Category: हिंदी कविता

  • सेवा पर कविता

    सेवा पर कविता – मानक छत्तीसगढ़िया

    सेवा पर कविता
    HINDI KAVITA || हिंदी कविता

    ठंडी में गरीब को कपड़े दे दो,
    गर्मी में प्यासे को पानी।
    हर मौसम असहाय की सेवा,
    ऐसे बीते जवानी।।

    अशिक्षित को शिक्षित बना दो,
    कमजोर को बलशाली।
    भटके को सच राह दिखा दो,
    भीखारी को भी दानी।।

    दीन दुखियों को खुशियां दे दो,
    रोते को हंसी सारी।
    रोगी को आराम दिला दो,
    हो ऐसा कर्म कहानी।।

    प्रेम भाव का दीप जला दो ,
    बोलकर अमृत वाणी।
    मानव ही नहीं आपसे
    प्रेम करे हर प्राणी।।

    मानक छत्तीसगढ़िया

  • दीपक पर कविता

    नव्य आशा के दीप जले – मधु सिंघी

    नव्य आशा के दीप जले,
    उत्साह रूपी सुमन खिले।
    कौतुहल नवनीत जगाकर,
    नया साल लो फिर आया।

    मन के भेद मिटा करके,
    नयी उम्मीद जगा करके।
    संग नवीन पैगाम लेकर ,
    नया साल लो फिर आया।

    सबसे प्रीत जगा करके,
    सबको मीत बना करके।
    संग में सद्भावनाएँ लेकर ,
    नया साल लो फिर आया।

    मुट्ठी में भर सातों आसमान,
    रखके मन में पूरे अरमान।
    संग इंन्द्रधनुषी रंग  लेकर,
    नया साल लो फिर आया।

    मधु सिंघी
    नागप

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  • श्याम छलबलिया – केवरा यदु

    श्याम छलबलिया – केवरा यदु

    श्याम छलबलिया – केवरा यदु

    shri Krishna
    Shri Krishna

    श्याम छलबलिया कइसे भेज दिहे व पाती।
    तुम्हरे दरस बर तरसथे मोर आँखी।
    तुम्हरे दरस बर तरसथे मोर आँखी।।
    कान्हा रे कान्हा रे कान्हा रे कान्हा रे।
    ऊधो आइस पाती सुनाइस।
    पाती पढ़ पढ सखी ला सुनाईस।
    पाती सुन के


    पाती सुन के धड़कथे मोर छाती।।
    तुम्हरे दरस बर तरसथे मोर आँखी।।
    कान्हा रे कान्हा रे कान्हा रे कान्हा रे।।
    एक जिवरा कहिथे जहर मँय खातेंवं।
    श्याम के बिना जिनगी ले मुक्ति पातेंवं
    एक जिवरा कहिथे


    एक  जिवरा कहिथे मँय देहूँ काशी।।
    तुम्हरे दरस बर तरसथे मोर आँखी।।
    कान्हा रे कान्हा रे कान्हा रे कान्हा रे।।
    जिवरा कहिथे श्याम बन बन खोजँवं।
    बइठ कदम  तर जी भर के रो लंव।
    जिवरा मोर कहिथे


    जिवरा मोर कहिथे लगा लेऊँ फांसी।
    तुम्हरे दरस बर तरसथे मोर आँखी।।
    कान्हा रे कान्हा रे कान्हा रे कान्हा रे।।
    मन मोर दस बीस नइहे कान्हा
    साँस के ड़ोरी बंधे तोरे संग कान्हा।
    जियत नहीं पाहू


    जियत नहीं पाहू  मोला दे देहू माफी।।
    तुम्हरे दरस बर तरसथे मोर आँखी।।
    तुम्हरे दरस बर तरसथे मोर आँखी।।
    कान्हा रे कान्हा रे कान्हा रे कान्हा रे।।
    श्याम छलबलिया कइसे भेज दिहेव पाती।
    तुम्हरे दरस बर तरसथे मोर आँखी
    तुम्हरे दरस बर तरसथे मोर आँखी
    कान्हा रे कान्हा रे कान्हा रे कान्हा रे


    केवरा यदु “मीरा”

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  • भ्रूण हत्या पर कविता

    भ्रूण हत्या पर कविता

    भ्रूण हत्या का मचा एक नीरव रोर है,
    चोरी छिपे लिंग जाँच हर दिशा हर ओर है।
    जाने क्यों बेटी की हत्या का शौक ये चढ़ आया,
    गर्भ में ही भेदभाव का ये कृत्य सबको भाया।


    अपने ही कोख के अंश का माँ गला घोंट देती है,
    लिंग जाँच में बेटा हो तो हत्या रोक लेती है,
    लड़की के आने की खबर आहत उसे कर जाती है,
    माता -पिता दोनों की आत्मा अति व्याकुल हो जाती है।


    जब तक भ्रूण  मिटा न डाला नींद उन्हें नहीं आती है,
    चंद स्वार्थों की खातिर रक़्तिम हत्या की जाती है,
    बेचारी लड़की गर्भ में गिड़गिड़ाती है,
    माँ तू मुझे दुनिया में क्यों नहीं आने देती है।


    माँ मुझको भी दुनिया में आने दे माँ,
    बस एक बार कली से फूल बन जाने दे माँ,
    लड़का-लड़की एक समान है ये सोच तू भी अपना ले माँ,
    मत कर कोख में मेरी हत्या,
    अस्तित्व मुझे पा जाने दे माँ।


    हर माँ यदि लड़की न चाहे,
    दुनिया भला चल पाएगी?
    सिर्फ पुरुषों से क्या जग चलता है?
    कब हर माँ यह समझ पाएगी,
    लड़की भावी नारी बनकर
    जीवन में मधुरस भरती है माँ
    जन्मदात्री है मानव की, सर्वस्व समर्पित करती है माँ।


    माँ तू भी नारी मैं भी भावी नारी,
    फिर कैसी है ये लाचारी,
    भ्रूण हत्या नहीं रुकी तो
    नारी विहीन होगी वसुधा हमारी।


    नाम- कुसुम लता पुंडोरा

  • जब लेखनी मुँह खोलती है

    जब लेखनी मुँह खोलती है

    जिंदगी में कुछ अपनो के किस्से खास होते हैं
    छलते हैं वे ही हमें जो दिल के पास होते हैं।
    वंचना भी करते हैं
    फिर भी खुशी की आस होते हैं
    लहरों के नर्तन में नाविक का विश्वास होते हैं।


    न जाने क्यों फिर भी हम उनके साथ होते हैं
    वे ही हमारी सुबह शाम और रात होते हैं।
    उनकी आँखों में उल्फत का न कोई नाम होता है
    फिर भी उन्हीं के नाम हर साकी और जाम होता है।
    उनके सितम आह भरकर झेल जाते हैं
    न जाने लोग जज्ब़ातों से कैसे खेल जाते हैं।


    संवेदना के नाम पर गैरत की चाल चलते हैं
    बेगानों से वह प्यार का मसीहा बनकर मिलते हैं।
    आंधी,तूफान,आपदा उनकी नफ़रत से भी हल्के लगते हैं
    हमारे बिना महफ़िल में उनके खूब ठहाके लगते हैं।
    बिना प्यार जीवन सूना किताबी बातें लगती हैं,
    अपनों के बिना ही रस्म रिवाजों की शामें ढलती हैं।


    तीज त्योहार सूने खुद ही मनाने पड़ते हैं
    मुट्ठी में नमक लिए फिरते हैं लोग
    ज़ख्म छुपाने पड़ते हैं।
    लवों पर हँसी,रौनक जग को दिखानी पड़ती है
    खुद अपना हमसफर बनकर रीत निभानी पड़ती है।

    अपने गैर बन जाएं तो दुनिया वीरानी लगती है
    उनके बदलने की आशा बड़ी नादानी लगती है।
    रुख हवाओं का एक सा नहीं रहता
    झूठी तसल्ली लगती है
    पतझड़ मधुऋतु सी सुखद लगती
    जब लेखनी मुँह खोलती है।

    कुसुम