बानी
    जन गण मन साँसों में समाहित
    वतन को नमन करता हूँ।


    सुधा शर्मा
    राजिम छत्तीसगढ़

  • नव सुर-दात्री

    नव सुर-दात्री,नव लय-दात्री
    नव – गान मयी,नव तान – मयी।


           देवी मैं हूँ  अति अज्ञानी
           नहीं है जग में   तुमसा  दानी
            माँ! दान दो नव अक्षरो  का
           माँ दान दो नवलय  स्वरो का


    जग- सृष्टा की मानस – कन्या
    बुद्धि दाता  न तुझसी अन्या।।


             शारदे! वागेश-  वीणा – धारणी
              भारती! भारत- सुतों की तारणी
              नव स्वर जगत में भर दे आज तू
               हम सभी को धन्य कर दे आज तू ।।

    ✍-कालिका प्रसाद सेमवाल