पंछी की पुकार
एक दिन
सुबह-सुबह
डरा-सहमा
छटपटाता
चिचिआता हुआ एक पंछी
खुले आसमान से
मेरे घर के आंगन में आ गिरा
मैंने उसे सहलाया
पुचकारा-बहलाया
दवाई दी-खाना दिया
कुछेक दिन में चंगा हो गया वह
आसमान की ओर इशारा करते हुए
मैंने उसे छोड़ना चाहा
वह पंछी
अपने पंजों से कसकर
मुझे पकड़ लिया
सुनी मैंने
उसकी मूक याचना
कह रहा था वह–
‘एक पिंजरा दे दो मुझे।’
— नरेन्द्र कुमार कुलमित्र
9755852479
कविता बहार से जुड़ने के लिये धन्यवाद
Comments are closed, but trackbacks and pingbacks are open.