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  • इंदुरानी की कवितायेँ

    कवयित्री इंदुरानी , स.अ, जूनियर हाईस्कूल, हरियाना, जोया,अमरोहा, उत्तर प्रदेश,244222 ,8192975925

    tiranga

    वह भारत देश कहलाता है

    है विविधताओं मे एक जहाँ,
    वह भारत देश कहलाता है।
    हिन्दु ,मुस्लिम, सिख ,ईसाई जहां, 
    आपस मे भाई-भाई का नाता है।
    जहाँ हाथों मे हाथ डाले सब झूमें,
    वहाँ तिरंगा नभ में लहराता है।


    मिल खिलाड़ी भिन्न-भिन्न  सब,
    विपरीत देश के छक्के छुड़ाता है।
    जहां हर धर्म, जात का सिपाही,
    अपनी जान पर भी खेल जाता है।
    भारत की गोली के आगे,
    दुश्मन भी टिक नही पाता है।
    समझ के जिसके संस्कृति को,
    विदेशी भी सर झुकाता है।।


    झूले सावन,मेले बैसाख,
    हर का मन को हर्षाता है।
    कन्या को देवी का रूप,
    नदियों को माँ कहा जाता है।
    रंग रूप बोली भाषा अनेक,
    जहाँ सभ्यता प्रेम सिखाता है।
    जहाँ प्रकृति और पत्थर भी
    सम्मान से पूजा जाता है।
    जहाँ का संविधान समता और, समानता की बात समझाता है।


    जहाँ का इतिहास सदा
    महापुरुषों की गाथा गाता है।
    सिर्फ भारतवासी ही नहीं
    ये जहाँ महानता दोहराता है।
    है विविधताओं में एक जहां,
    वह केवल भारत कहलाता है।

    बापू जी- कविता

    बापू जी ओ बापू जी
    बच्चों के प्यारे बापूजी।
    सत्य,अहिंसा,परमो धर्म
    राम पुजारी बापू जी।
    मात्र एक लाठी के बूते
    गोरों को हराया बापूजी।।

    असहयोग आंदोलन के साथी
    कर के सीखो,सिखलाया बापूजी।
    देख दुखिया भारत की हालत
    ना रह पाए थे बेचैन बापू जी।।

    त्याग, टोपी सूट-बूट को
    धोती पर आए बापू जी।
    देके सांसे भारत को अपनी
    दी मजबूती सबको बापूजी।।

    देखो नव भारत की दशा
    लो फिर से जन्म बापूजी।
    बाँट रहा कौन भेद भाव मे
    आकर समझाओ बापूजी।।

    राधे-बसंत

    नटखट नंदलाला,नैन विशाला,
    कैसो जादू कर डाला।
    फिरे बावरिया,राधा वृंदावन,
    हुआ मन बैरी मतवाला।।


    ले भागा मोरे हिय का चैना,
    वो सुंदर नैनो वाला।
    मोर मुकुट,पीताम्बर ओढ़े,
    कमल दल अधरों वाला।।


    अबके बसंत,ना दुख का अंत,
    बेचैन ह्रदय कर डाला।
    पल पल तड़पाती मुरली धुन,
    पतझड़ जीवन कर डाला।।


    कोयल की कूक,धरती का रूप,
    यूँ घाव सा है कर जाता।
    मेरो वो ताज,मनमुराद,मुरलीधर,
    बन कर बसंत आ जाता।।


    आमोंकी डाल,कालियोंकी साज,
    सब कुछ मन को भा जाता।
    फूलों की गंध,बयार बसंत,
    सोलह श्रृंगार बन जाता।।


    बाहों का हार करे इन्तजार,
    कान्हा फिर से आ जाता।
    सरसों के खेत,यादों की रेत,
    बाग बाग गीला हो जाता।।

    दुनिया का हर इंसान    

    दुनिया का हर इंसान,
        अपने मे है परेशान।
    बैठा ऊँची पोस्ट पर,
         पर खोता चैन अमान।।

    ढूढ़ता दूजे मे,
          चाहत का नया जहान।
    खोता सा है जाता,
          अपनी ही पहचान।।

    भरा पड़ा घर पूरा,
          फिर भी बाकी अरमान।
    तृषक चातक ज्यों,
           तके बदली हैरान।।

    रिजर्व हो गई दुनिया,
           नहीं एक दूजे से काम।
    बटँ गईं घर की दीवारें,
           दिलों मे पड़ी दरार।।

    जाने क्या ऐसा हो गया,
         नही किसी का कोई अहसान।
    औरों से गाँथे रिश्ते,
            सगों को दे फटकार।।

    गैरों से मुँह को  मिलाए,
             अपनो को दे तकरार।
    खोखले हो गए रिश्ते,
              अपनो से ही है अंजान।।

    फायदा इन्ही का उठा के,
           दुष्ट औ बिल्डर बना महान।
    तरस सी रही धरती,
             रोता सा आसमान।।

    नारी का जीवन

    बँधा पड़ा नारी का जीवन,
    सुबह से ले कर शाम।
    एक चेहरा किरदार बहुत,
    जिवन में नही विश्राम।।


    बेटी,बहन ,माँ और पत्नी,
    बन कर देती आराम।
    दिखती सहज,सरल पर,
    लेकिन होती नही आसान।।


    भले बीते दुविधा में जीवन,
    नही होती परेशान।
    ताल मेल हरदम बिठाती,
    बनती अमृत के समान।।


    परोपकार की देवी होती,
    करती नव जीवन दान।
    अनमोल उपहार ये घर का,
    प्रकृती का है वरदान।।

    नारी सशक्तिकरण      

    बन ऐसी तू धूल की आँधी,
    जिसमे सब कुछ उड़ जाए।

    तुझे तो क्या कोई तेरे चिर को,
    भी ना हाथ लगा पाए।

    अपने कोमल तन-मन पे तू,
    खुद ही कवच कोई धारण कर।

    शीश झुका कर करें नमन सब,
    जीवन तक न कोई पैठ बना पाए।

    बात करे कोई तुझे अदब से,
    निगाहें पर ना मिला पाए।

    भला करे तो कर ले पर वो,
    नुकसान की न सोच बना पाए।।

    नए भारत की नई तस्वीर दिखलाता है योग

    नए भारत की नई तस्वीर दिखलाता है योग,
    मन मस्तिष्क स्वस्थ रहे
    काया बने निरोग।
    समझें हम योग महत्व
    रहे दवाई दूर,
    आया दौर बढ़ने का 
    फिर पुरातन की ओर।।

    गली गली अब बज रहा
    योगा के ही ढोल,
    बच्चा बच्चा बोल रहा
    अब योगा के बोल।
    भारतीय सभ्यता में शामिल
    है ये स्वास्थ्य का मंत्र,
    आओ मिल कर जतन करें
    सीखें  इसके तंत्र।।

    इंदुरानी की कवितायेँ

    ✒इंदुरानी, अमरोहा,उत्तर प्रदेश

  • देवकरण गंडास अरविन्द की कवितायेँ

    यहाँ पर देवकरण गंडास अरविन्द की कवितायेँ दी जा रही हैं

    labour

    श्रमिक का सफर

    जब ढलता है दिन सब लौटते घर
    हर चेहरा कहां खुश होता है मगर,
    उसका रास्ता निहारती कुछ आंखें
    पर खाली हो हाथ तो कठिन डगर।
    ऐसा होता है श्रमिक का सफर…..

    उसने सारा दिन झेला धूप पसीना
    बना लिया है उसने खुद को पत्थर
    हाथ पांव बन गए हो जैसे लोहे के
    और काठ के जैसी बन गई कमर।
    ऐसा होता है श्रमिक का सफर….

    वह करता है दिलो जान से मेहनत
    वो सारा दिन ढोता है भार सर पर,
    पर सांझ ढले जब घर को चला वो
    उसके मन में आ जाता है एक डर।
    ऐसा होता है श्रमिक का सफर….

    पत्नी की अंखियां भी पथ को देखे
    और उसे ताक रही बच्चों की नजर,
    लिए हाथ फावड़ा , कंधे पर तगारी
    आज बिन राशन के कैसे जाए घर।
    ऐसा होता है श्रमिक का सफर…..

    वह ढूंढ रहा कोई रहबर मिले अब
    कैसी कठिन परीक्षा, ले रहा ईश्वर,
    कहीं से चंद पैसे मिल जाए उसको
    तो ही चूल्हा जलेगा उसके घर पर।
    ऐसा होता है श्रमिक का सफर…..

    पूछती है

    उलझन में डालकर उलझन का हल पूछती है,
    कमल से मिलकर कमल को कमल पूछती है,
    उसका यही अंदाज तो बेहद पसंद आया हमें,
    वो मिलकर आज से, कल को कल पूछती है।

    वह शबनम से, उस पानी का असर पूछती है,
    वो मरुस्थल में , उस मिट्टी से शजर पूछती है,
    वो खुद है तलाश में , किसी नखलिस्तान की,
    उसकी नजर में है नजर , पर नजर पूछती है।

    वो रहकर गगन में, आसमां की हद पूछती है,
    वो सूरज से उसकी किरणों की जद पूछती है,
    वो चली आई है बिना बताए मेरी सीमाओं में,
    और आकर मुझसे दिल की सरहद पूछती है।

    वो लड़की

    हर रोज मेरे पटल पर आकर
    थोड़ा बहुत कुछ कह जाती है
    कभी बातें करती बहुत सयानी
    कभी अल्हड़पन भर जाती है
    मेरे पटल पर आती वो लड़की
    मुझे बरबस ही खींचे जाती है।

    कभी लगता है उसे जानता हूं
    फिर वो अनजान बन जाती है
    जितना समझूं मैं उतना उलझूं
    वो भी सुलझाकर उलझाती है
    मेरे पटल पर आती वो लड़की
    मुझे बरबस ही खींचे जाती है।

    उसकी बातों में है चतुराई बहुत
    और सादगी भी वह दिखाती है
    मानस पटल पर आए प्रश्नों को
    कुशाग्र बुद्धि से वह मिटाती है
    मेरे पटल पर आती वो लड़की
    मुझे बरबस ही खींचे जाती है।

    भूख : एक दास्तान

    हमने तो केवल नाम सुना है
    हम ने कभी नहीं देखी भूख,
    जो चाहा खाया, फिर फैंका
    हम क्या जानें, है क्या भूख।

    पिता के पास पैसे थे बहुत
    अपने पास ना भटकी भूख,
    झुग्गी बस्ती, सड़क किनारे
    तंग गलियों में अटकी भूख।

    पढ़ ली परिभाषा पुस्तक में
    कि इतने पैसों से नीचे भूख,
    खाल से बाहर झांके हड्डियां
    रोज सैकड़ों आंखे मिचे भूख।

    बच्चों में बचा है अस्थि पंजर
    इनका मांस भी खा गई भूख,
    हमको क्या , हम तो जिंदा हैं
    भूख में भूख को खा गई भूख।

    सब जग बोलेगा जय श्री राम

    जन्म लिया प्रभु ने धरती पर
    तो यह धरती बनी सुख धाम,
    गर्व है, हम उस मिट्टी में खेले
    जहां अवतरित हुए प्रभु राम।

    राम नाम में सृष्टि है समाहित
    इस नाम में बसे हैं चारों धाम,
    हर संकट को झट से हर लेते
    सब मिल बोलो जय श्री राम।

    जिनकी मर्यादा एक शिखर है
    और पितृभक्ति का है गुणगान,
    हर कष्ट सहा पर मन ना डगा
    मेरे मन में बसते ऐसे श्री राम।

    सुख वैभव का उन्हें मोह नहीं
    दीन दुख हरण है उनका नाम,
    नाश किया उन्होंने अधम का
    धर्म संस्थापक हैं मेरे प्रभु राम।

    बस राम नाम के मैं गुण गाऊं
    उन्हें कोटि कोटि करूं प्रमाण,
    राम नाम ही तारेगा भवसागर
    सब जग बोलेगा जय श्री राम।

    जरूरी है देश

    देश के रखवालों को मार रहे हैं
    वो इस राष्ट्र में फैला रहें हैं द्वेष,
    अब तो जागो सत्ता के मालिक
    अभी धर्म तुच्छ, जरूरी है देश।

    होकर इकट्ठा बने रोग के वाहक
    क्यों आ रहे इनसे नरमी से पेश,
    अब बंद करवा दो सभी दुकानें
    अभी धर्म तुच्छ, जरूरी है देश।

    हर भारतवासी विनती कर रहा
    अब रोक लो, अभी समय शेष,
    ये मानव के दुश्मन ना समझेंगे
    अभी धर्म तुच्छ, जरूरी है देश।

    जब वतन में अमन आ जाएगा
    तो ओढ़ लेना तुम धर्म का भेष,
    अभी विपदा खड़ी समक्ष हमारे
    अभी धर्म तुच्छ, जरूरी है देश।

    पुनः विश्व गुरु बनेगा भारत

    हम पहले हुआ करते थे विश्वगुरु, हमारी ज्ञान पताका फहराती थी,
    सकल चराचर है परिवार हमारा , ये बात हवाएं भी गुनगुनाती थी।

    लेकिन आधुनिक बनते भारत ने, खो दिया है विश्व गुरु उपाधि को,
    हम बन गए अनुगामी पश्चिम के, पालने लगे हैं व्यर्थ की व्याधि को।

    हम भूल बैठे अपनी संस्कृति को, और पश्चिम के पीछे लटक गए ,
    दया, धर्म, ज्ञान और प्रकृति के, हम उद्देश्य से थे अपने भटक गए।

    पर आज लौट रहा है मेरा भारत, पुनः अपने मूल प्राचीन पथ पर,
    ये वैश्विक शांति का अगुवा बना, हो रहा विश्व गुरु पथ पर अग्रसर।

    आज विश्व की सब सभ्यताओं ने, हमारी संस्कृति को गुरु माना है,
    पश्चिम के देश चले पूरब की ओर, हमारी ओर देख रहा जमाना है।

    भारतीय ज्ञान, विज्ञान और योग को, आज हर राष्ट्र ने अपनाया है,

    गूंजेगा वसुधैव कुटुंबकम् नारा, आज विश्व ने भारत को बुलाया है।

    दो रोटी

    जर्जर सा बदन है, झुलसी काया,
    उस गरीब के घर ना पहुंची माया,
    उसके स्वेद के संग में रक्त बहा है
    तब जाकर वह दो रोटी घर लाया।

    हर सुबह निकलता नव आशा से,
    नहीं वह कभी विपदा से घबराया,
    वो खड़ा रहा तुफां में कश्ती थामे
    तब जाकर वह दो रोटी घर लाया।

    वो नहीं रखता एहसान किसी का,
    जो पाया, उसका दो गुना चुकाया,
    उस दर को सींचा है अपने लहू से
    तब जाकर वह दो रोटी घर लाया।

    उसकी इस जीवटता को देख कर
    वो परवरदिगार भी होगा शरमाया,
    पहले घर रोशन किए है जहान के
    तब जाकर वह दो रोटी घर लाया।

    क्या राम फिर से आएंगे

    तड़प उठी है नारी
    बन रही है पत्थर,
    दबा दिया है उसने
    अपने अरमानों को,
    छुपा लिया है उसने
    अपने मनोभावों को,
    वो जिंदा तो है मगर
    जीती नहीं जिंदा की तरह,
    जमाने की निष्ठुरता ने
    उसे बना दिया है अहिल्या,
    और आज वो इंतजार में है
    कि क्या राम फिर से आएंगे।

    त्रेता युग में उद्धार किया था
    राम ने श्रापित अहिल्या का,
    उस पत्थर में उसने डाला था
    नया प्राण नव जीवन का,
    मगर क्या इस कलयुग में भी
    होती शापित नारी को बचाएंगे,
    तार तार हो रही इस नारी को
    क्या वो भव सागर तार पाएंगे,
    हर गली चौराहे बैठे हैं रावण
    करने को हरण सीता का यहां,
    सुनकर नारी की करुण पुकार
    क्या सांत्वना उसे वो दे पाएंगे,
    सोच रही है पत्थर की अहिल्या
    कि क्या राम फिर से आएंगे।

    आओ मिलकर दीप जलाएं


    अगर दीप जलाना है हमको
    तो पहले प्रेम की बाती लाएं
    घी डालें उसमें राष्ट्र भक्ति का
    और राष्ट्र का गुण गान गाएं।
    आओ मिल कर दीप जलाएं

    जाति पांती वर्ग भेद भुलाकर
    हम हर मानव को गले लगाएं
    राष्ट्र में स्थापित हो समरसता
    हम हर पर्व साथ साथ मनाएं।
    आओ मिल कर दीप जलाएं।

    भुलाकर नफ़रत को अब हम
    दया, प्रेम और सौहार्द बढ़ाएं
    अमन, प्रेम और मानवता का
    हम इस जगत को पाठ पढ़ाएं।
    आओ मिल कर दीप जलाएं।

    दीन दुखी पिछड़े तबकों को
    हाथ पकड़ हम साथ में लाएं
    ना भूखा सोए एक मुसाफिर
    हम भूखे को खाना खिलाएं।
    आओ मिल कर दीप जलाएं।

    जब देश में कोई विपदा आए
    हम सब हाथ से हाथ मिलाएं
    सर्वस्व न्यौछावर करें राष्ट्र पर
    और राष्ट्र हित में जान लुटाएं।
    आओ मिल कर दीप जलाएं।

    नापाक ताकतें तोड़ेंगी हमको
    हम नहीं उनकी बातों में आएं
    हम हैं हिंद देश के हिन्दुस्तानी
    हिन्दुस्तान के रंग में रंग जाएं।
    आओ मिल कर दीप जलाएं।

    जीवन सफर

    सुन लो जीवन के मुसाफिर, यूं ना इसको बर्बाद करो,

    रंग भरो तुम अपने इसमें, औरों से नहीं फरियाद करो,

    लोग बड़े बेरहम यहां पर, तेरे जले पर नमक लगाएंगे

    अपने ज़ख्म आप संभालो, खुद को ख़ुद आबाद करो।

    दुनियां की यहां रीत निराली, ये तुमको आगे बढ़ाएंगे,

    जो तुम आगे बढ़ जाओगे, ये पांव खींचने लग जाएंगे,

    औरों का आगे बढ़ना, कभी बर्दाश्त नहीं ये कर सकते

    तुम्हें नीचे गिराने के चक्कर में, खुद नीचे गिरते जाएंगे।

    जीवन सफर अबूझ रहस्य, आगे क्या होगा ध्यान नहीं,

    आज को जी ले जी भर के, कोई शेष रहे अरमान नहीं,

    कल का सोच क्यों आज परेशान, कल किसने देखा है

    जीवन जिंदा लोगों का है, मर गए तो घर में स्थान नहीं।

    देवकरण गंडास अरविन्द की कवितायेँ

    ©️देवकरण गंडास “अरविन्द”

  • राजकुमार मसखरे की कवितायेँ

    राजकुमार मसखरे की कवितायेँ

    यहाँ पर राजकुमार मसखरे की कवितायेँ प्रकाशित की गयी हैं आप इन कविता को पढ़कर अपनी राय जरुर दें कि आपको कौन सी कविता अच्छी लगी.

    Hindi Poem ( KAVITA BAHAR)
    कविता संग्रह

    इन्हें पहचान !


    कितने राजनेताओं के सुपुत्र
    सरहद में जाने बना जवान !
    कितने नेता हैं करते किसानी
    ये सुन तुम न होना हैरान !
    बस फेकने, हाँकने में माहिर
    जनता को भिड़ाने में महान !
    भाषण में राशन देने वाले
    यही तो है असली शैतान !
    किसान के ही अधिकतर बेटे
    सुरक्षा में लगे हैं बंदूक तान !
    और खेतों में हैअन्न उपजाता
    कंधे में हल है इनकी शान !
    इन नेता जी के बेटों को देखो
    कई के ठेके,कीमती खदान !
    संगठन में हैं कितने काबिज़
    रंगदारी के हैं लाखों स्थान !
    बस ये नारा लगाते हैं फिरते
    जय जवान , जय किसान !
    किसान, मजदूर, जवान ही तो
    ये ही हैं धरती के भगवान !
    कुर्सी के लिए लड़ने वालों को
    हे मेहनतकशों !इन्हें पहचान!

    राजकुमार मसखरे

    बनावटी चेहरे पर कविता

    चेहरे पे लगे हैं कई चेहरे
    इन्हें पढ़ पाना आसान नहीं ,
    ये जो दिखती है मुस्कुराहटें
    वो नजरें हैं दूर , और कहीं !

    इतने सीधे सादे लगते हैं
    जो मुखौटा लगाए बैठे हैं,
    ये कई निर्बलों,असहायों के
    जज़्बातों के गला ऐंठे हैं !

    मासूम चेहरा, दिखते कई हैं
    भीतर ‘राज’ छुपा के रखते हैं,
    जब भी मौका मिले इन्हें तो
    सीधे-सीधे गरल उगलते हैं !

    सूरत पर मत जाओ यारों
    इनकी सीरत का पता लगाओ,
    न जानें ये कब रंग बदल दे
    फिर कालांतर में न पछताओ !

    — *राजकुमार मसखरे*

    विवाह: प्रश्नचिन्ह

    विवाह पर विभिन्न तरह के
    विवाद खड़े होते हैं,
    कहते हैं कई आबाद हुये
    तो कोई बरबाद !
    दहेज मिला, हुआ आबाद
    दिये दहेज,हुये बरबाद !
    लेकिन यथार्थ में
    एेसा नही होता —
    जो आबाद का जामा पहने हैं
    उनकी आवश्यकताएँ अनंत होती है,
    और मांग उपर मांग रखते हैं !
    नही मिलने पर /प्रताड़ना स्वरूप
    बहु जला दी जाती है या जल जाती है ,
    फिर कथित आबाद होने वालों की
    बरबादी की बारी आती है !
    दहेज देने वाले तो
    पहले ही बरबाद हैं ।
    कहीं कहीं ही इस आधुनिक विवाह में
    अपने पवित्र बंधन को निभा पाते हैं !
    नही तो इस बंधन से
    मुक्त होना चाहते हैं ।
    आज समाज पर यह
    प्रश्न चिन्ह खड़ा है !

        — राजकुमार मसखरे ??
                     मु.-भदेरा

    कवि जो ऐसे होते हैं

    कवि के हाथ मे है बाँसुरी
    जो मधुर स्वर प्रवाहित करता है ,
    आवश्यकता होने पर कवि
    युद्ध का शंखनाद वह भरता है !
    कवि साहित्य में अपनी कलम से
    समाज मे अमूलचूल परिवर्तन लाता है,
    धर्म,नीति,राजनीति,तथा उपदेश
    ये जो पास ठहर नही  पाता है !
    कवि जो होता बिलकुल मनमौजी
    जिस पर बाह्य नियत्रंण न होता है,
    फिर भी मर्यादाओं में बंध कर वो
    श्रेष्ठ मानव,प्रबुद्ध विचारक होता है !
    नैतिक,मौलिक,दार्शनिक मूल्यों का
    लेखन में बखूबी सामंजस्य पिरोता है,
    केवल मनोरंजन वह रचता नही
    उचित उपदेश का मर्म संजोता है !
          — राजकुमार मसखरे

    तू तो शेर है

    इंसान को कह दो कि
    तू तो शेर है
    फिर देखना उनकी बाजूओं में
    कितना जोर है !
    गर कह दो कि
    तू तो है जानवर
    फिर कह उठेगा
    तू तो गधा है
    समझे मान्यवर !
    अब जानवर मे
    समझना है फर्क
    इंसान होने का नाटक
    करते रहो तर्क-वितर्क !
    भई जानवर तो
    जानवर होता है
    पर नही कह सकते
    सभी इंसान
    इंसान भी होता है !
    अब पशु भी
    सभ्य-भद्र होने लगे
    कथित इंसान की
    इंसाननियत देख कर
    वे भी रोने लगे !
    मौका परस्त इंसान
    मौका देख कर रंग बदलता है
    और इधर ये पशु
    अपना रंग बदलता है
    न धर्म बदलता है
    न अपनों से जलता है !
    इंसान ये मूक,हिंसक पशु
    शेर कहलाना गर्व समझता है
    इधर मरियल सा भी कुत्ता
    रामु,मोती का होना
    उसे बहुत ‘अखरता’ है !     —- *राजकुमार मसखरे*

    नव वर्ष (चिंतन)

    मैने नव वर्ष का उत्सव,नही मनाया है
    और ये नव वर्ष क्या,समझ न आया है ,
    वही दिन वही रात, कुछ न अंतर पाया है
    मैने नव वर्ष का उत्सव नही मनाया है !

    न तुम बदले ,न हम बदले
    अब काहे को भरमाया है…..मैने…!

    गरीब की झोपड़ी बद से बदतर
    और भी ये उड़ आया है ………मैने…..!

    तेरा गुरूर और मेरा अहम्
    आज फिर से टकराया है …..मैने……!

    सत्य छोंड कर, झुठ प्रपंच को
    आज तुने फिर सिरजाया है….मैने…..!

    नैतिक जीवन जीने का,क्या सोचा
    क्या तुने कसम खाया है ……मैने……!

    न दुर्गूण त्यागे ,न सदगुण अपनाए
    बस मोह का जाल बिछाया है ……मैने…..!

    आकण्ठ में डूबे, भ्रष्टाचार का
    दूर हटाने,कोई कदम उठाया है….मैने……!

    राजनीति  से  नेता बने तुम
    राजधर्म कहाँ छोड़ आया है ….मैने……….!

    जल,जंगल,जमीन की करें  रक्षा
    क्या इस पर दीप जलाया है …..मैने……..!

    मैने नव वर्ष का उत्सव नही मनाया है .!!!!!

           —- राजकुमार मसखरे
                 मु. -भदेरा (पैलीमेटा-गंडई)
                 जि.-राजनांदगाँव,( छ. ग. )

    प्रश्न….?

    हे ! द्रोपदी
    अब कृष्ण नही आएंगे
    अपनी लाज बचाने
    स्वयं सुदर्शन चलाना होगा !
    हे सीते !
    अब राम नही आएंगे
    अपहरण के बदले
    स्वयं को धनुष चलाना होगा !
    हे ! निर्भया, हे प्रियंका…
    ये सरकार पर…
    ये न्यायालय पर
    ये पत्रकार पर…
    भरोसा मत कर.
    अब ‘बैंडिट क्वीन’ बन
    फैसले अपने हाथ में ले
    उतार दे गोली उस दरिंदे के सीने पर
    बीच चौराहे पर !!

    —- राजकुमार मसखरे

    संत बने जो नेता !

    बाबा,योगी,साध्वी संत
    साधु,त्यागी और महंत!

    पहले लगाये रहते थे ये ध्यान
    समाज सुधार,अध्यात्म महान !

    प्रवचन,भक्ति,योग और तपस्या
    हल करते थे,पीडितों की समस्या !

    हिमालय,कानन,कंदरा मे जाते
    शांति के खोज मे रमे ही पाते !

    आज ये कुछ रास्ता भटक गये
    माया-मोह के कुर्सी में अटक गये !

    शांति मिलती अब इन्हे वो सदन में
    नकली चोला,देखो डाले बदन में !

    कब कैसे मंत्री बनूूँ ,ये अब ताक रहे
    तभी विधानसभा,संसद को झाँक रहे!

    झोपड़ी से अब महल मे आसन लगाये
    प्रवचन छोड़,जनता को भाषण पिलाये!

    इनके पाँचों उँगली घी मे है मस्त
    जनता इनके कारनामों से है त्रस्त !

    तब ये क्या थे,अब क्या हो रहा देश मे
    साधु-संत सब देखो नकली वेष में !

    कहाँ हो भगवन अब आ भी जाओ
    इन बहुरूपियों को जरा होश मे लाओ !   

    राजकुमार मसखरे

    चलो विकास दिखाएँ !


    सड़कों का जाल बिछाएँ
    कृषि जमीन काट कर
    हम विकास बताएँ…………..
             चलो…….. !
    बड़े बड़े नहर सजाते रहें
    रास्ते मे आये घने पेड़ को
    काट,आरा मिल ले जाएँ…….
             चलो………..!
    समृद्धि के लिये भारीभरकम
    कारखाना,चिमनी लगा कर
    प्रदूषित जल नदी मे बहाएँ….
             चलो…………!
    फसल के उपर फसल हो
    मृत मृत हो मृदा फिर भी
    रसायनों का उपयोग कराएँ…
             चलो…………!
    जगह जगह हो मदिरालय
    कैसिनों हो या हुक्का बार
    हर गाँव गाँव लगवाएँ……….
              चलो…………!
    नलकूपों का हो भरमार
    पानी है आज सरल लगा
    चाहे कुएँ,तालाब सूख जाएं…
             चलो……………!
    जगमग बिजली,डी.जे.धुन
    ग्लोबल वार्मिंग को भूल कर
    थिरक थिरक नाच कर जाएँ..
             चलो विकास दिखाएँ !       — *राजकुमार मसखरे*

    एक दिन तुझे है जाना

    एक दिन तुझे है जाना
    काहे को है इतना गुमान,
    महल-अटारी वाले धनवान
    या झुग्गी के महा-इंसान !


    तुला मे सबको तौल रहा
    नीली छतरी वाले भगवान !
    उनको भी है जाना——-
    हृदयघात,मधुमेह,गुर्दा
    या भारी अवसाद से !


    इनको भी है जाना ——-
    भुखमरी, गरीबी, कर्ज
    या कोई संताप,फसाद से !


    कितने ढ़ोगी,संत,नेता,बाबा
    पहुँच गये हैं जेल मे ,
    और कितने हैं भूमिगत
    न जाने कितने बेल में !


    सब हिसाब-किताब होगा
    बराबर यहीं इहलोक मे ,
    कुछ बाकी रह जायेगा तो
    उसका भी होगा परलोक मे !


    दुनिया को तुम समझो यारों
    ये दुनिया है सब गोल-गोल,
    रत्ती नही जायेगा संग मे
    बोलो सबसे मीठे बोल !

              —– राजकुमार मसखरे

    नाम बड़ा या काम

    क्या रखा है नाम में
    जो नाम बदलते जा रहे ,
    ध्यान रहा न  काम में
    जो काम से ध्यान हटा रहे।


    जो नाम दर्ज इतिहास मे
    उनका वजूद तुम मिटा रहे ,
    इतिहास से छेडछाड़ में
    अपना फर्जी नाम कमा रहे ।

    बेशक कामदार बनो तुम
    ये नामदार को क्यों भा रहे ,
    भ्रम में पड़ी जनता सारी
    तुम बस भैरवी राग सुना रहे ।


    जरूर अपना नाम बदलो
    गर काम नही करा पा रहे ,
    मसखरे का चिंता छोड़ो
    क्या मंगल में बसने जा रहे ।


    —- राजकुमार मसखरे

    देख प्रकृति अधुरी है !

    देखो ये प्रकृति स्वयं है अधुरी
    तो कैसे होगी तेरी इच्छा पूरी !
    चाँद के पास शीतल सौम्य है चाँदनी
    पर सुन्दर उपवन की,नही कोई कहानी ।


    सूर्य के पास तेज प्रकाश प्रबल है
    पर कहाँ वहाँ,पीने शीतल जल है ।
    समुद्र के पास है अथाह जल राशि
    पर तृप्त होने,मीठा जल की प्यासी !


    पृथ्वी के पास देखो जीवंत संसार है
    पर रोशनी का कोई नही आसार है ।
    देखो ये प्रकृति तो हमेशा ही अधुरी है
    तभी अपूर्णता,नये निर्माण की धुरी है ।

    धन संग्रह की आदत तो गजब  भयी
    विषयों को भोगते, ये जिन्दगी गयी ।
    अधुरी प्रकृति में ये दृष्टि दौडा़ना छोंड़
    अंतर्दृष्टि आत्मा से निकालो इसका तोड़ ।


    देखो संतोषी तो हरदम परम सुखी है
    मिला संतोष धन,तब कोई नही दुखी है ।


    राजकुमार मसखरे
         भदेरा+पैलीमेटा (गंडई)
          जि.-राजनांदगाँव,छ.ग.

    ये रिश्ता क्या कहलाता है

    ये रिश्ता क्या कहलाता है
    मुझे समझ नही आता है !
    सुख-दुख में साथ जरूर होते
    बस औपचारिकता निभाता है!
    मजबूरी में आता,चला जाता
    सौजन्य भेंट,नही सुहाता है !
    कभी कुशल क्षेम भी पूछ लेते
    तेरे लिये समय,कहाँ आता है !
    बस रिश्ते को हैं ढो़ रहे सभी
    अपनेपन का एहसास रह जाता है !
    मस्त ‘ सीरियल ‘ देख रहे
    ‘ये रिश्ता क्या कहलाता है !’


        — राजकुमार मसखरे

    *धारा 370,35-A*
    ××××××××××××××  

    राजकुमार मसखरे की कवितायेँ

    जन्नत ल जहन्नूम होय बर
    अगर बचाना हे…,

    अनुच्छेद  370,35-A


    जरूर हटाना हे…! ये धारा जब तक
    इँहा काश्मीर ले नइ हटही,
    तब तक जान लव
    ये स्वर्ग ह बारूद म पटही! विशेष अधिकार मिले ले
    फोकट अउ सस्ता में
    खाय बर मिलत हे,
    त कइसे नइ पनकही
    ये पत्थर बाज मन
    जेन घाटी म पलत हे ! जेन सरकार आथे
    येला हटाय खातिर
    खूबेच के चिल्लाथे ,
    फेर का करबे जी
    ये मिठलबरा बर
    कुर्सी ह आड़े आथे ! अपन बर समझौता झन करव
    देश रक्षा बर तुम लड़ मरव ,
    ये लाहौर म तिरंगा फहरा के
    महतारी चरन म माथ धरव !
        — *राजकुमार मसखरे*

    देखो इनकी औकात

    हनुमान जी की जात पर
    खूब हो रहा रोज बवाल !
    नेता अपने मतलब लिये
    उगल रहे हैं कई सवाल !

    जी कोई कहता है दलित
    तो कोई कहता आदिवासी!
    कोई बताते हैं इन्हें ब्राम्हण
    कोई अल्पसंख्यक,रहवासी!

    भगवान तो भगवान होता है
    भला भगवान का क्या जात !
    ये हैं बस अपनी  रोटी सेंकने
    नित करे सियासत की बात !

    पौराणिक गाथाओं को ये
    ऐतिहासिक बता,करे घात !
    खुद की जात तो पता नही
    देखो इनकी कैसी औकात !

    — *राजकुमार मसखरे*

    भूख

    ये परम्परा ये आदर्श
    ये संस्कार ये ईमान
    आखिर कब ?
    जब तक पेट भरा हो 
    तब तक मचलती है !!

    भूख
    वह धधकती
    आग की ज्वाला है
    जिनकी लपटों से
    सब कुछ जल कर
    खाक हो जाती है !!

             —  राजकुमार मसखरे

  • मनीलाल पटेल उर्फ़ मनीभाई नवरत्न की 50 कवितायेँ (खंड १)

    मनीलाल पटेल उर्फ़ मनीभाई नवरत्न की 50 कवितायेँ (खंड १)

    यहाँ पर मनीलाल पटेल उर्फ़ मनीभाई नवरत्न की 50 कवितायेँ एक साथ दिए जा रहे हैं आपको कौन सी कविता अच्छी लगी हो ,कमेंट कर जरुर बताएँगे.

    कविता 1 क्यों टोकाटाँकी करते हैं ?

    बच्चे अपने मन से जब जब
       कुछ    नया    करते है।
           असफलता भय से,
                  बुजुर्ग उन्हे,
                      क्यों ?
           टोकाटाँकी करते हैं।
                     जिस
                   राह पर
               स्वयं चला था
           वही राह दिखलाते हैं
            असफलता भय से,
                  बुजुर्ग उन्हे,
                      क्यों ?
            टोकाटाँकी करते हैं।
                     ऐसा
                   हुआ तो
               कोई अन्वेषण
           सम्भव न हो पायेगा
          किंतु घर के बड़े बुजुर्ग
        प्रोत्साहित कहाँ कर पाते हैं
              असफलता भय से,
                  बुजुर्ग उन्हे,
                      क्यों ?
            टोकाटाँकी करते हैं।
                       नव
                  मस्तिष्क का
             रोपण पोषण संरक्षण
         अक्सर ही नहीं कर पाते हैं
              असफलता भय से,
                   बुजुर्ग उन्हे,
                       क्यों ?
             टोकाटाँकी करते हैं।
                       उन्हें
                    करने दो
                 स्वअनुरूप ही
              प्रयोग भी होता है
           स्कूली ज्ञान स्वरूप ही
        व्यर्थ   डांटना   नहीं   चाहिए
             बच्चे   भी   डरते    हैं
               असफलता भय से,
                   बुजुर्ग उन्हे,
                       क्यों ?
             टोकाटाँकी करते हैं।
                      दिशा
                    उन्हे   ही
                  तय  करने  दो
         अनुभव का सागर ये जहाँ
        पतवार भी उनके हाथ मे दे दो
            देखो  बस  क्या  करते हैं
                असफलता भय से,
                   बुजुर्ग उन्हे,
                       क्यों ?
             टोकाटाँकी करते हैं।
    हम बड़े भी तो बच्चे हैं, प्रकृति हमारी माँ ।
    जो सीखाने को आतुर ,कृत्रिमता से परे होके।
    पर हम सीख न पाये शीघ्र, नौनिहालों जैसे,
    चूंकि  हम  हो चुके हैं ,ज्यादा अप्राकृतिक ।

    ✒ मनीभाई’नवरत्न’

    कविता 2 मैं सत्य मान बैठा

    मैं सत्य मान बैठा प्रकाश को ,
    पर वह तो रवि से है।
    जैसे काव्य की हर पंक्तियां
    कवि से है ।
    धारा, किनारा कुछ नहीं होता ।
    नदी के बिन।
    नदी का भी कहां अस्तित्व है?
    जल के बिन।
    प्राण है तो तन है ।
    ठीक वैसे ही,
    तन है तो प्राण है ।
    भूखंड है तो विचरते जीव।
    वायु है तो उड़ते नभचर ।
    मानव है तो धर्म है ।
    वरना कैसे पनपती जातियां ,
    भाषाएं ,रीति-रिवाजें,
    खोखली परंपराएं ।
    रात है तो दिन है ।
    सुख का अहसास गम से है ।
    मूल क्या है ?
    खुलती नहीं क्यों ?
    रहस्यमयी पर्दा।
    असहाय,बेबस दे देते
    ईश्वर का रूप।
    कुछ जिद्दी ऐसे भी हैं
    जो थके नहीं ?
    तर्क- वितर्क चिंतन से।
    खोज रहे हैं राहें ,
    अंधेरी गलियों में
    सहज व सरल ।
    कुछ खोते ,कुछ पाते।
    विकास की नींव जमाते।
    फिर भी सत्य अभी दूर है ।
    जाने कब सफर खत्म हो
    और मिल जाए हमें,
    सत्य रूपी ईश्वर..
    ईश्वर रूपी सत्य…
    ✍मनीभाई”नवरत्न”

    कविता 3 कोई साल..आख़िरी नहीं होता

    कोई दिन ,
    कोई महीना,
    या कोई साल..
    आख़िरी नहीं होता।
    जब हमारी आँखें खुलतीं..
    नींद के गहरे सन्नाटों से
    कोई बांग-सा बिगुल बजाता
    जिसके ज्ञान तरंगों से
    खुल जाते
    हमारे मनोमस्तिष्क के पर्दे..
    जैसे किसी निर्जीव ताल में
    लुढ़क जाता हो
    कोई पत्थर
    और चोट पाकर वह
    हो जाता हो सजीव !
    तब होती जीने की शुरुआत
    एक उत्सव की भांति ।
    चाहे कोई दिन
    कोई महीना
    या कोई साल ।


    ✒️ मनीभाई’नवरत्न’

    कविता 4 भारती के माथे में बिंदी – हिन्दी

    मां भारती के माथे में ,
    जो सजती है बिंदी।
    वो ना हिमाद्रि की श्वेत रश्मियां ,
    ना हिंद सिन्धु की लहरें ,
    ना विंध्य के सघन वन,
    ना उत्तर का मैदान।
    है वो अनायास,
    मुख से विवरित हिन्दी।


    जननी को समर्पित
    प्रथम शब्द ‘मां’ हिन्दी ।
    सरल ,सहज ,सुबोध ,
    मिश्री घुलित हर वर्ण में ।
    सुग्राह्य, सुपाच्य हिंदी
    मधु घोले श्रोता कर्ण में ।
    हमारा स्वाभिमान ,भारत की शान ।
    सूर तुलसी कबीर खुसरो की जुबान।
    मिली जिससे स्वतंत्रता की महक।
    विश्वभाषा का दर्जा दूर अब तलक ।
    चलो हिंदी को दिलाएं उसका सम्मान।
    मानक हिंदी सीखें , चलायें अभियान।।
    (✒मनीभाई ‘नवरत्न’ )

    कविता 5 उठ जा तू पगले क्यों लेटा है ?

    पत्थर में तू पारस है ।
    तुझमें वीरता,साहस है ।
    फिर क्यों मन को मारे बैठा है ,
    उठ जा तू पगले !क्यों लेटा है?

    देख रात अभी गहराई नहीं।
    है चहलपहल तहनाई नहीं ।
    फिर क्यों भय से ,खुद को समेटा  है ।
    उठ जा तू पगले !क्यों लेटा है ?

    मत खो अपने अभिमान को।
    दांव पर ना लगा सम्मान को ।
    भारत मां का तू स्वाभिमानी बेटा है ।
    उठ जा तू पगले !क्यों लेटा है ?

    अभी सांसो की रफ्तार थमी नहीं 
    लहु की धार नब्ज़ में  जमी नहीं ।
    फिर क्यों चुप है , किस बात पर ऐंठा है ?
    उड़ जा तू पगले !क्यों लेटा  है?


    ✒️ मनीभाई’नवरत्न’

    कविता 6 समता बिन मानवता

    यह सोच हैरान हूं
    कि इंसान है सबसे बेहतर ।
    हां मैं परेशान हूं,
    इंसान मानता खुद को श्रेष्ठतर।
    क्या सचमुच में हम महान हैं?
    या फिर निज दशा से अनजान हैं।
    अन्य प्राणियों में नहीं है
    धर्म,जाति देश काल की भेदभाव।
    अन्य प्राणियों में कहां है ?
    रंग-रुप भाषाई अनुरूप बर्ताव ।
    हम इंसानों की उपज है
    अमीरी गरीबी की रेखा ।
    क्या सृष्टि में हम सा
    कोई अजब प्राणी देखा ।
    निंदनीय है संपन्न वर्ग
    जिसके नजरों में भुखमरी,गरीबी है ।
    चिंतनीय है यह मुद्दा
    जिसके पलड़ेे में लाचारी, बदनसीबी है ।
    ये कैसी व्यवस्था बनाया हमने
    गुलामी का भयंकर रूप है ।
    भाग्य में किसी का आजीवन छांव
    तो किसी दामन में तपती धूप है ।
    समता बिन मानवता ,
    मृग मरीचिका तुल्य है ।
    कहीं हो ना जाए जीवन संघर्ष
    आखिर सबके लिए जीवन बहुमूल्य है।


    ✒️मनीभाई ‘नवरत्न’छत्तीसगढ़

    कविता 7 साल नया आ गया

    नई प्रभात की नई किरण ।
    नई खुशबू भरा नई पवन ।
    नई उल्लास से नया जीवन ।
    नई उमंग भरा नई यौवन ।


    सब लागे नया नया ।
    हाँ!साल नया आ गया ।
    नई ठौर पर नई निगाह ।
    नया जोश संग नई उत्साह।


    नया होश लेके नई चाह ।
    नई मंजिल के लिए नई राह।
    सब कुछ लागे नया नया ।
    हाँ! साल नया आ गया ।


    नई मोड़ से नई दिशा ।
    नई कदम और नई आशा।
    नया दिन और नई निशा।
    नया जाम में नया नशा ।


    सब कुछ लागे नया नया ।
    हाँ! साल नया आ गया।

     मनीभाई ‘नवरत्न’,छत्तीसगढ़, 

    कविता 8 जहां भी जाऊंगा छा ही जाऊंगा

    जहां भी जाऊंगा ,छा ही जाऊंगा
    बादल की तरह ,आंचल की तरह।
    जहां भी जाऊंगा, वहां  सजाऊंगा
    गुलशन की तरह, दुल्हन की तरह ।।

    राहों के पड़े कचरे , डस्टबीन में ।
    हरियाली बिखेरेंगे इस जमीन में।
    जरूरतमंद की करूँ मैं सहायता ।
    सिवा इसके, मैं  कुछ ना चाहता ।

    जहां भी जाऊंगा खुशियां लाऊंगा
    बहार की तरह , प्यार की तरह।।

    छोटे छोटे बच्चे ,  जो पढ़ ना सके ।
    गरीबी हालत में,आगे बढ़ ना सके ।
    उन सबको बुलाके,मैं कक्षा लगाऊँ ।
    मेहनत सिखाके,जिन्हें पास कराऊँ।

    जहां भी जाऊंगा ,सबको हंसाऊँगा ।
    जोकर की तरह , लाफ्टर की तरह।

    सूखे सूखे बीज, मिट्टी में डाल के।
    भोजन उन्हें दूँ ,पानी व खाद के ।
    बढ़े वो मुझसे आगे बनकर के पेड़,
    रोटी कपड़ा और मकान देते हैं पेड़।

    जहां भी जाऊंगा धाक जमाऊँगा
    चहेता की तरह, फरिश्ता की तरह।।

     मनीभाई ‘नवरत्न’, छत्तीसगढ़

    कविता 9 रोटी की तलाश- मनीभाई नवरत्न

    मुझे उस रोटी की तलाश  है ,
    जिसे अभी-अभी
    अमीर के कुत्ते ने खाना छोड़ दिया था।
    पर  लगता है डर
    यह जानकर
    कि कहीं अमीर दुत्कार ना दे ,
    कि मैंने छीन लिया निवाला
    उसके वफादार के मुख का ।।

    अंधेरे गुमनाम गलियों में भटकता
    कूड़े कचरे में बांचता अपनी जिंदगी ।
    मुझे ख्वाहिश नहीं कि
    बांध लूं सपनों की गठरी ।
    मेरी भूख ही मेरा अस्तित्व ।
    हां !मैं कुपोषित हूं ।
    पर मुझे परवाह नहीं।
    ना  मैं किसी घर का चिराग।
    ना आंखों का तारा ।
    ना ही किसी अंधे की लाठी ।

    हां ! मैं वही असंस्कारी हूं ।
    जिसके मां ने फेंक दिया,
    नोंचकर अपने तन से ,
    अपने संस्कार की दुहाई देकर ।
    और सभ्य समाज में मिल गई
    मुझे जिन्दगी भर की तन्हाई देकर ।

    सच मानो तो मेरा तन
    एक सजीव लाश है ।
    एक जिद है उसमें जान भरने की
    इसलिए तो
    मुझे उस रोटी की तलाश है
    जिसे अभी-अभी
    अमीर के कुत्ते ने खाना छोड़ दिया था।

    ✍मनीभाई”नवरत्न”

    कविता 10 सच की राहें- मनीभाई नवरत्न

    यह किसने कह दिया
    कि सच की राहें मुश्किल है ?
    जबकि झूठ और फरेब से
    कुछ भी नहीं हासिल है ।

    सच की राहें- मनीभाई नवरत्न

    बहक जाते ,कुछ पल के लिए
    पाने को चंद खुशियां ।
    यही चुभे फिर ,पूरे सफर तक
    जैसे पांवों में पड़े बेड़ियां ।
    तिल-तिल मारे, सारी रात जगाए,
    हर सांस बने ,मानो कातिल है ।
    यह किसने कह दिया
    कि सच की राहें मुश्किल है ?

    एक झूठ बचाने को
    बनाया सौ झूठ की कहानी।
    विश्वास खोया जग का फिर
    आंखों से उतरे पानी ।
    ठहर जरा और सोच बेख़बर
    तेरे कदम जाते किस मंजिल है ?
    यह किसने कह दिया
    कि सच की राहें मुश्किल है ?

    सच्चाई में सुख है ,
    और मिले सहज शांति ।
    फरेबी में पल-पल खतरा
    और पग-पग में है भ्रांति ।
    नजर उठा ,कर सच का सामना
    तेरा दिल भी सच के काबिल है ।
    यह किसने कह दिया
    कि सच की राहें मुश्किल है ?

    मनीभाई”नवरत्न”

    कविता 11 ऐसा मेरा गणतंत्र है-मनीभाई ‘नवरत्न’

    इंसानों को मानवता सिखाएं ऐसा मेरा गणतंत्र है ।
    लोगों को मिलकर रहना सिखाए ऐसा मेरा गणतंत्र है ।

    सब अपने सपने पूरे कर सकें ।
    हर कोई अधिकारों को पा सकें।
    हर डगर पर हर शहर पर हर नर नारी स्वतंत्र है।
    आगे बढ़ने का हौसला बढ़ाएं ऐसा मेरा गणतंत्र है ।

    दासता से हमें मुक्ति मिली है ।
    सत्यमेव जयते की सुक्ति खिली है।
    यही अपना कर्म रहे यही अपना मंत्र है ।
    सबको एक लक्ष्य दिखाएं ऐसा मेरा गणतंत्र है।

    -मनीभाई ‘नवरत्न’

    कविता 12 झांसी की रानी-मनीभाई नवरत्न

    वाराणसी में जन्मी झांसी की रानी ।
    आओ सुनाऊं तुम्हें उसकी कहानी।।
    मनु, मणिकर्णिका और वो छबीली।
    मोरोपन्त भागीरथी की गोद में पली।
    शौक जिसका तीरंदाजी घुड़सवारी ।
    आओ सुनाऊं तुम्हें उसकी कहानी।।

    झांसी की रानी-मनीभाई नवरत्न


    नाना साहब के साथ जो पली बढ़ी।
    पुरुषों को भी चित कर दे ऐसे लड़ी।
    देख जिसे सबको होती थी हैरानी ।
    आओ सुनाऊं तुम्हें उसकी कहानी।।
    सात वर्ष में कर दी गई मनु की शादी।
    गंगाधर राव की बन गई जीवनसाथी।
    हाय रे नियति ! क्यों विधवा हुई रानी ।
    आओ सुनाऊं तुम्हें उसकी कहानी।।


    अंग्रेज समझे लावारिस हुई ये झांसी।
    दामोदर को पाके,पर अड़ी हुई झांसी।
    अंग्रेजी मनसूबे को, फेर दी जो रानी।
    आओ ,सुनाऊं तुम्हें उसकी कहानी।।
    सिंहनी लक्ष्मीबाई क्रोध से गरज उठी ।
    “मैं नहीं दूँगी अपनी झाँसी”  कह उठी।
    विद्रोह कराके अंग्रेजों ने की मनमानी।
    आओ ,सुनाऊं तुम्हें उसकी कहानी।।


    सदाशिव को परास्त किया करोरा में।
    नत्थे खां को ,तारे दिखा दिये दिन में।
    फिरंगियों से लड़ने को जो थी ठानी।
    आओ ,सुनाऊं तुम्हें उसकी कहानी।।
    अब आगे जनरल ह्यू रोज की बारी ।
    सर कफ़न सजाके ,रानी की तैयारी।
    पीठ पे बंधा दामोदर, भिड़ गई रानी।
    आओ ,सुनाऊं तुम्हें उसकी कहानी।।


    जब झांसी की बागडोर,तात्या संभाले।
    रानी युद्ध को कालपी से ग्वालियर चले।
    जून अन्ठावन को वीरगति हुई रानी।
    आओ ,सुनाऊं तुम्हें उसकी कहानी।।
    लक्ष्मीबाई है महान, तोड़ दिया मिथ्या।
    स्त्री होती नहीं अबला, सबको बताया।
    वो वीरांगना-साहसी , साक्षात् भवानी।
    आओ ,सुनायें सबको उसकी कहानी।।

    मनीभाई”नवरत्न”, बसना, महासमुंद,छग

    कविता 13 खुजली- मनीभाई नवरत्न

    (1)

    मैं खोजता हूं
    कहां है मुझे खुजली ?
    मैं खुजाता रहता हूं ।
    कभी हाथ पैर, तो कभी सिर।
    इसका मतलब यह कतई नहीं कि
    मुझे खुजली है या नहीं ।
    पर जब जब बैठता हूं
    निठल्ले भाव से।
    मैं खुजाता रहता हूं
    खोजता रहता हूं
    कहां है मुझे खुजली?
    हां! मुझे पता है
    खुजाना ही खुजली का निदान है।
    तभी तो अनवरत जारी है मेरे प्रयोग ।
    लेकिन मैं अब भी अनजान
    न जान पाया
    मेरे खुजली का स्थान।
    है इसलिए अब भी  बाकी
    मेरी तकलीफ, मेरी खुजली।

    (2)

    अब मैं संभल गया हूं
    खुजली से पहले ।
    खोजता हूं कहां है खुजली?
    क्यों है खुजली ?
    जानने लगा हूं
    खुजाना ही नहीं एकमात्र निदान ।
    कई बार बिना समझे
    कर जाना उपाय
    समाधान के बजाय
    बन जाती है नई समस्या ।
    जो धारण कर लेती है
    अपना विकराल रूप।
    अब ठहरता हूं
    जाया नहीं करता प्रयास।
    सही स्थान पर हमारी एक खरोच ही
    काफी है खुजली को छूमंतर करने के लिए।।

    मनीभाई नवरत्न

    कविता 14 प्रेम और सच्चाई -मनीभाई नवरत्न

    मैं तुमसे दूर हूं
    तो मतलब नहीं कि
    तुमसे दूर हूं।
    है अब भी मेरे जेहन में
    उतना ही प्रेम
    जितना कि हुई थी
    जिस दिन तुमसे प्रेम ।

    मैं तारीफ भी तेरी
    उतना ही करूंगा।
    जितना तुम लायक हो ।
    तुमसे नहीं करूंगा वो वायदा
    जो मुझसे हो ना सके।



    जितना तुम उठोगे
    संग संग तेरे मैं भी उठूंगा ।
    या विपरीत इसके
    मैं जितना उठ पाऊं अपने शिखर पर
    चाहूंगा तुम भी रहो मेरे पास ।

    तुम चाहती होगी
    दुनिया भर की दौलतें
    शोहरतें, ऐशोआराम
    बताऊंगा तुम्हें
    कुछ भी नहीं इनमें
    मेरी दुनिया बस तुम हो ।
    तुम जिद करोगी ,
    बदलना चाहोगी मुझे शायद ।
    अपने खातिर।
    मैं छोड़ूंगा नहीं सच्चाई
    अडिग रहूंगा
    हम दोनों के खातिर ।

    तुम भुलाना चाहोगी मुझे
    तुम्हें पसंद होगी तुम्हारे अपने
    मैं कैसे भुला दूं तुम्हें
    जो मुझमें है
    वह तुझ में है मेरा अपना
    तुम जितना भागोगी मुझसे
    मेरे करीब उतना ही होगी।

    🖍️ मनीभाई नवरत्न

    कविता 15 अब तू ये जान ले

    जीवन डोरी थाम ले,
    थोड़ी घूम घाम ले ।
    आराम पाना हो तो
    तन से अपने काम ले.
    आएगा ना ये पल ,
    अब तू ये जान ले ।

    तू ना रुका कर राह में ,
    कभी ना झुक निगाह में ।
    संतों की नीति अपना तू
    बरकत जिनकी सलाह में ।
    मुट्ठी में है तेरी किस्मत ,
    अब तू ये जान ले ।

    वो जो दिखा रहा ,
    सब कुछ है दिखावा।
    तेरी काबिलियत को,
    समझ ना कोई छलावा ।
    तेरा रंग है सबसे गहरा,
    अब तू ये जान ले।

    धीमी तेरी रफ्तार है,
    नजरें तेरी उस पार है
    धीरे धीरे ही बढ़ आगे ।
    देर से ही नसीब जागे।
    दिशा ही सच्ची सफलता
    अब तू ये जान ले।

    जी भर जी ले तू
    पछताना ना पड़े ।
    अगली बार के लिए
    तुझे आना ना पड़े।
    एक जीवन एक मौका
    अब तू ये जान ले।

    मनीभाई नवरत्न

    कविता 16 आज़ादी और बंधन

    मैं खोज रहा आजादी
    जो मिला है मुझे
    उपहारस्वरूप जन्म से।
    फिर कहाँ तलाशता चारों ओर ?
    भटकता उसके लिए।

    अरे! यही मानवीय दशा
    कि होता जो पास में
    रहता नहीं मूल्य उसका ।
    क्या ऊँचे कद आदमी के लिए
    आसान होता देख पाना
    अपने पैरों तले जमीन
    जिस पर वह टिका है।

    तार्किक वन में
    छलांग लगाता बैचेन मृग
    कस्तूरी पाने को नाहक।
    फिरता समझदार बन ,
    खास होने की नशा में।
    जो आम है वो भी
    असल चीज “आजादी” छोड़
    खास होने की रंग में
    रंगने के लिए
    कतार बद्ध खड़े हैं।
    क्या संभव है?
    राजसी ठाट बाट में
    जिसे वह खोजना चाहता ।

    मैं होना चाहता
    सच्चा सामाजिक
    बन देश सिपाही
    पहचान चाहता हूँ भीड़ में।
    चिंता मुझे
    अपने व्यक्तित्व का।
    एक रस हो जाना चाहता हूँ
    दुनिया पिंजर में ।

    क्या भला !
    पक्षी भर सकता उड़ान
    बंद पिंजरों में।

    सत्य अमर है,
    उसमें बनावट नहीं
    सादा स्पष्ट और सरल।
    वैसे ही जैसे आजाद होना ।
    दुनिया के सारे कर्म ,
    बंधन के हैं।
    जिसने माना इसे ,
    असल जीवन आनंद के।
    वह फंसता गया कारागार में।

    यहाँ सुख है उतना ही ,
    जितना दुख है।
    यहाँ भोजन भी है,
    चूँकि जिह्वा में स्वाद है
    और पेट में भूख भी।

    आसान नहीं ,
    छप्पन भोग के सामने
    उपवास का विचार ।
    गर ऐसा कर सके
    तो मिल सकती है आजादी।

    मैं झूलता ही पाया
    अपने को पेंडुलम की भांति
    आजादी और बंधन के बीच।
    मैं रहना चाहता हूँ ,
    अपनों के संग।
    पर घुल नहीं पाता।
    तली में बैठ जाता हूँ
    अवक्षेप भांति I
    यही मेरी मौलिक प्रवृत्ति
    जो मिला है मुझे उपहार में I
    मूलतः मैं आजाद हूँ।
    बंधक तब-तब
    बन जाता हूँ
    जब मैं खोजना चाहता
    इसे अपनों के बीच।

    मनीभाई नवरत्न

    कविता 17 चल लिख कवि ऐसी बानी

    चल लिख कवि , ऐसी बानी ।
    नहीं दूजा कोई, तुझसा सानी ।
    चल प्रखर कर, अपनी कटार ।
    गर मरुस्थल में लाना है बहार।
    अब देश मांगता, तेरी कुर्बानी ।
    चल लिख कवि , ऐसी बानी ।
    ईश का गुणगान छोड़ , मत बन मसखरा ।
    जन को सच्चाई बता,मत बन अंधा बहरा।
    देश का है लाल तू,माटी की बचा ले लाज।
    दरबारी कवि नहीं,खोल दे पापी का राज़।
    मनोभाव भरे जिसने,कर उसपे मेहरबानी।
    चल लिख कवि ,ऐसी बानी ।
    जब बिक चुका मीडिया,कौड़ी के भाव में ।
    जिम्मेदारी बढ़ी है तेरी , आ जाओ ताव में ।
    छेड़ अभियान चल , जन जागृति पैदा कर।
    अन्याय आगे ईमान का,कभी ना सौदा कर।
    समाज को नेक राह दिखा,करके अगवानी।
    चल लिख कवि ,ऐसी बानी।

    मनीभाई ‘नवरत्न’, छत्तीसगढ़

    कविता 18 उसे होश नहीं

    उसे होश नहीं
    किसके नाम की
    कागज के टुकड़े में कैद है
    तबाही मचा रखी है
    कारोबार के क्षेत्र में ।
    जाने कितने भाइयों के
    संबंध तोड़े हैं इसे याद नहीं ।
    लेकिन इसकी किसी से
    बैरता नहीं ।
    नदियां बहती है इसे रौंदते हुए ।
    मानव पलता है इसे खोदते हुए ।
    यह खजाना है रत्नों का
    खनिजों का पानी का ।
    हमको खाना खिलाती
    पानी पिलाती बिना भेदभाव किये।
    मां से बड़ी ममतामयी है ।
    तभी तो आज लड़ पड़े हैं
    इसे अपना बनाने के खातिर
    पर उसे होश नहीं है….

    मनीभाई नवरत्न

    कविता 19 मुझे  आंचल में पलने दे

    मम्मी तेरी सखी बनूंगी
    मुझे  आंचल में पलने दे,
    साया बन तेरे साथ रहूंगी….
    हाथ पकड़ के   चलने दे।
    मुझे  आंचल में पलने दे।

    होके बड़ी मैं तेरी ,
    मान बढ़ाऊंगी,
    संग संग काम करके,
    हाथ बटाऊँगी।
    बोझ नहीं मैं , माँ तेरी ,
    मुझे भी, कल का सूरज देखने दे,
    साया बन तेरे साथ रहूंगी.
    हाथ पकड़ के   चलने दे।
    मुझे  आंचल में पलने दे।

    मौत ना दे मुझे,
    हाथ ना रंग खून से
    मेरा ये जीवन ,ये तन,
    तेरे ही  खून से.
    मैं बनूंगी , तेरी सपना.
    मुझे तेरी कोख से,
    जमी पर उतरने दे.
    साया बन तेरे साथ रहूंगी.
    हाथ पकड़ के   चलने दे।
    मुझे  आंचल में पलने दे।

    कल्पना बन जग में,
     नाम बनाऊँगी.
    सानिया बन जग में ,
    तिरंगा लहराऊंगी।
    माँ तू भी बेटी नानी की
    जिंदगी मुझे भी, गढ़ने दे।।
    साया बन तेरे साथ रहूंगी.
    हाथ पकड़ के   चलने दे।
    मुझे  आंचल में पलने दे।

    ✍मनीभाई”नवरत्न”

    कविता 20 भोलू की दिवाली

    जगमग जगमग करे दीवाली,
    पर भोलू के मन में है सवाली।
    “किसी की कोठी भरी हुई है,
    तो किसी की झोली है खाली।”

    “दीये की कुप्पी में तेल भरी है,
    अरे!आधी नहीं बहुत गहरी है
    पूरा गाँव लगती रोशन-रोशन
    अब रंग ढंग बिल्कुल शहरी है। “

    पड़ोसी का घर महक रहा है।
    बच्चों का झुंड चहक रहा है।
    पर भोलू को है किसकी चिंता?
    ओहो! भुख से वो बहक रहा है।

    भाग रहा है भोलू , डर के मारे।
    तंग करते हैं उसको ,बच्चे सारे।
    पटाखों से वो ,डरता है बेचारा
    दूर से देखे, दीवाली के नजारे।

    ✍मनीभाई”नवरत्न”

    कविता 21 कोलाहल में जिन्दगी


    प्रार्थना मन से ,
    अजान दिल से की जाये
    तो सारी मन्नतें पूरी हो जाती  है।
    तो फिर रब का घर दूर है क्या ?
    जो लाउडस्पीकर से पुकारी जाती है।

    विवाह तो दो दिलों का मेल हैं जिसमें ,
    विदाई की मधुर शहनाई बजाई जाती है ।
    आजकल तो डीजे में एल्कोहालिक शोर में
    दुल्हे के संग दुल्हन को नचाई जाती है।

    जीत का उत्सव हर्षोल्लास  मनाना हो
    तो एक दूजे को गले मिल, बधाई दी जाती है।
    कान के पर्दे फाड़ू आतिशबाजी करके
    क्यूँ कोलाहल में ध्वनि प्रदूषण की जाती है ।

    माना सरकार के शोर नियंत्रण  कानून हैं
    सार्वजनिक स्थलों में मनाही की जाती है ।
    पर हम महामानव को अपने हित की बातें
    जल्दी समझ में कब और कहाँ आती  है ?

    शोर शराबे से मानव स्वास्थ्य बिगड़ता
    तनाव और चिड़चिड़ेपन का होता शिकार है ।
    अब हर पल कोलाहल में जिन्दगी बीते
    तो समझो ,ऐसे  जीवन को जीना बेकार है ।

    क्यूँ हम निजी स्वार्थ के वशीभूत होके
    दूसरों की शांति छीनने को बेकरार हैं  ।
    अब वो समय है आ गया कि चिन्तन करें
    जब ध्वनि, श्रवण क्षमता के सीमा पार है।

    ✍मनीभाई”नवरत्न”

    कविता 22 कागज की कश्ती

    कागज की कश्ती, सदा नहीं ठहरती।
    कभी ना कभी तो यह डूब के रहती।
    कागज की कश्ती….

    यह सागर कितना गहरा है.
    उस पर तूफानों का पहरा है .
    इनके लहरों में कितनी हलचल है.
    डूबने का खतरा पल पल है .
    यह जीवन भी है वही कश्ती .
    समझ ले अपनी हस्ती ।।

    कहने को तो ये जहां हरा भरा है।
    पर यह तो दुखों से भरा है ।
    चारों तरफ कोहराम मचा है
    दुनिया वाले ने क्या अजब रचा है ?
    है यह दुनिया भी है वही कश्ती
    समझ ले अपनी हस्ती ।।

    रिश्ते तो प्यार का बंधन है ।
    पर निभाता कोई नहीं उलझन है।
    यहां तो अपने भी गैर हैं
    प्यार का दिखावा अंतर्भाव बैर है ।
    यह रिश्ते भी हैं वही कश्ती ।
    समझ ले अपनी हस्ती ।।

    ✍मनीभाई”नवरत्न”

    कविता 23 जिंदगी की घड़ी

    चाहे हो खुशियों की लड़ी।
    हो चाहे दुखों की घड़ी ।
    चलती रहती है जिंदगी की घड़ी ।

    तू ना थम जाना  होके बेकरार
    हर पल मुस्कुराना 
    हो चाहे दिल के आर पार।
    रहना अडिग राह पर तेरे
    मुश्किल हो चाहे
     आन पड़ी ।

    आज तेरे चेहरे हो खिले  ।
    कल हो सकते हैं फीके ।
    हर बात पर ले तजुर्बा
    मीठे हो सकते हैं हर तीखे।
    सोचे तो किस बात पर 
    हो कर खड़ी।।

    अधिक भरोसा हो तुझे खुद पर
    बाकी भरोसे के लायक नहीं ।
    मन की  संतोष है बड़ी सुख
    बाकी कोई सुखदायक नहीं।
    रखना अपना होश सदा
     चाहे हो जोश चढ़ी ।।

    ✍मनीभाई”नवरत्न”

    कविता 24 पापा मैं तेरी, प्यारी सी गुड़िया

    पापा मैं तेरी, प्यारी सी गुड़िया
    मन की भोली हूँ,जादू की पुड़िया
    देख लेना मैं उड़ जाऊंगी एक दिन
    फुर्र से आसमान में बनके चिड़िया.
    पापा मैं तेरी, प्यारी सी गुड़िया

    बड़ी फिक्र है तुम्हें मेरी, कसम से.
    ढूंढते हैं मुझे तेरे नैना.
    कहते नहीं हो अपने मुख से ,
    पर सोचते हो ये  हर पल रैना….
    हूँ आपकी मैं जिन्दगी, और ये दुनिया.
    पापा मैं तेरी, प्यारी सी गुड़िया.

    सुबह उठाते हो मुझे हर रोज.
    नहलाते खाना खिलाते हो रोज।।
    स्कूल से आती मैं करते मौज,
    देखती हूँ आप कमाते हो रोज।।
    तेरे पसीने से खिलूंगी , मैं फूल बन बगिया।।
    पापा मैं तेरी, प्यारी सी गुड़िया

    ✍मनीभाई”नवरत्न”

    कविता 25 खोया बचपन

    याद करती है मेरी धड़कन ।
    लौटा दे कोई मेरा खोया बचपन।
    सुहाता नहीं मुझे अबका जीवन।
    लौटा दे मेरा कोई खोया बचपन ।
    तितली भौरों से थी दोस्ती ।
    पानी में चलती कागज की कश्ती ।
    घूमा करते थे बस्ती-बस्ती ।
    झुंड झुंड में होती धींगामस्ती।
    गांव मेरा लगता था मधुबन।
    लौटा दे कोई मेरा खोया बचपन ।

    खेलों में होती सुधि ना भूख की ।
    मां को सताया शैतानी भी खूब की ।
    जाने ना थे बातें सुख दुख की ।
    चिंता ना थी अपने वजूद की ।
    अपने हाथों से लगाये पांव में बंधन ।
    लौटा दे कोई मेरा खोया बचपन ।

    पहले जैसे सोचना अब मैंने छोड़ दिया ।
    बुना हुआ सपना अपने हाथों से तोड़ दिया।
    हकीकत की दुनिया में अपना नाम जोड़ लिया।
    पहचान मेरी ना हो तो काला कपड़ा ओढ़ लिया।
    बनके कोई मसीहा मुझे दिखलाये दर्पण।
    लौटा दे कोई मेरा खोया बचपन।

    मनीभाई नवरत्न

    कविता 26 बचकर चलो हर जगह शहर है

    देखता तुझे कोई किसी की नजर है।
    बच कर चलो हर जगह शहर है ।

    तुम खुद को तन्हा समझो,
     पर कोई ना अजनबी।
    दो पल में रिश्ते बनते हैं ,
    जुड़ जाते जिनसे जिंदगी।
    अभी आई खुशियों का लहर ,
    अभी गुजरा ग़मों का भंवर है ।
    बचकर चलो हर जगह शहर है ।

    सारी तकलीफें सारी कसक
     दिल में थामें फिरता है।
    दूसरों को उठाने के बहाने
    खुद सड़क में गिरता है ।
    यहां चाल पर चाल चले हैं
    चालबाजों का बवंडर है ।
    बचकर चलो हर जगह शहर है ।

    अभी जन्मा और अभी
    तारे छूने की बात करते हैं ।
    सारी सुधि छोड़कर
    अपनी धुन में  रहते हैं ।
    यहां महत्वाकांक्षियों के समंदर है ।
    बचकर चलो हर जगह शहर है ।

    ✍मनीभाई”नवरत्न”

    कविता 27 क्या करना चाहिए ?

    जब जुबा पे आती
    मोहब्बत-ए-वतन का ख्याल ।
    दिल बेकरार हो जाती और फरमाती
    क्या करना चाहिए?
    ना बनी है अपनी कोई शान।
    ना देने को दान ।
    ना चलती है अपनी पैनी जुबान ।
    फिर कोई कैसे ऐतबार करेगा
    कि बंदा हाजिर है वतन के लिए ।
    पर करनी तो पड़ेगी पहल ।
    आज नहीं तो कल।
    तो रखा पहले शरीर का ध्यान ।
    क्योंकि जान है तो जहान ।
    फिर किया लोगों का सम्मान ।
    इनसे होती सुरक्षा का भान।
    फिर बढ़ाई मैंने पुस्तकीय ज्ञान।
    जिसे प्रकट हुआ मेरा स्वाभिमान ।
    फिर छेड़ दी मैंने अन्याय के खिलाफ अभियान।
    और अभी संघर्ष जारी है ।
    पूरे नहीं हुए काम।
    मगर मन में सुविधा नहीं है कि
    क्या करना चाहिए?

    कविता 28 किस्तों की जिंदगी

    किस्तों की जिंदगी
    एक -एक किस्तों में बीत जाएगी।
    रिश्तो की दुनिया
    आखिर कब तक रिश्तो में बंध पाएगी।

    हम चलते हैं निहारते अपनी छाप।
    रेत के समंदर में जो नहीं रह पायेगी।।
    हम छुपाते हैं सबसे अपनी कमाई को
    बटुए का धन बटुए में ही रह जाएगी ।।

    हम कहते हैं अब तो मौज लेते हुए जीना ।
    नहीं पता मौजों के लिए , क्या दुनिया में रह जाएगी?

    कविता 29 समय प्रबंधन

    हर लम्हाँ कुछ कहता है ,
    पर शायद कोई सुन पाए ।
    जो न सुन पाता इसकी बोली,
    ढूंढता रहता उसे हर लम्हाँ ।।

    जिसने जाना समय की कीमत
    समय ने उसे कीमती बना दिया
    समय के दायरे में रहकर जो पला
    रहा ना कभी वो, जीवन में तन्हा।।

    वैसे हर कोई पैदा हुआ है
    समय की गिनती लेकर ।
    और उल्टी गिनती शुरु है
    यह बताती घड़ी की सुइयां ।।
    समय कैसे देती है घाव?
    पुछे मरणासन्न व्यक्ति को
    बता देगा हर पल की घात।
    खोई हुई पल की कहानियां ।।

    यह समय ही तो है
    जो राजा को रंक बना दे।
    पतित को शिखर पहुंचा दे।
    बिना एक पल भी देर किए।
    गर समय पर सवार होना हो
    और मनमाफिक काम लेना हो
    तो एक ही राह नजर आती है
    वो है “समय प्रबंधन”।।

    ✍मनीभाई”नवरत्न”

    कविता 30 वो बेबाक कवि है

    कभी कल्पना की पर लगाये।
    कभी भटके को डगर दिखाये।
    कभी करें हंसी ठिठोली ,
    कभी करें क्रांति की बोली।
    वह कोई नहीं
    समाज का उगता रवि है ।
    हां ! वो बेबाक कवि है ।।

    चारण बन,
     राजा का गुणगान किया।
    आत्मविश्वास भर,
     चरित बखान किया ।
    भक्तिधारा बहा के,
    मानव मूल्य संजोया।
    काव्य श्रृंगार करके प्रेम बीज बोया।
    रंजन किया जग का,
    मन में जिसकी छवि है ।
    हां ! वो बेबाक कवि है ।।

    खादी-कुर्ता,कलम दवात,
    कांधे में झोली ।
    साहित्य सृजनकर्ता वो,
    किताब हमजोली।
    गुदगुदाया जी भर के,
    कभी संग हमारे रो ली ।
    कुरीति दूर करने को ,
    सहे ताने की गोली ।
    जिसकी रचना कोई खोज ,
    हर पुरातन से नवी है ।
    हां ! वो बेबाक कवि है ।।

    ✍मनीभाई”नवरत्न”

    कविता 31 अनमोल है बेटियां

    चहकती हैं , महकती हैं,  बनके मुनिया।
    तेरी खूबसूरती से ,खूबसूरत है दुनिया।
    रंगीन कर दे समां को , ये फुलझड़ियां।
    अनमोल है बेटियां, अनमोल है बेटियां।।

    चाहे ये समाज , लगा दें जितनी बेड़ियां।
    पर आगे बढ़ निकलेंगी,  हमारी बेटियां ।
    तू अभिमान है ,  मेरे देश की सम्मान है।
    तेरी हंसी से झरती हैं मोती की लड़ियां।
    अनमोल है बेटियां, अनमोल है बेटियां।।

    बेटी में समझ है , है दया-प्रेम-विश्वास।
    बेटी के अपमान से ,है जग का विनाश।
    सबको एकता सूत्र में,बाँधकर रखती ये
    इनसे जुड़ती हैं  , हर रिश्तों की कड़ियां।
    अनमोल है बेटियां, अनमोल है बेटियां।।

    माता-पिता के खुशी का,तुझे अहसास ।
    और हर  कष्टों में ,माता-पिता के साथ ।
    धूप लगे तो, बनती छाया जिनके लिये ।
    आखिर क्यों ?हो जाती विदाई,बेटियां ।
    अनमोल है बेटियां, अनमोल है बेटियां।।

    ✍मनीभाई”नवरत्न”

    कविता 32 कृषक मेरा भगवान

    मैंने अब तक
    जब से भगवान के बारे में सुना ।
    न उसे देखा,न जाना ,
    लेकिन क्यों मुझे लगता है
    कि कहीं वो किसान तो नहीं।।

    उस ईश्वर के पसीने से
    बीज बने पौधे,
    पोषित हुये लाखों जीव।
    फसल पकने तक
    चींटी,चूहे,पतंगों का
    वही एकमात्र शिव।।
    किसान तो दाता है
    इसीलिए वो विधाता है।
    पर वो आज अभागा है।
    कुछ नीतियों से ,
    कुछ रीतियों से
    और कुछ अपने प्रवृत्तियों से।।

    वह सब सहता है
    इस हेतु कुछ ना कहता है।
    गांठ बना लिया है मन में
    त्यागी होने की।
    आंखों में पट्टी बांध लिया है
    जिससे लुट रहे हैं उसे
    साधु के भेष में अकर्मण्य लोग।।

    संसार का सारा सौदा
    किसानों पर है निर्भर।
    सब लाभ में है
    केवल किसान को छोड़कर।
    कठिन लगता है उसे
    अपने अधिकारों से लड़ना।
    आसान लगता है उसे
    दो घड़ी मौत से छटपटाना।।

    सारा दृश्य देख,जान
    मैं नहीं इस बात से अनजान।
    इस जग में
    पत्थर सा नहीं खुशनसीब
    कृषक मेरा भगवान।

    रचनाकाल:-२६दिस.१८,२:५०

    ✍मनीभाई”नवरत्न”

    कविता 33 शादी एल्बम 

    रचनाकाल :- २२दिसम्बर २०१८,६ बजे

    आज ना जाने , मन ने
    शादी एल्बम देखने की लालसा की।
    मैंने वक्त की दुहाई दी
    पर वो माना नहीं।
    एल्बम देखते ही लगा लिया
    जिन्दगी की रिवर्स गियर
    और रोका ऐसी जगह
    जहां मुझे मिले
    हंसते चिढ़ाते मेरे दोस्त।
    ना जाने कहां खो गये थे
    जीवन के आपाधापी में।
    या मैंने ही
    मुंह फेर लिया था उनसे
    चूंकि अक्सर बदल जाते हैं लोग
    जिनकी शादी हो जाती है।
    इस पल सजीव हो उठा हूं
    बहुत दिनों बाद
    लबों की टेढ़ी नाव बह रही है
    यादों के समन्दर में।
    अचानक आती है कहीं से आंधी
    और छा जाती है गहरा सन्नाटा
    यारों से बिछड़ जाने के ग़म से
    लहरें टकराकर छलक जाती है
    पलकों के किनारे से
    नदी बह जाती है
    सुर्ख गालों के मैदान में।
    ये जीवन अजीब रंगमंच है
    जहां हम व्यस्त हैं
    अनेकों किरदार की भूमिका में।
    जहां कोई रिटेक नहीं,
    भावी सीन का पता नहीं
    मैं अपने फिल्म का हीरो।
    यादों के दलदल में और फंसता
    इससे पहले कि
    मेरी हीरोइन की आवाज आई
    “काम पे नहीं जाना क्या?”
    और मैं खड़ा हो गया
    अगली शूटिंग में जाने को
    नये किरदार निभाने को।।

    ✍मनीभाई”नवरत्न”

    कविता 34 काव्य विषय की विराटता

    ये काव्य युग,
    सम्मान का युग है।
    चलो अच्छी बात है।
    हमें खुशी है
    एक कवि के होने के नाते,
    समाज के कुछ तो काम आते।
    पर ध्यान रहे ,
    सारा श्रेय मुझे ही लेना बेमानी है।
    चूंकि सम्मान की पीछे
    और भी कहानी है।
    कंगूरा सा कवि लालायित है
    चमकने को जमाने में।
    नींव सा रचना
    अभी भी छटपटा रही है
    पहचान पाने में।
    बिन नींव के कंगूरे की
    एक अधूरी दास्तां है।
    कवि का वजूद भी तो
    कविता से ही वास्ता है।
    और कविता का वास्ता
    ईश्वर, प्रकृति से,
    सामाजिक रीति से।
    दीन-हीन की दशा से
    मौसम-रंग-दिशा से।
    कवि तो बौना है
    उस अर्जुन की भांति
    जो यह समझ लेता
    कि महाभारत युद्ध
    अपने दम पर जीता।
    जानके अनजान रहता
    काव्य विषय की महत्ता
    उसका विराट स्वरूप।

    ✍मनीभाई”नवरत्न”

    कविता 35 भारत !तुझे आज तय करना है

    भारत !तुझे आज तय करना है ।
    किस दिशा में उड़ान भरना है ?

    अपने पूरब में सूरज उगे,
    और पश्चिम में ढल जाता है ।
    अब तू ही बता ,
    पश्चिमी रीतियों में क्यों ढलना है ?
    भारत !तुझे आज तय करना है ।।

    तेरा संस्कृति ही तेरा अस्तित्व ,
    जिसमें बसी सभ्यता का सौंदर्य ।
    फिर पाश्चात्य को विकसित मान ,
    संस्कृति का अपमान क्यों करना है?
    भारत !तुझे आज तय करना है ।।

    पवित्र संस्कारों की ओढ़नी बिन
    आभूषणों की श्रृंगार होता है अधूरा ।
    तो फिर नवीनता के चक्कर में
    अपनी लोक मर्यादा क्यों खोना है ?
    भारत !तुझे आज तय करना है ।।

    माना सच का आसमान देखना है
    तो खुला मैदान जाना ही होगा ।
    पर जग में मानवता पाने को ,
    हे भारत! तुझे भारत पर ही आना है।
    भारत !तुझे आज तय करना है ।
    किस दिशा में उड़ान भरना है ?

    ✍मनीभाई”नवरत्न”

    कविता 36 संघर्ष और सुरक्षा

    दो नन्हें नन्हें पौधे, पास-पास में थे उगे।
    एक दूजे के सुख-दुख में ,सदा से  लगे।

    एक दिन आई जंगल में भीषण आंधी।
    चंद वृक्ष ही बच पाये, उखड़ गए बाकी।

    दोनों पौधों को अबसे ,होने लगा था डर।
    यहीं जमें रहे तो एकदिन,जायेंगे बिखर।

    एक  बोला -“नियति पर अपना वश नहीं।
    मेहनत से जड़ें मजबूत करें, यही है सही।”

    दूसरा पौधा यह सुनके जोर जोर से हंसा ।
    उसको अपने शक्ति पर, नहीं था भरोसा ।

    बोला-“बेहतर होगा, ढूंढले सुरक्षित स्थान ।
    बड़े वृक्ष के बीच रहे तो, बची रहेगी जान।”

    पहला बोला- “मैं करूंगा सच  का सामना ।
    सुरक्षा में जीने से श्रेष्ठ ,संघर्ष में मर जाना।”

    मतभेद हो जाने से, टूट गई उनकी मित्रता।
    एक घने वन के बीच, दूजा खुला में रहता ।

    खुली हवा में सहता, वह रोज हवा थपेड़े ।
    होती बारिश बौंछारें और तेज सूर्य किरणें ।

    पर हार न माना , करता रोज ऊर्जासंचार ।
    जीवन में  चुनौती, कर चुका था स्वीकार ।

    जीत लेकर आती ,जीवन में हरेक चुनौतियां।
    आत्मविश्वास बढ़ाये,और आंतरिक शक्तियां।

    विकासयात्रा में पौधा,एक दिन वृक्ष बन गया ।
    उसी जगह में मजबूत होके ,अडिग तन गया ।

    दूजे पौधे को मिली, माना जंगल की सुरक्षा ।
    हवा तेज धूप न पाये, रह गया बीमार बच्चा ।

    कहीं हम तो नहीं चाहते,ऐसी सुरक्षा घेराव ।
    बिना संघर्ष किये हो जाये, खुद का बचाव।

    मानव जीवन को होना पड़ेगा संघर्ष प्रधान।
    वरना रह जायेंगे , अपने शक्ति से अनजान।

    सुरक्षा की खोज, हमें बना देती है कमजोर।
    सब आसान हो जाएगा, जब लगायेंगे जोर।

    ✍मनीभाई”नवरत्न”

    कविता 37 ये कैसा संसार है ?

    इस दुनिया में कोई लाचार है,कोई बेकार है ।
    यहां रोटी के लिए ,मरने मारने को तैयार हैं ।
    ये कैसा संसार है ?

    इस भीड़-भाड़ जिन्दगी में सबने मेले सजाये,
    यहां अच्छे खासों की आबरू,हुई शर्मशार है।
    ये कैसा संसार है ?
    बनके बहुरूपिया, खेल दिखाये बाजीगर के ,
    असली जिन्दगी में जिनकी,हरओर से हार है।
    ये कैसा संसार है ?

    बड़े जताते छोटों पर ,अपनी मालिकाना हक
    अपनापन कोसों दूर, मतलब का परिवार है।
    ये कैसा संसार है ?
    दिनोंदिन चकाचौंध होता रहा ,मेरा ये शहर
    दिल के कोने तो सबके,फरेब का अंधकार है।
    ये कैसा संसार है ?

    ✍मनीभाई”नवरत्न”

    कविता 38 मुझे तो जीना है

    चलो आज
    हो चलें तन्हा।
    कब से तड़प रहा है,
    कुछ कहने को;
    ये दिल नन्हा।

    शहर से दूर
    सागर किनारे,
    मिलने जाना है खुद से।
    जो पास होके भी होता नहीं
    छू कर आना है
    वजूद से।

    कब तक दौड़ूगां
    आखिर
    किस मंजिल की तलाश है?
    वो सब छोड़ जाना है
    जो भी मेरे पास है।
    तरंगों के जाल में
    मैं महसूस करता हूं
    फंसा हुआ।
    मुझे याद करने हैं
    वो पल
    जब था हंसा हुआ ।

    मेरी रफ़्तार
    रूकती क्यों नहीं
    चाहता हूं थम जाना
    किनारों का मोह टूटा
    मेरी इच्छा-सूची में
    शामिल चुकी है,
    बह जाना।
    क्या ये सूचक है?
    आत्मघात के
    पर मुझे तो जीना है
    वो जिंदगी
    जो अब तक जी न सका हूं।

    ✍मनीभाई”नवरत्न”

    कविता 39 गर हम कहते हैं

    गर हम कहते हैं
    कोई ऊंच-नीच नहीं है।
    तो फिर हम
    डरे क्यों किसी से ?

    सबका सरकार एक है ।
    सबका अधिकार एक है ।
    सबका रिश्ता इंसानियत का
    सबका आधार एक है ।
    गर हम कहते हैं
    भारत माँ के सब बेटे  हैं
    तो फिर
    उलझे क्यूँ  किसी से ?

    सबका भगवान एक है ।
    सबकी मुस्कान एक है ।
    सबकी भावना एक सी
    सबकी जुबान एक है ।
    गर हम कहते हैं
    इस देश के रखवाले हैं ।
    तो फिर
    बँटे क्यों एक दूसरे से ?

    संघ समाज एक है
    रीति रिवाज एक है ।
    एक है रंग रुप भाषा
    वेशभूषा साज एक है ।
    गर हम कहते हैं
    कि हम स्वतंत्र हैं
    तो फिर हम
    दबकर रहे क्यों किसी से?

    आओ भर लें उड़ान।
    देखें हमें सारा जहान।
    स्वयं को लें पहचान।
    देश को करें महान।।

    ✍मनीभाई”नवरत्न”

    कविता 40 मां भारती की बिंदी: हिंदी

    मां भारती के माथे में ,
    जो सजती है बिंदी।
    वो ना हिमाद्रि की श्वेत रश्मियां ,
    ना हिंद सिन्धु की लहरें ,
    ना विंध्य के सघन वन,
    ना उत्तर का मैदान।
    है वो अनायास, 
    मुख से विवरित हिन्दी।
    जननी को समर्पित 
    प्रथम शब्द ‘मां’ हिन्दी ।
    सरल ,सहज ,सुबोध ,
    मिश्री घुलित हर वर्ण में ।
    सुग्राह्य, सुपाच्य हिंदी
    मधु घोले श्रोता कर्ण में ।
    हमारा स्वाभिमान ,भारत की शान ।
    सूर-तुलसी-कबीर-खुसरो की जुबान।
    मिली जिससे स्वतंत्रता की महक।
    विश्वभाषा का दर्जा दूर अब तलक ।
    चलो हिंदी को दिलाएं उसका सम्मान।
    मानक हिंदी सीखें , चलायें अभियान।।

    ✍मनीभाई”नवरत्न”

    कविता 41 ये प्यार भी अजीब

    जमी चलती हुई,
    आसमां की राहों में,
    ढूंढने अपने साथी को ।
    उसे क्या खबर है ?
    अपना हमसफर
    उसी के करीब हो ।

    सारा जग ढूंढा ,
    देखे कई सूरज तारे ।
    मिले ना कोई उसे ,
    जिसपे वो दिल हारे ।
    उसे क्या ख़बर  है ?
    उसकी चंदा ही
    उसी का नसीब हो ।

    जमी देखे सूरज को,
    जिसके आशिक अनेक हैं।
    चंदा देखे जमी को ,
    जिसके इश्क नेक है ।
    जमीन पे क्या असर है ?
    ये प्यार हो भी,
    तो अजीब हो ।

    जमी चलती हुई,
    आसमां की राहों में,
    ढूंढने अपने साथी को ।

    ✍मनीभाई”नवरत्न”

    कविता 42 ये भी मनुस्मृति की देन है

    तथाकथित उच्च वर्ग 
    जवाब मांग रहा है निम्न वर्ग से –
    “रे अछूत!
    तुझे लज्जा नहीं आती 
    आरक्षण के दम पर इतरा रहा है ,
    हमारे हक का खा रहा है 
    तेरी औकात क्या ?
    तेरी योग्यता क्या ?
    भूल गया अपना वर्चस्व ।
    लांघ दी तूने ,
    मनुस्मृति की लक्ष्मण रेखाएं ।
    संविधान कवच ने 
    तुझे उच्छृंखल कर दिया है।
    पैरों की दासी !
    अपने पैर में खड़ा होने की 
    कोशिश मत कर,
    हिम्मत है तो द्वन्द्व कर ।
    आरक्षण का बाना हटाके
    मुझसे शास्त्रार्थ कर।”
    व्यंग्य बाणों से जख्मी 
    तथाकथित दलित ने प्रत्युत्तर दिया –
    “हे उच्चकुलीन श्रेष्ठ !
    तू ब्रह्मा के मुख से पैदा हुआ है
    तेरे श्रीमुख से कुटिल बातें 
    शोभा नहीं देती ।
    तूने कहा कि जातियां जन्मजात है 
    हमने मान लिया।
    फिर कहा प्रत्येक जाति के वर्ग है 
    हमें स्वीकार लिया।
    जनसेवा करके 
    अपना सौभाग्य माना 
    नवनिर्माण कर ,
    जग का श्रृंगार किया
    अति प्राचीन ,
    भारतीय संस्कृति को आधार दिया।
    तूने सामाजिक नियमों में बांधा
    जी भर शोषण किया ।
    कभी धर्म ,कभी ईश्वर का भ्रम 
    फैला कर भयभीत किया ।
    नियम तूने लचीला रखें ,
    जब अपनी स्वार्थ पूरी करनी थी 
    हमने जब सीमाएं तोड़ी
    तो नर्क का दंड विधान किया 
    खुशकिस्मत हैं 
    जो बाबा ने संविधान बनाया 
    दलित अपने विकास के लिए 
    एक अवसर को पाया ।
    कष्ट तुम्हें इस बात की है कि 
    हमने ज्ञानामृत चखा
    वर्षों से छीना गया 
    अधिकार को परखा ।
    आज तुम्हें तकलीफ क्यों ?
    हम क्यों सेवाक्षेत्र में आरक्षित हैं 
    तो सुन कुलश्रेष्ठ !
    सेवाक्षेत्र शूद्र के लिए हो,
    ये भी मनुस्मृति की देन है।”

    ✍मनीभाई”नवरत्न”

    कविता 43 सख्त कार्यवाही हो

    अब बस भी करो वह चर्चे 
    जिसमें नेता की वाहवाही हो ।
    जो रक्षक भक्षक बन जाए,
    उस पर सख्त कार्यवाही हो ।।

    बेटी विकास की बातें ,
    देश में नारा बनके रह गया।
    इज्जत लूट ली दरिंदे ने 
    आंचल जलधारा लेके बह गया ।
    पकड़े गए हैं व्यभिचारी 
    पर कब उन पर सुनवाई हो ।
    जो रक्षक भक्षक बन जाए,
    उस पर सख्त कार्यवाही हो ।।

    जिस्मफरोशी का धंधा ,
    देश संस्कृति को ले डूबेगा ।
    फिर किसपे इतराओगे 
    जब जग में बदनामी चुभेगा।
    हाथ पे हाथ धरे  ना बैठो 
    कि आनेवाला कल दुखदाई हो।
    जो रक्षक भक्षक बन जाए, 
    उस पर सख्त कार्रवाई हो ।।

    छापे मारो देश का कोना,
    जहां ऐसे जुल्म पलते हैं ?
    क्या ऐसे गोरखधंधे भी,
    नेताओं के दम से चलते हैं ?
    नहीं तो फिर, क्यों ठंडा खून 
    जैसे राज़ की बात दबायी हो
    जो रक्षक भक्षक बन जाए, 
    उस पर सख्त कार्रवाई हो ।।

    ✍मनीभाई”नवरत्न”

    कविता 44 पिता की अहमियत


    एक अव्वल दर्जे का युवक
    नेक और होशियार ।
    नौकरी पाने की चाहत में
    देने पहुंचा साक्षात्कार ।।

    कंपनी डायरेक्टर ने पूछा
    युवक का अध्ययनकाल ।
    कैसे पढ़ाई में की ,
    उसने ढेर सारे कमाल ।।

    बिन छात्रवृत्ति के गुदड़ी के लाल ,
    कैसे हुआ शिक्षा से मालामाल?
    जानने को वह पूछा ,
    उसके पिता का हालचाल ।।

    युवक ने बताया
    वह है धोबी का बेटा ।
    पर पिता ने उसको ,
    अपने काम में नहीं समेटा।

    डायरेक्टर ने जानकर
    देना चाहा जिंदगी का सबक।
    पहले छुके आओ हाथ पिता का,
    तब मिलेगा नौकरी पे हक।

    घर पहुंचते ही हँसती आंखें
    झरझर बहने लगे।
    पुत्र के भविष्य खातिर
    पिता के रेगमाल हथेली
    संघर्ष गाथा कहने लगे ।।

    युवक को एहसास हुआ
    आज पहली बार।
    बिन व्यवहारिक ज्ञान के
    सैद्धांतिक है बेकार ।।

    ना बन पाता
    आज वह इतना काबिल ।
    पिता के संघर्ष बिन ,
    कुछ होता ना हासिल ।।

    डायरेक्टर ने पहले ही दिन
    भर दी भावी मैनेजर में काबिलियत।
    जानो तुम भी संघर्ष और
    त्यागमूर्ति पिता की अहमियत।।

    ✍मनीभाई”नवरत्न”

    कविता 45 देश मांग रहा बलिदान


    ये देश तुझे ,मांग रहा बलिदान ।
    चीत्कार सुनके जाग जा इंसान ।

    भेदभाव बढ़ रहे जन-जन में ।
    बँट गए हैं बन अमीर फकीर ।
    मां ना चाहेगी, बच्चों में ये ,
    जानो रे तुम ,मां की पीर ।

    भ्रष्टाचार का है बोल बाला
    और मजे लूट रहे बेईमान।।
    समझते हैं जो खुद को  सेवक
    असलियत में है स्वार्थ की खान ।

    अब स्वार्थ छोड़ दे बंधु,
    परमार्थ पर लगा जरा ध्यान ।
    एकजुट होकर फिर से पा ले 
    भारत मां का सम्मान।

    पाई नहीं हमने पूरी आजादी ,
    क्या पालन होता अपना संविधान?
    नेताओं की सांत्वना बस 
    कब बदलेंगे ये अपनी जुबान ?

    छुपी रहती विरोध व क्रांति में 
    प्रगति, खुशहाली और अमन ।
    छोड़कर अपनी भेड़चाल तू 
    ढूंढ ले सच्चाई का दामन।

    दगाबाजों की सभा में ,
    सच को करें मतदान ।
    तभी बन सकता है 
    हमारा भारत महान।।

    ✍मनीभाई”नवरत्न”

    कविता 46 इनसे सीखें

    सुबह जल्दी उठती है
    इसी बहाने कि
    मुझे आराम मिले
    और आराम मिलती है
    हमेशा की तरह रात को
    सुबह का नाश्ता
    दोपहर का लंच से
    होते हुए रात का डिनर
    अपना ख्याल ,
    बेबी की परवरिश से लेकर
    परिवार वालों का फिक्र ।
    कौन सी चीजें कहां है
    किसको कब करना है
    किसको क्या कहना है
    सब है पता लेकिन कहती नहीं
    ना जाने क्यों रखती है बोझ
    अपने दिल पर ।
    अपनी जिंदगी को सिमटा दी है
    किचन में बेडरुम में और घर में
    कुछ मांगे हैं उनकी पर
    प्यार के आगे सब फीके ।
    हम भी इनसे प्रेम, त्याग
    जिम्मेदारी की परिभाषा सीखें।

    ✍मनीभाई”नवरत्न”

    कविता 47 चमकीले मोती

    ये पानी नहीं ,
    चमकीले मोती हैं।
    बारिश होते देखा तो होगा ?
    ये पानी नहीं,
    अमृत की बूंदें हैं ।

    तूने प्यास कभी बुझाया तो होगा?
    ये पानी प्रभु का प्रसाद है।
    इस पानी में जीने का स्वाद है।
    धरा पर अमूल्य ये,
    पर है सबसे कीमती।
    बेरंग होकर भी,
    खुशियों के सारे  रंग भरती।

    कलकल छलछल
    सात सुरों के सरगम
    जीवन के हर संगीत
    संजोए हुये बहती।
    जड़ होते हुए चेतनायुक्त
    बेजुबान होते हुए भी
    आगाह करती हमको।
    कभी सूखा, कभी बाढ़
    समन्दर की लहरों से बताती
    मानव को उसका अस्तित्व।

    ✍मनीभाई”नवरत्न”

    कविता 48 मैं भी किसान

    मेरी कलम ,
    ये मेरा हल ।
    मेरे कागज,
    ये मेरे खेत ।
    जलता लैंप
    बना सूरज ।
    स्याह की धारा ,
    सींचे कोना कोना।
    करता हूं खेती ,
    भावों की ,विचारों का ।
    हां! मैं भी किसान,
    पर किसका पेट भर सका ?
    औरों का ?
    खुद का ?

    मनीभाई “नवरत्न”, बसना, छत्तीसगढ़

    कविता 49 अकेला वारिस

    मैं हूं अपनी राहों का ,
    अकेला वारिस।
    ठहरू कहीं ना ,
    धूप हो चाहे बारिश।
    मेरा रिश्ता ना किसी से
    मेरी मंजिल, मेरी चाहत,
     मेरी ख्वाहिश ।

    ढूंढ रहा हूं खुद को मैं
    मेरी पहचान जाने कहां मिले?
    वहां तक चलूं ,
    गिर संभलू
    जिस ओर सपनों का जहां मिले।
    संग-संग मेरे हौसला रहे
    संग-संग मेरा ईश।
    मैं हूं अपनी राहों का ,
    अकेला वारिस।

    सांसें जब तक चले,
    जिंदगी पर कर्ज है ।
    मुट्ठी में भर लूं आसमां
    यही तो मेरा फर्ज है ।
    हौले-हौले जल रहा  मैं
    आग से हो रही,
     मेरी परवरिश ।
    मैं हूं अपनी राहों का ,
    अकेला वारिस।

    ✍मनीभाई”नवरत्न”

    कविता 50 अभी और बची स्याही है

    अभी और कोरे कागज है
    अभी और बची स्याही है ।

    अभी  बचा है शब्दों का खेल,
    अभी और सजेंगे भावों का मेल ।
    अभी जीवन नहीं हुई आधी,
    अधूरा सफर किया हुआ राही है ।
    अभी और बची स्याही है ।

    अभी होंगे राजनीति में बवाल
    अभी और होंगे रणनीति में कमाल ।
    अभी सुनाएंगे दुनिया की हाल।
    अभी फिर कुछ दिल ने चाही है
    अभी और बची स्याही है ।।

    अभी चश्मा लगाने के दिन है ।
    करिश्मा दिखाने के दिन है ।
    दिन नहीं हुई लाठी उठाने की।
    अभी हाथों में कलम ही सही है।
    अभी और बची स्याही   है।।

    ✍मनीभाई”नवरत्न”

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  • डिजेन्द्र कुर्रे कोहिनूर के मुक्तक कविता

    डिजेन्द्र कुर्रे कोहिनूर के मुक्तक कविता

    kavita

    मुक्तक – बदरिया की घटाओ सी

    बदरिया की घटाओ सी ,तेरी जुल्फें ये कारे है
    तेरे माथे की बिंदिया से, झलकते चाँद तारे है
    कभी देखा नहीं हमने, किसी चंदा को मुड़ मुड़ के
    मगर पूनम तेरी आँखों में,हमने दिल ये हारे है

    गैरों से तेरा मिलना, मुझे तिल तिल जलाता है
    मगर फिर भी मेरा ये दिल, तेरा ये गीत गाता है
    तड़पता हूँ तुझे पाने को सपनों में भी जानेमन
    चले आना मेरी पूनम , तुझे ये दिल बुलाता है

    मेरे दिल में तेरे ही प्यार, का पूनम बसेरा है।
    उजाला तू ही मेरी है, तेरे बिन सब अंधेरा है।
    समझना मत कभी मुझको,पराया दूर का कोई।
    प्रिया इतना समझ लेना,ये कोहिनूर तेरा है।
    ★★★★★★★★★★★★★★★★★
    डिजेन्द्र कुर्रे”कोहिनूर”

    मुक्तक – वहीं तो राह है मेरी

    तू मंजिल बन जहाँ बैठी,वहीं तो राह है मेरी ।
    तेरा ही प्यार मैं पाऊँ, यहीं तो चाह है मेरी।
    तेरे बिन मैं अधूरा हूँ, अधूरे है सभी सपने।
    मेरे जीवन की नैय्या में, तु ही मल्लाह है मेरी ।

    तुझे देखूँ तो लगता है,मोहब्बत की तू मूरत है।
    तेरे बिन मैं कहाँ कुछ भी,तू ही मेरी जरूरत है।
    सभी कहते है मुझको,यार तेरी दिलरुबा हमदम।
    नगीनों से भी बढ़कर के,बहुत ही खूबसूरत है।

    मुक्तक – चुलबुल परी


    न कभी ओ झुकी,न किसी से डरी।
    बोल उसके ज्यों बजने लगी बाँसुरी।
    पापा कह-कह मुझे जो प्रफुल्लित करे,
    मेरे बगिया की कोमल सी चुलबुल परी।

    तेरी पैजनिया से,स्वर की बरसात हो।
    मन को शीतल करे,तुम वही बात हो।
    दिखता इंद्रधनुष , तेरी मुश्कान में।
    तुम ही दिन हो मेरी,और तुम्ही रात हो।

    मुक्तक – पूनम

    कमर पतली बदन गोरा,घटा सी बाल है तेरी।
    मधुर बोली है कोयल सी,गुलाबी गाल है तेरी।
    तेरे नैना ये कजरारे,मुझे पागल बनाती है।
    जवानी हुस्न के धन से,ये मालामाल है तेरी।

    बुलाने को मुझे हमदम,कभी पायल बजाती हो।
    चलाकर तीर नैनों से,मुझे हमदम रिझाती हो।
    मगर बाहों में भरने को,ये मन बेताब होता है।
    प्रिये पूनम नहीं क्यूँकर, मेरे तुम पास आती हो।

    दीवाना बन गया हूँ मैं,तेरी चंचल अदाओं का।
    तेरे तन को चले छूकर,उन्हीं महकी हवाओं का।
    तेरे होठों को मैं चूमूँ , सदा बेताब रहता हूँ।
    है चाहत मेरे इस मन को,तेरी भी आशनाओ का।

    मेरी पूनम तेरे दिल में,समाके मर गया हूँ मैं।
    तेरी ही नाम में अब तो,ये जीवन कर गया हूँ मैं।
    बहुत बिगड़ा हुआ था मैं,मगर जब से मिली हैं तू।
    तुझे पाने के चक्कर में,बहुत ही सुधर गया हूँ मैं।

    तेरे हाथों को सहलाकर,ऐ पूनम थाम लूँगा मैं।
    बुलाऊँगा इशारों से , नहीं अब नाम लूँगा मैं।
    हमारे प्यार को कोई ,ना कोई जान पायेगा।
    समझदारी से जानेमन,सभी अब काम लूँगा मैं।
    ★★★★★★★★★★★★★★★★★

    डिजेन्द्र कुर्रे “कोहिनूर”

    मुक्तक -प्यार

    मेरे दिल में बसी यादें, सुबह से शाम तेरे है।
    लबो पर सिर्फ ऐ पूनम,बस इक ही नाम तेरे है।
    तुझे देखूँ तुझे चाहूँ, तुझे पूजू हर एक पल।
    नहीं इससे बड़ा दुनिया में,कुछ भी काम मेरे है।

    मेरे दिल में भी कुछ लिख दे,मैं एक किताब कोरा हूँ।
    मधुर लोरी अगर है तू , तू मोहक मैं भी लोरा हूँ।
    नहीं मैं कम किसी भी बात में ,तुझसे मेरी हमदम।
    तू गर पूनम है रातों की,तो मैं भी इक चकोरा हूँ।

    तेरी कंगन की खन-खन में,खनकता प्यार है मेरा।
    तुझे गर जीत मिल जाए , समर्पित हार है मेरा।
    शिवा तेरे बिना पूनम , नहीं कुछ सूझता मुझकों।
    तेरे पल्लू के साये में , सुखद संसार है मेरा।

    डिजेन्द्र कुर्रे “कोहिनूर”

    मुक्तक – तुम्हारे बिन मैं रातों को

    तुम्हारे बिन मैं रातों को,तड़प कर आहें भरता हूँ।
    तेरी यादों की गलियों में,मैं रुक रुक कर गुजरता हूँ।
    नहीं कुछ सूझता मुझकों,तेरे बिन आज दुनिया में।
    मैं प्यासा हूँ मेरी पूनम,तुम्हीं से प्यार करता हूँ।

    निगाहें जब उठाती हो,खिली इक बाग लगती हो।
    जो रहती हो कभी गुस्सा में,भड़की आग लगती हो।
    मगर हमदम इशारों में,मुझे जब जब बुलाती हो।
    महकता सुर्ख कोमल सा,प्रेम गुलाब लगती हो।

    किसी मंदिर की मूरत सी,तेरी सूरत ये पावन है।
    तेरी बोली मधुर मुझको,सदा लगती सुहावन है।
    तेरे कदमों में कोहिनूर,तन मन हार बैठा है।
    तू मिल जाए अगर मुझको,वहीं घनघोर सावन है।

    दीवाना हूँ उजालों का,नहीं अंधियार चाहूँ मैं।
    दुखों से दूरियाँ नित हो,सदा सुखसार चाहूँ मैं।
    ना मुझसे दूर होना तुम,तेरे बिन मर ही जाऊँगा।
    मेरी पूनम जनम भर का,तेरा ही प्यार चाहूँ मैं।

    बड़ा प्यारा है हर इक पल,मेरे जो पास रहती हो।
    मैं उड़ जाता हूँ अम्बर में,मुझे हम दम जो कहती हो।
    तेरे बिन मैं नहीं कुछ भी,तुम्ही हो दिल की धड़कन में।
    लहू की धार बनके तुम,मेरे रग रग में बहती हो।

    तुम्ही हमदम मेरा जीवन,मेरे ख्वाबों की रानी हो।
    जो सुख दुख में सदा संग है,मेरे आँखों का पानी हो।
    अधूरा हूँ तेरे बिन मैं, नहीं जी पाऊँगा जग में।
    मेरे जीवन के पथ में प्रेम की ,तुम ही कहानी हो।

    डिजेन्द्र कुर्रे”कोहिनूर”