आ बैठे उस पगडण्डी पर – बाबू लाल शर्मा
आ बैठे उस पगडण्डी पर,
जिनसे जीवन शुरू हुआ था।
बचपन गुरबत खेलकूद में,
उसके बाद पढ़े जमकर थे।
रोजगार पाकर हम मन में,
तब फूले ,यौवन मधुकर थे।
भार गृहस्थी ढोने लगते,
जब से संगिनी साथ हुआ था।
आ बैठे उस पगडण्डी पर
जिनसे जीवन शुरू हुआ था।
रिश्तों की तरुणाई हारी,
वेतन से खर्चे रोजाना।
बीबी बच्चों के चक्कर में,
मात पिता से बन अनजाना।
खिच खिच बाजी खस्ताहाली,
सूखा सावन शुरू हुआ था।
आ बैठे उस पगडण्डी पर,
जिनसे जीवन शुरू हुआ था।
बहिन बुआ के भात पेच भर,
हारे कुटुम कबीले संगत।
कब तक औरों के घर जीमेंं,
पड़ी लगानी मुझको पंगत।
कर्ज किए पर मिष्ठ खिलाएँ।
गुरबत जीवन शुरू हुआ था।
आ बैठे उस पगडण्डी पर,
जिनसे जीवन शुरू हुआ था।
बाबू लाल शर्मा, बौहरा