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यहाँ पर हिन्दी कवि/ कवयित्री आदर०उपमेंद्र सक्सेनाके हिंदी कविताओं का संकलन किया गया है . आप कविता बहार शब्दों का श्रृंगार हिंदी कविताओं का संग्रह में लेखक के रूप में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका अदा किये हैं .

  • कबाड़ पर कविता -उपमेंद्र सक्सेना

    कबाड़ पर कविता -उपमेंद्र सक्सेना

    kavita-bahar-hindi-kavita-sangrah

    सब हुआ कबाड़ था,भाग्य में पछाड़ था
    रास्ता उजाड़ था, सामने पहाड़ था।

    छल- कपट हुआ यहाँ, सो गए सभी सपन
    कर दिया गया दहन, मिल सका नहीं कफ़न
    पास के बबूल ने ,दी जिसे बहुत चुभन
    बेबसी दिखा रही, है यहाँ विचित्र फन
    स्वार्थ के कगार पर, त्याग जब गया मचल
    लोभ- लालसा बढ़ी, लोग भी गए बदल
    क्रोध में रहा न बल, भाव बस गए उबल
    साथ जो रहे कभी, गैर बन करें दखल
    हो रहा बहुत कहर, नीतियाँ बनीं जहर
    प्रेरणा गई ठहर, रुक गई नई लहर
    चुप हुए सभी पहर, सूखने लगी नहर
    रात भी उठी सिहर, हो सकी नहीं सहर

    खाट के नसीब में, अब नहीं निबाड़ था
    जेल के कपाट पर, लिख दिया तिहाड़ था।
    सब हुआ कबाड़….

    लग रही बहुत थकन, न्याय का हुआ दमन
    और बढ़ गई घुटन, जो नहीं हुई दफ़न
    सुख हुए सभी हिरन ,टीस की बढ़ी तपन
    जल उठा यहाँ चमन, किस तरह बने अमन
    भाग्य के विधान में, जब विडंबना बदी
    वक्त के पड़ाव पर, फिर सिसक उठी सदी
    डाल भाव की झुकी, वेदना जहाँ लदी
    हो रहा नहीं उचित, आँख से बही नदी
    आश की किरण ढले, जो हमें बहुत खले
    लाभ जो उठा गए, तिकड़मी बने भले
    वे कुटिल हुए यहाँ, काटते मिले गले
    योग्यता हुई विवश,हाथ आज वह मले

    जो लताड़ से जुड़ा, काम का न लाड़ था
    सत्य का हुआ यहाँ, खूब चीड़-फाड़ था।
    सब हुआ कबाड़…..

    रचनाकार- उपमेंद्र सक्सेना एडवोकेट

  • एक पड़ोसन पीछे लागी – उपमेंद्र सक्सेना

    एक पड़ोसन पीछे लागी


    आज लला की महतारी कौ, अपुने मन की बात बतइहौं
    एक पड़ोसन पीछे लागी, बाकौ अपुने घरि लै अइहौं।

    बाके मारे पियन लगो मैं, नाय पियौं तौ रहो न जाबै
    चैन मिलैगो जबहिं हमैं तौ, सौतन जब सबहई कौ भाबै
    बाके एक लली है ताको, बाप हमहिं कौ आज बताबै
    केतो अच्छो लगै हियाँ जब, लला-लली बा खूब खिलाबै

    सींग कटाए बछिया लागै, ताकी हाँ मैं खूब मिलइहौं
    एक पड़ोसन पीछे लागी, बाकौ अपुने घरि लै अइहौं।

    बा एती अच्छी लागत है, पीछे मुड़ि- मुड़ि कै सब देखैं
    बहुतेरे अब लोग गली के, हाथ- पैर हैं अपुने फेंकैं
    हम जैसे तौ रूप देखिके, बाके आगे माथो टेकैं
    अच्छे-अच्छे लोग हियाँ के, उसै ध्यान से कभी न छेकैं

    काम बिगारै कोई हमरो, बाके घरि मैं आग लगइहौं
    एक पड़ोसन पीछे लागी,बाकौ अपुने घरि लै अइहौं।

    बाकौ खसम लगत है भौंदू, नाय कछू बाके लै लाबै
    हट्टन -कट्टन कौ बा ताकै, मन – मन भाबै मुड़ी हिलाबै
    बनै लुगाई आज हमारी, बहुतन के दिल खूब जलाबै
    खसम जु बोलै बाको हमसे, गारी दैके दूरि भगाबै

    कछू न होय कमी अब घरि मै, जनम- जनम को साथ निभइहौं
    एक पड़ोसन पीछे लागी, बाकौ अपुने घरि लै अइहौं।

    रचनाकार -✍️उपमेंद्र सक्सेना एडवोकेट
    ‘कुमुद -निवास’
    बरेली (उ.प्र.)

  • निर्धन पर अत्याचार – उपमेंद्र सक्सेना



    आज यहाँ निर्धन का भोजन, छीन रहा धनवान है
    हड़प रहा क्यों राशन उनका, यह कैसा इंसान है।

    हमने देखा नंगे भूखे, राशन कार्ड बिना रहते हैं
    हाय व्यवस्था की कमजोरी, जिसको बेचारे सहते हैं
    जिसने उनका मुँह खोला है, वह खुद उनका पेट भरेगा
    अनुचित लाभ उठाने वालों, न्याय स्वयं भगवान करेगा

    जो सक्षम है आज किसलिए, करता वह अभिमान है
    तरस नहीं आता है जिसको, मानो वह हैवान है।
    आज यहाँ निर्धन का….

    खाता बिना मिले क्यों पैसा, सूनी उनकी रहे रसोई
    वे केवल बदनाम हो गए, लाभ उठाता इससे कोई
    हम दु;ख- दर्द समझ सकते हैं, उनको अपना कह सकते हैं
    भोले- भाले नन्हे बच्चे, कब तक भूखे रह सकते हैं

    तन- मन- धन से लगा हुआ जो, गुपचुप देता दान है
    भूखे को भोजन करवाता, समझो वही महान है।
    आज यहाँ निर्धन का…..

    बनी योजनाएँ जितनी भी, उतने ही मिल गए बहाने
    आयुष्मान कार्ड को भी क्यों,लगे लोग तिकड़म से पाने
    कार्ड नहीं है जिस निर्धन पर, बीमारी में यों ही मरना
    पैसा पास नहीं है तो फिर, उसे मौत से भी क्या डरना

    नहीं झोपड़ी भी नसीब में, छत केवल अरमान है
    सत्ता चाहे कोई भी हो, दुरुपयोग आसान है।
    आज यहाँ निर्धन का….

    रचनाकार -✍️उपमेन्द्र सक्सेना एडवोकेट
    ‘कुमुद -निवास’

  • होबै ब्याहु करौ तइयारी – उपमेंद्र सक्सेना

    होबै ब्याहु करौ तइयारी


    चलिऔ संग हमारे तुमुअउ, गौंतर खूब मिलैगी भारी
    राम कली के बड़े लला को, होबै ब्याहु करौ तइयारी।

    माँगन भात गई मइके बा, लेकिन नाय भतीजी मानी
    बोली मौको बहू बनाबौ, नाय करौ कछु आनाकानी
    जइसे -तइसे पिंड छुड़ाओ, खूबै भई हुँअन पै ख्वारी
    राम कली के बड़े लला को, होबै ब्याहु करौ तइयारी।

    पहिना उन कौ भात बाइ के, भइया औ भौजाई आए
    टीका करिके बाँटे रुपिया, घरि बारिन कौ कपड़ा लाए
    गड़ो- मढ़ौ फिरि लगी थाप, बइयरबानी देउत हैं गारी
    राम कली के बड़े लला को, होबै ब्याहु करौ तइयारी।

    बाके घरै लगुनिया आए, ढोलक बजी लगुन चढ़बाई
    बाने पहिले ऐंठ दिखाई, खूबै रकम हाय बढ़बाई
    पइसा मिलै बाय कौ तौ बस, होय बहुरिया केती कारी
    राम कली के बड़े लला को, होबै ब्याहु करौ तइयारी।

    दाबत होय बँटैगो खूबइ, हियाँ कुल्लड़न मै सन्नाटा
    आलू भरिके बनैं कचौड़ी, हलबाइन ने माढ़ो आटा
    गंगाफल आओ है एतो,बनै खूब बा की तरकारी
    राम कली के बड़े लला को, होबै ब्याहु करौ तइयारी।

    नैकै दूर बरात जायगी, खूब बराती नाचैं- गाबैं
    घोड़ी पै बइठैगो दूल्हा, जीजा बा के पान खबाबैं
    निकरौसी जब होय कुँआ पै,पाँय डारि बइठै महतारी
    राम कली के बड़े लला को, होबै ब्याहु करौ तइयारी।

    रचनाकार ✍️उपमेंद्र सक्सेना एडवोकेट
    ‘कुमुद- निवास’, बरेली (उत्तर प्रदेश)

  • जब विपदा आ जाए सम्मुख – उपमेंद्र सक्सेना

    जब विपदा आ जाए सम्मुख



    जिसका साथ निभातीं परियाँ, मनचाहा सुख पाता है
    जब विपदा आ जाए सम्मुख, कोई नहीं बचाता है।

    क्या है उचित और क्या अनुचित, बनी न इसकी परिभाषा
    दुविधा में जो फँसा कभी भी, टूटी उसकी अभिलाषा
    जिसका मन हो लगा गधी में, वह उसको अपनाता है
    जब विपदा आ जाए सम्मुख, कोई नहीं बचाता है।

    उधर खूब पैसा ही पैसा, और इधर है कंगाली
    आज योग्यता भरती पानी, देखें इसकी बदहाली
    तिकड़म से जो पनप गया वह, अपनी धाक जमाता है
    जब विपदा जाए सम्मुख, कोई नहीं बचाता है।

    व्यर्थ हुई साहित्य- साधना, चलती अब ठेकेदारी
    अगर माफिया साथ लगा हो, पड़ता वह सब पर भारी
    मानवता से उसका कोई, दिखता कहीं न नाता है
    जब विपदा आ जाए सम्मुख, कोई नहीं बचाता है।

    चाहे कोई अधिकारी हो, नेता हो या व्यापारी
    चार दिनों की सुखद चाँदनी, फिर रातें हों अँधियारी
    मिट्टी का पुतला है जो भी, मिट्टी में मिल जाता है
    जब विपदा आ जाए सम्मुख, कोई नहीं बचाता है।

    खुद अपनी औकात भूलकर, हुआ यहाँ जो अभिमानी
    याद उसे आएगी नानी, करता है जो नादानी
    जो विनम्र होता है वह ही, परम पिता को भाता है
    जब विपदा आ जाए सम्मुख, कोई नहीं बचाता है।

    धन -दौलत, पदवी के बल पर, समझा खुद को तूफानी
    समय बदलता है जब करवट, होती है तब हैरानी
    अंत समय तिकड़म का ताऊ, भी खुद मुँह की खाता है
    जब विपदा आ जाए सम्मुख, कोई नहीं बचाता है।

    रचनाकार-✍️ उपमेंद्र सक्सेना एडवोकेट
    ‘कुमुद- निवास’
    बरेली (उत्तर प्रदेश)