मुखौटा पर कविता
हां!
मैं मुखौटा।
मेरी ओट में
मुंह जो होता।
अंदर से रोकर
बाहर हंसाता भी हूं।
कभी कभी
होली के हुड़दंग में,
बच्चों को
डराता भी हूं।
मैं
छुपा लेता हूं।
मुखड़े की मक्कारियां।
आंखों की होश्यारियां।
और दिल की उद्गारियां।।
दो मुंहे सांपों का
एक चेहरा
मेरा ही तो है।
मैं ही
सामने वाली
नजरों के लिए
धोखा हूं।
और खुद
सामने वाले की
नज़रो से
बचने का मौका हूं।
हां..
हां मैं ही मुखौटा हूं।।
शिवराज चौहान
नांधा, रेवाड़ी
(हरियाणा)